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जन्तवः ||३५|| साम्येनैकेन ते सर्वे प्रेमकोपादयोऽखिलाः। पलायन्तेऽविवेगेन दोपा दुष्टा हि योगिनाम् ॥३६॥ ताक्देव हि वैरै ते चिन्ते क्रीडति लीलया। यावन्न साम्यभूपोऽसौ चित्ते तेऽत्र विराजते ॥३७॥ तावद्विकल्पसंकल्पश्चित्ते ते जापति स्वयम् । यावत्साम्यमहानादः कर्मभेत्ता न गर्जति ॥३८॥ तावदेव भयं चिनेऽनिष्टवस्तुसमागमात् । यावद् द्व पहरः साम्यः सुखदाता न राजते ||२६|| तावदेव प्रियं वस्तु चित्ते चेष्टसमागमात् । यावदागहरः साम्यो मोहइन्ता न राजते ॥४०॥ तावच कर्मसंबंधो भवबंधनकारकः । बोधासिना द्विधा भावं साम्यधासा करोति न ॥४१|| दुष्टका वालिदुखदोन पावद्धि समता चित्ते न जागर्ति सुखप्रदान।। समताधिष्ठितं चित्तं शौचं धत्तेऽदिपावनम् । पापर्पक हि धौतं स्यात्स्वयनेव सुखी ततः॥४३॥ मोहपंक नितांतं ते ग्लप यति शिवाध्वनि । सद्यः प्रक्षालयात्मन वं | शांत होगा ॥३४॥ यह समतारूपी अमृतका चन्द्रमा अत्यन्त दुर्लभ है, इसको पाकर ये प्राणी प्रसन्न होते हैं, Kा हर्ष मनाते हैं और परस्पर मित्रता धारण करते हैं ॥३५॥ इस एक समता रससे ही योगियों के प्रेम और
क्रोधादिक समस्त दुष्ट दोष बहुत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥३६|| जबतक तेरे हृदयमें यह समतारूप राजा * विराजमान नहीं होता, तभी तक यह चेर तेरे हृदयम लीलापूर्वक
कीड़ा कर रहा है ॥३७|| ये संकल्प विकल्प | तेरे हृदयमें तभी तक जाग रहे हैं, जबतक कि कर्मोंका नाश करनेवाला समतारूप मदानाद गर्जना नहीं।
करता ॥३८॥ अनिष्ट वस्तुओंसे प्राप्त हुआ भय तेरे हृदय में तभीतक रह सकता है, जबतक कि द्वेषको दूर करनेवाली और सुखको देनेवाली यह समता तेरे हृदयमें नहीं आती ॥३९|| इष्ट पदार्थोसे उत्पन्न हुआ प्रेम तेरे हृदयमें तभीतक रह सकता है, जबतक कि रागको हरण करनेवाली और मोहको नाश करनेवाली समता तेरे | हृदयमें शोभायमान नहीं होती। ४०॥ संसार में बंधन करनेवाला काँका सम्बन्ध तमीतक रहता है, जबतक कि ! | समतारूपी विधाता अपने सम्यम्ज्ञानरूपी तलबारसे उसको टुकड़े टुकड़े नहीं कर डालता ॥४१।। दुःख देनेवाला अनिष्ट कर्मोका आस्रव तभी तक रहता है जब तक कि तेरे हृदयमें सुख देनेवाली समता फुरायमान नहीं | होती ॥४२॥ समतासे भरा हुआ हृदय अत्यन्त पवित्र शौच धर्मको धारण करता है और उसका पापरूपी कीचड़ सब धुल जाता है तथा वह सदाके लिये सुखी हो जाता है ।।४३।। यह मोहरूपी कीचड़ इस मोक्ष| मार्गमे तुझे अत्यन्त दुःख दे रही है। इसलिये हे आत्मन् ! समतारूपी मेघधारासे तू इस कीचड़को शीत्र