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भाग
सु०प्र० १४
दुःखे लामालामे हिताहिते। साम्यं त्वं भज रे आत्मन् मोहान्मा कुरु विक्रियाम् ||२६|| पूजां कुर्वति मक्तेऽस्मिन् । कुर्वत्यरावपि । मुनेः यस्य समं चित्तं लभते स परं पदम् ||२७|| रम्यारम्यपदार्थेषु भोग्याभोग्येषु वस्तुषु । समभावो हि येकी ते योगिनो मोक्षगामिनः ॥२८॥ कश्चिद्धन्धुन ते श्रात्मन् शत्रु स्तीह तेऽथवा । रागद्वेषौ परित्यज्य भज साम्य. सुधारसम् ॥२॥ पवनाच्चंचल चित्तं स्वस्थ याति दिवानिशम् । साम्यशृङ्खलया बद्धं तस्मात्साम्यमुपास्यताम् ||३|| मनो विकारतां कापि तेषां न याति संततम् । रम्यारन्यपदार्थेषु येषां साम्यं समस्ति बा ॥३१|| साम्यमेव हि सत्यं स्यादात्मधर्मः सुखावहः । येन क्लोशभय द्वन्द्वादयो नश्यन्सि ते ध्र वम् ॥३२॥ साम्यपीयूषधाराभिर्बद्धवैराः परस्परम् ! | शाम्यन्ति पापिनी द्वेषतापाजीवाः खतः स्वयम् ॥३३॥ द्वेषतापाच दग्धं ते क्लेशितं मत्सरेण यत् । व्यथितं हीर्षया चित्तं
शाम्यति साम्यधारया ।।३।। साम्यसुधारसं चन्द्र' तं लब्ध्वातीवदुर्लभम् । प्राइादयन्ति हर्षन्ति मैत्री यान्ति च || अपने आत्मामें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न मत कर ॥२६॥ जो मुनि अपनी पूजा करनेवाले भक्त पुरुषमें
और अपनेसे द्वेष करनेवाले वा अपना वध करनेवाले शत्रुमें अपने हृदयको समान रखता है, दोनोंको समान 3 समझता है, वह मुनि परम मोक्ष पदको अवश्य प्राप्त होता है ॥२७|| जिन मुनियोंके परिणाम इष्ट और अनिष्ट पदार्थो में वा भोग्य और अमोग्य पदार्थों में समताको धारण करते हैं, सबको समान समझते हैं; वे मुनि मोक्षको |
अवश्य प्राप्त करते हैं ॥२८|| हे आस्मन् ! इस संसारमें न तो कोई तेरा बन्धु है और न कोई तेरा शत्रु है। | इसलिये तू राग-द्वेषको छोड़कर समतारूपी अमृतरसका पान कर ॥२९।। यह मन वायुसे मी अधिक चंचल || है, यदि इसको समतारूपी सांकलसे बांध दिया जायगा तो यह रात-दिन एक आत्मामें ही नियल हो
जायगा, इसलिये हे आत्मन् ! तू समता भागेकी ही उपासना कर, उन्हींको धारण कर ||३०|| जो मुनि ममता | भाव धारण करते हैं, उनका मन इष्ट वा अनिष्ट पदार्थोंमें कभी भी विकार अवस्थाको नहीं धारण कर सकता | ॥३१।। हे आत्मन् ! यह समता परिणाम ही सुख देनेवाला यथार्थ आत्म धर्म है, इसीसे क्लेश भय आदि समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते हैं ॥३२॥ जो पापी जीव द्वेषरूपी संतापके कारण परस्पर वैर धारण करते हैं, वे मी | समतारूपी अमृतकी धारासे अपने आप शांत हो जाते हैं।॥३३॥ जो तेरा यह हृदय द्वेष और संतापसे दग्ध हो रहा है, मत्सरतासे दुःखी हो रहा है और ईपीसे व्यथित हो रहा है; वह तेरा हृदय समतारूपी अमृतकी धारासे ही
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