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सु० प्र० ॥ ११३ ॥
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निरन्तरम् ॥१८॥ रागद्व ेषौ च यावत्ते मनाकू चित्ते सुतिष्ठतः । तावदात्मन्न शान्ति त्वं लभते गतकल्मषाम् ॥१६॥ श्रीरागं गतद्वेषमात्मन् स्यात्ते सो को परे ज्योदिर्निमाला ॥२०॥ यत्र रागो न तत्रैव रत्नत्रय मर्कटकम् | निर्विकल्पं महाध्यानं स्यादनन्तसुखात्मकम् ||२१|| रागादिपंकनिर्लेपं चित्तं स्यात्ते विशुद्धकम् । तदा sagसम्पत्तिः सुतरां स्यान्न चान्यथा ॥२२॥ आनन्दं परमानन्दं दुःखातीतं च शाश्वतम्। रामदीनेन चित्तेन स्वयं त्वं समवाप्स्यसि ||२३|| साम्यं त्वं भज रे आत्मन् ! सर्वभूतकदम्बके । आत्मनः सदृशं पश्य जीवमात्रं सुभावतः ||२४|| द्वषं कत्तु मा कुर्याः कचिद्रागञ्च मा भज । मा गा द्वे पिषु खेदं त्वं दर्ष मा भज वन्धुषु ||२५|| मित्रे शत्रौ सुसे परपदार्थों में अपने हृदयको परिभ्रमण कराते रहते हैं ||१७|| हे आत्मन् ! तेरे हृदयमें रागके जितने अंश हैं. उतने ही कर्मबन्धा संबन्ध तुझे निरंतर होता रहेगा || १८ || जबतक तेरे हृदय में थोडेसे मी रागद्वेष रहेंगे, तबतक हे आत्मन्! समस्त दोषोंसे रहित शांति तुझे कभी प्राप्त नहीं हो सकती ||१९|| हे आत्मन् ! यदि तेरा मन सर्वथा राग-द्वेष से रहित हो जाय तो तुझे अपने आत्माकी उत्कृष्ट ज्योति शीघ्र ही दिखाई देने लगे ||२०|| जहां पर रागका अभाव होता है, वहींपर बिना किसी विन्न-बाधा के रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाती है और वहीं पर अनन्त सुखको देनेवाला निर्विकल्पक महाध्यान प्राप्त हो जाता है ||२१|| हे आत्मन् ! यदि तेरा हृदय राग-द्वेषरूपी कीचड़से रहित होकर अत्यन्त विशुद्ध हो जाय तो तुझे तेरी अनंत चतुष्टयरूपी अमीष्ट संपत्ति अपने ही आप प्राप्त हो जाय । वह अनन्त चतुष्ट्यरूपी संपत्ति बिना राग-द्वेष के अभाव के अन्य उपायोंसे कभी प्राप्त नहीं हो सकती ॥२२॥ हे आत्मन् ! यदि तेरा हृदय रामरहित हो जाय तो समस्त दुःखोंसे रहित, सदा रहनेवाले परमानन्दरूप आनंदको तू स्वयं प्राप्त हो जायगा ||२३|| हे आत्मन् ! तु समस्त जीवोंमें समता भाव धारण कर और अपने निर्मल परिणामोंसे समस्त जीवोंको अपने आत्माके समान देख ||२४|| हे आत्मन् ! तू किसीसे मी द्वेष मत कर या किसीसे भी राग मत कर, तथा द्वेष करनेवालेसे कभी खेद मत कर और राग करनेवाले बंधुओं में कभी राग मत कर वा प्रसन्न मत हो ||२५|| हे आत्मन् ! तू शत्रुमें, मित्रमें, सुखमें, दुःखमें, लाभ में, हानिमें, हित तथा अहित में अर्थात् सबमें समता भाव धारण कर और मोहसे
सु० प० १५
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