________________ सु०प्र० शोधयन्तु मुनीश्वराः // 2 // प्रसिर मूलसाऽस्मिन् जिनसेनान्वये परे / भीमद्देवेन्द्रकीर्तिश्च यासीन्मनिवरो महान 24|| तस्यैव पट्टशिष्योऽभूत् 'शान्तिसिन्धुर्यतीश्वरः / राजमान्यः सदा पूल्यः सूरिगणसुशोभितः // 24aa तत्पद्दशियो मुषने | प्रसिद्धः सिद्धान्तषेचा वरपाठकोऽत्र / 'सुधर्मसिन्धु'वरधर्मसिन्धुः यसीश्वरोऽसौ जिनलिङ्गधारी // 26 // * इति सुधर्मध्यानप्रवीपालङ्कारस्य अन्तिम मजलं प्रशस्तिश्च समाप्तिमगावाम. कमक // 217 // जो कुछ जिनागमके विरुद्ध लिखा गया हो, उसको सुनिलोग शुद्ध कर लेवें // 23 // इस प्रसिद्ध मूल संघमें | | आचार्य जिनसेनकी परंपरामें महान् मुनिराज श्रीदेवेन्द्रकीर्ति हुए हैं // 24 // उन्होंने पह शिम्य मुनिराज * आचार्य 'श्रीशांतिसागर' हैं, जो कि राज्यमान्य हैं, सदा पूज्य हैं, और अनेक गुणोंसे सुशोमित हैं // 25 // FI उन्हींका पट्ट शिष्य में 'सुधर्मसागर' हूँ. जो कि संसार में प्रसिद्ध है, सिद्धांतका जानकार है, उपाध्यायका काम करता है, श्रेष्ठ धर्मका समुद्र हूँ और जिनलिङ्गको धारण करनेवाला मुनिराज हैं // 26 // इसप्रकार मुनिरोज श्रीसुधर्मसागरविरचित मुधर्मध्यानप्रदीपालाकारका अन्तिम माल और प्रशस्ति समाप्त हुई। 因为光在为名为法名为私为为客 मुद्रक - इमरान ऑफसेट प्रिन्टर्स, इन्दौर