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त्रयोविंशतितमोऽधिकारः ।
भवसन्तानहन्तार वरधर्मप्रकाशकम् । योगीश्वरैः सदा चन्दा नेमिनाथं नमामि तम ।।१।। यो मोहादोनरोन हत्वा रजोविघ्नप्रणाशकः । श्रीमन्समरिहन्तं तं नमामि ध्यानसिद्धये ॥२॥ निर्भयं परमानन्दं स्वतन्त्र स्वास्मसंस्थितम्। चतुष्कघातिकारीन जेतारं नौमि तं जिनम् ।।३।। रत्नत्रयमयश्चात्मा रत्नत्रयमयों जिनः । नन्दाते हि मया भल्या कर्मारि. विजयाजिनः ।।४। तं परमेष्ठिनं देवं त्रिजगत्परमेश्वरम् । सर्वन परमात्मानमहन्तं नौमि तीर्थकम्॥ध्यानेन येन कारि
__ जो नेमिनाथ भगवान् जन्म-मरणरूप संसारकी संतानको नाश करनेवाले हैं, भेष्ठ धर्मको प्रकाशित करनेवाले का है और योगीश्वरों के द्वारा सदा बन्दनीय हैं; ऐसे भगवान् नेमिनाथको मैं नमस्कार करता हूं ॥१॥ जो अरहंत |
भगवान् मोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि शत्रुओंको नाश करनेवाले हैं तथा विनरूप अन्तराय कर्मको | नाश करनेवाले हैं; ऐसे भगवान् अरहंत देवको अपने ध्यानकी सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं ॥२जो अरहंत
देव भयरहित हैं, परमानन्दखरूप हैं, स्वतन्त्र हैं, अपने आत्मामें स्थिर हैं और चारों घातक कर्मरूपी शत्रुओं-- E को जीतनेवाले हैं, ऐसे जिनेन्द्रदेव मगवान् अरहंतदेवको मैं नमस्कार करता है ॥३॥ यह मेरा आत्मा मी
रन-त्रयमय है और भगवान् जिनेन्द्रदेव भी रत्न-त्रयमप हैं तथा वे जिनेन्द्र कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेसे हुए हैं; ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेवको में भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥४॥ जो अरईत मगवान् परमेष्ठी हैं। तीनों जगत्के ईश्वर हैं, सर्वज्ञ हैं, परमात्मा हैं और तीर्थंकर हैं; ऐसे भगवान् अरहतदेवको मैं नमस्कार करता : हूं ॥५॥ जिन योगिनाथ भगवान् अरहंतदेवने अपने निर्मल परिणामोंसे ध्यानके द्वारा समस्त कर्मोका समूह |