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पूर्वकम् ।।१६॥ अन्यैः स्खेनाऽभूतं वर्ण श्रद्धया शुद्धभावतः। क्षणं क्षणं हिनद्वर्ण ध्यायेद्वा ध्यानसिद्धये ॥ कुम्भक | निश्चलं कृत्वा स्थिरचितेन तब चै । पूरके च स्थिरं कृत्वा ध्यातव्यं मंश्वर्णकम् ।।६८|| मायायोजेन संयुक्त प्रणव मन्त्रशेखरम । अष्टपत्रा:मक पद्म सकगिके जपेद्धवम् IILE सर्वोपद्रवनाशार्थ शान्त्यर्थं विधनहानये । अपेन्मन्धमिमं मक्तया शिवार्थी भावुकः सदा ॥१०॥ स्मरति जपति भक्तया श्रीपदस्थं सुमन्त्रनिह परमविशुद्धया अद्वयासौ शिवार्थी । परमसुखनिधानं सर्वकल्याण बोज नयति स हि सुधर्म स्वात्मरूपं शिवं वा ॥१॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे पदस्थभ्यानवर्णनो नाम द्वाविंशतितमोऽधिकारः ।
| एकाग्र मनसे शुद्ध उच्चारणपूर्वक एक इसी मंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥९६॥ अथवा जो जिन शब्द अन्य | | लोगोंने स्वयं कभी नहीं सुना है उसका भी भावोंसे श्रद्धापूर्वक ध्यानकी सिद्धि के लिये क्षण क्षण में ध्यान करते रहना चाहिये ।।९७॥ स्थिर चित्त होकर कुंभक, पूरक और रेचक वायुओंके द्वारा मनको निश्चलकर मंत्रके वर्गों का ध्यान करना चाहिये ॥९८॥ कर्णिकासहित आठ दलका कमल बनाकर उसपर माया-पीजसहित
प्रणवपूर्वक मंत्रोंके मुकुटभूत इस जिन-मंत्रका अवश्य ध्यान करना चाहिये ।।९९॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले | भव्य जीवोंको समस्त उपद्रवोंको नाश करने के लिये, शांतिके लिये और विघ्नोंको दूर करने के लिये भक्तिपूर्वक | इस मंत्रका सदा जप करते रहना चाहिये ॥१०॥ ये पदस्थ ध्यानके मंत्र परम सुखके निधान हैं और | समस्त कल्याणों के कारण हैं, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले जो भव्य जीव परम श्रद्धा, परम भक्ति । | और परम शुद्धिपूर्वक इन मंत्रोंका जप करते हैं वा इनको स्मरण करते हैं; वे शुद्ध आत्मस्वरूप अथवा | मोक्षस्वरूप श्रेष्ठ धर्मको अवश्य प्राप्त होते हैं ॥१०॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारमें पदस्थध्यान को
वर्णन करनेवाला यह बाईसर्वा अधिकार समाप्त हुआ।