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भूयो भूयो विचार्यते । सदुपायाभिधं ध्यानं तत्स्यान्मार्गप्रकाशकम ॥३७॥ कदाई कर्मसंघातं मिथ्याज्ञानेन संचितम् ।। जिनधर्मकुठारेण छिनधि तृणवभृशम् ॥३८॥ तदर्थ चिन्तनं चैकाप्रेमा योगत्रयेण वा । तदपयाभिधं ध्यान मिध्यातिमिरनाशकम ॥३।। कथं स्यामत्र निन्द्वी भावलिंगी यति हो । कारयो विपक्षास्ते कथं नश्यन्ति मेऽधुना।
1०11 इति चिन्तापरत्वेन भूयो भूयो विचारणम् । एकाग्रमनसातद्धिध्यानमपायनामभाक् ॥४१॥ कर्थ जाज्वल्यमानो हि कषायाग्निः ! प्रशाम्यति । विषयाशासमीयो भस्मयन् विश्वभूतलम् ॥४२॥ तेन दंदृश्यमानोऽहं तापान्मामुपागतः । श्राज्ञाना
सेवितो मिध्याधर्माग्निः शान्तये मुदा ।।४३शाहा हा मोहान हि जातं जिनधर्मसुधारसम् । तत्प्राप्निश्च कर्थ स्यान्म तदुपायस्य । चिन्तनम् ॥४४॥ एकाप्रमनसा तद्धि भ्यानमपायसंज्ञकम् । कपायाग्निश्च मिथ्याग्निस्तन शाम्यति निश्चयम् ।।४५।। कर्मेन्धनं ! कदाभस्मीकरोमि ध्यान हिना । जन्ममृत्युविनाशार्थ जिनदीक्षा कदा दधे ।।४६॥ कथं स्यात्मनि चात्मानं स्थापयामि तथाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।३६-३७|| जिसप्रकार कल्हाडेसे लकड़ी काटी जाती है, उसीप्रकार मिध्यासानसे इकट्ठे हुए कमांक समूहको मैं जिमधर्मरूपी कुठारसे का नाश करूँगा? उन कर्मोंका नाश करनेके लिये मन, वचन और कायकी एकाग्रतासे बार बार चिन्तवन करना मिथ्यात्वरूपी अंधकारको नाश करनेवाला अपायविषय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥३८-३९। मैं भावालिंगी शनि का होऊँगा ? और ये मेरे विपक्षी कर्मरूप शत्रु किसप्रकार नष्ट होंगे? इसप्रकार चिन्तन कर एकाग्र मनसे बार बार विचार करना अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥४०-४१॥ यह देदीप्यमान कषायरूपी अग्नि विषयोंकी आशाख्यी वायुके लगनेसे समस्त संसारको भस्म कर रही है, उसी अग्निसे जला हुआ मैं उसके संतापसे | मच्छीको प्राप्त हो रहा है, वह कषायरूपी अग्नि कर शांत होगी? इसीप्रकार मैं अपने अझानसे मिध्यात्व रूपी अग्निको सेवन कर रहा हूँ, उस कपाय और मिथ्यात्वरूपी अग्निका शांत करनेके लिये मैंने मोहनीय कर्मके उदयसे जिनधर्मरूपी अमृतको नहीं जाना | उस जैनधमकी प्राप्ति मुझे किस प्रकार होगी? उसकी प्राप्तिके लिये उसके उपायका चिन्तवन करना उपायविचय वा अपायचिचय नामका धर्मध्यान कहलाता है। इस धर्मध्यानसे कषायरूपी अग्नि और मिथ्यात्वरूपी अग्नि अवश्य ही शांत हो जाती है ||४२-४५।। में ध्यानरूपी अग्निसे कर्मरूपी ईधनको कब भस्म करूंगा। तथा जन्म मरणको नाश करने के लिये जिनदीक्षा
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