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सासर्वे संसारिणो जीवा मुमते हि चतुर्गती । कर्मोदयेन पीडां तो जन्ममृत्युभयात्मिकागंक्षणमुदेत्यत्र नानादुःखप्रवर्तकः । सर्वसंसारिणां सोऽयं जन्नमृत्योश्च कारकः ॥१०॥ नहि वारियितु शक्यः केनापीह कथंचन । कर्मणामुदयः | स्तीब्रो महान् हालाहलोपम: १श, कर्मोदयाच रक्कोऽपि क्षणाद्राजा प्रजायते । राजा रङ्कायते सद्यो विचित्रा कर्मणां गतिः ।।१२।। न मंत्रं न तपो देवपूजा वा नैव बांधवः । त्रातु कोऽपि समर्थो न जन्तुं कमोदयात्किल ||१|| सुखासुखं न शक्नोति दातुहर्तुमिहात्र कः । एक पुराकृतं कर्म लीलया कुरुतेऽखिलम् । १४ा शक्रोऽपि न समर्थो वा पलान् कतु तम. न्यथा । कर्मणामुदया जोक भोक्तव्यो नियमेन सः |१२शुभाशुभक्रियां जीवनियोगेन करोति याम् । सैवात्र कर्म ह्याख्यातं विपाकोऽस्ति च तत्फलम् ॥१६॥ कर्म बध्नाति जीवोऽयं सततं हि त्रियोगतः । उद्योपि भवस्येष सततं तस्य कर्मणः ॥१७॥ | इसीको वैराग्यको बढ़ानेवाला विपाकविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं | अपने कर्मोको नाश करनेके लिये
भव्य जीवोंको निरंतर ही इसको धारण करना चाहिये ७-८। इसी कर्मके उदयसे ये संसारी जीर
चारों गतियोंमें जन्म-मरण-भयरूप अनेक दुःखोंको सहन करते हैं ॥९॥ जन्म-मरणको उत्पन्न करनेवाला | और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाला यह कर्मोका उदय समस्त संसारी जीवोंके क्षण क्षणमें उदय होता रहता
है ॥१०॥ यह कर्मोंका उदय अत्यंत तीब है और हलाहल विषके समान है, इसको कोई किसीप्रकार | रोक नहीं सकता ॥११॥ इस कर्मके उदबसे क्षणभरमें ही रंकसे राजा हो जाता है और राजासे रंक हो | जाता है। इन कोंकी गति बड़ी ही विचित्र है ॥१२॥ इन कर्मों के उदयसे इन जीवोंकी रक्षा करने में न
तो कोई मंत्र समर्थ है, न कोई तप समर्थ है, न कोई देवपूजा समर्थ है और न कोई भाई-बंधु नमर्थ है ॥१३॥ इस संसारमें सुख वा दुःख देने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है। केवल पहले किया हुआ एक कर्म ही लीलापूर्वक सब कुछ किया करता है ॥१४॥ उस कर्मके उदयको इंद्र मी अपने बलसे नहीं बदल सकते। इस संसारमें ऐसा यह कोका उदय नियमसे भोगना पड़ता है ॥१५॥ यह जीव मन, वचन और कायके योगसे जो शुभ अथरा अशुभ क्रियाओंको करता है, उसीको कर्म कहते हैं और उसके फलको कोका विपाक कहते हैं ॥१६॥ यह जीव मन, वचन और कायके द्वारा निरंतर कर्मोका बंध करता रहता है और | निरंतर ही कर्मोंका उदय होता रहता है ॥१७॥ यह जीव अनंतकालसे अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करता आ रहा है,
SAASAHARSAXASARAMRIKHISHAS