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स०प्र०
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MORAGARMATHA
असायं साध्यतां याति फलन्ति च मनोरथाः ! | स्वर्गापवर्गज्ञा लक्ष्मीः पश्यतां याति भावतः । ध्यानेन जिननिम्बस्य बनायासेन योगिनाम् ॥८०॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ध्यायतामहदाकृतिम । त्यस्वा कुदेवसंतानं बुद्ध हरिहरादिकम् ॥८॥ एकमेव हि चाईन्तं भजेद्वा चितज्जपेत् । अतो जिनविम्ब हि ध्यायेव पूजयस्मरेत् ॥शा समवसरणसंस्थं निर्विकारं विशुद्ध स्मरति जपति योगी ध्यायतीत्थं जिनेन्द्रम् । रचयति शुभपूजां भावभक्त्या जिनस्य स हि धरति सुधर्म स्वात्मरूपं जिनस्य ॥३॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे रूपस्थध्यानवर्णनो नाम त्रयोविंशतितमोऽधिकारः ।
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| समस्त मंगल होते रहते हैं, अगम्य स्थान वा पदार्थ गम्य हो जाते हैं, अशक्य पदार्थ शक्य हो जाते हैं, | सब असाध्य कार्य माध्य हो जाते हैं, नव मनोरथ सफल हो जाते हैं और वर्ग-मोक्षकी लक्ष्मी अपने आप क्या
| हो जाती है; इसलिये बुद्ध हरि हर आदि समस्त देवोंकी संतानको छोड़कर सब तरह के प्रयत्नकर भगवान् HELI अरहतदेवकी प्रतिबिका ध्यान करना चाहिये ॥७८-८१॥ एक ही भगवान् अरहंतदेवका भजन करना
चाहिये, चितवन करना चाहिये और जप करना चाहिये तथा एक ही भगवान् अरहतदेवकी प्रतिषियका ध्यान करना चाहिये, पूजन करना चाहिये और स्मरण करना चाहिये ॥८२॥ जो योगी समवसरणमें विराजमान, निर्विकार, परम विशुद्ध भगवान् जिनेन्द्रदेवको इस प्रकार स्मरण करता है, उनका जप करता है, उनका ध्यान करता है, भाव-भक्तिपूर्वक उन्हीं भगवान् जिनेन्द्रदेवकी शुभ पूजा करता है, वह भगवान् जिनेन्द्रदेवके स्वात्मरूप श्रेष्ठधर्मको धारण करता है |८३॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचितसुधर्मध्यानपदीपालारमें रूपस्थध्यानको
वर्णन करनेवाला यह तेईसा अधिकार समान हुआ।