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॥१४॥
पञ्चदशोधिकारः।
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ध्यानेन कर्मपंक हि हत्वा यः प्राप केवलम् । सम्यकत्रियोपदेष्टारं वन्देऽनन्तजिनश्वरम् ॥१॥ क्रियया जायते सम्यग्भ्यानसिद्धिः सुखावहा । अनायासेन जीवानां ततः ध्यानक्रियोच्यते ॥२|श्रादौ स्थानं विधिः पश्चाक्षक्षणं तदनंतरम् । एवंक्रमविधानेन धर्मध्यानं तनोम्यहम् |शा शुद्धभूमौ शिलापट्टे दारूपट्टच वाद्रिके । फलके या तृणादौ च शासनानि प्रकल्पयेत् ॥ा निःशंकिते वसत्यादौ निर्वाधे च निराकुले । सुरक्षिते मनोरम्ये निर्भये सुखशान्तिदे | प्रामेऽरण्ये च चैत्यादौ विजने जन्तुवजिते । स्त्री उपशुपाखण्डिचौरादिरहिते शुभे ॥६॥ दद्वयादित्रसंगीतकोलाहल.
जिन्होंने अपने ध्यानके द्वारा कर्मरूपी कीचड़को नानकर केवल ज्ञान प्राप्त किया है और जो श्रेष्ठ | क्रियाओंके उपदेशको देनेवाले हैं, ऐसे भगवान् अनन्तनाथको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ जीवोंको इस ध्यानकी क्रियासे ही सुख देनेवाली ध्यानकी सिद्धि बिना किसी विशेष परिश्रमके अच्छी तरह हो जाती है, इसीलिये मैं ध्यानकी क्रियाका वर्णन करता हूँ ॥२॥ पहले ध्यानका स्थान, फिर उसकी विधि और सदनंतर ध्यानका लक्षण-इस प्रकारके अनुक्रमसे मैं धर्मध्यानका स्वरूप कहूँगा ॥३!! किसी शुद्ध भूमिमें, शिलापट्टपर, लकड़ीके टुकड़ेपर वा पर्वतपर, तस्वतेपर, वा तृणोंपर बैठकर या खड़े होकर ध्यान करनेवालेको अपने आसनकी कल्पना
करनी चाहिये ॥४॥ जो वसत्तिका आदि स्थान शंकारहित है, बाधारहित है, आकुलतारहित है, सुरक्षित का है, मनोहर है, निर्भय है, सुख और शांतिको देनेवाला है, मनुष्यों के उपद्रवोंसे रहित है, जंतुओंके उपद्रवोंसे
रहित है। स्त्री, नपुंसक, पश, पाखण्डी और चोरोंके उपद्रवोंसे रहित है, शुभ है और उपद्रव बाजे संगीत, all आदिके कोलाहलोंसे रहित है। ऐसे किसी गांवमें, इनमें, घरमें वा चैत्यालय आदिमें चतुर पुरुषों को ध्यान