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सु० प्र०
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सिद्धान्तविद्याप्त कुशाग्रबुद्धि भावतं वात्मनि भावयन्तम् । स्वास्मानमेवानिशमुद्वहन्तं तं पाठकं साधुवरं नमामि ||४|| | आरम्भसङ्गादिकषायदोषं त्यक्त्वा प्रपञ्चं च निजात्यलीनम् । योगीश्वरं सनधारक व वैगम्बरं साधुगणं नमामि ||३४|| एकान्तमिथ्यामतवाद गर्वान् प्रगाढदुर्बुद्धिसमुद्धतांस्तान् । स्थाद्वादमुद्रा पदिना प्रहन्त्री भक्त्या प्रबन्दे च सरस्वतीं ताम् ||६|| | दैगम्बरी नग्नयथार्थ मुद्रां धृत्वा परं ध्यानमलं चकार । तप्त्वा तपो घोरतरं स सूरिः श्रीशान्तिसिंधुर्जयतात्त्रलोके ॥ दयामयः शान्तिकरः प्रशाम्तः उद्धारको जीवगणस्य यो वा भवाविधतः कर्मकर्ता जैनेन्द्रधर्मो हि सदा स जीयात् : स्वाभाविक चेतनदिव्यशक्ति स्वां स्वानुभूत्या च विकाशमानाम् । लब्ध्वा च जातः परमात्मवेदी स्वारमा स जीयाद्भुवनस्य ॥ विमोक्षण कर्मककानां शुद्धो भवेत्केवल बोधभागी। नैर्मल्यरूपो विमलो विशुद्धो निरंजनः स्वात्मनयो विरागी ही आत्मा का ध्यान करते हैं और जो भगवान जिनेन्द्रदेवके भावोमें लीन हैं; ऐसे आचार्य परमेष्ठी को मैं नमस्कार करता हूँ || ३ || सिद्धांत शाखके मुख्य भागमें जिनकी वृद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, जो अपने आत्मा ज्ञानका ftaaन करते रहते हैं और जो सदा अपने शुद्ध आत्माको दी धारण करते रहते हैं ऐसे श्रेष्ठ मुनि उपाध्यायको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४॥ जो आरंभ परिग्रह आदि कषायजन्म दोषों को तथा छल कपटको छोड़कर अपने आत्मामें लीन रहते हैं जो योगियों के स्वामी हैं और श्रेष्ठ व्रतोंको धारण करते हैं ऐसे दिगम्बर समस्त साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ ||५|| जो एकांत मिथ्यात्वके बाद से अभिमानी हो रहे हैं और गाढ मिथ्या बुद्धिके कारण उद्धत हो रहें हैं ऐसे परवादियों को जो स्याद्वादमुद्रा रूपी वजूसे नाश कर देनेवाली है अर्थात् उनके मिथ्यात्वको दूर कर देनेवाली है ऐसी सरस्वती देवीको मैं भक्तिपूर्वक वंदना करता हूँ || ६ || जिन आचार्य शांतिसागरने यथार्थ दिगम्बर नम मुद्रा धारण कर तथा अत्यंत घोर तपश्चरण धारण कर उत्कृष्ट ध्यान धारण किया है ऐसे आचार्य शांतिसागर तीनों लोकोंमें सदा जयशील हों ॥ ७ ॥ जो जिनधर्म दयामय है, शांतिको करनेवाला है, शांतिरूप है, समस्त जीवोंको संसाररूपी समुद्रसे सदा उद्धार करनेवाला है और कर्मरूपी कलङ्कको हरण करनेवाला है ऐसा यह जैनधर्म सदा जयशील हो ॥ जो अपनी आत्मा स्वानुभूतिके द्वारा विकसित होनेवाली स्वाभाविक चैतन्यरूपी दिव्य शक्तिको पाकर परमात्माका जानकार बन गया है और तीनों लोकोंका स्वामी धन गया है ऐसी आत्मा सदा जयशील हो ॥९॥
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मा०