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निर्मयोई निराकुलः । त्वं चिंतयेति बोधेन स्वानुभूत्यात्मकेन बा ॥१०८ पुन पुनः सदा भव्य इति भावनया स्वयम् । वात्मानं हि दृढीकुर्यात्स्वात्मनि शुद्धचिन्तनः ॥१०॥ यः उपास्यः स एवाहमुपासकोप्यहं स च । नवा तयोः कचिभेदस्वं चिन्तय सदा सुधीः ॥११०॥ शस्त्रेणापि न गम्योसि स्वं न गम्योति बहिना । कालेन
वा न गम्योसि चिन्तयेति मुहुर्मुइः ॥१११।। वायुना नैव भक्ष्योसि मृत्योर्वा नैव गोचरः । भयमात्रं न ते क्वापि त्वम| सोसि सुनिर्भयः ॥११२॥ अस्त्यात्मन् ते घहिदुःखं कर्मसंयोगजं परम् । अन्तस्ते हि परं सौख्यमात्मजं निर्मलं शुभम् ॥११३॥ इत्येवं हि निजं मत्वा रे अरमन तननाशतः । मा गा मयं निजे चित्ते त्वं सप्तमयवर्जितः ॥११४॥ तस्मारवं स्वस्वरूप हि पश्यात्मन शुद्धबोधतः । रागद्वेषौ हिरे आत्मन निवारय निवारय ॥११॥ कृत्वाक्षाणां संवरणं मोहं हत्वा च वासनाम् । स्वकं चिंतय रे श्रात्मन् आत्मनि तिष्ठ ठिष्ठ वा ॥११॥ यात्मानमात्मनात्मन् त्वमात्मन्येव विलोकय । किं त्वं देह
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मिद नहीं सकता, मैं निर्भय हूं , निराकुल हूं। हे आत्मन् ! तू स्वानुभूतिरूप ज्ञानसे अपने आत्माके स्वरूप का चिन्तबन कर ॥१०८।। भव्य पुरुषोंको इसप्रकारकी भावनासे तथा अपनी आत्मामें शुद्ध आत्माका चिन्तवन
करनेसे ऊपर लिखे अनुसार अपने आत्माको हद कर लेना चाहिये ॥१०९॥ जो उपास्य है जिसकी उपासना IS | की जाती है) वही मैं हूँ, तथा जो मैं उपासक हूँ वही वह अर्थात् उपासक है। उपास्य उपासकमें कोई भेद | नहीं है, हे बुद्धिमन् ! तू ऐसा चितवन कर ॥११०॥ हे आत्मन् ! तू न तो शस्त्रसे छिदमिद सकता है, न अग्निमें | जल सकता है और न कालसे नष्ट हो सकता है, ऐसा तू बारबार पितवन कर ॥१११॥ तू न वायुसे उड़ सकता है, | न तुझे मृत्यु ले जा सकती है और न तुझे किसी प्रकारका कहीं मी भय उत्पन्न हो सकता है, इसलिये तू सदा निर्मय है ॥११२॥ हे आत्मन् ! यद्यपि तुझे कर्मके निमित्तसे बाहरसे दुःख दिखाई देता है तथापि अवङ्गमें | आत्मासे उत्पन्न हुमा अत्यन्त निर्मल शुभ और सर्वोत्कृष्ट सुख सदा बना रहता है ।।११३॥ हे आत्मन् !
इसप्रकार समझकर शरीरके नाश होनेपर तू अपने हृदयमें किसी प्रकारका भय मतकर, क्योंकि तू सातोंप्रकार| के भयसे सर्वथा रहित है॥११४।। इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने शुद्ध झानसे अपने आत्माका स्वरूप देख और | राग-द्वेषको सर्वथा दूर कर ॥११५॥ हे आत्मन् ! तू इन्द्रियों को संवरणकर मोहका नाश कर, वासनाको दूर कर ||al वा अपने आत्माका चिन्तवन कर और आत्मामें ही लीन हो ॥११॥ आत्मन 17 अपने वास्याने नाग याने