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यः स एवास्मि वाईस एकरूपं पश्यतः ||६ एकमेव परं रूप परमात्मन एव मे । अहं स एव सोहे हि नान्यो । सु०प्र०
भिन्नः कदाचन ॥१००|| गुणाद्वा लक्षणाझेदः परमात्मात्मनोयोः । परं न किंचिदरतीह ततः सोहमहंस कः ॥१०॥ ॥10॥ एकोहं शाश्वतश्चाहं परं ब्रह्मोहम त्मनि । आत्मना यदि पश्यामि स्वात्मानं सन्मयोस्म्यहम् ॥१०२॥ यः प्रात्मास्ति स एवास्ति
परमात्मा सनातनः । परमात्मात्मनोर्मध्ये कोपि भेदो न दृश्यते ॥१०॥ निरौपम्यं निराबा परमानन्दलक्षणम् । अनन्तगुणसम्पन्न स्वात्मानं विद्धि तत्त्वतः ॥१०४|| झामूर्ति चिदानन्दमनन्तसुखसागरम् । परमोत्कृष्टचिज्ज्योतिर्भास्कर सुखदं विभुम् ।।१०।। त्रैलोक्यमहिमावन्तं निराकुलमनामयम् । तस्वानां सारसर्वस्वं स्वात्मानं विद्धि सस्वत: ॥१६॥ सोहं सोहं स एवाहं नान्योम्यहमहं जिनः । चिज्योतिश्च विशुद्धात्मा विमलः कृतकृत्यकः ॥१०७॥ अच्छेयोहमभेषोई ही परमात्मा हूँ, जो वह है सो मैं हूँ और जो मैं हूँ वही वह है ॥९८॥ जो आत्मा है वही परमात्मा है, परमात्मा अपने शुद्ध आत्मासे भिष वा पृथक् नहीं है । तथा जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही |
परमात्मा है । अपने आत्मद्रायसे आत्मा और परमात्मा दोनों एक हैं ।।९९॥ वास्तवमें देखा जाय तो मेरा में और परमात्मा इन दोनोंका एक ही रूप है । जो मैं हूँ सो परमात्मा है और जो परमात्मा है सो मैं हूँ। मैं | और परमात्मा दोनों एक है, मुझसे परमात्मा न अन्य है और न भिम है ॥१००|| आत्मा और परमात्मामें | किसी मी गुणसे वा किसी मी लक्षणसे कुछ मी मेद नहीं है। इसलिये जो परमात्मा है सो में हैं और जो में
हूँ सो परमात्मा है ।।१०१।। मैं एक हूँ नित्य हूँ परब्रह्म हूँ और तन्मय है इसीलिये मैं अपने आत्मामें अपने | आत्माके द्वारा अपने आत्माको देख रहा हूँ ॥१०२|| जो आत्मा है वही सनातन परमात्मा है | आत्मा और परमात्मामें कोई किसी प्रकारका भेद दिखाई नहीं देता ॥१०३॥ हे आत्मन् ! तु अपने
आत्माके स्वरूपको उपमारहित, आधारहित, परम आनन्दस्वरूप और अनंत गुणोंसे सुशोमित समझ | ॥१०४॥ इसीप्रकार हे आत्मन् । तू अपने आत्माको झानकी मूर्ति, चिदानन्दमय, अनंत सुखका समुद्र,
परमोत्कृष्ट चिज्योतिरूप सूर्य, सुख देनेवाला, विस, तीनों लोकोंकी महिमासे सुशोभित, निराकुल, रोगरहित | और समस्त तत्त्वोंका साररूप समझ ॥१०५-१०६ ॥ मैं वही हूँ मैं वही हूँ मैं वही हूँ मैं अन्य नहीं हूँ मैं ही | जिन हूँ मैं ही चैतन्य ज्योतिरूप , विशुद्ध हूँ निर्मल हूँ और कृतकृत्य हूँ ॥१०॥हे आत्मन् ! मैं छिद नहीं सकता,