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सु० प्र० ३। ७० ॥
सत्यधर्माधृतो येन शिषोऽपि खकरे धृतः ||८|| विशुद्ध मानसं तस्य यत्र सत्यं विराजते । परं सत्येन विश्वासो जायतेऽसुभृतां सदा ||६|| सत्येन हि दयाधर्मो जायते हि यतः स्वयम् सत्येन द्दि गुणाः सर्वे स्वयं यान्ति जिहीर्षया || १०|| वैरं पलायते शीघ्रं सत्येन प्राणिनां ननु । प्रेम संपथते शीघ्रमन्योन्यं सुमनोहरम् ||११|| नश्यन्ति विपदः सर्वाः संकटोपि पलायते । सत्यमाहात्म्यतो नृनं सत्यं सर्वैः प्रयुज्यते ||१२|| तस्मात्सत्यत्रतं धृत्वा सुधमं भज रे सुधीः । येन संपद्यते सौख्यं कल्याणं मङ्गलं शुभम् ||१३|| सत्येन सम्पदो यान्ति कीविः सत्येन जायते । सस्येन पात्रतां याति सत्येन पूज्यते नरैः ||१४|| सत्येन जायते धर्मः सत्येनैव च स्थीयते । सत्येन वर्द्धते स्वौच्च्यं सत्येनैवावधार्यते || १५ || अविश्वासकरं पापमसत्यं मर्मकम् । धर्मध्वंसकरं नित्यमात्मन् मा वद निन्द्यकम् ||१६|| प्रत्यक्षदुःखदं पापमसत्यं विद्धि तत्त्वतः । क्लेशबन्धबधादीनां स्थानं हे आत्मन् ! तू समस्त विकल्पोंको छोड़कर सत्यधर्म में लीन हो । क्योंकि जिसने सत्यधर्मको धारण कर लिया, उसने मोक्षको भी अपने हाथमें ही ले लिया एसा समझना चाहिये || ८|| जिसके हृदय में सत्यधर्म विराजमान रहता है, उसका हृदय विशुद्ध ही समझना चाहिये । इस सत्यधर्मके कारण समस्त प्राणियोंको सदाके लिये विश्वास हो जाता है || ९ || इस सत्यधर्मके कारण दयाधर्म अपने आप हो जाता है और इसी सत्यधर्मके कारण समस्त गुण एक दूसरेको जीतनेकी ही इच्छासे नहीं, किन्तु मानो अपने आप आ जाते हैं || १०|| इस सत्यधर्म के कारण प्राणियोंकी सब शत्रुता मी नष्ट हो जाती है और शीघ्र ही परस्पर मनोहर प्रेम उत्पन्न हो जाता है ॥ ११॥ इस सत्यधर्म के मादात्म्यसे समस्त विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और सब संकट भाग जाते हैं, यह सत्यधर्म सबके द्वारा पूजा जाता है || १२ || इसलिये हे बुद्धिमन् ! तू सत्यव्रतको धारण कर और इस श्रेष्ठ धर्मका पालन कर। इस सत्यधर्म से ही कल्याण, मङ्गल, शुभ और सुख उत्पन्न होता है || १३|| इस सत्यधर्मके प्रतापसे संपदायें सब प्राप्त हो जाती हैं, इस सत्य से ही कीर्ति प्रगट होती है, सत्यसे ही यह मनुष्य पात्र बनता है और सत्यसे ही यह मनुष्य अन्य मनुष्यों के द्वारा पूजा जाता है || १४ || इस सत्यसे ही धर्म प्रगट होता है, सत्य से ही स्थिरता होती है, सत्यसे ही अपनी उच्चता बढ़ती है और सत्यसे ही सब कुछ धारण किया जाता है ||१५|| असत्य वचन पापरूप हैं, मर्मच्छेदक हैं, अविश्वास उत्पन्न करानेवाले हैं, धर्मका नाश करनेवाले हैं और निन्दा उत्पन्न करानेवाले हैं, हे आत्मन् ! ऐसे असत्य वचन तू कमी मद कह || १६ | हे
मा०
।। ७०