Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०००० HAMEEYtioyoyoy . For Private शाके १८२४ संवत् १९५९ सन १९०३ श्रा पुस्तक उपावी प्रसिझ कर्यु ले. मुंबई: "निर्णयसागर " मुजायंत्रमा ज्ञानवृष्ट्यर्थ स्वामित्व विरहित शा. नीमसिंह माणक नामाख्य श्रावके श्री मुंबापुरीमध्ये विविध विषयक प्रकरणाख्य ग्रंथोनो यत्किंचित् संग्रह करीने धुरंधर सुविहित गीतार्थज्ञ पूर्वाचार्य वचन तरंग बिंपुरूप जिनवचनामृतमहोदधिजन्य जागरलो. Personal use only 767679ARRRRRRRRRRRRRASREPERSTARRRRAPSASRAEPSERESEARESTERESege F00000000000000006620000११०१............. Loopce your RAA DRONA R AT2 ..... ................................................................................................ 96852525152508060505a85635688528850-3505 HASTMASCARE S SANGITAL batatas PAPalpapalPnARYpo PAonloalpapape Doww.sahebratyo Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. श्री जगत्मां श्रात्महितसाधक कोइ मार्ग होय तो ते परम पवित्र वीतराग सर्वज्ञे उपदेशेल धर्म बे. ए मार्ग स्यादवाद बे. विरोधी बे, एनी खात्री ए मार्गने अनुसरनार पूर्वे थइ गएला एवा महान आचार्योंनां वचनो बे. ए पूर्व पुरुषोए जेजे अपूर्वग्रंथोनी रचना करीबे, ते ते पवित्र दर्शनना महिमानी अने तेमनां ज्ञाननी साक्षी पुरे बे. वा सत्पुरुषोए रचेल अपूर्व, अमृतमय ज्ञान पुस्तकोने देखी, वांची, विचारी क्यो आत्मानंदी जीव उल्लास नहिं पामे ? वो आनंद आत्मार्थी प्राप्त करे, तत्त्व पामे, पूर्व महापुरुषोना पगले चाली तेना जेवा थाय, अने ए महापुरुषोनी कृति अविछिन्न जलवा रहे, ए यदि देतुथी, स्वपर हितबुद्धिथी, निर्जरानां कारणथी श्रमे एवा महापुरुषोए रचेल प्रकरण ग्रंथ प्रसिद्ध करवानो प्रयास कर्यो बे. एना अंगे श्रमारी तरफथी श्री प्रकरण रत्ना - करादिक ग्रंथो बहार पडी चूक्या बे. ए बधानी खपती, अने एथी जागृत एली जैन जाइयोनी ज्ञानरुचि ए ग्रंथो तथा तेना कर्त्तापुरूषोनुं महात्म्य प्रगट करे बे; तथा एवा बहु बहु ग्रंथो प्रसिद्धिमां याववानी घ्यावश्यकता सूचवे बे. या प्रकरण रत्नाकरनो प्रथम जाग एकवार उपाइ गयो दतो; ए खपी जवाथी फरी आवृत्ति सुधारा - वधारा साथे उपाइ बे, ए अगाउ निवेदन कर्युडे. या ग्रंथना चार जाग करवामां श्राव्या बे; तेमां या चोथो जाग बे. प्रकरण रत्नाकरना प्रथम जागनी प्रथम श्रावृत्तिमां श्री उपमितिजव प्रपंच " ग्रंथ हतो; पण ते श्री जावनगरनी जैनधर्मप्रसारक सजाए बुटक उपावेल होवाथी या श्रावृत्तिमां एना बदले प्रकरण रत्नाकरना बीजा जाग मांहेलो " श्री समयसार " नो ग्रंथ दाखल करेल . ፡፡ या जागमां एकलो " समयसार " ज दाखल करेल बे. एना कर्त्ता कवि बनारसी दास बे. ए पुरुषनो सविगत इतिहास आपणने मल्यो नथी; तथापि या ग्रंथमांथी एना विषेपणने घणुं जाणवानुं मली यावे बे. एनी पंदिताइ, विद्वता ने आत्मनिष्ठानी श्र ग्रंथ आपणने प्रतीति करावे बे. या ग्रंथ हिंदी जाषानां पदमांबे; साथे गुजराती टीका बे. प्रधान पणे एमां द्रव्यानुयोगनो अधिकार बे. नाम प्रमाणेज ए ग्रंथ " समय " ना - " सिद्धात "ना, - " श्रागमना साररूप, तत्त्वरूप बे. स्याद्वादशैलिना जाण पुरुषोए निश्चय ने व्यवहार ए बेरूपे धर्मनुं निरूपण कर्यु बे; तेमां या ग्रंथ प्रधानपणे निश्चयधर्म प्ररूपतो हो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रस्तावना. वाथी एकांत वादिने रोगीने अपथ्यनी जेम अहित रूप थाय. एकांतवादीने तो बधुं श्रहित रूप थवा योग्य बे; पण व्यवहार बक्षमा राखी, तेनी जाणे-जाणे उपेक्षा कर्याविना अपेक्षा पूर्वक वांचनार, विचारनारा थात्मार्थीउने था ग्रंथ बहु उपकारनु कारण बे. निश्चय लक्षमा राखी व्यवहारे विचर ए श्रात्मार्थीतुं कर्त्तव्य ; ए निश्चय शुं बे,-ए जाणीने लक्षमा राखवानुं था ग्रंथ उत्तम साधन बे. वस्तुनुं सापेक्षपणुं विचारनारने था श्रने श्रावा ग्रंथो बहु लाजरूप बे. अव्यनां स्वरूपना जिज्ञा. सुर्डने था ग्रंथ परमाणंदमुं कारणले. ज्ञेय, हेय, श्रादेय, तत्त्व, प्रव्य, गुणश्रेणि-ए वगेरेनुं वस्तुना मूल धर्मने श्रवलंबीने कर्ता पुरुषे एवं मनहर थने असरकारक निरूपण कर्यु बे, के तत्त्वचिजीवो श्रानंदमां गरकाव थ रहे बे. बंद पण शूरातन उपजावे, श्रात्माने जागृत राखे एवा मोटे नागे सवैया एकतीसा अने तेश्सा राख्या बे. ए ग्रंथ केवी पहातिए योजायलो डे, तेनुं कंश्क सूचवन अनुक्रमणिकाथी थ शकशे. श्रा नामनो मूल ग्रंथ प्राकृत नाषामां श्री कुंदकुंदाचार्ये रच्यो बे; ते परथी संस्कृतमां श्री अमृतचंजाचार्ये योज्यो; अने ते परथी संस्कृत-प्राकृतना थजाण एवा था कालना जीवोना उपकार अर्थे श्री बनारसी दासे हिंदीनाषामां योज्यो बे. श्रा चोथा नाग साथे श्री प्रकरण रत्नाकरनो प्रथम नाग पण संपूर्ण थाय बे. जैननाश्योमा तत्त्व जिज्ञासा वृद्धिपामे, तेउनु श्रात्महित थाय, एवी प्रज्जु पासे प्रार्थना करी, श्रा ग्रंथ बहु विनयपूर्वक वाचवा विचारवाने श्रमे एमने विनविये बिये. इति शं. मुंबश्-संवत् १ए६० कार्तिकी पूर्णिमा. ला प्रसिधकर्ता. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. नंबर. विषय १ उपोद्घात् - श्री पार्श्वजिन, सिद्ध जगवान, साधु सम्यग्दृष्टिनी स्तुति ; मिथ्या दृष्टि, श्रात्मsor, ग्रंथ गौरव तथा महीमा, कविसामर्थ्य, अनुजव लक्षण तथा महीमा, षट्द्रव्य तथा नवतत्त्व, - एनुं वर्णन; नाम माला; ग्रंथमां कड़ेवानांबार द्वारनां नाम: मंगलाचरण नमस्कार; जगवानी वाणीने नमस्कार, श्रादिपद५४ २ बार द्वार अधिकार वर्णन - पद २७५ १ जीव द्वार पद ३२ २ जीव द्वार पद १४ ३ कर्त्ता क्रियाकर्म द्वार पद ३५ ६ संवर द्वार पद ११ 9 निर्जराद्वार पद ६० ८ बंध द्वार पद ५८ मोक्षद्वार पद ५३ १० सर्व विशुद्धिद्वार पद १२० ११ स्याद्वाद द्वार पद ४१ (अंतर्गत ग्रंथमहीमा. नवरस, नयइ० ) २१ १३६ ४ पुण्य-पाप एकत्व कथन द्वार पद १६ अध्यात्म अधिकार साथे श्राश्रवद्वार पद १६ १५२ १६ पद ए‍ ४ चतुर्दश गुणस्थानकस्वरूप; कायिक सम्यकत्वादि तथा श्रावकनी एकादश प्रतिमानां लक्षणादि पद १०८ ५ ग्रंथ तथा ग्रंथकर्त्तानी प्रशस्ति वगेरे पद ४१ पदसंख्या. १- ५४ ५५-५१० մա 69 კედ २३७ 3Uე ३५० १२ साध्य साधक वस्तु स्वरूप द्वार पद ५२ ५१८ ३ श्री अमृतचंद्राचार्यनी श्रालोचना; श्री बनारसी दासनी जिनेंद्र प्रतिमानी स्तुति तथा स्वकथनी ᏲᏏᏒ ५११-२७ए ५०० - ६०७ ६०० - १२० पृष्टांक. ५७७-२००४ २०४-१६५ იდე ६० ६१४ ६२ ६३६ ६४१ ६४४ ६६५ ६८७ १०४ ७३६ १५० तजख ७६० व करवाने : मार्गने देखा 4 करी श्रमित Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय नमः अथ श्रीसमयसार नाटक बनारसीदास कृत गुजराती ाषामा अर्थ सहित प्रारंभः उपोद्घात. या ग्रंथनी दिगंबरी बनारसीदासे शुद्ध हिंदुस्थानी जाषामां पद्यात्मक ग्रंथरूप रचना करीबे. ए ग्रंथकर्त्ता पोते महापंकित तथा कवीश्वर होवाथी विविध प्रकारनी बंदरचना करीने तेणे पोतानी श्रेष्ठ कृति देखाडी श्रापीछे. पदलालित्यता तथा अर्थ गौरवतादिक जे काव्यना सारा गुण वर्णन करयाबे, ते या ग्रंथनी कवितामां सार • ते दीगमां श्रावे. अलंकारवडे कविता सारीरीते नूषित करीबे. या ग्रंथ श्राध्यात्मिक विषयवालो होवाथी श्रामां मात्र शांत रसज मुख्य बे पण प्रसंगानुसारे बाकीना रस पण कचित् दीगमां श्रावे. जोके या ग्रंथ उपर कह्या प्रमाणे निन्द वादिकमां गणायला दिगंबरीनो रचेलोटे, तोपण एनो विषय प्राध्यात्मिक होवाथी ते सर्वने उपयोगीबे; माटे थापुस्तकमां श्रमे नाख्यो. ए ग्रंथनी व्याख्या कोई रूपचं दजी नामना पंडिते करीबे, ते पण हिंदुस्थानी जाषामां होवाथी सर्व जनने सम ज्यामां आवे नही, माटे तेनो आश्रय लईने मे गुजराती जाषामां व्याख्या करी a. करतां श्रादिमां मंगलाचरणनो दोहरो करयोबे ते याप्रमाणेः ॥ दोहा ॥ - श्री जिन बचन समुद्रको, कौलगि होइ बखान; रूपचंद तौहू लिखे, अपनी मति अनुमान ॥ १ ॥ अर्थः-व्याख्याकर्त्ता रूपचंदजी कहेबे के, श्री जिनवचनरूप समुद्रनो क्यांसुधी व्याख्यान थाय, तोपण हुं मारी मतिने अनुमाने लखी जणावुंकुं ॥ १ ॥ हवे ग्रंथकर्त्तारं मां मंगलाचरणरूप श्रीपार्श्वनाथ स्वामीनी स्तुति करेबे॥कवित्त, इकतीसा सर्व हस्वाक्षरः ॥ -करम नरम जग तिमिर हरन खग, जरग लखन पग शिव मग दर सि; निरखत नयन जविक जल बरखत, हरखत श्रमितविक जन सरसि; मदन कदन जित परम धरम हित, सुमिरत जगत जगतसब डरसि; सजल जलद तन मुकुट सपत फन, कमठ दलन जिन नमत बनरसि ॥ १ ॥ अर्थः- जगमां जे आठ कर्मरूप तिमिर एटले अंधकारबे तेनुं हरण करवाने खग एटले सूर्यरूप बे. जेना चरणने विषे सर्पनुं चिन्ह बे. जे मोहना मार्गने देखा sara a. जेनेने करी निरखतां कल्याणरूप जल वर्षेढे, तेणे करी अमित ७३ այց Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. केप्रमाणविना नव्यलोकरूप सरोवर महा दर्षने पामेले. जे कामदेवना क्षय करनार बे, श्रने जेनुं उत्कृष्ट सहज सुखरूप धर्मने अर्थे जक्तजन स्मरण करी रह्या. तेथी तेनुं सब डरसिके सात नयरूप जे शीत बे, ते नाशी जायजे. जेनुं शरीर जलसहित मेघना जेवू नीलवर्ण जे. जेना मुकुटनेविषे सात फण बे. जेणे कम नामे असुरनुं मान नंजन कमुले. एवा जिन के श्रीपार्श्वनाथ नगवान, तेने बनारसीदास नमस्कार करे ॥१॥ फरीथी विशेषे श्री पार्श्वनाथ स्वामीनी स्तुति करेजे. ॥ सर्व लघु वरांत श्रदर युक्त बप्पय बंद. ॥ एने चित्रकाव्य पण कहेजेः-सकल करम खल दलन, कमठ सठ पवन कनक नग; धवल परम पद रमन, जगत जन अमल कमल खग; पर मत जलधर पवन, सजल घन सम तन समकर; पर अघ रज हर जलद, सकल जन नत नव जय हर; यम दलन नरक पद बय क रन, अगम अतट नव जल तरन; वर सबल मदन वन हर दहन, जय जय परम अनय करन. ॥५॥ अर्थः-सर्व कर्मरूप खलके पुष्ट वैरीने दलवा वाला बो. कमठ नामना महा मूर्ख असुर तेरूप पवन श्रागल मेरु पर्वतनी परे अमग बो. धवलके निर्मल सिक स्थानकनेविषे रमनारा बो. जगतना लोकोरूपी उज्वल कमलने विकस्वर करवाने अर्थे खगके सूर्य जेवा बो. एकांत नयवादी जे पर मत, तेरूप मेघने मटामवाने अर्थे पवनना जेवा बो. जल सहित मेघ घटाना जेवू श्याम जेनुं शरीर बे. समक रके उपशमना करनार बो. परके शत्रुरूप अघके० पाप रजने हरण करवाने मेघ जेवा बो. जेने सकल लोक नमे ने, अर्थात् त्रिजुवन पूज्य बो. जन्म मरणरूप जे नव नय तेने हरण करनार बगे. लोकोना मृत्युने दलवावाला बगे. नव्य प्राणी श्रोने नरक पदना क्षय करनार बो. अगम एटले अथाग अने अतटके अपार एवो जे संसाररूप समुह तेने तरवावाला बो. सर्व दोषोमां वरके प्रधान श्रने बलवान जे कंदपेवन, तेने बालवाने हरके रुजना नेत्रनी अग्नि जेवा हे! नगवान तमे जयवंता थायो ! वली तमे परम अजय पदना करनार बो, एटले जय नंजन बो. ॥२॥ था बप्पय बंद वडे परमेश्वरना महीमार्नु वर्णन कगुं. अने पोतानुं काव्य चातुर्य दर्शाव्युं . श्रा ग्रंथना कर्ता बनारसीदास कहे के जेना प्रसादथी परगसेन पिताने घेर मारो जन्म थयो एवो हुं श्री पार्श्वनाथ जगवाननी स्तुति करुंबु. ॥सवैया इकतीसाः॥-जिन्हके बचन जर धारत जुगल नाग, जये धरनिंदप दमा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ५७ए वति पलकमे; जाके नाम महीमासें कुधातु कनक करै, पारस पाषान नामी जयो है खलकमें; जिनकी जनमपुरी नामके प्रनाव हम, अपनो स्वरूप लख्यो नानसो जलकमें; तेई प्रजु पारस महारसके दाता अब, दीजे मोहि साता दृग लीलाके ललकमें. ॥३॥ __ अर्थः-ज्यारे श्री पार्श्वनाथ नगवाननी कुमारावस्थाहती त्यारे कोई एक समये श्री बनारसी नगरी विपे एक तापसनी साथे अज्ञानतपश्चर्यानी निर्त्सना पूर्वक वाद थयो, ते प्रसंगे ते तापसनी धूणीमांनां लाकडांमां नाग बे एवी रीते श्री पार्श्वनाथ जगवाने कडं, ते वातने पेला तापसए गणकारी नही, तेथी ते लाकमां फोमीने ते नागने बाहेर कहाढ्यो; पण ते अधवत्यो थयो हतो तेथी तडफमवा लाग्यो, तेना अंतना समयमां श्री पार्श्वनाथ नगवाने तेने “ॐ असिआउसाय नमः " ए मंत्र संचलाव्यो ते वचन तेणे सारी रीते हृदयमा धारी लीधुं. एटलामां तेना शरीरनी शांति थई गई. तेना अंतना सारा परिणामोने लीधे ते धरणे थयो; तेनी स्त्री पद्मावती थई; ए कथा श्री पार्श्वनाथ चरित्रमा प्रसिद्ध ले. ते श्रद्जुत म हीमाने दर्शावतां बतां ग्रंथकर्ता उपमालंकारवडे पारसमणि अने श्री पार्श्वनाथना ए गुणनी सादृश्यता देखाडे: जेनां वचन हृदयनेविषे धारण करीने नाग श्रने नागणी ए बन्ने पलकमां धरणे अने पद्मावतीरूपे थयां. श्राहीं नाग अने नागणी कडेवाथी दिगंबरोनुं मत जा प. श्वेतांबरी तो एक नागनेज कदे. वली पार्श्वपाषान, खलक एटले पुनिया मां, प्रसिक , एटले पारश मणि नामना पाषाणनो स्पर्श थतांज लोखंम नामनी कु धातु सोनुं थायले. तो ए पाषाणमां एवो महीमा किहांधी उत्पन्न थयो ? तेनो उ त्तर कहेजेः- पार्श्व एवं नाम श्री पार्श्वनाथने तुल्य बे. तेना महीमा थकी एटले मात्र पार्श्व एवं नाम ने ते नामनाज महीमाथकी ते पार्श्वरूप पाषाणमां एवो गुण थयो. वली जेनी जन्म पुरीनुं नाम बनारसी नगरी बे, अने ग्रंथकर्ता कहे डे के, मारु नाम पण बनारसी हुँ पाम्यो. ते मात्र नामना प्रनावथी में मारुं आत्मस्वरूप जाणी लीधुं. ते केवी रीते जेम प्रजात समयमां सूर्य पोताना रूपने जलकमां स्वड प्रकाशे बे, तेनीपरे मारू रूप पण प्रकाशी रमु . ए पण श्री पार्श्वनाथ नगवानना महीमानो प्रताप.तेज श्रीपार्श्वनाथ नगवान महा शांत रसने देवावाला , ते हवे दृग लीलाकी ललकके० आंख मीचीने उघाडीए अर्थात् एक पलक मात्रनी सत्तामा मुजने आत्मसमाधिरूप शाता आपो. एथी निवृत्ति सुखनी सूचना करी बे ॥ ३ ॥ सिक जगवाननी स्तुति करे:॥ श्रडिल्स बंदः॥- अविनाशी अविकार,परम रसधाम है; समाधान सरवंग,सहज Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अनिरामहै; शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है; जगत शिरोमनि सिक सदा ज यवंत है ॥ ४ ॥ अर्थः- जेनोविनाश नथी, अने जेने कोई विकार लागे नही, एवो परम रस ए टले कोई केवलीगम्य जे सहजानंद उत्कृष्ट शांतरस, तेना जे धाम एटले घर बे; माटे सर्वांगने विषे सहजनी जे अनंत सुखरूप समाधि तेणेकरी जे अनिराम ए टले थति मनोझले. चौदराजलोकनी उपर विराजमान होवाथी सर्व दोषथी रहित शुकजे. सर्वज्ञता पाम्याथी बुद्ध बे. अने सर्वना ईश्वर माटे अविरोधबे, एवी अव स्थाए करी ते अनादि अनंत बे. अने चउद राजलोकना उपर विराजमान ने तेथी जगत्ना शिरोमणि ने एवा जे श्रीसिक नगवान ते सदासर्वदा जयवंत थाश्रो ॥४॥ __साधुरूप नगवाननी स्तुति करेजेः॥सवैया श्कतिसाः॥-झानके उजागर सहज सुख सागर सुगुण रतनागर वैराग रस नस्यो है; सरनकी रीत हरै मरनको नै न करै करनसों पीठ दे चरण अनुसस्यो है; धरमको मंडन नरमको विहंगन जु, परम नरम ठहै के करमसो लस्यो है; ऐसो मु निराज जुश्र लोकमें विराजमान, निरखि बनारसी नमस्कार कस्यो है॥५॥ अर्थः- जे ज्ञाननो उद्योत करनार बे. आत्मव्यतुं जे सहजसुख तेना जे समुद्र ३. अने सुगुनजे ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप रत्नत्रयीनी आकर एटले जे खाण . पांच इंजियोना विषयनेविषे जे वैराग्य ते रूप रसेकरी जे परिपूर्ण थयाडे. कोई परिषद श्रावीने प्राप्तथयाथी गृहस्थनीपरे जे शरणनी रीति राखे नही. श्रात्माने शाश्वतव्य जाणीने जेणे मरणनो जयमुकी दीधो बे. पांच इंडियोने पूठ श्रापी तेना विषयोथी विमुख थयाथकी जे चारित्रने अनुसया बे; वली जेनो आश्रय लेवाथी धर्मपदार्थ विराजमान थाय माटे धर्मना मंमन करनारा. मिथ्या मतिरूप जे जरम तेनुं विशेषेकरीने जे खंडन करनारा बे; जे परम दयावान थने कर्मोनीसाथे युक करे. ( दयावानने युडकर, संजवे नही तेम बतां का ते माटे विरोधालंकार जाणी लेवो.) एवी विशेषताने लीधे जे मुनिराज एटले रुषीश्वर जुथ लोकमां पिस्तालीश लाख मनुष्य देत्रविषे विराजमान तेने हृदय कमलथी जो ईने बनारसीदास नमस्कार करेजे. ॥५॥ हवे पांच अनुव्रत लीधा ने जेमणे एवा समकितीनी स्तुति करे. ॥सवैया तेईसाः॥- नेद विज्ञान जग्यो जिनके घट, शीतल चित्तजयो जिम चंदन; केलि करै शिव मारगमे जगमांहि जिनेश्वरके लघु नंदन; सत्य स्वरूप सदा जिन्द Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ५१ के प्रगट्यो अवदात मिथ्यात निकंदन; संत दशा तिन्हके पहिचान करै कर जोरि बनारसि बंदन. ॥६॥ अर्थः- जे मंदबुद्धि ते जीव अने शरीरने एक करी जाणे; नेद जाणता नथी. पण जे समकित पाम्यो बे, तेना हृदयमां जड अने चेतन- निन्न जिन्न झान थयुं बे; एवं नेद विज्ञान जागृत थवाथी जेनुं चित्त चंदननी पेठे शी तल थयुं बे; जे मुक्ति मार्गमां केलि करे एटले खेल करी रह्या जे; आ जगत्मां श्री जिनेश्वरना जे न्हाना पुत्र बे. अने साधु जे जे ते सर्वज्ञपुत्र कहेवायडे, माटे ते मोटा पुत्र . वली श्रात्मा सदा निश्चयेकरी सत्यरूपमांज बे, पण मिथ्यात्ववडे मति न थईरह्योबे. ते फरी सत्यस्वरूप जेनुं निर्मल प्रगटताने पाम्युंजे, अने मिथ्यात्वनु निकं दन थयुबे, एटले मिथ्यात्व रह्यं नथी, चार अनंतानुबंधीनी जड तुटी गई. एवी तेमनी शुङदशा उलखीने बनारसीदास बन्ने हाथजोडी वंदना करे. ए सवैयामा सम्यक्त्वनी दृढता बतावी. ॥६॥ पूर्ण सम्यक्त्व दर्शाववानेश्रर्थे फरी तेनीज स्तुति करे. ॥सवैया श्कतीसाः॥-स्वारथके साचे परमारथके साचे चित्त, साचेसाचे बैन कहे सा चे जैनमतीहै; काहुके विरोधी नांहि परजायबुद्धि नाहि, आतम गवेषी न ग्रहस्थहै न यती हैं; सिकिरिकि वृद्धि दीसै घटमें प्रगट सदा, अंतरकी लक्षसों थजाची लक्षपती हैं; दास नगवंतके उदास रहै जगतसों, सुखिया सदीव ऐसे जीव समकिती हैं. ॥७॥ अर्थः- जेनी स्वार्थ एटले श्रात्मा पदार्थनेविषे साची प्रतीति बे. तथा परमार्थ ते मोक्ष पदार्थनेविषे साची प्रतीति . जेनुं चित्त निर्मल बे. जे सत्यवचनना बोल नारा जे. जे साचा जिनमतने ग्रहण करी रह्यावे. जेनुं मन कल्पना करतुं नथी. केम के, ते साते नयन शुधस्वरूप जाणे तेथी कोश्ना दर्शनना विरोधी नथी. जेम बौधमतानुसारी पर्याय बुद्धिवाला डे पण अव्य बुद्धिवाला नथी, तेथी जीवने दणजंगुर माने, तेम समकितीपर्याय बुद्धिवंत नथी. पण यात्मजव्यनी गवेषणा करनार , तेथी तेने पर वस्तुमां मोह नश्री; माटे गृहस्थ पण नथी, अने महा व्रत सीधा नथी तेथी यति पण नथी. पोताना घटनेविषे शुक आत्म ऽव्यने सिझसमानज जुएले. तेथी घटमांज' प्रगट सिकि देखे. अने ज्ञानदर्शन चारित्ररूप रिछिनी वृद्धि जेना घटमां सदा प्रगट देखाय. जे अंतर् परमात्मा देव ने तेनुं जेने लद थयुं बे तेथी श्रयाची एटले कोश्नी पासे कांई मागे नही, एवा लक्षपति बे. वलीजे ए पूर्वोक्त प्रकारना प्रगट स्वरूपने पामेला श्री वीतराग जगवंतने पामीने तेना दास थयाने; Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अने जत्गथी उदास रहेजे. जे थार्त अने रोड ए बे ध्यानथी विमुख थयाने, तेथी सदैव सुखनी सन्मुख थयाने, एवा समकिती जीव महा सुखमयी जे.॥७॥ फरी पोताना उबासथी समकितीनी स्तुति करे:॥सवैया श्कतीसाः॥-जाके घट प्रगट विवेक गनधरकोसो, हिरदे हरख महा मो हकों हरतु है; साचो सुख मानै निज महीमा अमोल जाने, अपुही मेंथापनो सुनावले धरतुहै; जैसे जल कर्दम कतक फल जिन्न करे, तैसे जीव अजीव विलबन करतु है; श्रातम सगति साधै ज्ञानको उदो श्राराधे, सोई समकिती नवसागर तरतु है ॥७॥ अर्थः- जेवी रीते " जप्पनेवा, विगमेवा, धूवेवा, ” ए त्रण पद सांजलीने गण धरना हृदयमां प्रगट विवेक उत्पन्न थायजे; अने अर्थनेविष कोई संदेह रहै नहीं. तेवी रीतेज समकितीना घटमां विवेक प्रगट थयो, तेणेकरी स्वस्थ थई पोताना हृदयमां श्रानंदने पामी महा मोहने हरण करे. पोतार्नु मिथ्यात्व पूर करीने स म्यक्त्व करे. हवे सम्यक्त्वनी व्यवस्था कहेजेः-जे विषयसुख दे ते तो अनित्य ने माटे फूग , अने सहज समाधि सुख जे जे ते शाश्वता बे तेथी ते सुखनेज साचं मानेने. अने पोतानो झातारूप महीमा अडोल जाणे. तथा ज्ञान दर्शन अने चारित्र जे जे ते पोतानो खन्नाव , तेने पोतामांज धारेबे. पहेलां जीव मिथ्यात्व दशामां जीव अने शरीरने एक करी जाणतो हतो, श्रने हमणा जीव अने अजी वने निन्नभिन्न लक्षणे करी जाणे. जेम पाणी अने चीकल एकगं थरंगयां होय, तेने कतकफल निर्मलीनुं चूर्ण नाखवाथी पाणी तथा कादवने ते रेणु निन्नभिन्न करी नाखेडे, तेम जीव अने अजीवने जुदो जुदो लखेडे. चारित्रमां श्रात्मानी शक्तिने साधे, श्रने मतिज्ञान तथा श्रुतझाननो उदय थवानी श्वा करेजे. मति अज्ञान तथा श्रुतश्रज्ञानने गमावी दिये. ते समकिती जीव नवसमुनो तर नार कहेवायडे; ए रहस्य डे ॥॥ हवे समकीत पाम्याबतां मिथ्यात्वदृष्टिमांज रहे, तेनुं वर्णन करे. सवैया श्कनीसाः॥-धरम न जानत बखानत जरमरूप,गैर गैर गनत लराई पन्छ पातकी, नूख्यो अनिमानमें न पाठं धरे धरनीमें, हिरदेमें करनी बिचारै उतपातकी, फिरेडावाडोलसें करमके कलोलनमें, वैरही अवस्थासों बघूलाकेसे पातकी, जाकी गती ताती कारी कुटिल कुबाती नारी, ऐसो ब्रह्मघाती है मिथ्याती महापातकी॥॥ _ अर्थः-जे वस्तुना स्वनावरूप धर्मने जाणे नही, थने जर्मरूप मिथ्यावाणीने वखाणे; तथा ठेकाणे ठेकाणे, पोतानुं मत स्थापवाने पक्षपातनी लमाई करे अने पोताना अजिमाने चूल्यो थको धरती उपर पग राखे नही, पोतानेज तत्ववेत्ता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ए७३ जाणे; (एमां अधर पगवमेकरी उत्प्रेदालंकार जाणवो.) अने हश्यामां जेथी उत्पात उपजे एवीज करणीनो विचार करे. अने था संसाररूप समुजविषे कर्मरूप, कस्लोलोना धकाये करी चारे गतिमां मामामोल करतो फरेने; जेम वंटोलिया वायुमां श्रावीगएवं पानडुं श्राकाशमां ऊमीने नम्यां करेले, पण कोई ठेकाणे स्थिरथई र हेतुं नथी; तेवीज एनी अवस्था थई रहीजे. जेनी बाती रागद्वेषवडे तप्त थई रेहे; ते तापे करी काली एटले माया तेने राखवाश्री कुटिल थर रहे. श्रने कुबाती एटले जे माठी वातोनुंज चितवनकरी रहेने, तथा पापेकरी नरेली माटे नारी जा णवी एवी जेनी बगती बे, एवो ब्रह्मघाती एटले श्रात्मघातनो करनार मिथ्यात्वी जीव महापातकयुक्त ॥ए॥ ॥दोहराः॥-वंदो शिव अवगाहना, थरु वंदों शिवपंथ, जसु प्रसाद नाषा करो, नाटक नामे गरंथ. ॥१०॥ अर्थः-जिहां सिद्धनो अवगाह थई रह्यो, ते क्षेत्रने हुँ वंदन करंटुं, अने ज्ञान दर्शन चारित्र ए मोदनो पंथके मार्ग , तेने ढुं वंदन करुंडं. ए मंगलाचरण करी हवे पोतानुं प्रयोजन कहेजेः-जेना प्रसाद थकी समयसार नाटक ग्रंथ संस्कृतमा हतो ते प्राकृत नाषारूप करंबुं. ए प्रयोजन कह्यु.॥ १० ॥ हवे था ग्रंथना अधिकारी बनारसीदास पोतेज बे; अने एमां कहेवा लायक पो ता, आत्मप्रव्य तेनुं वर्णन करेजेः-कविवर्णनं. ॥सवैया तेईसाः॥-चेतनरूप अरूप श्रमूरति सिक समान सदा पद मेरो: मोहम हातम आतम अंग कियो परसंग महातम घेरो; ज्ञानकला उपजी अब मोहि कहों गुननाटक आगम केरो, जासु प्रसाद सधै शिवमारग वेग मिटे घटवास वसेरो॥१९॥ अर्थः-बाह्यात्मामां अंतरात्माने अने अंतरात्मामां परमात्माना वरूपने जोईये, ए मारो निश्चयरूप पद कहेवा योग्य थाय. ते चेतनरूपी अनुपम श्रमूर्त्तिक सिझ स मान बे. जो ते निश्चयरूप पद एवं ने तो पड़ी ते प्रगट केम जाणातुं नथी? तेनो उत्तर एम डे के, मोहकर्मनुं कोई एहवं महात्म्य , ते प्रसंगयी आत्मअंगके श्रात्म प्रदेशनेविषे महाअंधकारनो घेरो तेथी प्रगट लखातुंनथी. हमणा कोई ज्ञान कला मुऊने उपनी ले ते कलानो अंश प्रगट थयो. तेथी नाटक सिझांत गुणनुं व्याख्यान करुंडं, जे श्रागमना प्रसादवडे मोदमार्ग सिझ थाय अने जलदीथी शरीरमां वास वसवानुं मटी जाय, एटलेशशरीरपणुं सिफथाय. ॥ ११ ॥ हवे था ग्रंथनुं गौरवपणुं बतावीने कविराज पोतानी बुद्धिन मंदपणुं देखाडी ल. घुता जपावे :- लघुता वर्णन: Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन्छ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ॥सवैया इकतीसाः॥-जेसै कोउ मूरख महासमु तरिबेको, जुजानिसों उद्यत जयो है तजि नावरो; जेसै गिरिउपरि विरषफल तोरिवेकों बामन पुरुष कोउमंग उता वरो; जैसे जलकुंममें निरखी शशि प्रतिबिंब ताके गहिबेकों कर नीचो करे मावरो; तैसें मै अलपबुद्धि नाटिक आरंजकीनो, गुनीमोहि हसेंगे कहेंगे कोउ बावरो ॥१॥ __ अर्थः-जेम कोई मूरख मनुष्य महासागरने तरवा चाहै अने वाहाणने बोडी हाथवडे तरवानो उद्यम करे, तो कार्य केमबने; जेम कोई वामन पुरुष होय अने पहाड उपर वृक्ष होय तेनां फलतोडवाने उतावलो थको उमंग करे, ते कार्य केवी रीते बनी शके ? वली एक त्रीजो दृष्टांत कहे के, जेम पाणीना कुंभमां चं उनुं प्रतिबिंब पडेलुं जोईने कोई नादान तेने साचो चं समजी हाथ नीचो करे तो तेना हाथमां चंजमा केवी रीते श्रावे ? तेमज हुँ अल्पबुकि बु, श्रने श्रावा ना टकग्रंथनो श्रारंज में कीधो , ते मारोवारंज सफल नही थशे तेवारे बीजा गुण वान पुरुषो कहेशेके, जु था ग्रंथनो श्रारंज करे एवं कहीने गुणीजनो मने बावरो जाणी दशी काढशे ॥ १॥ वली ए कार्य करवाने साहस करे पुनः ॥सवैया इकतीसा॥-जैसे कोउ रतनसों वींध्यो है रतन कोज, तामें सूत रेशमकी दोरी पोश् गई है, तैसै बुद्धीटीका करीनाटिक सुगम कीनो तापरि अलप बुद्धि सुछि परिनई है; जैसै काहु देसके पुरुष जैसी नाषा कहै, तैसी तिनहुके बालकनी सिखलई है, तैसै ज्यों गरंथको थरथ कह्यो गुरु त्यों हमारीमति कहिबेको सावधान नई है॥१३॥ अर्थः-जेम कोई हीरानी कणीवमे कोई कठण रतनने आगलथीवीं धीराख्यु होय, ने ते पड़ी तेमां पटुवो रेशिमनी दोरी परोवे ते सुगम चालीजाय तो तेम आ कार्य पण थशे. केमके मुनि अमृतचंद अने पांमेराजमल जेवा पंडितो थया तेमणे श्रा ग्रंथनी टीका बालबोधमां करीने या नाटकग्रंथने सुगम कस्यो , तो तेउपर मा हरी अल्प बुधि ले तोपण था ग्रंथमा सुधी रीते परणमी गई , तेथी श्रा कार्य नेविषे महारी समर्थाश्नो दृष्टांत देखाएं बंः- जेम कोई देशनो वसनारो पुरुष पो तानी देशनाषामां बोलेथने तेनो बालक होय तेपण तेनीपासे रहेतोथको ते नाषा शीखी ले बे; तेमज था कार्य पण जे. केमके मारा गुरुए था ग्रंथनो अर्थ मने क ह्यो , तेज प्रमाणे या ग्रंथनो अर्थ केहेवाने मारि बुद्धि सावधान थश्वे. एटले आगल कहेलो पश्चाताप मट्यो ॥ १३ ॥ हवे पोताना सामर्थ्यनुं कारण बतावे. ॥सवैया इकतीसाः॥-कबहों सुमति व्है कुमतिको बिनाश करै, कबहों विमल ज्यो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. एन् तिांतर जगति है; कबहों दया व्दै चित्त करत दयालरूप, कबहों सुलालसा व्है लोच न लगति है; कबड़ों कि धारती व्है प्रभु सन्मुख खावै, कबहों सु जारती व्है बाहरि बगति है; धरै दसा जैसी तब करै रीतितैसी एसी, हिरदे हमारे जगवंतकी जगति है ॥ १४॥ अर्थः- :- श्रमारा हृदयमां जगवंतनी जक्ति रहीबे, ते क्यारेकतो सुमतिरूप थईने कुमतिनो नाश करेबे, क्यारेक अंतर विषे ते जक्ति विमल ज्योतिरूप थईने जागृत थायडे, अर्थात् सम्यक्त्व-चेतना तेज जगवंतनी नक्ति बे; क्यारेक तेज जति दयारू पथईने चित्तने दयारूप करेबे, अने क्यारेक ते जक्ति पोताना श्रात्मईश्वरने जो वानी लालसा के० लगन थकी, एटले लयलागवामां, लोचनोने स्थिर करे. अने क्यारेक तो ते नक्ति चारति के प्रति रंगेकरी प्रभु सन्मुख थई रेहेबे ( बीजे रथे प्रभु सन्मुख रति करेबे ते ) अने क्यारेक तो ते जक्ति सुजारती के० नली वाणीरूप यईने बाहार बगति के० शब्द करी रहेबे. जेवी जेवी दशा धारेवे ते वारे तेवी तेवी रीतनी करनारी बे, ते एवी जगवंतनी नक्ति श्रमारा हृदयमां वसी रही थी या नाटकग्रंथ रचनारूप कार्यमां पण एक जगवंतनी नक्तिज कारण a. तात्पर्यार्थ बे ॥ १४ ॥ वे या ग्रंथनो महीमा वर्णवेडे. अथ नाटक वर्णन: ॥ सवैया इकतीसा ः॥ - मोख चलबेकों सोन करमको करै बोन, जाको रस जौन बुध लौन ज्यों घुलति है; गुनको गरंथ निरगुनको सुगम पंथ, जाको जस कहत सुरेश अ कुलित है; याही के जु पढी सो उडत ज्ञान गगनमें, याही के विपछी जन जालमें रुलत है; दाटकसो विमल विराटकसो बिसतार, नाटक सुनत दीय फाटक खुलत है || १५|| अर्थः- जेम जला सुकनवमे कार्य सिद्धि थायडे, तेम या ग्रंथपण मोक्षमार्गे चाल नारने कार्यसिद्धि करनार बे; तथा या ग्रंथ कर्मरूप केफनी जाल काढवाने वमन करवानुं षध बे; अने जैन ग्रंथनो रस बे ते रस जौन के० पामिने तेमां पंमित लोक लौनी परे गर्क यईरह्या बे. वली जेमां गुणजे ज्ञान दर्शन चारित्र तेनी ग्रंथ के० रचनावे; परमतिनी अपेक्षाये निर्गुण जे मोक्षपद तेनो सुगम पंथ बे. ते निर्गुण कवो बे, जेनो यश अक्षय सुख बे; जेने कद्देवाने इंड पण कलायबे छाने या ग्रं नो जेणे पक्ष लीधो बे, ते तो या ग्रंथरूप पांखना प्रजावथी ज्ञानरूप आकाशमां पक्षीनी परे उडी रह्याबे ने जे श्र ग्रंथना विपदि बे ते पांखरहित पक्षीनी परे जगत्रूप पाराधिनी जालमां रुली रह्यावे; तेमाटे या नाटकनाम ग्रंथ ते हाटक ए टले सुवर्णसमान बे; अने जेम गीता ग्रंथमां श्रीकृष्णे वैराटरूप महोटा विस्तारे करी ७४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. देखाड्यु तेवो आ ग्रंथ पण विस्तारवंत बे, एवा श्रा नाटक ग्रंथने श्रवण करतामां है यानां कमाम ते फाटक के खुली जाय ॥ १५ ॥ ॥दोहाः॥-कहों शुद्ध निहचै कथा, कहों शुद्ध विवहार; मुक्ति पंथ कारन कहों, अनुन्नौको अधिकार ॥ १६॥ अर्थः-जे शुद्ध निश्चयरूप कथाले ते कहीश. अने शुद्ध व्यवहार जे ले ते पण कहीश अने मुक्ति पंथनुं कारण जे जे ते पण कहीश अने अनुजवनो जे अधिकार डे ते पण हुं कहीश ॥१६॥ अनुजव पदार्थनुं लक्षण. कहेजेः- अनुनव वर्णनं ॥ दोहराः ॥ वस्तुविचारत ध्यावतै, मन पावै विश्राम; रस वादन सुख ऊपजे, अ नुजौ याको नाम ॥ १७ ॥ अर्थः-अजाणीवस्तु जाणवाने मनमा विचार कख्याथी तथा तेनुं चिंतन कस्वाथी एम खोजतां खोजतां ज्यारे मनमां ठीक ठरे, त्यारे सत्य समज्याना रसनो खाद प्राप्त थाय ने तेथी सुख उपजे तेनुं नाम अनुजव जे ॥१७॥ ॥दोहराः॥ श्रनुजौ रतन चिंतामनि, अनुनौ है रसकूप; अनुनौ मारग मोखको, अनुन्नौ मोख सरूप॥ १७ ॥ अर्थ ॥ अनुनव जेजे तेज चिंतामणि रत्न , अने तेज अनुजव रसायननी कुपी बे; अनुजव तेज मोदनो मारग डे अने अनुजवज मोद सरूप ॥ १७ ॥ अनुभव महीमा. ॥सवैया श्कतीसाः॥-अनुनौके रसको रसायन कहत जग, अनुनौ श्रन्यास यहै तीरथकी गेर है; अनुलोकी जो रसा कहावै सोई पोरसा सु,अनुन्नौ अधोरसा सु उरधकी दौर है; अनुनौकी केली यहै कामधेनु चित्रावेली, अनुजौको स्वाद पंच अमृतको कौर है; अनुजौ करम तोरै, परमसों प्रीति जोरै, अनुनौ समान न धरम कोउ और है ॥ १ ॥ अर्थः-जगत्वासी लोक अनुजवना रसने रसायन केहेजे, केमके जेम रसायन लोढार्नु सुवर्ण करे, तेम अनुनव जे ते मिथ्यात्वने फेडीने सम्यक्त्व करे; जेम तीर्थनी ठगेर जवाथी अपावन होय ते पावन थायजे. तेम ग्रंथविषे अनुजवनो श्र ज्यास ते अजाणने जाण करे. अने अनुजवनी जे रसा के पृथवी तेहज सुवर्ण पोरसा डे, एटले श्रनुजवनी उत्पत्ति , ते सोवन पोरसानी परे वृद्धि पामेजे. श्रने अधोरसा के पाताल लोक, ते पण अनुजव रूपमां ने, थने ऊर्ध्व लोकनी दोर ते पण Jain Education Interational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ श्री समयसारनाटक. अनुजवरूपमांज , एटले अनुनवमांज स्वर्ग नरक बे, अने अनुजवनी केलि के रमत ते कामधेनुरूप , ते श्रापणीज्ञछिने वधारनारी ,श्रने ते श्रनुजवनी जे केलि बे ते अक्षय कधि करवाने चित्रावेली , अने अनुजवनो स्वाद ते पंचामृतना कौर के ग्रास जेवो बे. श्रनुजव करमने तोडे, ने परमात्मानी प्राप्ति जोडे बे; एटले अनु जवथी खोजतां परमात्मानी प्राप्ति थायजे; तेथी सर्व धर्म धारण करवामां अनुजव जेवो बीजो कोई धर्म नथी. एटले अनुजव ज्ञान जाणवाथीज मोद मार्ग नजीक ॥१॥ हवे अनुभव साधवाने ब व्यनुं वर्णन करेले. तेमां प्रथम जीव ऽव्य वर्णनः ॥ दोहराः॥- चेतनवंत अनंत गुन, पर्यय सकति अनंत; अलख अखंडित सर्वगत, जीव दरववीरतंत ॥२०॥ अर्थः-जाणवो मात्रने चेतन कहे तप शक्तिमान बे, जेना अनंत गुण बे. जेमां पर्याय के नामांतरपणुं पामवानी अनंत शक्ति बे, इंजिय अगोचर , तेथी अलद बे, देहना खंड थाय पण थात्मा अखंमित डे, सर्व लोकमां नस्यो ने तेथी सर्वगत बे, एवं जीव अव्यनुं स्वरूप . ते कह्यो. ॥२०॥ हवे पुजल जव्यलक्षण कहे. अथ पुजल जव्य यथाः॥दोहराः॥-फरस वन रस गंधमय, नरद पास संगण; अणुरू पीपुजल दरब, नन प्रदेश परमान ॥१॥ अर्थः-स्पर्श वर्ण रस गंध ए गुणमय सदा रहे, नरद जे सोगीरूप राग तेना पासामा सूक्ष्म, वृत्त, अस्त्र, चतुरस्र, थायत ए पांच संस्थान बे; तेथी एनुं नाम संस्थान बे. पोत पोतानी वर्गणा योग्यरूप ग्रहण करे, तेथीए पुजल अव्य अनुरूपी अथवा पर माणुरूपी जे. जेम आकाशप्रदेश अनंत , तेम ए पण अनंत प्रमाण ॥१॥ हवे धर्म अव्यनुं लक्षण कहे. धर्म अव्य यथा. ॥दोहराः॥- जैसै सलिल समूहमें, करै मीन गति कर्म; तैसे पुजल जीवको, चल न सहाई धर्मः ॥ २२॥ अर्थः-जेम पाणीना नरावमां माबढुं गमन क्रिया करे, तहां क्रियानो कर्ता मा ब्बु , अने सलिल समूह जे पाणीनो जराव ते क्रियानो साधक डे तेम पुजलप्रव्य नी तथा जीवजव्यनी चलन क्रियानो साधक धर्मास्तिकाय अव्य बे. ॥१२॥ हवे अधर्मास्तिकाय अव्यनुं लक्षण कहेले. अधर्म अव्य यथाः॥दोहराः॥-ज्यों पंथिक ग्रीषमसमै, बैठे बाया माहिं; त्यों अधर्मकी नूमिमें, जड चेतन ठहरांहि. ॥३॥ अर्थः-जेम कोई वटेमाणु बेसवानी क्रियानो कर्त्ताडे, ने क्रियानी साधक गया , Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन् प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. तेम अधर्मास्तिकायनी नमी के अवगाहना तेमां जम जे पुजल ने चेतन जे जीव ते बने स्थिर थायडे, तेथी अधर्मा स्तिकाय अव्य स्थिरतानुं कारण . ॥ २३ ॥ हवे श्राकाश अव्यनुं लक्षण कडेले. श्राकाश अव्य यथा. ॥दोहराः॥-संतत जाके उदर में, सकल पदारथ वास; जो जाजन सब जगत्को, सोश दरब श्राकाश. ॥२४॥ अर्थः-संतत के निरंतर जेना उदरमा समस्त पदार्थ वसी रह्याडे, अने जे सर्व जगत्तुं नाजन के श्राधारनूत , ते श्राकाश अव्य जाणवू. ॥ २४ ॥ हवे कालव्यतुं लक्षण कहे. काल अव्य यथा. ॥दोहराः॥- जो नवकरि जीरन करे, सकल वस्तु थिति गन, परावर्त्तवर्तन करै, काल दरब सो जान. ॥२५॥ अर्थः-जे अव्य वडे सघली वस्तुनी स्थिति बंधाय एटले पेहेलां सकल वस्तुने नवी बतावे, ने पबवामेश्री ते सघलीने जुनी करी देखाडे, अने उलट पालट वर्त्ता ववानी दशाधरे ते कालव्य जाणवू. ॥ २५ ॥ __ हवे या ग्रंथमां कहेवा लायक नव तत्व ने तेनुं वर्णन करे:-तेमां प्रथम जीवत त्वनी समज पाडेले. नवतत्त्व वर्णनं, जीवतत्त्व यथा. ____॥दोहराः॥-समता रमता उरधता, शायकता सुखनास; वेदकता चैतन्यता, ए सब जीव विलास. ॥ २६ ॥ - अर्थः-सर्व जीव बराबर जे ए समता, घटघटमां रमी रहेडे ए रमता, ऊर्ध्व दिशे गमन करवू ए उरधता, सर्व पदार्थनो जाणनार ते शायकता, सुखमय नासे ने तेथी सुखनास, सुखदुःख वेदे ए वेदकता, श्रने चेतना गुणथी चैतन्यता ए स घलो जीव तत्वनो विलास डे. ॥ २६ ॥ अथ अजीवतत्त्व यथा. ॥दोहाः॥-तनता मनता वचनता, जडता जड संमेल; लघुता गुरुता गमनता, ए अजीवके खेल. ॥२७॥ . अर्थः-शरीरपणुं, मनपणुं, वचनपणुं, जमवस्तुमां शेलनेल थवापणुं, लघुपएं, गुरु पणुं, गमनपणुं ए सर्व अजीवतत्त्वना खेल. ॥२७॥ अथ पुण्यतत्त्व यथा. ॥दोहराः॥-जो विशुभ नावनि बधे, अरु ऊरध मुख होय; जो सुखदायक जगतमें, पुन्य पदारथ, सोय. ॥ २७ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. एए अर्थः-जेपदार्थ विशुद्ध परिणामथी वधे, अने जेनुं ऊर्ध्वमुखडे, ऊर्ध्वगति एज चमे, जे पदार्थ जगत्मां सुखदायक, ते पुण्य पदार्थ जाणवो. ॥ २ ॥ श्रथ पापतत्व यथा. ॥दोहराः॥-संकिलेसि जावनि बधे, सहज अधोमुख होय; पुःखदायक संसारमें, पाप पदारथ सोय. ॥शए ॥ अर्थः-जे पदार्थ संक्लेश नाव वझे कषायनीवृद्धिथी वधे, सेहजे जेनी गति नीची बे, अधोमुख, अने जगत्मा जे पुःखदायक ने तेज पाप पदार्थ केहेवाय. ॥शए॥ अथ आश्रवतत्व यथा. ॥दोहराः॥-जोई करम उद्योत धरि, होश क्रिया रस रत्त; करणै नुतन करमको, सोई आश्रव तत्त. ॥ ३० ॥ अर्थः-जे कर्मनो उदय धरीने शुज तथा अशुन क्रियाना रसमां रत थई रहे, त्यारे नवां करमनुं करखे के खेचq करे ते श्राश्रव तत्व केहेवाय. ॥ ३० ॥ अथ संवरतत्व यथा. ॥दोहराः॥-जो उपयोग सरूप धरि, वरतै जोग विरत्त; रौके श्रावत करमकों, सो है संबर तत्त. ॥३१॥ अर्थः-जे शुद्ध उपयोग स्वरूपने धारीने मन वचन कायाना जोगथी विरक्त थको वर्ते अने नवां करम श्रावताने रोकी राखे ते संवर तत्त्व कहिये. ॥३१॥ अथ निर्सरातत्त्व यथा. ॥दोहा॥-जो पूरव सत्ता करम, करि थिति पूरण थाउ, खिरवैकों उद्यत जयो, सो निर्सरा लखाउ. ॥ ३२॥ अर्थः-जे पूर्व कालनेविषे श्रायुविना सात कर्म सत्तारूप हतां श्रने आयु कर्म वर्तमान कालमां सत्तारूप बेतेनी स्थिति पूर्ण करीने पनी नीरस कर्मने विखेरवामां जे जीव उद्यमवंत थयो ए निर्जरानुं लक्षण जाणवू. ॥३२॥ अथ बंधतत्त्व यथा. ॥दोहा॥-जो नव कर्म पुरानसों, मिले गंठि मिढ होश; सकति बढावै वंसकी, बंध पदारथ सोश. ॥३३॥ अर्थः-जे नवां कर्म जूना कर्म साथे श्रावी मले, अने तेनी गांठ दृढ बंधाय, अने आगल जतां ते कर्मना वंसनी शक्ति चढती थाय, ते बंध पदारथ केहेवाय. ॥३३॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अथ मोक्ष तत्त्व यथा. ॥दोहा॥-थिति पूरन करि जो करम, घिरे बंध पद जानि; हंस अंस उज्वल करै, मोद तत्त्व सो जानि. ॥ ३४ ॥ अर्थः-जे कर्मनी स्थितिने पूर्ण करीने कर्मने खेरे के दयकरी नाखे अने बंध पद के सत्तावन प्रकारे बंधस्थान तेने नानि के नांगीने हंस के परमात्माना अंसने क्रमे उज्वल करे तेज मोक्ष तत्व जाणवू. ॥ ३४ ॥ हवे कवित्त बंदमां पदार्थनी नाममाला एटले प्रयोजनवाला नामनी नाममाला लखी जणावे:___श्रथ नाममाला सूचनिका मात्र लिख्यते. अथ समुच्चय वस्तुके नाम. ॥दोहराः॥-जाव पदारथ समय धन, तत्त्व वित्त वसु दर्व; अविन अर्थ इत्यादि बहु, वस्तु नाम ए सर्व. ॥ ३५ ॥ अर्थः-प्रथम सामान्यपणे वस्तुनां नाम कहे. नाव, पदार्थ, समय, धन, तत्त्व, वित्त, वस्तु, अव्य, प्रवीण, अर्थ, इत्यादि घणां वस्तुनां नाम बे. ॥ ३५ ॥ अथ शुकजीव अव्यके नामःसवैया इकतीसाः॥-परमपुरुष परमेसुर परमज्योति, परब्रह्म पूरन परम परधान है; अनादि अनंत अविगत अविनाशि अज, निरकुंद मुकत मुकुंद अमलान है; निरा बाध निगम निरंजन निरविकार, निराकार संसार सिरोमनि सुजान है; सरव दरसी सरबा सिद्ध सांई शिव, धनी नाथ ईश जगदीश लगवान है. ॥ ३६ ॥ अर्थः-परमपुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, परब्रह्म, पूर्ण, परमप्रधान, अनादिश्रनंत, अव्यक्त, अविनाशी, अज, निछ, मुक्ति, मुकुंद, अम्लान, निराबाध, निगम, निरं जन, निर्विकार, निराकार, संसार शिरोमणि, सुजान, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ, सिक, स्वामी, शिव, धनी, नाथ, ईश, जगदीश, नगवान, कहीये. ॥ ३६ ॥ हवे कर्म व्याप्त अशुभ जीव अव्यना नाम कहे:-संसारी जीव अव्यके नाम. ॥सवैया श्कतीसाः॥-चिदानंद चेतन अलख जीव समैसार,बुद्धरूप श्रबुद्ध अशुद्ध उपयोगी है; चिदरूप स्वयंनू चिन्मूरति धरमवंत, प्रानवंत, प्रानि जंतु नूत नव नोगी है; गुनधारी कलाधारी नेषधारी विद्याधारी,अंगधारी संगधारी जोगधारी जोगी है; चिन्मय अखंग हंस श्रषर श्रातमराम, करमको करतार परम विजोगी है. ॥३॥ अर्थः-चिदानंद, चेतन, अलख, जीव, समयसार, बुद्धरूप, अबुझ, श्रशुझ, उपयोगी, चिकूप, स्वयंनू, चिन्मूर्ति, धर्मवंत, प्राणवंत, प्राणी, जंतु, नूत, नवनोगी, गुण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. एए? धारी, कलाधारी, नेषधारी, विद्याधारी, अंगधारी, संगधारी, योगधारी, योगी, चिन्मय श्रखंग, हंस, श्रदर, श्रात्मराम, कर्मकर्ता, परमवियोगी कहिये. ॥ ३७॥ अथ श्राकाशके नामः-- ॥दोहराः॥-षं विहाय अंबर गगन, अंतरिद जगधाम; व्योम वियत् नन मेघपथ, ए श्राकाशके नाम. ॥ ३० ॥ अर्थः-खं, विहाय, अंबर, गगन, अंतरिक्ष, जगधाम, व्योम, वियत्, नन, मेघपथ, ए श्राकाशनां नाम. ॥ ३०॥ अथ कालके नाम. ॥दोहाः॥-यम, कृतांत, अंतक, त्रिदस, थावर्ती मृतथान; प्रानहरन, श्रादित तनय, कालनाम परमान. ॥ ३ ॥ अर्थः-यम, कृतांत, अंतक, त्रिदश, श्रावर्त्तिक, मृतस्थान, प्राणहरण, श्रादित्य तनय, एवां कालनां नाम बे. ॥ ३७॥ पुण्यके नाम यथा. ॥दोहाः॥-पुण्य सुकृत ऊरधवदन, अकर रोग शुज कर्म; सुखदायक संसारफल, जागबहीर्मुख धर्म. ॥ ४०॥ अर्थः-पुण्य, सुकृत, ऊर्ध्ववदन, अकररोग, शुजकर्म, सुखदायक, संसार फल, नाग, बहिर्मुख, धर्म, ए पुण्यनां नाम बे. ॥ ४० ॥ अथ पापके नाम यथा. ॥दोहाः॥-पाप अधोमुख एन अघ, कंप रोग उखधाम; कलिल कलुष किल विष पुरित, अशुज कर्मके नाम ॥४१॥ अर्थः-पाप, अधोमुख, एन, अघ, कंप, रोग, फुःखधाम, कलिल, कबुष, किविष, श्रने उरित, ए श्रशुज कर्मनां नाम जाणवां. ॥४१॥ अथ मोक्षके नाम. __॥दोहा॥-सिझनेत्र त्रिजुवन मुकुट, शिवमग अविचल थान; मोषमुगति वैकुंठशिव, पंचम गति निरवान ॥ ४२ ॥ __ अर्थः-सिझक्षेत्र, त्रिजुवनमुकुट, शिवमार्ग, अविचलस्थान, मोह, मुक्ति, वैकुंठ, शिव, पंचमगति भने निर्वाण ॥ ४२ ॥ .. श्रथ बुझिके नाम यथा. ॥दोहा॥-प्रज्ञा विषना सेमुखी, धी मेधामति बुद्धि; सुरति मनीषा चेतना, आशय अंस विशुकि. ॥४३॥ . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएर प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः-प्रज्ञा, विषना, सेमुषी, धी, मेधा मति, बुद्धि, सुरति, मनीषा, चेतना, आशय, अंश विशुद्धि कहिये ॥४३॥ अथ विचक्षण पुरुषके नामः॥दोहा॥-निपुन विचछ विबुध बुध, विद्याधर विधान; पटु प्रवीन पंमित चतुर, सुधी सुजन मतिमान. ॥ ४ ॥ कलावंत कोविद कुशल, सुमन दद धीमंत; ज्ञाता सजान ब्रह्मविद्, तत्त्वज्ञ गुनीजन संत. ॥ ४५ ॥ अर्थः-निपुण, विचक्षण, विबुध, बुध, विद्याधर, विद्वान, पटु, प्रवीण, पंमित, च तुर, सुधी, सुजन अने मतिमान ॥४४ ॥ कलावान, कोविद, कुशल, सुमन, दक्ष, धीमंत, ज्ञाता, सजान, ब्रह्मविद्, तत्त्वज्ञ, गुणीजन अने संत ॥ ४५ ॥ अथ मुनीश्वरके नामः- ॥दोहा॥-मुनि महंत तापस तपी. निकुक चारितधाम; यती तपोधन संयमी, व्रती साधु रिषि नाम. ॥ ४६॥ अर्थः-मुनि, महंत, तापस, तपी, निकुक, चारित्रधाम, यति, तपोधन, संयमी, व्रती, साधु ए ऋषिनां नाम जाणवां. ॥ ४६॥ दर्शनके नामः॥दोहाः॥-दरस विलोकन देखनो, अवलोकन जिगचाल; लखन दृष्टि निरखन नु वन, चिंतवन चादन नाल ॥ ४ ॥ अर्थः-दर्शन, विलोकन, देखवू, अवलोकन, अगचालन, लखवू, दृष्टी, निरीक्षण, जोवं, चितवन, चाइन, ने जाल. ॥ ४ ॥ शुद्ध ज्ञान तथा चारित्रके नामः॥दोहाः॥-झान बोध श्रवगम मनन, जगतनान जगजान; संयम चारित आचरण, शरन वृति धिरवान ॥ ४ ॥ अर्थः-झान, बोध, अवगम, मनन, जगन्नानु, जगजान, संयम, चारित्र, आचरण, शरण, वृत्ति, धैर्यवान. ॥ ४ ॥ श्रथ साचके नामः॥दोहा॥-सम्यक् सत्य अमोघ सत, निसंदेह निरधार; ठीक यथारथ उचित तथ, मिथ्या श्रादिशकार ॥ ४ ॥ अर्थः-सम्यक्, सत्य, अमोघ, सत्, निःसंदेह, निर्धार, तीक, यथार्थ, उचित, तथ्य, मिथ्या श्रादि शब्दने श्रकार लगामीने बोलीये तो अमिथ्या शब्द थाय ते पण एनुं नाम जाणवू ॥ ४ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. अथ फूल के नाम:-- ॥ दोहा ॥ -- जयारथ मिथ्या मृषा, वृथा असत्य ालीक; मुधा मोघ निष्फल वि तथ, अनुचित असत ठीक ॥ ५० ॥ अर्थः-- यथार्थ, मिथ्या, मृषा, वृथा, असत्य, अलीक, मुधा, मोघ, निष्फल, वि तथ, अनुचित, सत्य, घने, अठीक, ॥ २० ॥ इति नाममाला समाप्ता. अथ समयसार के द्वादश द्वार वर्णन:-- ५०३ ॥सवैया इकतीसाः ॥ -- जीव निरजीव करता करम पुण्य पाप, आश्रव संवर निरजरा बंध मोष है; सरब विशुद्धि स्याद्वाद साधिसाधक खासद दुवार घरे समसार कोष है; दरवानुयोग दरवानुयोग दूर करे, निगमको नाटक परम रस पोष है; ऐसो परमागम बनारसी बखाने यामें, ज्ञानको निदान शुद्ध चारितकी चोष है ॥ ५१ ॥ अर्थ:-जीवद्वार, जीवद्वार, कर्त्ता कर्म क्रियाद्वार, पुण्यपाप द्वार, श्राश्रवद्वार, सं वरद्वार, निर्जराद्वार, बंधद्वार, मोक्षद्वार, सर्व विशुद्धिद्वार, स्याद्वादद्वार, साध्य सा धकद्वार, या समयसारना ए बार द्वाररूप कोष के० कोठार बे; या ग्रंथमां द्रव्यानुयोग के द्रव्यनो विचारकरवो, पढी द्रव्यानुयोग दूर करवो, ने शुद्ध आत्मसत्ता नोज विचार करवानुं छाने निगमके० परमात्मानुं नाटक एमां परम शांतरसनो पोष बे, ए परम सिद्धांतने वणारसीदास वखाणे. वली या ग्रंथमां ज्ञाननुं निदानके मूलविवरो तथा शुद्ध चारित्रनी चोखी क्रिया कही बताववानीठे ॥ ५१ ॥ अथ ग्रंथारंजको नमस्कार मंगलाचरण रूप ॥ दोहराः॥ - शोजित निज अनुभूतियुत, चिदानंद भगवान; सार पदारथ श्रातमा, सकल पदारथ जान ॥ ५२ ॥ :- जे पदार्थ पोताना अनुभव युक्त शोजित बे, चित्के० चेतना अने श्रानंद तेचिदानंद कहियें; तथा जगवान के० ज्ञानवंत बे, एवो साररूप पदार्थ संसारमां आत्मा बे, जे समस्त पदार्थनो जाणनार महोटो ज्ञाता बे ॥ ५२ ॥ आत्मानं वर्णन करी नमस्कार करे: ॥ सवैया तेईसाः ॥ - जो अपनी पुति श्रापु विराजत, है परधान पदारथ नामी ; चेतन क सदा निकलंक महासुखसागरको विसरामी; जीव जीव जिते जगमें तिनको गुन ज्ञायक अंतरजामी; सो शिवरूप बसै शिवथानक, ताहि बिलोकन में शिवगामी ॥ ५३ ॥ अर्थ | जे पोतानी द्युतिवमेज पोते विराजमान बे, एटले पोताथी पोते जासी रह्यो बे, पण बीजा पदार्थवडे जेनो जास थतो नथी एवो कोई प्रधान पदार्थ नामी प्र ७५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ უდე प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. सिद्धबे. जेनुं चेतनरूप अंक के लक्षण बे; जे सदा निकलंक बे; निरंजन बे; महोटा सुखसमुद्रमां जेनो विश्राम थई रह्योबे, एटले एकाग्रचित्ते जे सहेजे समाधिसुखमां रमी रह्योबे; जगत्मां जेटला जीव छाजीव पदार्थ बे, ते सर्वना गुणनो ग्राहक बे, अंतरजामी बे. जे घटघटमां विराजमान बे. तेहज शिवरूप के० सिद्धरूप यो थको लोकाजागे सिद्धावस्थामां वसेबे; जेने ज्ञान दृष्टिवडे जोईने मुक्ति गामी जीव नमस्कार करे बे ॥ ५३ ॥ वे जगवानी वाणीने नमस्कार करे. अथ जिनवाणी वर्णनं. ॥ सवैया तेइसाः ॥ - जोग धेरै रहि जोगसुंजिन्न अनंत गुनातम केवल ज्ञानी; तासहृदे हसों निकसी सरिता सम व्है श्रुत सिंधु समानी; यातें अनंत नयातम लखन; सत्य सरूप सिद्धांत बखानी; बुद्धलखे न लखे डुबुद्धि सदा जगमांहि जगे जिन बानी ॥ ५४॥ अर्थः- जे त्रण योगने धारेबे तथापि ते मन वचन कायना जोगथी प्रथक रहे बे, अलिप्त रहेबे, घने अनंत गुण प्रगटताने लीधे जेनो आत्मा कोई केवल ज्ञानी पुरुष बे ते केवल ज्ञानीना ह्रदय रूप वह बे, तेमांथी जे नदीरूप थईने निकली ते शास्त्ररूप समुद्रमां जई नली बे, ज्यांथी अनंता नय स्वरूप लक्षण सत्य स्वरूपे जिनजीयें सिद्धांतमा वखाणी बे, एवी जे वाणी ते तो बुद्धिवंत तत्त्व दर्शी होय तेज लखे, अने दुर्बुद्धि मिथ्यामति होय ते लखे नही, जाणे नही, एवी जिनेश्वरनी वाणी जगत्मां सदा जागृत थई रही बे. ॥ ५४ ॥ दवे जीव द्वारनो विचार लखेबे, ते जीव कवीश्वर पोतेज बे माटे पोतानी व्यवस्था क. थ जीवद्वार कवि व्यवस्था कथनः - || बप्पय छंदः || - हों निहचें तिहुं काल, शुद्ध चेतनमय मूरति; पर परिनति संयोग, नई जडता विस्फुरति मोह कर्म पर हेतु, पाइ चेतन पर रचै; ज्यौं धतूर रस पान, करत नर बहुविध नचै, छाब समय सार वर्नन करत, परम शुद्धता दोन मुज; श्र नयास बनारस दास कहि, मिटौ सहज चमकी रु. ॥ ५५ ॥ अर्थः- शुद्ध निश्चयनयवमे व्यतीत अनागत वर्त्तमान कालमां हुं शुद्ध चेतना मय पिंड बुं, एहिज मारी मूर्ति बे, ते एवी बे, त्यारे शुद्ध स्वभाव बांगीने विजा मां के परिणम्यो बे ? एनो उत्तर कहेबे जे, कर्मादिक परवस्तु बे, तेनुं अहीं प रिणमन थयुं, तेथी तेनी जडता यहीं विस्फुरति थई, एटले जमता फेली. शिष्य पूबे बे के, एवो शुद्ध स्वभाव हतो त्यारे परपरिणति केम ग्रहण करी ? तेनो उतर, मोह कर्म राग द्वेष रूप जे बे तेज परहेतु उत्कृष्ट कारण पामीने चेतन आत्मा परनी साथे मोहित थयो बे; तेनो द्रष्टांत कहे बेः- जेम धतुरानो रस पान करी मा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री समयसारनाटक. ԱԱՀ णस तरेदवार रीते नाचवा लागे, तेम अनादिनुं मोह कारण पामीने चेतन जे डे ते पोतानो शुक स्वजाव बांमीने विनावथी मूळ पामी रह्यो. हवे समयसार के आत्मानुं वर्णन करतांज मुऊने परम शुद्धताना स्वनावनी थोलखाणथई एटले शुभ स्वनावनी खबर पडी तेथी विनावपणु नाश पाम्यु. तेथी अनायास के० घणा ग्रंथ वाचवानो प्रयास कीधा विनाज वणारसीदास ज्ञाता कहे, के सहज के आत्माने संगे अनादियी चमनी अरुफ ते मिथ्यामत मग्नता लागी रही ते मारी मिथ्यामत मटी जाथो. ॥ ५५ ॥ हवे श्रा जीवनी शुझता ते श्रागमथी पामीये, माटे आगम वर्णवे. अथ श्रा गम व्यवस्था कथन. ॥सवैया श्कतीसाः॥-निहचैमें रूप एक विवहारमें अनेक, याही नै विरोधमें जगत् जरमायो है: जगके विवाद नासिबेको जिन श्रागम है, जामें स्यादवाद नाम लबन सुहायो है; दरसन मोह जाको गयो है सहजरूप, श्रागम प्रमान जाके हिरदेमें आयो है; अनैसो अखंमित अनुतन अनंत तेज, ऐसो पद पूरन तुरत तीन पायो हे.॥५६॥ अर्थः-सर्व आगम ज्ञानरूप निश्चयनयमां एकरूप देखाय बे, अने व्यवहार न यनी अपेदावडे अनेक रूप देखाय बे; पण व्यवहार नयमां नयनो विरोध महोटो बे, एज नय-विरोधमां जगत् नरमायुं , अने एज ब्रमवमे जगत्मां वादविवाद उपज्यो बे, माटे जगत्नो विवाद मटामवाने वचमा प्रमाणिक साहीरूप जिनेश्व रनो आगम बे; जे श्रागममां स्याहाद नाम लेवाथी सर्वपदार्थ- लक्षण सर्वने सो हावे जे; स्यात् एटले केवारेक अव्य अष्टिए देखीए त्यारे ए नय साचोने केवारे क पर्याय दृष्टिए जोश्ये त्यारे ए नय साचो; एवं कहे थके शिष्य पूबे के एवो स्या छाद सहित जिन आगम प्रमाण , त्यारे सर्वना हश्यामां केम थावतो नथी ? जे पुरुषनो अनादि कालनो मिथ्यादर्शनमोह गयो , तेना हश्यामां ए जिन भागम प्रमाणरूप श्राव्यो, पण मिथ्यादर्शनमोहवालाना इदयमां ए श्रावे नही; हवे स्याहादना जाणनारने के फल मले ते कहेजेः-जे पद नय रहित बे, एटले नयनी पेठे नथी, केमके, नयतो एकांत ग्राही बे, ते पूर्ण पदने केम ग्रहण करी शके? श्रने पूर्ण पद अखंमित, ने ते वली अनादि कालथी बे, माटे अनूतन के पुरातन डे एवं अनंत तेजवाबुं पूर्ण पद तेने ते तुरत पाम्यो ने ॥ ५६ ॥ हवे निश्चय अने व्यवहार नयने लीधे श्रागम कह्यो, तेवारे शिष्य पुनेठे के एबे नयमां कार्य सिधिकारी नय कयो ? तेनो उत्तर गुरु थापे ने. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. श्रथ निश्चय व्यवहार कथन. ॥सवैया तेईसाः-ज्यों नर कोनगिरै गिरिसों तिहि, सोश हितु जु गहै दिढ बांही, त्यों बुधकों विबहार ललो तबलों जबलों शिव प्रापति नाही; यद्यपि यों पर बान तथापि सधै परमारथ चेतनमांही; जीव श्रव्यापक है परसों विवहार सुतौ परकी परबांही ॥ ५७ ॥ अर्थः-जेम कोई पुरुष पाहाडनी उपरथी नीचे पमतो होय ने बीजो पुरुष तेनो हाथ मऊबुत काली रही तेने पमतो अटकावी राखे ते तेनो हित करनार कहेवाय%; तेम पंमितीने ज्यां रूधी शिवसुखनी प्राप्ति नथी थई, त्यां सुधी व्यवहार नलो बे; एटले चोथा गुणगणाथी लईने चौदमा शैलेसीकरण गुणगणासुधी व्यवहारनुं आलं बन बे; यद्यपि ए रीते व्यवहार बालंबन प्रमाण बे, तथापि परमार्थ ज्ञान दर्शन चा रित्रनुं शुरूपणु चेतनमांज सधाय; बीजाथी न सधाय; अने जीव जे जे ते पोताना गुणमयी बे, पोताना गुणमा व्यापी रह्यो; परंतु पर के कर्मादिक जडजीव सत्ताथी न्यारा, ते साथे जीव अव्यापक बे. अने व्यवहार तेतो परनी बायामां रहे, ए टले परनी निश्राविना व्यवहार न होय माटे व्यवहार करतां निश्चयनय शुफ ॥५॥ __ हवे शुफनिश्चयनयथी जे सम्यग् दर्शन प्रगटे जे तेनी व्यवस्था विशेषपणे जाण वाने अर्थे कहे, अथ सम्यग् दर्शन व्यवस्था कथन. सवैया इकतीसाः॥-शुद्ध नय निहचै अकेलो थापु चिदानंद,अपनेही गुण परजा यको गहतु है; पूरन विज्ञान घन सोहै विवहार मांहि, नवतत्त्वरूपी पंच ऽव्यमें र दतु है; पंच व्यनवतत्त्व न्यारे जीव न्यारो लखै, सम्यग् दरस यहै उरतैन गहतु है; सम्यग् दरस जोई आतमसरूप सोई मेरे घट प्रगव्यो बनारसी कहतु है॥५॥ अर्थः-शुरू निश्चय नयनी अपेक्षा सेवाथी चेतनामय जे पदार्थ बे, ते पोतानी स त्ताये पोते एकलोज : अने पोतानाज ज्ञानादिक गुणना पर्यायना अवस्था नेदने ते ग्रही रह्यो. श्रने तेज सामान्य ज्ञानने शोधो. जे षट् अव्यादिक विशेष ज्ञान तेने विज्ञान कहीये; अने तेनुं पूर्ण घन के पिंम ते ए व्यवहार नयमांज देखायले; अने एज व्यवहार नयथी नवतत्त्वरूप लई धर्मादिक पांच अव्यमां एकत्र थई रहे. अने एवाज व्यवहारमा शुक निश्चय केवलना पांच अव्य न्यारा डे एम जाणवू अने नवतत्त्वने पण न्यारा जाणवा; एवी अव्य दृष्टिथी अन्य उपाधिनो आश्रय ग्रहण करे नही, तेनेज सम्यग् दर्शनी कहीये, अने जे सम्यग् दर्शन , तेज श्रात्मस्वरूप मारा घटमां प्रगट्यु एवं वणारसीदास कहे ॥ ७ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. एए शिष्ये पुज्युं के जीव व्यथी नव तत्त्व अने पंच अव्य जुदा केम जाणीए तेनो उत्तर गुरु कहेजेः- श्रथ जीवप्रव्य व्यवस्था अग्नि दृष्टांत. ॥सवैया श्कतीसाः॥-जैसै तृन काठ बांस आरनै श्त्यादि और, इंधन अनेक विध पा वकमें दहिये; थाकृति बिलोकत कहावै आगि नानारूप, दीशै एक दाहक सुत्नान जब गहिवे; तैसै नव तत्वमें नयो है बहु नेखी जीव, शुद्धरूप मिश्रित अशुद्धरूप कहिये; जाही बिन चेतना शकतिको बिचार कीजै, ताही बिन अलख बन्नेदरूप लहिये.॥५॥ __ अर्थः-जेम अग्निमां तृण, काठ, वांस अने पारनै के० वननो बीजो कचरो इत्यादि क अनेक तरेहना इंधण बालीये श्येने जेवी जेवी इंधननी श्राकृति एटले (श्राकार) तेवी तेवी श्राकृतिनो अग्नी देखाय; ए रीते अग्नि नाना प्रकारना रूपनो कहेवायचे; पण ते बधा अग्निनो स्वन्नाव एक सरखो दाहक बे; एम जो ग्रहण करिये तो बधो अग्नि एकरूप ले. तेमज नव तत्त्वमां जीव जेडे ते नातनातना नेष धारी रह्यो डे माटे जीव पण बहु वेशी के० नाना प्रकारनो थयो एटले शुरूप जीव , ते मि श्रित थयो, त्यारे ए जीवने अशुरूप कह्यो एनुं नाम व्यवहार नय ; श्रने जे द णमां नवे तत्वमा एक चेतना शक्ति विचारिये, ते वखते शुफ निश्चयनये केवलीवडे नव तत्त्वनो प्रपंच अमुख्य राखीने अलक्षरूप जीन , ते सर्वत्र ते अनेदरूप पामिये शुफ निश्चय नय जाणवो ॥ एए॥ फरी बीजी रीते शुद्धजीव व्यवस्था कहे, अथजीव व्यवस्था बनवारी दृष्टांतः ॥सवैया श्कतीसाः॥-जैसे बनवारीमें कुधातुके मिलाप हेम, नाना नांति नयो पै तथापि एक नाम है, कसिके कसोटी लीक निरखै सराफ तांही, बानके प्रमान क रिलेतु देतु दाम है; तैसैही अनादि पुजलसों संयोगी जीव, नव तत्वरूपमें अरूपी महा धाम है; दीशे उनमानसौ उद्योत बान गेर गैर, दूसरो न और एक श्रा तमाहि राम है ॥ ६० ॥ अर्थः-जेम सोनानी मूसमां चोखू सोनुं गाद्युं थने सोनाथी हीण धातु ते कुधा तु कहिये, तेनां नाम कहे;-रूपुं, त्रांचं, सीसु, जसत, कथीर, इत्यादि वस्तुनो जु दोजुदो हेमनी साथे मिलाप थयो तेथी जुदी जुदी जातनुं सोनुं थयुं, ते बतां एक सोनाने नामे श्रोलखाय; अने ते अशुभ सोनाने सराफ कसोटी पथ्थर उपर क सीने तेनी लकीर जुये ने तेउपरथी सोनुं केवु दे ते प्रमाण करे, जेम था दस रु पीयाना जावन बे ने श्रा अगीयार रुपीयाना जावनुं बे, ने ते माफक तेना दाम आपे लिए बे, तेमज अनादि कालश्री ए जीव पुनल अव्यनो संयोगी माटे ए जीवे नव तत्त्वरूप व्यवस्था धारी, गतिपणे, स्थितिपणे, नाजनपणे, वर्तमानपणे, श्राधारपणे, , Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՍԵ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ए पांचे अव्य ग्रहण कीधां श्रने नवतत्त्वरूप धारण कर्यां पण एमां कोई अरूपी महा तेजवंत अव्य जे ते तो कोई प्रत्यक्ष प्रमाणे ग्रहण थतुं नथी, थने अनुमान वडे लश्ये बश्ये, तेवारे शिष्ये पुब्युंके, अनुमान केQ करीये ? त्यारे गुरु कहे गोर ठगेर उद्योतवान प्रकाशवान अव्य देखाय, तेतो बीजुं कोई अव्य नही, पण एक आ त्मारामज जाणवो; ए अशुद्ध निश्चय नयथी जीव कह्यो. ॥ ६० ॥ हवे एवीरीते जे खोजना करीने परिचय पामिये तेने अनुनव कहिये, ते अन जवनुं स्वरूप केवी रीते बे ? एवं शिष्ये पूछे थके गुरु सूर्यना दृष्टांते कहेजेः । श्रथ अनुजव व्यवस्था सूर्य दृष्टांत. ॥सवैया इकतीसाः॥-जैसै रविमंगलके उदै महिमंडलमें, श्रातप अटल तम पटल विलातु है; तैसै परमातमाको अनुनी रहत जो लों, तो लों कहूं सुविधा न कहू पत्र पातु है; नयको न खेश परवानकोन परवेश, निपके वंसको विधंस होतु जातु है; जे जे वस्तु साधक हैं, तेउ तहां बाधक हैं, बाकी रागदोषकी दशाकी कौन बातु है॥६॥ अर्थः-जेम सूर्यमंडलना उदयथी पृथ्वीमंडलमां श्रातप के तावरो अटल थई जाय, अने तम के अंधकारना पमल नासी जाय, प्रकाश उद्योत थाय, तेमज शुद्ध निश्चयनयना बलवडे ज्यांसुधी अंतरात्मानेविषे परमात्मानो अनुजव रहे, त्यांसुधी कांई पण विविधता न देखाय, पोतपोताना मतनो पक्षपात न रहे, अने यहीं न यनो लेश के अंश न पामिये. नय तो तेने के, जेणेकरीने वस्तुनुं साधन कराय अने अनुभव तो सिक वस्तुनो होय माटे अहीं अनुनवमां नयनो लेश नथी अने एमांप्र त्यद परोदादिक प्रमाणनो पण प्रवेश नथी, केमके जे प्रमाण होय ते तो असिझनुं साधन करे पण सिद्ध वस्तुने शुं साधशे ? अने नाम, स्थापना, अव्य, नाव ए चार नि देपा बे, तेपण असिक वस्तुनुं साधन करे , ते तो जेवारें परमात्मानो अनुनय सिक थयो त्यारे निदेपाना वंशनो विध्वंसज थयो. जेम सूर्यना प्रकाशवडे अंधकारनो नाश थायडे, तेम ए सर्व विलय थाय बे. या परमात्माने नयप्रमाण निक्षेपादिक वस्तु जे जे साधक डे ते सर्व वस्तु परमात्माना अनुलवमां बाधक बे; ज्यांसुधी नयप्रमाण अने निदेपानो परिवार होय त्यां सुधी शुद्ध अनुनव न होय एटलासारु ए बाधक बे. बाकी राग द्वेष दशानी शुं वात केहेवी ? तिहां तो नयादिक कहेवाज जोश्ये. ॥६॥ हवे अनुनवमां शुद्ध रूप जीवज लख्यो तेनी व्यवस्था वचन गोचर जेवी होय तेवी केहेजेः- श्रथ जीव व्यवस्था विवरण हार. पथमिस बंदः॥-श्रादि अंत पूरन सुनाव संयुक्त है; पर स्वरूप परजोग कल्पनामुक्त है; सदा एक रस प्रगट कही है जैनमें, शुद्ध नयातमवस्तु विराजे वैनमें ॥ ६ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. श्रर्थः-श्रादि निगोद श्रने अंत सिक अवस्था, तेनी वच्चे चेतना रूप पोताना पूर्ण खनावेकरी संयुक्त के अने ए चेतनामां पर खरूप जे जड स्वरूप, अने परजोग जे पुजल संयोग, तेनी दशा, कल्पना--विचारणा तेणेकरी मुक्त बे. श्रादि अंतसुधी एकज खनाव . सदा एक चेतना रसमय प्रगट वस्तु बे; ते शुफ निश्चय नयनुं आलंबन लईने जैन श्रागममां कही ने जेवी कही तेवी वचन व्यवहारमा पण विराजमान . ॥ ६ ॥ हवे एकुंज खरूप वचन द्वारवमे गुरु हितोपदेश रूप केदेजेः- अघ हितोपदेश. कवित बंदः॥-सतगुरु कहै नव्य जीवनिरसों, तोरह तुरत मोहकी जेल; समकित रूप गहो अपनो गुन, करहु शुद्ध अनुजवको खेल; पुद्गल पिंम नाव रागादिक, ३ नसों नही तुमारो मेल; ए जमप्रगट गुपत तुम चेतन, जैसै जिन्न तोय अरु तेलने॥३॥ __ थर्थः-अहो नव्यलोक ! वेला थार्ज, मोहनो बंध तोडो. अने तमारो पोतानो स मकित गुण बे, ते ग्रहण करो; अने ते लईने पोताना शुरू श्रनुजवनो खेल खेलो. अने देखवामां जे या शरीर ते पुद्गल पिंम बे. अने कर्म पण पुद्गल पिंम . अने आ पुद्गल पिंडनो राग द्वेषादिक नाव ते स्वजाव बे, पण ए वस्तु साथे त हारो मिलाप नथी. केमके, ए वस्तु तो जम, ने प्रगट , एटले देखवामां आवेडे, ने तमे तो चेतन बो तथा गुप्त बो. त्यारे ते पुद्गल पिंडनी ने तमारी जिन्नता परी; जेम पाणीने तेल निन्न बे, तेनीपरे जाणी लेवं. ॥३॥ हवे एवो उपदेश सांजलीने ते ज्ञाता पुरुष थयो तेनो विलास कहे. अथ ज्ञाताविलास. ॥सवैया इकतीसाः॥-कोउ बुद्धिवंत नर निरखै शरीर घर, नेद ज्ञान प्रष्टिसों वि चारै वस्तु वासतो; अतीत अनागत वरतमान मोहरस, निग्यो चिदानंद लखै वं धमें विलासतो; बंधको बिमारि महा मोहको सुनाउ मारि, बातमको ध्यान करी देखो परगासतो; करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप अचल अबाधित विलोकै देव सासतो.॥२४॥ अर्थः- कोई बुद्धिवंत् सम्यग्दृष्टि मनुष्य होय ते पोताना शरीरमां घरने जुये; अने जड चेतननो निन्न निन्न खनाव जाणवो ते नेद ज्ञान कह्यु;तेमां दृष्टि श्रापीने वस्तु वासतो के वस्तु वनावनो विचार करे. अतीतकाल, अनागतकाल ने वर्तमान कालमां मोहरसविषे नीनो थको, कर्मबंधमां विलास करतो थको पोताना चिदानंद परमात्माने लखे. ते पनी कमेक्रमे बंधने विदारतोज जाय. एवं कार्यकरी मोहना स्व नावने मूकतो जाय श्रने पोताना आत्मानुं ध्यान करे, अने अनुनवमां प्रकाशरूप Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខូចច प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. देखे. त्यारे कर्म कलंक तेहिज पंक के कादव तेथी रहित प्रगटरूपथचल अबाधित सर्व बाध रहित एवो शाश्वत निरंजन देव परमात्मा पोते , एवं देखे. ॥ ६४ ॥ अथ गुण गुणी अनेद कथन व्यवस्था. ॥सवैया तेईसाः॥-शुद्ध नयातम बातमकी अनुभूति बिज्ञान बिजूतिहि सोई वस्तु विचारत एक पदारथ नामके नेद कहावत दोई; यों सरवंग सदा लखि श्रापुहि, था तमध्यान करै जब कोई मेटि अशुधि बिजावदशा तब सिझसरूपकि प्रापतिहोई६५॥ अर्थः-हवे शुद्ध अनुनव जे जे ते गुण बे, एक श्रातमा गुणी , तेनुं जेवू अनेद स्वरूप दे तेवी अनेद अवस्था कही बतावेजेः-शुद्ध निश्चय स्वरूपी आत्मानो अ नुनूति के० जे अनुजव , तेज विज्ञान विजूती के विशेष रूप ज्ञान संपदा . अहीं थात्मा गुणी छे ने अनुलवज्ञान गुण . हवे ए बे वस्तु गुंडे ? एवो जो वि चार करीये तो एकज आत्मा पदार्थ नासे बे. एकज पदार्थमां था गुण अने श्रा गुणी एवां वे नाम बे. तेज नेद केहेवाय. एम सरवंग के सर्व प्रकारे पोतानेज गु णगुणी रूप लखीने ज्यारे कोई आत्मध्यान करे, त्यारे अशुविजाव दशा मटीने सिझस्वरूपनी प्राप्ति थाय. ॥६५॥ अथ शाता चिंतवन स्वरूप कथन. ॥सवैया इकतीसाः॥-अपनेही गुन परजायसों प्रवाहरूप, परिनयो तिहूं काल अपने श्राधारसों; अंतर बाहिर परकासवान एक रस, खिन्नता न गहै जिन्न रहै नौ विकार सों; चेतनाके रस सरवंग नरि रह्यो जीव, जैसे लोन काकर जाँ है रस बारसो; पू रन सरूप अति उज्वल विज्ञान घन, मोकों होहु प्रगट निशेष निरबारसो ॥६६॥ अर्थः-हवे एज वातने जेम झाता लोक पोताना चित्तमां चिंतवे तेज स्वरूप कही देखाडे बेः-श्रा जे कोई थात्मा केहवाय, ते तो विज्ञान घन बे; विशेष ज्ञान मय पिम बे; ते अतीत, अनागत ने वर्तमान ए त्रणे कालमा प्रवाहरूप कस्याथी अ विभिन्न धाराये पोतानाज गुण पर्याये करीने पोतानाज ज्ञानादिक गुणनी अवस्था ने दने लीधे अने पोताना आधारथी परना आश्रयविना परिणामी रहे . अने ए वि झान घननो एवो महीमा के तेथी मांहे अने बाहिर एक चित्त चेतना रसवमे प्र काशवान थयो जे पोताने जाणे ते अंतर प्रकाश अने बाह्य वस्तुने जाणे ते बाहिर प्रकाश एवा कार्यमां खिन्नता ग्रहण न करे; अने नव विकारयी न्यारो रही सर्व प्र देशविषे चेतनना रसे करी जीव भरपूर थई रह्यो बे. ए जपर दृष्टांत कहे डे के, जेम खुणना कांकरा खार रसथी जरेला , तेम चेतना रसथी जीव नरपूर थई रह्यो बे. एवं पूर्ण स्वरूप. ते अखंमित घjउज्वल जे विज्ञान घन पूर्वे वखाण्युं ते मने प्रगट थाओ. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६०१ निशेष निरबार ते सम विजाव दशानुं निवारण करीने पढी ए रीते ज्ञाता पुरुष मनमां चितवे ने मां स्थिर रहे ॥ ६६ ॥ sar sor पर्याय अनेद कथन व्यस्था. ॥ कवित्त बंदः ॥ - - जहँ ध्रुव धर्म कर्म बय लछन, सिद्ध समाधि साध्य पद सोइ; सु धोपयोग जोग महि मंमित, साधक ताहि कहै सब कोइ; यों परत परो स्व रूप सु, साधक साध्य अवस्था दोश; दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सेवै शिव क थिर हो. ॥ ६७ ॥ अर्थ :- विज्ञान घन बे ते द्रव्य बे, घने ज्ञाता केवाय ते पर्याय बे, एम विज्ञान छाने ज्ञाता एक बे, तेथी द्रव्य पर्यायनुं श्रजेदपणुं बतावे बेः- ज्यां सकल क नो दय लखिये एवो ध्रुव धर्म जे निश्चल स्वभाव बे, एवं कोइक सिद्धपणानुं यतुं ते तो पद साध्य केदेवाय बे, छाने शुद्ध उपयोग लेता थका ए मन वचन काय यो गमां मंमित थका तीर्थंकर साधु प्रमुख पर्याय लई रह्या बे; तेमने सहु कोई साधु कदेबे एवं साधुपणुं ते प्रत्यक्ष स्वरूप बे; अने साध्यपणुं ते परोक्ष स्वरूप बे. ए बन्ने अवस्था लईने एक विज्ञान घन बे. मोक्षने इछनार साध साध्य बन्नेने एक ज्ञान संचयवडे सेवे, ते बन्ने पदमां विज्ञान घन एक बे; अने ए बन्ने पदनी सेवामां स्थिर थई रहे ॥ ६७ ॥ sarso गुण पर्याय भेद व्यवस्था कथन. ॥ कवित्त छंदः ॥ - दर्शन ज्ञान चरन त्रिगुनातम, समल रूप कहिये विवदार; नि दचे दृष्टि एकरस चेतन, जेद रहित अविचल विकार; सम्यग् दशा प्रमाण उ नै नीर्मल समल एकही बार; यों समकाल जीवकी परिनति, कड़े जिनंद गढ़े गनधार• ॥ ६८ ॥ नय, अर्थः- शिष्य बेबे के, स्वामी ! तमे अजेद व्यवस्था कही ते कया नयना बल बड़े कही ? गुरु देबे के, व्यवहार नय वडे द्रव्य गुण पर्यायनी जेद अवस्था बे ते कहुं हुं . - ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रणे आत्माना गुण बे; ए स्वरूपथी जे व्यवहार क ही ते समल रूप बे; छाने एज निश्चय दृष्टिथी जोइये तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र एक चेतना रसमय देखाय बे, छाने चेतनाज चेतन बे, तेथे करीने जेदरहित श्रविचल विकार निर्मल रूप बे. निश्चय नय ने व्यवहार नय ए बन्ने बे ते सम्यग् दशामां प्रमाण बे; जे नय बे ते तो अभिप्राय विशेष बे, माटे एकज श्रव्यक्त रूप निर्मल तथा समल रूप जाणिये. एम समकाले निर्मल ने समल जीवनी परिणति थई रही बे, ते श्री जिन देव कहे बे ने गणधर देव सर्दहे बे. ॥ ६८ ॥ ७६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अथ व्यवहार कथनं. ॥ दोहराः ॥ - एक रूप आतम दरब, ज्ञान चरन दृग् तीन; जेद जाव परिनाम सो विवहारे सु मलीन ॥ ६५ ॥ ६०१ अर्थः- दवे ज्ञान, दर्शन, चारित्रनुं त्रिक बे ते व्यवहार नयथी थाय बे; ते कहे :- श्रात्म द्रव्य जे बे ते एकरूप बे, ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रण जे बे ते नेद जाव परिणाम बे; त्यारे एक विषे त्रण भेद थया तेथी ए व्यवहार नयवडे समल रूप थयुं. ॥६॥ sar निश्चय स्वरूप कथन ॥ दोहराः ॥- यदपि समल विवहारसों, पर्यय शक्ति छानेक; तदपि नियत नय देखिये, शुद्ध निरंजन एक. ॥ ७० ॥ अर्थः- निश्चयनयेकरी निर्मल स्वरूपमांज ध्यावतुं जलुं वे ते केदेबे :- यद्यपि व्यव दारनयनी अपेक्षाथी श्रात्माने विषे अनेक शक्ति अनेक पर्याय देखायबे; माटे ते स मल बे; तोपण निश्चय नयनी अपेक्षायी शुद्ध निरंजन एकज जाण्यामां आवे ॥ ७० ॥ अथ शुद्ध कथन. ॥ दोहराः ॥ - एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक तौर; समल विमल न विचा रिये, हे सिद्धि नहि और. ॥ ११ ॥ अर्थः- हवे शुद्धरूपीज उपादेय बे एवं केदेबे :- जे एक शुद्ध चेतनामय रूपज देख ते दर्शन, तेमज जाणवुं ते ज्ञान; अने तेमां जे रमि रहेतुं ते चारित्र बे; ते न यनी अपेक्षाव समल अथवा विमल रूप विचारखं नही. एहिज सिद्धि कहिये, पण बीजा स्वरूपमा सिद्धि नथी. ॥ ७१ ॥ अथ शुद्ध अनुभव प्रशंसाः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जाके पद सोहत सुलहन अनंत ज्ञान, विमल विकासवंत ज्योति लहलही है; यद्यपि त्रिविध रूप व्यवहारमें तथापि, एकता न तजै यों नियत कही है; सो है जीव कैसीहू जुगतिके सदीव ताके, ध्यान करिबेकों मेरी मनसा उमदी है; जाते अविचल सिद्धि होतु और जांति सिद्ध, नांहि नांहि नांहि यामें धोखो नहि सही है. ॥ ७२ ॥ अर्थः- हवे एवा स्वरूपनो अनुभव स्थिर रहेवो ते दुर्लन बे, माटे सर्व ज्ञाता एनो मनोरथ करे बे. जेनेविषे अनंत ज्ञानरूप सुलक्षण शोनेबे, अने विमल विकास वंत के० पोतानुं तथा परनुं जाणवुं एवी ज्योति जेनेविषे लहलही बे, छाने यद्यपि व्यवहारनयमां बाह्यात्मा, अंतरात्मा, तथा परमात्मा ए त्रिविध रूप बे, तथापि निश्च नयनी अपेक्षाथी एकताने त्यजे नही एवं एकरूपी कर्तुं बे; ते एवो पदार्थतो जीव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६०३ बे. हवे ते युक्तिथी करी यागल केदेशे . ते युक्तिये करी निरंतर तेनुं ध्यान करवाने मारी होंस मनमां उमंगी रही बे. जेना ध्यानथी पोतानी ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रुद्धि अविचल थायबे, एज रीते सिद्धि बे, पण बीजे कोई प्रकारे सिद्धि नथी. एमां कई धोखो नथी, एटले जूनुं नथी, एज वात साची बे. ॥ ७२ ॥ ताकी व्यवस्था वर्णनं. ॥ सवैया तेईसाः ॥ - के अपनो पद श्रापु सँजारत, के गुरुके मुखकी सुनि बानी;जेद विज्ञान जग्यो जिनके प्रगटे, सु विवेक कला रज धानी; जाव अनंत जये प्रतिबिंबित, जीवन मोष दशा उदरानी; ते नर दर्पनज्यो श्रविकार र थिर रूप सदा सुखदानी ॥ ७३ ॥ अर्थः- वेद विज्ञानवडे एनो अनुभव थाय बे तेथी मुक्ति मले तेज परमार्थ कदेबे :- कोई तो पोतानुं पद जे पोतानु निरालंब स्वरूप, ते पोतेज संजारीने पोताव डे ग्रंथी नेद करी पोताने नलखेडे. कोई तो गुरुना मुखनी वाणी शांजलीने पोताने लखेडे; अने जेना घटमां जन-चेतननुं जेद विज्ञान जाग्युं तेणे करी पोताना चेतन रूपनी जे न्यारी कला बे, तेनी राजधानी जे तेनुं ईश्वरपणुं जेना घटमां प्रगटयुं; छाने एज राजधानीमां अनंत जाव पदार्थ प्रतिबिंबित थया, तेना झायक थया एटले जी वता थकाज मोक्ष दशा वरी, मुक्त स्वरूपी थया. अने एमां अनंतनाव प्रतिबिंबित यया तोपण समलरूप न यया, तेथी ते मनुष्य दर्पण एटले श्ररीसानीपरें विकार र हित थया, स्थिररूप थया, अने सुखदायक थयाबे ॥ ७३ ॥ अथ नेद ज्ञान प्रशंसा कथनं. ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - याही वर्त्तमान समै जव्यनिको मिढ्यो मोह, लग्यो है अना दिको पग्यो हे कर्म मलसो; उदो करै नेदज्ञान मद्दारुचिको निधान, उरको उजारो जारो न्यारो हुँद दलसों; याते थिर र अनुजौ विलास गर्दै फिरि कबदों, अपनपो न कहै पुदगलसों; यह करतुति यों जुदाइ करै जगतसों, पावकज्यों जिन्न करे कं चन उपलसों ॥ ७४ ॥ अर्थः- दवे नेदविज्ञाननी उत्पत्ति ने महीमा कदे :- था वर्त्तमानकाल विषे toलोकनो मोह भ्रम टली जाय; जे मोह कर्म, आत्माने अनादिकालथी लाग्यो बे; कर्ममलमांव्यापी रह्योबे; ते मोह जम मटवाथी नेद विज्ञाननो उदय थाय, ते नेद विज्ञान के कुंबे ? मद्दारुचिनुं निधान डे. ए जेद विज्ञानमां महोटी रुचि पामीये ये एटले महारुचिनुं कारण बे. जेद विज्ञानथी गरिष्ट उरनुं श्रजवालुं प्रगट थाय बे, ते जवालुं कुंबे ? एटले महा धाम घुमथी न्यारोबे; द्वंद्व दशाथी नीकली स्थिरतामां रहे, छाने पो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ताना अनुनवनो विलास ग्रहण करे, पोताने सत्यार्थपणे जाणे, पनी ए नेद विज्ञान पाम्या थकी शरीर कर्मादि पुजल रूपी जाणीने पोतानुं न कहे. आत्मा रूप न कहे करतुति के ए जे नेदविज्ञाननी क्रिया तेज जगत्थी जुदाईने करे, पांच अव्यथी जुदाई करे, श्रहीं दृष्टांत बतावेजेः- जेम अग्नि, माटी पाषाणने कंचनथी जुदां करे ने तेम जाणी लेवू ॥ १ ॥ श्रथ परमार्थ शिक्षा कथन. ॥सवैया इकतीसा॥- बनारसी कहै जैया जव्य सुनो मेरी शीख, केडं जांति कसे हुके एसो काज कीजिए; एकहु मुहुरत मिथ्यातको विध्वंस होइ ज्ञानको जगा अंस हंस खोजि लीजिये; वाहीको विचार वाको ध्यान यहै कोतुहल, योंही नरि ज नम परम रस पीजिए; तजी नववासकी विलास सविकाररूप, अंतकरि मोहको श्र नंत काल जीजिए. ॥ ५ ॥ अर्थः-हवे शुरू जीवाव्यमां रहे तेज परमार्थ तेनी शिक्षा कहे:- बणार सीदास केहेजेः- अहो नाई नव्य जीवो, मारी शीक्षा सांजलो. कोइ पण रीतेथी कोई जव्य क्षेत्र काल नाव पामीने एवं काम करवं के जेणे करीने एक मुहर्त्तमात्र मां मिथ्यात्व मोहनो विध्वंस थाय श्रने झाननो अंश जगावी लेवो, अने “सोहं हंसो" एवी ध्वनि करतो हंस जे आत्मा तेने खोजी लश्ये. पडी तेनुं लक्षण विचारवं, पड़ी तेने लखीने तेनुं ध्यान करवं. एवी एनी कला खोजीने कुतूहल जे खेल ते कस्या करिये; श्रने तेज जन्म पर्यंत परम रस पीवो. एरीते सविकार रूपथी फेली रह्यो एवो नववासनो विलास तेने तजीने तथा मोहनो अंत श्राणीने अनंत कालसुधी जीजिए. जयवंता वर्तिये! एटला प्रकारे सिक थवाय बे.॥ ५॥ अथ तीर्थंकरकी स्तुति, बाह्यरूप कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-जाकी देहऽतिसों दसो दिशा पवित्र जई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं; जाको रूप निरखी थकित महारूपवंत, जाकी वपुवाससों सुवास और बुके हैं; जाको दिव्य धुनीसुनिश्रवनकों सुख होत, जाके तन लबन अनेक आश् टूके हैं;तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहचै निरखि सुरु चेतनसों चुके हैं ॥ १६ ॥ अर्थः- हवे चेतन महीमावान थयाथी पुजलपण महिमावान थाय माटे कवि राज तीर्थकरना बाह्य शरीररूपपुजलनो महीमा कहेः-जेनी देहनी युति एवी पसरी रहीने के जेथी दशे दिशा पवित्र थई जायजे; एटले शोजायमान थायडे अने जेना तेज श्रागल सर्व तेजवाला बुपी जाय एटले सर्व देवता मंद तेजवंत थायजे. अने जेनुं रूप जोईने महारूपवंत पंच अनुत्तरवासी देवता पण चकित थर रहे थने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६०५ जेना शरीरनी सुवासथी अन्य सुवासी वस्तु सर्व लुकी जायबे ने जेनी दिव्य ध्वनि सांजलीने श्रवणने सुख थाय बे, एटले जव्य अजव्य सर्वने ते वाणी मीठी लागेबे ने जेना शरीरमां अनेक शुभ लक्षण श्रावी दुकी रह्याबे एवा श्री जिनराज देव बे, तेमना एटला गुण कह्या ते अशुद्ध व्यवहार नयनो श्राश्रय लइने कला पण, निश्चयनयथी ए कला गुण सर्व शुद्ध चेतननी ० जिन्नता दर्शावेळे ॥ १६ ॥ ाथ जिन स्तुति व्यवहाररूप पुनः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जामें बालपनो तरुनपनो वृद्धपनो नांहि, श्रयु परजंत महारूप महा बल है; बिनाहि जनत जाके तनमें अनेक गुन, श्रतिसै विराजमान काया निर मल है; जैसे विनुपवन समुद्र अविचलरूप, तैसे जाको मन रु वासन अचल है, ऐसो जिनराज जयवंत दोन जगतमें, जाकी शुभगति महा सुकृतिको फल है ॥७॥ अर्थः- हवे फरी व्यवहारनय वडे जिन स्तुति करे :- जेमां जन्मथी मांडीने मरण पर्यंत महारूप अने महाबल समान रहे; पण बालपणु, तरुणपणु, वृद्धपण, ए त्रण जे व्यवस्थाना नेद तेमां रूपमां ने बलमां नेद न पामे, जेना सहज स्वावे जतन विना शरीरमां अनेक गुण यावी रहे; अने जेने विषे चोत्रीस अतिशय गुण विराजमान थई रह्या बे; अने जेनी काया प्रस्वेदरहित निर्मल रहेबे; जेम पवननी बहेर विना समुद्र अचलरूप थई रहेबे, तेम जेनुं मन अचल बे; ने श्रासनपणाच बे, हीं गतिनी अपेक्षाविना शासन अचल कर्तुं बे, पण निरंतर अचल श्रास न संजवे नही, एवा जिनराजदेव जगत्मां जयवंत थाड. जेनी रूडी नक्ति करवायी महामुक्ति फलनी प्राप्ति थाय बे. ॥ 99 ॥ यथार्थ कथनः ॥ दोहराः ॥ - -जिन पद नाहिं शरीरकों, जिन पद चेतन मांहि; जिन बर्नन करूं और है, यह जिन बर्नन नांदि ॥ ७८ ॥ अर्थ :- एटली व्यवहार स्तुति करीने दवे सत्यार्थ वात कड़े बे:- ए जे जिन नाम बे ते जीव विपाकी बे पण पुल विपाकी नथी, तेथी जिनपद ते शरीरनुं नथी, जिनपद तो चेतननुं बे; तेथी जिनेश्वरनी स्तुति कोई नरज बे पण पूर्वे जे जिनेश्वर नी स्तुति करी ते जिन स्तुति नथी. इहां शरीर जम बे ने श्रात्मा चेतन बे ए बने जाव जिन्न स्वभावमां बे तेनुं दृष्टांत श्रपेढे ॥ ७८ ॥ अथ जन चेतन जिन्नाव दृष्टांत कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - उंचे उंचे गढके कंगुरे यों विराजत हैं, मानो नज लोक लील ant दांत दियो है; सोहे चिह्नोंतर उपबनकी सघनताई, घेरा कर मानो भूमि लोक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. घेर लियो है; गहरी गंजीर खाई ताकी उपमा बनाई, नीचो करि श्रानन पाताल जल पियो है; ऐसो है नगर यामें नृपको न अंगकोज, योंही चिदानंदसो शरीर जिन्न कियो है ॥ ७ ॥ अर्थः- जेम कोई गढना उंचा उंचा कांगरा बिराजे वे ( श्रहिं कवि उत्प्रेक्षण करे बे.) पण ते कांगरा नथी पण मानुं हुं जे या नगरमां स्वर्गलोकने गली जवाने दांत यां बे; एटले जाणे स्वर्ग लोकने गली जशे अने एनी चारे तरफ उपवन एटले बाग वाडीनी सघनता एवी शोजी रही बे के जाणे भूमिलोक एटले मनुष्य लोक तेणे घेरी लीधो बे. अने ए नगरनी चारे बाजुए की खाड़ीबनी ते जाणे नीचुं श्रा नन एटले मुख करीने पातालज पाणी पातो होयनी ए रीते जेणे त्रणे लोक जीत्या बे एवं नगरनुं वर्णन कीधुं पण ए नगरमां कोइराजाना अंगनुं कांइ वर्णन की धुं नथी मतलब के चिदानंद की शरीरने जिन्न करी बताव्यं ॥ ७ ॥ अथ तीर्थंकरकी निचै स्तुति सरूप कथन वस्तु वर्णनं. ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जामें लोकालोकके सुनाउ प्रतिमासे सब, जगी ज्ञान सगति बिमल जैसी श्रारसी; दर्शन उदोत लियो अंतराय अंतकी, गयो महामोह जयो परम महारसी; संन्यासी सहज जोगी जोगसों उदासी जामें, प्रकृति पंचाशी लगि रहि जरि बारसी; सोहै घटमंदिरमें चेतन प्रगटरूप, ऐसो जिन राजतांहि बं दत बनारशी ॥ ८० ॥ अर्थः- दवे तीर्थंकरपदने लेइ रहेली जे वस्तु बे तेमा स्वरूपनुं वर्णन करे :जेमां लोक ने लोकनो स्वभाव एटले खट् द्रव्य जाव प्रतिजासी रहे, एवी ज्ञान शक्ति निर्मल प्रगटी बे. जेम खारीसामां पदार्थना जाव जासेबे, एवी रीते जेना ज्ञा नमां सर्व जाव जासेबे, एटले ज्ञानावरण गयुं, अने दर्शनावरणना नाश थवाथी के वल दर्शन, उद्योत थयो. अने अंतराय नाश कस्यो, तेथी अनंतवीर्य धैर्यवंत थयो; अने महा मोह कर्म जे बे ते नाश पाम्युं; तेथी परम उत्कृष्ट महर्षि थयो; तेणे करी यथाख्यात चारित्रनो संन्यास एटले तेनो धारण करनार ज्ञान दर्शनचारित्र या दि जे सहजयोग बे तेनो धरनार, मन वचन कायना योगथी उदास थइने श्रघातिक चार कर्मनी पंच्यासी प्रकृति सत्ताये रहि बे, ते पण बलीने खाख जेवी यर रही बे; जेना घटमंदिरमां चेतन देव बे ते प्रगटपणे साक्षी रह्यो बे. एवा श्री जिन राज देवतेने वणारसीदास वंदन करेबे. ए निश्चय स्तुति कही ॥ ८० ॥ हवे एवा शुद्ध चेतननी स्तुतिनुं दृष्टांत देखाडीने निश्चय व्यवहारनो निर्णय करे d. or श्री निश्चय व्यवहार तीर्थंकर स्तुति कथनः Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६०५ ॥ कवित्त छंदः ॥ - तनु चेतन विवहार एकसें, निचे जिन्न जिन्न है दो; तनु स्तु ती विवहार जीव श्रुति, नियत दृष्टि मिथ्या श्रुति सो; जिन सो जीव जीव सो जिनवर, तनु जिन एक न माने कोइ; ता कारन तनकी स्तुतिसों, जिनवर की स्तुति नहि होइ ॥ ८१ ॥ अर्थ :- शरीर ने आत्मा ए बने व्यवहारमां एक सरखा बे; छाने निश्चयथी जोये तो बनें जुदा जुदा बे. एमाटे तननी स्तुति करतां जीवनी स्तुति करिये ए व्यवहार बे ने निश्चय दृष्टिथी जोतां ते मिथ्या स्तुतिबे. जिनपद कर्म जे बे ते जीव विपाकी छे, पण पुल विपाकी नथी, तेथी जिन ते जीव बे, श्रने जीव ते जिन बे; पण शरीर ने जिन एक करी न मानीए; ते कारणे तननी स्तुति करी ते जिनव रनी स्तुति थई नही. ॥ ८१ ॥ वस्तु स्वरूप कथन दृष्टांत करी डिढाश्यतु है: ॥ सवैया तेईसाः ॥ - ज्यों चिरकाल गडी वसुधा महि, जूरि महानिधि अंतर गूजी; को उखारि धेरै महि ऊपरि, जो हगवंत तिन्है सब सूजी ; त्यों यह आतमकी अनुभूति पगी जम जाव अनादि रूकी; नैजुगतागम साधि कही गुरु, लछन वेदि विचछन बूजी ॥ ८२ ॥ अर्थः- शिष्य पुढे के एवो अनुपम महीमानो धारक जीव था शरीरमां केम पा मिये? त्यारे गुरु दृष्टांत श्रापी न्यारी श्रद्भुत स्वरूप वस्तु या शरीरमां दृढावे बेः- जेम कोई महानिधि घणा काल सूधी धरतीनी अंदर दटाई रही होय, ते अंतर गुप्त थई रहेली लक्ष्मी ने कोई खोदी काढी जमीन उपर मूके त्यारे जे नेत्रवंत पुरुष बेतेने बधी देखाई श्रावे. तेम श्रा श्रात्मानो अनुभव अनादि कालथी जड एटले पुल sarai दटाई रह्यो बे, तेने नयसहित श्रागम जे सिद्धांत तेणेकरी गुरुए साध्य एटले साधने करी सिद्ध करी दीधाथी विचक्षण पुरुष तेने सारी पठे जाणी लियेते. ॥ ८२ ॥ हवे तेनो नेद ज्ञान पाम्याथी उपादेय वस्तुनुं उपादान करवायी यावे ते उपर धोबनुं दृष्टांत बतावे :- छाथ जेदज्ञान स्वरूप कथन धोबीको दृष्टांतः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जैसे कोउ जन गयो धोबी के सदन तिन्द, पहियो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है; धनी देखि कह्यो नैया यह तो हमारो वस्त्र, चीन्ह्यो पहिचा नहीं त्याग जाव लह्यो है; तैसैदी अनादि पुदगलसों संयोगी जीव, संगके ममत्वसों बिजावता में बह्यो है; जेद ज्ञान जयो जब थापो पर जान्यो तब, न्यारो परजावसों स्वाव निज गह्यो है. ॥ ८३ ॥ अर्थः- जेम कोई मनुष्य धोबीने घेर गयो अने पारकुं वस्त्र पोतानुं मानी जूलमां Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो. लईने पेहेतुं, एटलामां ते वस्त्रनो खरो मालक मट्यो, तेणे जोईने कधुं के, जाई, या वस्त्र जे तें पेहेयुं बे, ते महारं बे. ते वखते पेला मनुष्ये ते वस्त्र जोयुंने परा युंज बे एवं जाएयुं, तेवारे ते वस्त्रनो त्याग जाव उपज्यो, ने तेणे ते वस्त्र तेनाध पीने वाले की धुं. तेमज जीवने अनादि कालयी पुलनो संयोग थयो बे, एटले शरीर तथा कर्मनो संयोगी जीव अनादि कालनो बे, ते संगना ममत्वथी विजावता एटले उलटा जावमां वही रह्यो हतो ते ज्यारे जड चेतननी निन्नतानुं ज्ञान ययु त्यारे ते पोताना स्वरूपने तथा परना स्वरूपने समज्यो; अने ते पर रूपथी जुदो थयो ने पोताना स्वरूपनुं ग्रहण कीधुं ॥ ८३ ॥ ज्यारे निश्चय पोतानुं स्वरूप जायुं त्यारे ज्ञाता एवो विचार करवा लागे ते कहेबे :sar निश्चय स्वरूप कथनः ॥ मिल बंदः ॥ - कहै विचछन पुरुष सदा हों एकहों, अपने रससों जस्यो श्रापनी टेकहों; मोड़ कर्म मम नांहि नांहि जम कूप है; शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है . ॥ ४ ॥ अर्थः- विचक्षण पुरुष केदेबे के, हुं सदा एक पणे रहुं हुं; चेतना रस वडे जर पूर ढुं, अने पोताना आधारथी रहुं हुं, मने बीजानो श्राश्रय नथी, अने जे जात जा तनो मोद कर्मनो प्रपंच बे ते महारुं स्वरूप नथी, ए चम रूप कूप बे ते मारुं स्व रूप नथी; पण शुद्ध चेतनानो सिंधु के० समुद्र ते मारुं रूप बे. ॥ ८४ ॥ दवे एवा पोताना स्वरूपने जाण्याथकी केवी अवस्था प्राप्त थई ते केदेबे : अथ ज्ञान व्यवस्था कथनः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - तत्त्वकी प्रतीतिसों लख्यो है निज पर गुन, हग ज्ञान चरन त्रिविध परिनयो है; विसद विवेक थायो आबो विसराम पायो, श्रपुदीमें आपनो सहारो सोधि लयो है; कहत बनारसी गहत पुरुषारथकों; सहज सुनाउ सों वि जाउ मिटि गयो है; पन्नाके पकाय जैसे कंचन विमल होतु, तैसे शुद्ध चेतन प्र काश रूप नयो है. ॥ ८५ ॥ अर्थः- एवी जीव तत्त्वनी प्रतीति थइ तेणे करीने ज्ञानादिक निजगुणाने परगुण बीजा व्यनागुण जे गति, स्थिति, श्रवगाद, वर्त्तना, वर्णादिक ए सर्व लखीने दर्श न, ज्ञान अने चारित्र ए त्रणे गुणने विषे परिणमी रह्यो बे; निर्मल विवेक श्राव्याची सारो विश्राम पायो ते स्थिरता पामीने पोतानो विषेज पोतानो सहज स्वभाव शो धी लीधो. हीं वणारसीदास केबे के त्यारे या पुरुषार्थ ते श्रात्मस्वरूप अर्थ तेनुं ग्रहण करीने सहज स्वजावमां राग द्वेष मोहरूपी विजाव जे अनादिकालनो हतो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री समयसारनाटक. ६०ए ते मटी गयो. अहीं दृष्टांत कहेजेः- जेम पाकी इंटनी जठीमां गालवाथी सुवर्ण नि र्मल थायडे, तेम शुभ चेतन निर्मलरूप थईने प्रकाश रूप थयो. ॥ ५ ॥ हवे विजाव बूटवाथी निज स्वरूप प्रगटताने पामे तेउपर नटी जे नाचनारी स्त्री, तेनुं दृष्टांत कही देखाडे बेः-अथ वस्तु स्वरूप कथन पातरको दृष्टांतः सवैया इकतीसाः॥- जैसै कोन पातर बनाय वस्त्र बाजरण, श्रावतिथखारे निशि श्राडो पट करिके; उहू उर दीवटि संवारि पट दूरि कीजे, सकल सजाके लोक देखै दृष्टि धरिके; तैसै ज्ञान सागर मिथ्यात ग्रंथि जेद करि, उमग्यो प्रगट रह्यो तिहुं लोक नरिके; ऐसो उपदेस सुनि चाहिये जगत जीव, सुद्धता संजारे जग जालसों निकरिके. ॥ ६ ॥ - अर्थः- जेम कोई नाचनारी स्त्री श्रामो पट करीने तथा वस्त्रानूषणवडे पोतानो वेष मनोहर बनावीने रातना वखते अखामामां श्रावी ऊनी रहे, ते थामा पटथी रात्रीनेविषे देखाय नही, ने ज्यारे अंतरपट पूर करी बेहु तरफ हाथमा काकडा स लगावी परिब्द दूर करे त्यारे सर्व सजाना लोक दृष्टि धरीने तेनां रूप शणगार व गेरेनी शोजा प्रगट जोई रीके बे, तेम झाननो सागर एवो जे श्रात्मा, ते मिथ्यात्व रूप श्रामा पटथी प्रबन्न रह्यो हतो, ते कोई समे मिथ्यात्व ग्रंथी रूप पटने नेदीने प्र गट थयो; ते ज्ञान समुह त्रण लोके नरी रह्यो बे; एटले त्रणे लोक ए आत्माने विषे नासी रह्या बे. हवे गुरु कहे के अहो ! जगत्वासी जीव, में जे पूर्वे उपदेश दीधो एवा उपदेशनुं श्रवण करवु तारे जरूरनुं बे; ते सांजली जगत् जाल मांथी नि कलीने तारी शुभ दशाने संजारी ईश. ॥ ६ ॥ ॥इति श्रीसमयसारनाटिकना प्रथम जीव हारनुं निरूपण बालबोध सहित समाप्त थयु.॥ ॥दोहरोः॥-जीव तत्व अधिकार यह, कह्यो प्रगट समुजाश्; अब अधिकार अजी वको, सुनो चतुर मन ला. ॥ ७ ॥ अर्थः- जीवतत्त्वतुं जेतुं स्वरूप तेनो ए अधिकार एटले स्वरूप, लक्षण, गुण, प्रगट समजाव्यां. हवे बीजो जे अजीवधारने, तेमां अजीवनो अधिकार मुख्यपणे क रीने कहुंडं; ते चतुर लोको चित्त दईने सांजलजो. ॥ ७ ॥ _हवे अजीवने पण ज्ञानवडेज जाणवानुं बने अने आ ग्रंथमा अनिधेय ज्ञान माटे संपूर्ण ज्ञाननी अवस्था निरूपण करेजेः-श्रथ ज्ञानकी व्यवस्था कथनः ॥सवैया श्कतीसा॥-परम प्रतीति उपजागनधरकीसी, अंतर अनादिकी विजावता .. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. बिदारी है; नेदज्ञान दृष्टिसों बिबेककी सकति साधि, चेतन अचेतनकी दशा निरवारी है; करमकी नासकरी अनुज अन्यास धारी, हिये में हरख निज शुद्धता संजारी है; अंतराय नास गयो शुद्ध परकास जयो, ज्ञानको विलास ताकों बंदना हमारी है. अर्थः- प्रथमथी जे ज्ञानवडे जव्य लोकना श्रात्मामां गणधरनी माफक तत्त्वनी परम प्रतीति उपजावी, अने समकालपणे अंतरात्माने विषे अंतरनी जे अनादिनी वि जावता ( मूढता) तेने विडारीबे, घने जड चेतन ए बने जिन्न बे एवं नेदज्ञान प्रगटयुं तेन दृष्टि तेज विवेकनी शक्ति ते साधि एटले जुदा जुदा गुण पर्याय जाण्या, अने जुदा जुदा जाणीने चेतन तथा जड तेनी दशा ठीक कीधी, ते पछी गुण श्रेणिने ध रीने कणेक्षणे कर्मनी निर्जरा करवा लाग्यो, ते करी अनुभव अन्यास कीधो, एटले सत्य प्रत्ययमां पेठो, अने दयाने विषे हर्ष पाम्यो अने पोतानी शक्ति उत्कृष्ट कीधी. ए कार्य तां अंतराय कर्म जांग्युं, अने केवल रूप प्रकाश पाम्युं, एवो कोई कमे *मे करी ज्ञाननो विलास उत्पन्न थयो, तेने श्रमारी वंदना ॥ ८८ ॥ शिष्य पूबे ने के, स्वामी ! तमे जे ज्ञान विलास कह्यो, तेतो तेवोज बे, पण ते पा मनुं दुर्लन बे. ते उपर गुरु परमार्थनी शिक्षा दिये बेः-थ परमार्थ शिक्षा कथन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - नैया जगवासी तूं उदासी व्हैके जगत्सों, एक महीना उपदेस मेरो मानु रे; और संकलप विकलपके बिकार तजि, बैठके एकंत मन एक ठगेर खानु रे; तेरो घट सर तामें तुंही है कमल ताकों, तूंही मधुकर है सुवास पहचानु रे; प्रापति न है है तु ऐसो तूं विचारतु है, सही व्हे प्रापति सरूपयाही जानुरे ||८|| अर्थः- अरे जीव जगत्वासी नाई तुं जगत् के० जब जमणा तेनु कारण ( शब्द, स्पर्श, रूप, रसने, गंध, ) एने याचारांग सूत्रना वचनथी जगत् कहियें, तेथी उदास थईने, एक महिना सूधी अखं धाराए मारो उपदेश शांजल एटले मान्य कर. मां महीना कह्या ते उपलक्षणथी जाणवा, पण नियम नथी, अने श्रातरौद्रध्या नयी ज्ञान दशामां संकल्प विकल्प घणा ऊठे, तेथी श्रात्माने विषे विकार उपजे बे, माटे ना विकार तजीदे ने एकांत आसने बेसी मनने एक ठेकाणे परिणामश्री राख तारो घट के० शरीर तेनेज सरोवर जेवो देख; अने तेमां एक उज्वल कमल जोइयें, ते कमल तुंज बे; श्रने तुंज उज्वल रूपने लीधे मधुकर रूपे था; एम कर वाथी तुं सहस्र दल कमलमां विलास कर; ए पिंमस्थ ध्यान लगाव्यं एटलुं कार्य क वाथी पोताना स्वरूपनी प्राप्ति न थशे एवं तुं क्यारे पण विचारीश नही. एवा प्राणा यामवडे कमल कोष खुलशेने पोताना रूपनी प्राप्ति यशे; एज रीते ज्ञानगुण खुलशे ॥८॥ वे जीवने जीव एक सरखा थई रह्याबे, ते जुदा जुदा लक्ष्णवडे देखाडेते. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६११ अथ वस्तु व्यवस्था वर्णनं:॥दोहराः॥- चेतनवंत अनंत गुण, सहित सु श्रातमराम, याते श्रनमिल और सब, पुजलके परिणाम ॥ ए० ॥ अर्थः-चेतनावंत ने श्रने अनंत गुणसहित जे पदार्थ ले ते तो श्रातमाराम जाणवो; अने जे एटलां लक्षणोथी मलेला नथी ते सर्व अपर पुजलना परिणाम जाणवा. ॥ ए॥ हवे एवी पिगन अनुजवविना न होय माटे अनुजवनी प्रशंसा कहेजेः श्रथ अनुभव प्रशंसाः॥कवित्त बंदः॥-जब चेतन सँजारि निज पौरुष, निरखै निज दृगसों निज मर्म, तब सुखरूप विमल अविनाशक, जानै जगत शिरोमनि धर्म; अनुनौ करै शुद्ध चेतनको, रमै सुनाउ वमै सब कर्म, शहि बिधि सधै मुक्तिको मारग, अरु समीप श्रावै शिव सर्मः ॥ ए॥ अर्थः-ए चेतन जे , ते ज्यारे पोतानुं पुरुष के पराक्रम संजारे, ने पबी पोतानी दृष्टि करी पोतानुं मर्म जे चेतनपणुं बे ते निरखे; त्यारे पोतानो धर्म के स्वन्नाव सुख रूप जे निर्मल पणुं, अविनाशी पणुं, जगशिरोमणीपणु, सहज स्वरूप तेने जाणे. एज श्रनुजव एटले जे निःसंदेह यथार्थ ज्ञान के तेज चेतनने शुरू करे, अने एज अनुजव जे जे ते पोताना खनावमां रमे श्रने सर्व कर्मने दूर करे, एरीते श्रनुजव वडे मुक्ति मार्ग सिफ थायजे; अने शिवशर्म के मोदनुं सुखते पामे ॥ ए१॥ हवे ए अनुजवथकी चेतनविषे पोतानुं अस्तित्व साधीने परतुं नास्तित्व साधेजेः अथ अनुजव प्रशंसाः॥ दोहराः॥- बरनादिक रागादि जम, रूप हमारो नांहि; एक ब्रह्म नहि दूसरो, दीसे अनुजव मांहि.॥ ए॥ अर्थः-श्रा शरीरमा जे वर्ण, गंध, रस,स्पर्श राग द्वेषादिक पदार्थनेविषेमोह लेते मारं आत्मरूप नश्री; धने अनुभव विष पोतानुं एकज जाणपणानुं रूप श्रमे जोश्ये बश्ये. पण बीजुं रूप जोता नथी. ॥ ए॥ ___ हवे जीव अजीव एक क्षेत्रावगाही थया ते जुदा केम कहेवाय ? ते उपर दृष्टांत कहेजेः- अथ वस्तु विचारः ॥ दोहराः॥- खांगो कहिये कनकको, कनक म्यान संयोग; न्यारो निरखत म्यान सों, लोह कहैं सब लोग. ॥ ए३ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पढेलो. अर्थः- जे सोनानी म्यानमा राखेली तलवार लोक नाषामां सोनेरी केहेवाय बे, ते सोनेरीनो योगतो म्यान उपर जे; ज्यारे तरवारने सोनेरी म्यानमांथी बार काहा मी जोश्ये त्यारे तरवार लोढानी जणाय, पण सोनेरी नही जणाय. तेम अंतरा त्मा मांहे जाणवो. ॥ ए३ ॥ हवे व्यवहार नय वडे बाह्यात्मा श्रने अंतरात्मा कहेवाय बे; पण एमांज निश्चय नयथी परमात्मा बे; एवो वस्तुनो विचार कही समजावे बे. अथ निश्चय व्यवहार रूप वस्तु विचार कथन: ॥ दोहराः॥- बरनादिक पुद्गल दशा, धरै जीव बहु रूप; वस्तु विचारत करम सों, जिन्न एक चिप. ॥ ए४ ॥ अर्थः- वर्णादिक ते वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरूप ए पुदगल खजाव , तेने नवी नवी रीते जीव धारण करे बे, तेथी जीव बहु रूप धारी केहेवाय बे. अने पुद्गल जे जे ते तो कर्मले पण वस्तुनो विचार करवाथी ए कर्म अजीवजे; श्रने चिप चिदानंद ते तो सर्वत्र एक स्वरूप बे, ने ते ए अजीवथी जिन्न . ॥ ए४ ॥ __.हवे ए व्यवहारनो दृष्टांत बतावे :- अथ व्यवहार दृष्टांत कथन: ॥ दोहराः॥-ज्यों घट कहिये घीउको, घटको रूप न घीन; त्यो बरनादिक नाम सों, जडता लहै न जीउ ॥ एए॥ अर्थः- व्यवहारमांमाटीनो घमो कहेवाय , तेम पृतनो पण घमो कठेवाय ने पण घडान रूप जेवी माटी डे तेवू घृत नथी. तेमज वर्ण, गंध, रस, स्पर्श प्रमुख नाम कर्म अजीव रूप जड , तेना संयोगथी जीव जपणु पामे नही. ॥ एए॥ हवे प्रत्यक्ष पणे निरालुं चेतननुं स्वरूप दृष्टांत देखाडी कहेजेः श्रथ चेतनको सादात स्वरूप कथनः॥दोहराः।- निराबाध चेतन अलख, जाने सहज सुकीज, अचल अनादि अनंत नित, प्रगट जगतमें जीज. ॥ ए६ ॥ - थर्थः- जेनी कोई पण रीते खंमना नथी तेथी निराबाध एहवो चेतन पुरुष बे; अने वली इडिय ज्ञानवडे लख्यो न जाय; तेथी अलख बे; अने खकीय जे पोतानो सहज स्वजाव ज्ञातापणु तेने पोतेज जाणे पण बीजा अन्य ज्ञानांतरवडे न जणाय एवा अचल स्वरूपने लीधे अनादि, अनंत, नित्य, शाश्वत, एवो जीव जगत्मां प्रत्यक्ष प्रमाण . ॥ ए६ ॥ हवे जीव पोतानो श्रनुजव पोतेज करे ले पण मिमांसक नैयायिक प्रमुख जेम बी जाथी कहे जे तेम नथी ते समजावे :- श्रथ अनुनव विधान कथनः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ॥ सवैया इकतीसाः॥-रूप रसवंत मूरतीक एक पुदगल, रूप बिन उर युं अजीव दर्व उधा है; च्यारि हैं अमूरतिक जीवनी अमूरतिक, याहितें अमूरतिक वस्तु ध्यान मुधा है; औरसों न कबहू प्रगट थापु थापहीसों, ऐसो थिर चेतन सुनाउ शुद्ध सुधा है; चेतनको अनुनौ आराधै जग तेईजीउ, जिन्हके अखंगरस चाखिवेकी बुधा है.ए॥ अर्थः- जेम रूपवंत तथा रसवंत कहेवाय ने तेम गंधवंत तथा स्पर्शवंत ए लक्ष ण जाणवाथी मूर्तिक एटले मूर्तिवंत ते एक पुद्गल अव्य जाणवू; अने रूपादिक विना बीजा श्रमूर्तिक चार अन्य बे; ए रीते अजीव अव्यते वे प्रकारनुं बेः- हवे ए श्रजीव अव्यमां धर्म, धर्म, आकाश, काल ए चार अमूर्तिक बे; अने जीव जव्य पण अमूर्तिक बे; तेथी को श्रमूर्तिक वस्तुनुं ध्यान करवायी मुक्ति के एम कहेनारा मूर्ख डे. एथी कोई अन्य धर्मनुं श्रालंबन लई थात्मा अव्य प्रगट न थाय एवो स्थिर चे तननो खनाव बे, एज शुद्ध सुधा के निर्दोष अमृत रस तेज चेतनने प्रगट करे , एवो जे जगत्ने विषे चेतना खजावडे ते चेतननो अनुनव के यथार्थ ज्ञान धारा धे तेज शुद्ध जीव अव्यना श्राराधक बे. अने जे अखंग रसना कुधावंत डे ते एना श्राराधक बे.॥ ए॥ ___ हवे कोई कहे डे के, जीव अंगुष्ट प्रमाण , तंमुल प्रमाण ने इत्यादि कहिने जे जीवने मूर्तिमान थापे , तेनी मूढता बतावे . अथ मूर्तिवणेनं: ॥सवैया तेश्साः ॥- चेतन जीव अजीव अचेतन, लछन नेद उनै पद न्यारे; स म्यग् दृष्टि उद्योत विचछन, निन्न लखै लखिके निरधारे; जे जगमांहि अनादि अखंमित, मोद महामदके मतवारे; ते जम चेतन एक कहै, तिन्हकी फिरि टेक टरै नहि टारे॥ए॥ अर्थः- जीवनुं लदण चेतन डे, ने अजीव- लक्षण अचेतन बे; एटले जमता बे; ए लक्षण नेदथी जनय पदार्थ जुदा जुदा बे; पण जेना घटमां समकित दृष्टिन अज वालुं पड्यु , तेज विचक्षण पुरुष ए बेहुने निन्न जिन्न जाणे . अने जीव श्रजी व जुदा निरधार करे. अने जे जगत्ने विषे अनादि कालना अखंडित, मूर्ख, अनेम हामोहमदवमे मतवाला बे, ते लोक जम चेतनने एक कहे . अने जीवने मूर्तिमा न मानेले. ते मिथ्यादृष्टिने लीधे माने तेमनी टेक टालवाथी टले नही एवी होय।एज॥ हवे अजीव पुद्गलमां जीव विलास जूदोज , पण थविवेकी पुरुष ते जाणतो नथी अने जे ज्ञानी होय ते जाणे ते कई बेः- श्रथ ज्ञाता विलासः सवैया तेईसाः॥- या घटमें जमरूप अनादि विलास महा अविवेक अखारो; ता मंदिर सरूप न दीसत, पुजल नृत्य करै अति जारो; फेरत नेष दिखावत कोतुक, सो जलिये बरनादिपसारो; मोहसँ जिन्न जुदो जडसों चिन्, मूरति नाटक देखनहारो॥एए॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ . प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः-श्रा घटमां अनादि कालनो विस्तारवंत उमरूप महा अविवेकनो श्रखामो मंडाई रह्यो , ते अंखाडामां बीजं कोई शुद्ध स्वरूप तो देखातुं नथी; अने पुजल अव्य जे जे ते अत्यंत मंहोटुं नृत्य करी रह्यो, एज अविवेकनी झा ते अजीव पुजल अव्य . तेहिज एकेडियादिकना वेषमा लेवरावी फेरवी फेरवी वर्णादिकना पसारनी सामग्री लेवरावी कौतुक देखामी रह्यो बे. हवे श्हां विवेकरूप जे जे ते मो हथी जे पुजल जम तेथी जूदो बे. तेहिज चिन्मूर्ति एटले चेतन राजाबे ते तो हां नाटिकनो देखनारो ॥ एए॥ हवे जे जीव अने अजीवनुं एकतापणुं मिथ्या ज्ञानमां जासे, तेतो ज्ञान वृद्धिथी निन्न भिन्न रूप देखाय बे, ते कहेजेः- श्रथ ज्ञान विलास कथन: ॥ सवैया इकतीसाः॥-जैसे करवत एक काठ वीच खंग करै, जैसे राजहंस निर वारे दूध जलकों; तैसै नेदज्ञान निज नेदक शकतिसेंति, जिन्न जिन्न करै चिदानंद पुदगलको; अवधिकों ध्यावै मनपर्येकी अवस्था पावै, उमगिके आवै परमावधि केवल कों; याही नांति पूरन सरूपको उद्योत धेरै प्रतिबिंबत पदारथ सकलकों ॥ १० ॥ श्रथैः- जेम एक लाकमाने करवती वेहेरीने बेनाग करेजे, ने जेम राजहंस सुध ने पाणी एका होय तेने जुदा जुदा करी नाखे बे. तेम जेने नवितव्य परिपाके नेदान प्रगटे ते पोतानी नेदक शक्तिव चिदानंद तथा पुजल एकमेक होय तेने जुदा जुदा करे. अने तेज नेदशान पोताना क्षयोपशम माफक पोतानी अवधिने ध्यावे एटले पोताना अवधि ज्ञानरूप पर्यायने पामे, पडी तेहिज नेद शानथी विशुफ थयेला मनपर्याय अवस्थाने पामे; थने तेथी विशुकथईने परमावधि सुधी पोचे; एम वधते वधते नेदज्ञान थकी पोतानुं वर्ण स्वरूप उद्योतवंत धारण करे, एटले केवल अवस्था धारे; अने सर्व पदार्थने प्रविबित करे ॥ १० ॥ ॥श्ती श्री समयसार नाटकनो बीजो अजीवहार बालावबोध सहित समाप्त थयो.॥ ॥ दोहराः॥- यह अजीव अधिकारको, प्रगट बखान्यो मर्म; अब सुनु जीव अजी वके, करता किरिया कर्म. ॥ १०१॥ अर्थः- अजीव द्वार एरीते समजाबीने कह्यो; एनुं रहस्य ए के अजीव पदार्थ जाणीने तेथकी जीव पदार्थ जुदो जाणवो; तेनुं वर्णन कस्खु बे. हवे जीवनेविषे कर्त्ता कर्म क्रियानो विचार अने अजीवनेविषे पण कर्त्ताकर्म क्रियानो विचार गुरु कहे ने शिष्य शांजलेले ॥११॥ हवे कर्त्तापणामां जीवनी मिथ्या दृष्टि डे ते नेदज्ञानथी बुटे, माटे नेदशाननु म हात्म्य कहेजेः-- श्रथ नेद ज्ञान महात्म्य बननः-- Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री समयसारनाटक. ६१५ ॥ सवैया इकतीसा॥-प्रथम अज्ञानी जीव कहै में सदीव एक, इसरो न और मेंही करता करमको; अंतर विवेक श्रायो पापर नेद पायो, नयो बोध गयो मिटी जारत जरमको; जासै बहों दरबके गुण परजाय सब, नासै फुःख लख्यो मुख पूरन प रमको; करमको करतार मान्यो पुजंगल पिंग, थापुं करतार 'नयो श्रातम धरमको. ॥२॥ जाहि समै जीव देहबुद्धिको विकार तजै, वेदत सरूप निज जेदत नरमको; महा परचंड मति मंमन अखंग रस, अनुनौ अन्यास परकासत परमको; ताही समै घटमें न रहै विपरीत नाव, जैसै तम नासे नानु प्रगट धरमको, ऐसी दशा आवै जब साधक कहावै तब, करता व्है कैसै पुजल करमको. ॥३॥ अर्थः- प्रथमथी अज्ञानी जीव जे बे, ते पोताना रूपनी नूलवडे एमज कदे के निरंतर कर्मनो कर्त्ता हूंज बु, बीजो कोई नथी. एरीते जीवनी अपेदा लईने कर्मनो कर्ता बने. पठी ज्यारे घटमां विवेक प्राप्त थाय, त्यारे निजरूपनो नेद समज्यो ए टले बोध थयो, अने भ्रम के मिथ्यात्वनो खेल मटी गयो; ने भ्रम नाश थता बए अव्यना गुण पर्याय श्रात्मानेविषे नासवा लाग्या, कण कण अवस्था नेद ते पर्याय कहीए. अने पूर्ण पुरुष जे जे तेनुं मुख दी, तेणे करीने कर्मनो कर्त्ता पुजलपिक मान्यो. अने पोते अकर्ता थयो भने थात्मिक धर्म जे ज्ञायकता, वेदकता, तथा चे तनता इत्यादिक स्वनावनो हुँ पोते कर्त्ता ९ एम मान्यु, एटखे मर्मनो अकर्ता अने पोताना स्वनावनो कर्ता एम केहेवा लाग्यो. ॥२॥ जे प्रस्तावे जीव , ते श्रेणिनुं थारोहण करे, अप्रमत्तता पामे, देहबुझिनो विकार तजे, एटले बाह्यात्माने पोतापणे जाणवो ए विकार बांडे, ने पोतानुं स्वरूप जुदुंज वेदे, श्रने भ्रमनो नेद करे, घणी तीक्ष्णबुछिनी शोजानो करनार, अने जेनो रस श्र खंम , पूर्ण रसस्वाद , एवो जे शुझात्मानो अनुभव बे तेनो श्रन्यास करी अंते परमात्मानो प्रकाश करे तेज प्रस्तावे घटपिंडमां विपरीत नाव रहे नही, एटले अ हंबुद्धि व जे अकर्त्ताने कर्मनो कर्त्ता करी मान्यो; ए विपरीत नाव हतो ते रहे नही. ते उपर दृष्टांत कहे:-जेम नानुधर्म के सूर्यना तीक्ष्ण तेजना प्रकाशवाथी तम जे अंधकार ते सर्व नाश पामे; तेम एवं। अप्रमत्त दशा ज्यारे प्राप्त थाय, त्यारे ते आत्मस्वनावनो साधक थयो; ते वखत कर्मनो कर्त्ता केम थाय! अने पुद्गलरूपी कर्मने केवी रीते करे! एनो यहीं उपयोग नथी. ॥३॥ हवे यहीं प्रथम श्रात्माने कर्मनो कर्त्ता मानीने पड़ी तेने कर्त्ता मानवो ते झा नना सामर्थ्य वडे बने ते कदेबेः-अथ शानसामर्थ्यवर्णनं: ॥सवैया इकतीसाः॥- जगमें अनादिको अज्ञानी कहै मेरो कर्म, कर्त्ता में याको Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. किरियाको प्रतिपखी है; अंतर सुमति जासी जोगसों जयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुकि नाखी है; निरजै सुजाउ लीनो अनुनौके रस नीनो, कीनो व्यवहार दृष्टि निदचैमें राखी है; नरमकी दोरी तोरी धरमको नयो धोरी, परमसों प्रीति जोरी करमको साखी है॥४॥ अर्थः- संसारने विषे जीव अनादिकालथी श्रझानीज , ते कडेने के शुन अने अशुज कर्मनो कर्त्ता हूंज व क्रियानो प्रतिपदी के कर्मनी क्रियानो पदराखनारो बुं, पढी ज्यारे अंतरमा सुमतिनो नास थयो, अने मन वचन तथा कायाना यो गथी उदास थयो, एटले ए योगने पररूप समज्यो, तथा ए योगनी ममता मटी गई, अने परजाय बुद्धि के मन वचन श्रने कायाना योगनी जे बुद्धि तेनाखी दीधी%B अने अव्यबुद्धि राखीने श्रात्मानो जे निर्जय खजाव , तेनुं ग्रहण की, अने ए स्व जावनो जे अनुभव रस तेमां जीनो के मग्न थई रह्यो, अने सर्व व्यवहारमा प्रवृत्ति करी रह्यो , पण दृष्टिमां का तो निश्चयमां राखी बे, एम करतां नरमनी दोरी तोमी नाखी, एवं बद्मस्थपणुं मूकी दीg, अने श्रामिक धर्म जे पोतानो स्वताव तेनो धोरी के० धरनारो थयो; परम साथे प्रीति जोडी, एटले सिकपदमां प्रीति राखीने मर्मनो साखी थयो; एटले पुजलकर्मने करे तेनो सादी थयो . ॥४॥ शिष्य प्रने के, चेतन तथा अचेतन एकदेत्रमा रहेने, श्रने कर्म करेले, त्यांचे तनने कर्मनो श्रकर्त्ता केम मनाय ? गुरु कहे के, ज्ञानशक्तिवमे अकर्ता मनाय. ते कहेले.-श्रथ नेदज्ञानको सामर्थपनो कथन: ॥सवैया इकतीसाः॥-जैसो जो दरव ताके तैसै गुन परजाय, ताहुसों मिलत में मिले न काहु थानसों; जीव वस्तु चेतन करम जड जाति नेद, अमिल मिलाप ज्यों नितंब जुरे कानसों; एसो सुविवेक जाके हिरदे प्रगट नयो, ताको जम गयो ज्यों तिमिर लग्यो जानसों; सोइ जीव करमको करतासौ दीसे में करता कह्योहै शु कताके परवानसों. ॥५॥ अर्थः-जे जेवं अव्य होय तेना तेवा गुणपर्याय होय , ते तेज अव्यसाथे म ले, पण बीजा व्यसाथे मलता नथी; जेम कोई स्निग्धगुणवडे घृतादिक अव्य पो ताना पर्यायथी स्निग्ध गुणवाला अव्यसाथे मले, पण रुक्ष गुणवालासाथे मले नही; तेम ए जीव वस्तु चेतनजाति डे, श्रने कर्म जे जे ते जमजाति , एवो जातिनेद जे. तेथी चेतन तथा जडने अमिलनता बे, पण काई युक्ति मिलाप नथी. जेम केमना नागनी नीचे पश्चिम प्रदेश नितंब डे, ते उपर रहेला कानसाथे केम मले ? एवो गु णपर्यायनो विवेक जेना हैयामां प्रगट थयो, तेना हैयामां पूर्वनो उपजेलो ब्रम Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. नाश पाम्यो, ते उपर दृष्टांत कहे के, जेम सूर्यनो उदय थवाथी अंधकार नासेडे, तेम नाश पामेडे; एवा विवेकवालो जीव जे जे ते कर्मनो कर्त्ता तो देखायडे पण शुद्धता जे पोतपोताना अव्यनी गुण परिणति तेनाप्रमाणथी जीवने कर्मनो अकर्ताज कह्यो.॥५॥ हवे जीव अने पुजलना लक्षणना नेद देखाडीने एज वात दृढ करेजेः अथ जीवपुजललवणनेदकथनःउप्पय बंदः॥-जीव ज्ञानगुनसहित, आपगुण परगुन ज्ञायक; श्रापा परगुन लखै, नांहि पुजल शहि लायक; जीवरूप चिप, सहज पुदगल अचेत जम; जीव अमूरति मूरतीक पुदगल अंतर वम; जबलग न होश् अनुनी प्रगट, तबलगु मिथ्यामति लसै; करतार जीव जड करमको, सुबुधि विकाशक जम नसै ॥६॥ अर्थः- जीवजे ले ते ज्ञानगुणसहित, अने जेम पोताना गुणनो ग्राहक ने ते मज पारका गुणनो पण ग्राहक बे. अने एज गुणना नेदे करीने पोताने तथा परने लखै के जुएजे; एवी कला शक्ति लायक पुजल क्यारे पण बनी शके नही. जीवन खरूप चिप के चेतनारूप , अने पुजलतो सेहेज नावे अचेतना रूप बे; एटले जम बे. वली जीव श्रमूर्ति डे अने पुजल मूर्ति बे, ए मोटुं अंतर ए बंने वच्चे. ज्यां सुधी शुद्धचेतननो अनुभव प्रगट न थाय. त्यांसुधी मिथ्यामति लसै के० दीप्ति वंत होयडे अने जडस्वरूपी कर्मनो कर्त्ता जीव , ते ब्रमबुधि बे; पण ए अनादि कालनो व्रम ते सुबुझिना विकाश थवाथी नाश पामे. ॥६॥ हवे कर्ता, कर्म अने क्रिया ए त्रणे स्वरूप कहे-अथ कर्त्ताकर्मक्रियास्वरूपकथन:॥दोहराः।- करता परिनामी दरब, करमरूप परिनाम; किरिया परजैकी फिरनि, वस्तु एक त्रय नाम.॥७॥ अर्थः-रूपांतरने जजे ते परिणामी कहेवाय, एबुं जे अव्य, ते कर्त्ता कहिये; रूपां तर थर्बु ते परिणाम, ऐने कर्मनुं स्वरूप कहियें; अने पर्याय, क्रमे क्रमे फरवू तेने क्रिया कहिये.ए रीते कर्ता, कर्मने, क्रिया एवांत्रण नाम बे पण वस्तु तो एकज .॥७॥ ___ हवे कर्ता, कर्म, ने क्रिया ते केहेवामां नाम निन्न जिन्न डे पण वस्तु एकज डे ते कहेजेः-श्रथ कर्त्ताकर्मक्रियैकत्वकथनः ॥दोहराः॥-कर्त्ता कर्म क्रिया करै, क्रिया कर्म करतार; नाउ नेद बहु विधि जयो, वस्तु एक निरधार ॥ ७॥ अर्थः- कर्ता त्यारे कहेवाय के ज्यारे क्रिया करे, अने क्रिया त्यारे कहेवाय के ज्यारे कर्म करे, एम नाम नेद जातजातनो पड्यो पण करवाथी कर्ता, करवायी कर्म ने करवाथी क्रिया ए त्रणे एकज वस्तु . ॥७॥ .. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. हवे एक कर्म क्रियानो कर्ता एकज होय, ते स्थापन करेजेः-श्रथ कर्ता कर्म कि याप्रतिस्थापनाः-- ॥दोहाः।- एक कर्म कर्त्तव्यता, करै न कर्त्ता दोय; जुधां दरब सत्ता सु तो, एक ' जाव क्यों होय.॥ ए॥ __ अर्थः- ए वात तो खुसी ने के, एक कर्मनी कर्त्तव्यता के क्रिया ते एकज होयजे. अने तेनो कर्त्ता पण एकज होय, पण बे कर्ता एकज क्रियाना करनार नहोय. अहीं चेतन अव्यसत्ता ने पुजलव्यसत्ता ते तो सुधा के बे प्रकारे जुदी जुदी बे, ते माटे एक नाव एक कर्म केम बने ? ॥ ए॥ हवे कर्त्ता कर्म ने क्रियानो विचार कहे. अथ कर्त्ताकर्म क्रिया विवरण: ॥सवैया इकतीसाः।-एक परिनामके न करता दरब दोय, दोय परिनाम एक दर्ब न धरतु है; एक करतूति दोश् दर्ब कबहों न करै, दोई करतूति एक दर्व न करतु है; जीव पुदगल एक खेत श्रवगाही दोई, अपने अपने रूप कोउ न टरतु है, जड प रिनाम निको करता है पुदगल, चिदानंद चेतन सुनाउ थाचरतु है ॥ १० ॥ अर्थः-एक परिणामना बे अव्य कर्ता न होय, श्रने एक प्रव्य जे बे ते बे परिणाम धारण करे नही; ए रीते बे जव्य मलीने एक करतूती के० किया क्यारे पण नज करे. तेमज एक अव्य बे क्रिया पण नहीज करे; ए व्यवस्था बुकि कहेवा लायक कहेडे के, जीव थने पुदगल एकमेक थई रह्यां बे; तेथी ए बंने एक देत्रावगाही थयां पण पोत पोताना स्वनावश्री कोई टले नही; तेथीपुजल जे जे ते जड जे; ते जडपरिणाम नोज कर्ता थाय; अने चिदानंद चेतन डे ते चेतन स्वनावने श्राचरे ॥१०॥ हवे सम्यक्त्वश्रवस्थामा कर्मनो अकर्ता अने मिथ्यात्वश्रवस्थानेविषे कर्मनो कर्त्ता ने एम कहेजेः-श्रथ सम्यक्त्वमिथ्यात्वकथनं:___॥सवैया इकतीसाः॥- महा ढीठ पुःखको वसीठ पर दर्वरूप, अंध कूप काहुपै निवास्यो नहि गयो है; ऐसो मिथ्याजाव लग्यो; जीवकों अनादिहीको, याही अहं बुधि लिये नाना जांति नयो है; काढू समै काहू को मिथ्यात अंधकार नेद, ममता उदि शुद्ध जाउ परिनयो है; तिनही विवेक धारि बंधको विलास मारि, श्रातम सकतिसों जगत जीत लयो है. ॥११॥ अर्थः- महाधृष्ठ भने दुःखनो पढ श्रात्मऽव्य ते परव्य के पुजलव्य जेनुं रूप बे, पिंड , अने जेमां सत्य दृष्टि पोची शकती नथी, तेमाटे अंधकूप समान बे; अने कोस्थी निवारण नथी थतो, एवो मिथ्यानाव जे मिथ्यात्व मोह कर्म ते जीवने श्र नादि काल थकी लागेलुं डे, एथी परऽव्य तरफ जीवनी शहंबुधि लागी, तेथी जीव म . For.Private &Personal use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६१५ नाना प्रकारनो थयो. अने कोई समये यथाप्रवृत्तिकरण कोई नव्यजीवनो मिथ्यात्व अंधकार नेदायो, ते मिथ्यात्वग्रंथि नेदीने अने सर्व कार्यने विषे जे अहंबुंशिवडे रहे ली ममता हती, तेने बेदीने गुफ चिदानंद जावमांज परिणमी रह्यो, ते समये ते जव्यजीव नेद विज्ञान के जड चेतननो विवेक धारण करीने अविरति, कषाय, योग तथा प्रमाद ए जे बंधनातु हता, तेनो विलास बोडीने श्रात्मशक्तिवडे एटले पोता ना वीर्यबलवडे जगत्ने जीति लीये; जगत्थी निरालो थाय बे. ॥ ११॥ हवे जेम कर्मनो कर्त्ता आत्मा नथी तेम ए कर्म आत्माना करेलां नथी; अने कर्त्ताने कर्म एक रूपज बे ते कहेजेः-अथ यथा कर्म तथा कर्ता एकरूपकथन: ॥सवैया श्कतीसाः॥-शुफनाव चेतन अशुधनाव चेतन, उहूंको करतार जीव थोर नही मानीये: कर्मपिंडको विलास बर्न रस गंध फास, करता उहुंको पुदगलपर मानिये; ताते बरनादि गुन ज्ञानावरनादि कर्म, नाना परकार पुजलरूप जानिये; स मल विमल परिनाम जे जे चेतनके, ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिये. ॥ १२ ॥ अर्थः-चेतनाने विषे शुक नाव तथा शुरू नाव जे जाणवामां थावे, ते तो परिणामरूप कर्म जे; तेथी ते बनेनो कर्ता जीवज बे, बीजो कोई कर्ता मानवो नही. अने ज्ञानने ढांक,दर्शनने ढांक, इत्यादि कर्म पिमनो विलास बेधने वर्ण,गंध,रस,स्पर्श, इत्यादि जे कार्य अने कर्म बे,ए बनेनो कर्त्तापुद्गलमव्यनेज प्रमाण राखिये;तेणे करी ने वर्णादि के वर्ण, रस,गंध, स्पर्श गुण ले ते अने झानावरण, दर्शनावरण प्रमुख जे कर्म ते सर्व नाना प्रकारना पुजलरूप जाणवां;जेम कडंबे के,“जोगापयडिपयेसा," के जोगवडे प्रकृतिप्रदेशबंध थाय, ने तेनेविषे चेतनना समलपरिणाम के अशुद्ध परिणाम अने विमलपरिणाम के शुभ परिणाम ए जे कर्मरूपक डे ते ते सर्व श्रल द पुरुषरूप , माटे कर्त्ता कर्मने एकज वखाणीए. ॥ १२ ॥ हवे ए वातना रहस्यने मिथ्यादृष्टि जाणे नही, तेना उपर दस्तिनो दृष्टांतः अथ मिथ्यादृष्टि बननं हस्तिको दृष्टांत:॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसै गजराज नाज घासके गरास करि, नबत सुनाय नहि निन्न रस लियो है; जैसै मतवारी नहि जानै सिखरनि स्वाद, जुगमें मगन कहै गऊ दूध पियो है; तैसै मिथ्यामति जीव ज्ञान रूपी है सदीव, पग्यो पाप पुन्य सों सहज सुन्न हियो है; चेतन अचेतन मुहकों मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानैन विवेक कबु कियो है. ॥ १३ ॥ . अर्थः- जेम हाथीने अनाज साथे घास नेलवीने ग्रास आपेले ते खायजे. हाथीनो स्वन्नाव एवो के, घासने अनाजनो जुदो स्वाद लेतो नथी. वली कोई माणस मद्य Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. पीने मतवारो थयो होयने तेने दहीने खांमथी बनेर्बु शीखरण जमवाने श्रापीये ने पुतीये के एनो स्वाद केवो, तो ते कदेशे के गायनुं उध पीये तेवो. पण तेने दा रूनी जुममा जुदा स्वादनी खबर पडती नथी, तेम जीव मिथ्यामतिवालो थईने जो पण अनादि कालनो ज्ञानरूपी बे एटले ज्ञानमय बे तो पण पापकर्म श्रने पुण्यकर्म मां लीन थई रह्यो बे, माटे सहज नावे शुन्यहृदय थयो; त्यारे चेतन अचेतन जे पुजल ते बेउने मिश्र के एक पिंम जोईने एकमेक माने; पुजलना नेलथी चेतनने पण पुजलकर्मनो कर्त्ता माने पण कदी विवेकनी नजरथी जोतो नथी. ॥ १३ ॥ हवे जीवने कर्मनो कर्त्ता मानवो ए चमवडे मनायडे; ते उपर दृष्टांत आपेले. अथ ब्रमस्वरूपकथनदृष्टांतः॥ सवैया इकतीसाः॥-जैसै महाधूपकी तपतिमें तिसीयो मृग, नरमसों मिथ्याजल पीवनकों धायो है; जैसै अंधकारमांहि जेवरी निरखी नर, जरमसों भरपी सरप मानि आयो है; अपने सुनाय जैसै सागर सुथिर सदा, पवन संजोगसो उबरि अकुलायो है, तैसै जीव जडसों श्रव्यापक सहजरूप, नरमसों करमको करता कहायो है.॥१४॥ अर्थः- जेम वैशाख ने जेठना घणा सख्त तापनी गरमीवडे मृग तरस्यो थईने मृगजलने जोई तेने जल जरेलुं तलाव मानी ते मिथ्या जलने पीवाने दोमेजे; तथा जेम अंधारे पडेली दोरडीने जोश्ने कोई मनुष्य जरमवडे तेने साप जाणी मरीजायजे; वली जेम समुज्नो स्वन्नाव स्थिर डे पण पवनना संजोग थकी जबलतो देखायने, तेम जीव निश्चय थकी जोतां जड वस्तुथी श्रव्यापक बे, पण अनादि कालनो सह जरूपी व्रम तेणे करीने ते जीवने कर्मनो कर्त्ता कहे. ॥ १४॥ ___ हवे जे सम्यग् दृष्टि थाय ते सम्यक् स्वनावे करीने त्रम दूर करे; अने जुदो जु दोज नाव जाणे, ते उपर राजहंसपक्षीनो दृष्टांत आपेले. अथ सम्यग् दृष्टिस्वनावव र्णनं, राजहंसके दृष्टांतः ॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसै राजहंसके वदनके सपरसत, देखिये प्रगट न्यारो बीर न्यारो नीर है, तैसे समकितीकी सुदृष्टिमें सहजरूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यारोई शरीर है; जब शुक चेतनाको अनुनी अज्यासे तब, नासै थापु अचल न मुजो जर सीरहै;पूरव करम उदै श्राश्के दिखाई देहि,करता न हो तिन्हको तमासगीर है॥१५॥ अर्थः- जेम राजहंसनुं वदन के मुखनी अंदरनी जीन, तेना अडकवाथी उधने पाणी एकमेक होय ते फाटीने उघ जुडं ने पाणी जुडं थाय बे; तेमज सम्यग्दृष्टि बडे सहजरूपे जीव डे ते जुदोज जणाय ने कर्म पण जुउंज जणाय; अने शरीर पण जुएंज जणाय, एटले बाह्यात्मा, अंतरात्मा ने परमात्मा ए त्रणे जुदा जणाय. ज्यारे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६१ शुक चेतन अनुजवनो अभ्यास करे त्यारे पोतेज देखाय. कर्मादिकनो बीजा कोई साथे नेल नथी. पूर्व संचित कर्म जे जे ते निज स्थिति पूर्ण थये अथवा उदीरणा करी के कर्म उदय श्राव्याथी देखाय, पण जीव कांई कर्मनो कर्त्ता नथी,पण ते कर्म ना उदयनो तमासो जुए ॥ १५ ॥ हवे शिष्य पूबे के, हे स्वामी! जीव तथा पुजल एकमेक थई रह्यांबे, त्यारे ते उने विषे एवो जुदो जुदो स्वन्नाव केम जाणीये? त्यारे गुरु तेनो उत्तर आपतां पाणिनुं तथा शाकनुं दृष्टांत आपेः अथ कर्तृत्व स्वन्नाव तप्तोदक तथा व्यंजननो दृष्टांत: ॥ सवैया श्कतीसाः॥-जैसे उसनोदकमें उदक सुजाउ सीरो,आगिकी उसनते फर, स शान लखिये; जैसै स्वाद व्यंजनमें दीसत विविध रूप, लोनको सवाद खारो जीन झान चखिये; तैसै याहि पिंममें वित्नावता अज्ञानरूप, ज्ञानरूप जीव नेद ज्ञानसो परखिये,नरमसों करमको करता है चिदानंद, दरव विचार करतार जावनखिये.॥१६॥ अर्थः- जेम नसोदक के जनुं पाणी ते पाणीनो पोतानो स्वत्नाव तो सीरो के शीतलज डे, पण तेनो स्पर्श करतां गरम लागे ,ते गरमी श्रागनी बे. अने स्वादिष्ट व्यंजन के शाकमां नात जातनो स्वाद होय अने लोन के निमकनो खारो स्वाद जुदोज जणायचे, ते जीन ज्ञानवडे जणायजे; तेमज घटमिमां विजावता जे कर्मनी साथे चेतननु मलq तेतो जेम में था कीधुं एम मानवं, एतो अज्ञानरूप बे. अने जीव ते शुद्ध ज्ञानरूपी बे, एनेतो शुद्ध जाणवो एज एजें कार्य जे. ए वात नेदज्ञान वझे जणाय जे. ए चिदानंद जे जे तेने कर्मनो कर्त्ता मानवो ते भ्रमवडे म नाय ! पण अव्यनो विचार करतां एनो कर्त्ता नाव बने नही पण ज्ञाता जावज बने ए रहस्य . ॥ १६ ॥ हवे निश्चय प्रमाणवडे जे जेनो कर्ता तेने जुदो बतावे . अथ कर्तृत्व विवरण: ॥दोहा॥-झान नाव झानी करै, थानी अज्ञान; दरब करम पुदगल करै, यह निहचै परवान. ॥ १७ ॥ अर्थः- ज्ञानी होय तेतो ज्ञानजाव करे एटले जाणवारूपजे कार्य ले ते करे बे; अने अज्ञानी होय ते हुं कर्त्ता बु एम मानी श्रज्ञानजाव करे; अव्यरूप जे कर्म बे तेने पुजलज करे, निश्चयप्रमाणमां एवं स्पष्ट बे. ॥१७॥ शिष्य पूजे के हे स्वामी! झानन्नाव ज्ञानी करे ए वात कहेता ज्ञाननो कर्ता जी व रे, ते कया नयथी ठरेले? तेनो उत्तर गुरु श्रापेः-श्रथ व्यवहार कर्तृत्वकथनः ॥दोहा॥- ज्ञानसरूपी आतमा, करे ज्ञान नहि उर; दर्व कर्म चेतन करै, यह विवहारी दौर. ॥ १७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- आत्मा ज्ञानस्वरूपी जे माटे ज्ञानने तो तेज करे, पण बीजो नही, ए नि श्चय;अने जे एम कहे जे के,अव्यकर्मनो कर्त्तापण चेतन तेतो व्यवहारमा कहेवाय॥१॥ हवे शिष्य प्रश्नः- कर्तृत्वकथनः॥ सवैया तेईसाः॥-पुदगल कर्म करै नहि जीव कही तुम में समुफी नहि तैसी; कौन करै यह रूप कहो अब, को करता करनी कह कैसी;आपुहि आपु मिलै बितुरै जड क्यों करि मोमन संशय ऐसी; शिष्य संदेह निवारन कारन बात कहै गुरु है कबुं जैसी.॥१॥ अर्थः- हवे शिष्य प्रबे के, जीवने निश्चयनयथी ज्ञाननो कर्त्ता कह्यो ने कर्मनो श्रकर्ता कह्यो, तेनुं शुं कारण? हे गुरु! पुजल व्यरूप कर्मने जीव करे नही एवी जे वात तमे कही, ते वात हुं यथार्थ समज्यो नही. ए पुजलरूपी कर्मनो खनाव करे? यहां कर्त्ता तो ठरावता नथी अने तेनी क्रिया केवी डे ते कहो. वली पुमल कर्मनो कर्ता पुजलनेज बनावोडो त्यारे कर्त्ता कर्म बंने जम थयां, ते पोतानी मेले मलवं बूटा था केम बनी शके ?. ए मारा मनमां संदेह जे. शिष्यनों संदेह निवारवाने आ प्रश्ननो यथार्थ उत्तर गुरु हवे कहेजेः-॥ ११ ॥ अथ गुरु उत्तर कथनः॥दोहाः॥- पुदगल परिनामी दरब, सदा परिनमै सोय; याते पुदगल करमको, पुदगल कर्ता होय ॥२०॥ अर्थः- हे शिष्य! पुद्गल जे जे ते परिणामी अव्य बे. क्षण क्षणमां तरेदवार बनी जाय तेमाटे सदा परिणमी रह्यो बे, ते युक्तिथी पौलिक कर्मनो कर्त्ता पुन लज थई शकेले. ॥२०॥ अथ पुनः शिष्य प्रश्नः-- ॥ अड्डिल बंदः ॥- ज्ञानवंतको जोग निर्जरा हेतु है; अज्ञानीको जोग बंध फल देतु है;यह अचरजकी बात हिये नहि श्रावहीबू कोऊ शिष्य गुरू समुजावही.॥२१॥ ___ अर्थः-हवे शिष्य पूछे के, ज्ञाननाव झानी करे एवं कहेवाथी लोग निर्जरारूपी थाय बे ते केम ? झानी जोग नोगवे ते कर्मनी निर्जरा करेले, त्यारे तो हानीनो जोग निर्जरानो हेतु ने श्रने श्रझानी जे जोग नोगवे ते कर्म बंधन करेले; त्यारे तो अझानीनेज नोग बंध फलदाई कह्यो एतो श्रचरजनी वात; केमके नोग नोगव वामां समान होय ने एकनो लोग निर्जरानो कारक अने बीजानो नोग बंधनो का रक एम केम बने ? अने ए वात हृदयमां उसती नथी. श्राद् शिष्यकेदेवं सांन लीने गुरु तेनो उत्तर कहेजेः-॥१॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५३ थथ गुरु उत्तर कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥- दया दान पूजादिक विषय कषायादिक, दोह कर्म लोग पै उहको एक खेतु है; ज्ञानी मूढ करम करत दीसे एकसे पें, परिनाम नेद न्यारो न्यारो फल देतु है; ज्ञानवंत करनी करै पें उदासीन रूप, ममता न धरै ताते निर्जराको हेतु है; बहे करतूति मूढ करै पै मगन रूप, अंध नयो ममता सो बंध फल लेतु है. ॥ २२ ॥ अर्थः- दया पालवी, दान देवू, पूजा प्रमुख करवी, एक एवी रीतनां कर्म,अने पांच इंजियोना विषयनुं सेवन करवू, कषायनुं सेवन करवू; एक एवी रीतनां कर्म बे, ए बंने कर्मनो संसारमा नोग बे, पण देत्र एक बे, तेथी बंने बंधरूप बे. अने ज्ञानी पण ए बे कर्म करे , तथा अज्ञानी पण करे , अने ए कर्म करतां तो ज्ञानी अज्ञानी एक सरखाज देखाय बे, पण एना परिणाम नेद जुदा जुदा माटे ए कर्मनुं फल जुडं जुएं आपे बे. ज्ञानवान जे कर्म किया करेजे, ते उदासीन रूप थईने करे बे, एटले एनी मेले उदय आवेढुं कर्म करे, पण ममता धरतो नथी; ए माटे निर्जरानो देतु बे. अने एज कर्म क्रिया मूढ करे , पण ए क्रिया कर वामां आनंद रूप रहे बे; ने निजात्मशुछिने विसरी जाय जे; एटले अंध जेवो बनी जाय , अने ममता धारण करे डे, तेथी बंध फलने लिये बे; एज माटे श्र ज्ञानी अझाननो कर्त्ता ठरे बे. ॥॥ हवे कुंजारनुं दृष्टांत आपीने मूढनुं कर्त्तापणुं सिक करे: अथ मूढ कर्तृत्व कथन कुलाल दृष्टांतः॥ बप्पय बंदः॥-ज्यों माटीमहि कलस, होनकी शक्ति रहै ध्रुव; दंड चक्र चीवर कुलाल बाहिज निमित्त हुव; त्यों पुदगल परवानु, पुंज बरगना नेष धरि; ज्ञानी बर नादिक सरूप बिचरंत विविध परि; बाहिज निमित्त बहिरातमा, गहि संसै अज्ञान मति; जगमांहि अहंकृत जावसों, करम रूप व्है परिनमति. ॥ २३ ॥ अर्थः- जेम कलसरूप कार्य थवामां माटी अव्यनी शक्ति ध्रुव के० निश्चय बे. अने ते कार्यनेविषे तेने फेरववानो दंम अने चक्र के चाकने चीवर उतारवानी दोरी ने कुंभार ए सर्व बाह्य निमित्त थयां, तेम परमाणु पुजलनो पुंज ते बंधपणु ध रीने कामणवर्गणानो नेष धरीने झानावरणी, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, था पुष, नामकर्म, गोत्रकर्म,अंतराय ए स्वरूपे विविध के नात जातनो पुजल खंध वि चर्यो; यहीं बहिरात्मा एटले देव मनुष्यादिरूपी बाह्यात्मा बाह्य निमित्त थईने ब्रम Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. रूपी अज्ञान ग्रहीने यहीं कारण बन्यो; त्यारे जगत्मां श्रहंकारबुद्धिनी संगति ते हिज पुलखंध कर्मरूप बनीने परिणम्यो बे. ॥ २३ ॥ दवे निश्चये जीवनुं श्रकर्त्तापणुं मानीने एना अनुभवमां रेहेतुं तेनुं महात्म्य कदेवे :श्रथ शुद्धानुभव महात्म्य कथनः ॥ सवैया तेईसाः ॥ - जे न करै नयपद विवाद धेरै न विषाद अलीक न जाखै; जे उदवेग तजै घट अंतर, शीतलजाव निरंतर राखै; जे न गुनी गुन नेद बिचारत, श्राकुलता मनकी सब नाखै; ते जगमें धरि श्रातमध्यान अखंडित ज्ञानसुधारस चाखै ॥२५॥ अर्थ:-जेम मिथ्यात्वी लोक पोतपोताना नयनो पक्ष धरीने पोतपोतामां विवाद क रेबे तेम न करतां जे सहज श्रानंदमां रहेबे ने विवाद धरता नथी, ने फूटुं बोल ता नथी, अने दुष्ट ध्यान धरता नथी एटले उद्वेगनो त्याग करेबे; अने हमेश पो ताना हृदयनेविषे शीतल जाव राखेडे, ने एवा शुद्ध श्रात्माना अनुभवमां मले. जेथी आत्मा गुणी बे ने ज्ञानगुण बे, एवो जेने नेद विचार रह्योज नथी, अने वि कल्प के० व्याकुलतानें मनमांथी काढी नाखे, एवा जे शुद्ध अनुभवी थाय, तेज था त्मध्यान धरीने जगत्ने विषे संपूर्ण केवल ज्ञानरूप अमृत रस तेने चाखे ॥ २४ ॥ हवे निश्चय नय की अकर्त्तापणानी स्थापना अने व्यवहार नयवडे कर्त्तापणानी स्थापना प्रमाण करी बतावे बे:- छाथ निश्चय व्यवहारनय प्रमाण स्थापनाः ॥ सवैया इकतीसा ः॥ - विवहार दृष्टिसों विलोकत बंध्योसो दीसे, निहचे निहारत न बांध्यो यह किनही; एक पत्र बंध्यो एक पसों अबंध सदा, दोन पत्र अपने नादि धरे इनही; को कहै समल विमल रूप कोन कहै, चिदानंद तैसोई बखान्यो जैसो जिनही; बंध्यो माने खुल्यो मानै डुहुनको जेद जाने, सोई ज्ञानवंत जीव तत्त्व पायो तिनही. ॥ २५ ॥ अर्थः- चतुर्गतिरूप संसारमां भ्रमण करवानो आत्मानो व्यवहार जोइए तो श्रात्मा कर्त्ताज देखाय ने बंधमां पण जणाय, अने निश्चयनयवडे ज्ञाननोज कर्त्ता ने ज्ञानस्वरूपी जोइये तो एज श्रात्मा कशामां बंधायलो नहीं जणाय; तेथी ए कलो व्यवहार पक्ष ग्रहीये तो श्रात्मा बंधमां बे, ने एकलो निश्चयपद ग्रहीये तो आत्मा सदा अबंध जणाय, एवा बने पक्ष अनादिकालना ग्रहण कीधा बे. कोई व्य वहारनयवालो होय ते जीवने समल कहेबे, ने कोई निश्चयनयवालो होय ते एने विमल कडे. पण जेणे जेवो पोतानी बुद्धिथी चिदानंदने वखाण्यो तेवोज चिदानं बे. हवे जे सम्यग्दृष्टि होय तेतो आत्माने बंधायलो पण माने, अने अबंधपण Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६२५ माने, पण ए मानवामां बेदुनयनो नेद जे जाणे तेज ज्ञानी कहेवाय, अने तेज जीव तत्त्वनुं स्वरूप लख्युंबे ॥ २५ ॥ हवे बेड नयने समान राखीने समकित राखेथी समरस जावमां रहे तेनी प्रशंसा करे:- अथ समरसी जाव प्रशंसा कथनः ॥सवैया इकतीसाः ॥ - प्रथम नियत नय डूजो विवहार नय, डुडुकों फलावत नंत द फलै है; ज्यों ज्यों नय फलै त्यों त्यों मनके कलोल फलै, चंचल सुनाय लोका लोकल उबलै है; ऐसी नय कक्ष ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव, समरसी जये एकतासों नही टलै है; महा मोह नासै शुद्ध अनुजौ अन्यासै निज, बल परगासै सुख रास माहिं र है ॥ २६ ॥ अर्थः- पहेलोतो निश्चय नय बे, अने बीजो व्यवहार नय बे; ए बेल नयने एक एक द्रव्य साथै फलाविये त्यारे अनंत द्रव्यनी अपेक्षाने लीधे नयना अनंत नेद फले बे. दवे ए नयना अनंत भेद मननाज विचारथी फले बे, तेथी जेम जेम नयनुं फलाव थाय तेम तेम मनना तरंग पण अनंत भेदे फलेबे, अने मनना कल्लोल जे टला होय तेटला चंचल खजावमनना थई जाय, एनुं प्रमाण षट्गुणी हानि वृद्धि लेखे लोकालोक प्रदेश परिमाण होय एवी जे नय कक्षा के० नयने अंगीकार करी तेनो पक्षपात त्यजीने जे ज्ञानी जीव समरसी जावमां रह्या श्रने सघला नयना वि स्तारमा चेतनानी एकता होय तेथी टले नदी ते तो समरसी जाव वाला महा मोह के० मनो नाश करीने छाने शुद्ध चिदानंदना अनुजवनो अन्यास करीने, एटले. पश्रेणि श्रारोहण करीने परमात्मानुं जे बल बे तेनो प्रकाश करीने सुख राशि जे मोक्ष पद बे तेनेविषे मली जायते ॥ २६ ॥ हवे निश्चय व्यवहार बतावीने पोतपोतानुं जे सत्य स्वरूप लक्षण वे तेहिज क देवे: :- अथ सम्यक् स्वरूप लबन कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - • जैसे काहु बाजीगर चौहटे बजाई ढोल, नाना रूप धरी के जगल विद्यावानी है; तैसे में श्रनादिको मिथ्यातके तरंग निसों जरममें धाइ बहु काय निज मानी है; अब ज्ञान कला जागी जरमकी दृष्टि जागी, अपनी पराई सब सोंजु पहिचानी है; जाके उदे होत परवान एसी जांति नई, निहचे हमारी ज्योति सोई हम जानी है. ॥ २७ ॥ अर्थः- जेम कोई बाजीगर चौटामां ढोल वगामीने जात जातना रूप धरीने पो तानी जगल विद्या प्रसारे बे, ने तेने लोको साची मानेबे, ते रीते हुं अनादि का लथी मिथ्यात्व तरंग के० व्हेरोमां मगन बनी रह्यो तेथी जगलविद्या जोनाराने न्याये ७९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ज्रममां धायो थको घणी काया पामीने पोतानी मानी लीधी हती, ते हाल मने झान कला प्राप्त थवाथी चमनी दृष्टि दूर थई गई, त्यारे पोतानी तथा पारकी सोंज के सामग्री ते सर्वने ओलखी लीधी; जे ज्ञान कलाना उदय थवाथी वस्तुनुं परमाण थाय एवी रीत थई तेथी पोतानी परंपरानी शुद्धि श्रावी, एवा निश्चयश्री अमोरी ज्योति जे श्रमारं खरूप तेने श्रमे थोलखी लीधुं ॥२७॥ हवे जे झाता होय ते सम्यक् स्वरूपने शुरु श्रनुजवनेविषे विचारी लिये ते कहे बेः- अथ शुधानुजव चिंतन ज्ञान विलासः ॥सवैया इकतीसाः॥- जैसै महा रतनकी ज्योतिमें लहरि उठे, जलकी तरंग जैसे लीन हो जल में; तैसै शुद्ध श्रातम दरबपरजाय करी, उपजे बिनसे थिर रहे निज थल में; ऐसे अविकलपी अजलपी थानंद रूपी,अनादि अनंत गहि लीजे एक पलमें; ताको अनुत्नव कीजे परम पिऊष पीजे, बंधको विलास मारि दीजे पुदगलमें ॥ ॥ अर्थः- जेम हीरा, लाल, पन्ना अने रत्ननी ज्योतिमा बद्री उठे, ने ज्योतिमांज समाई जाय , वली जेम पाणीना मोजां पाणीमांज समाई जाय, तेम शुद्ध आत्म जव्यना जे ज्ञान प्रमुख गुणना पर्याय बे ते समये समये उपजे ने, ने वणसे , अने अव्य पोताना अव्य स्थानने विषेज रहे. उपज ने वणसवु ए विकल्प पर्यायने श्रा श्रये थाय बे; पण अव्यमां तो थिरता रही , अव्यमां विकल्प नथी माटे जे अवि कल्पक अने अजल्पी के स्थिर सर्वथा वचन गोचर नथी, अने आनंदरूपी बे, तेथी सहज समाधि थईबे, एवं कोश् श्रात्म अव्य, तेनुं अनादि अनंत काल सुधी एक रूपमा ग्रहण करवू, अने तेज अव्यनो अनुनय करवी, एटले तेने विषेज उपयो ग राखवो, ए अनुनवमां परम पिऊष के परम अमृतरस उपजे जे ते पीवो. अने जे आश्रव बंधनो विलास श्रात्मामां ने तेने पुजलनी सामग्रीमा नाखी देवो, एटले पु जलरूप जूउंज डे ॥॥ हवे श्रात्मानो शुझ अनुजव परम पदार्थ बे, तेनी प्रशंसा करे-अथ अनुन्जव प्रशंसाः ॥ सवैया श्कतीसा॥- दरवकी नय परजाय नय दोउ नय, श्रुत झानरूप श्रुतझा न तो परोष है; शुरु परमातमाको अनुनौ प्रगट ताते, अनुनौ बिराजमान अनुनौ अदोष है; अनुनौ प्रवान नगवान पुरुष पुरान, शान औ विज्ञानघन महासुखपोष है, पर म पवित्र योंही अनुनौ अनंत नाम, श्रनुजोविना न कहों उर गेर मोष है ॥ २५ ॥ अर्थः- पदार्थने उलखवाने बेज नय प्रवर्ते , एक व्यार्थिक नय वडे अव्यनो विवरो श्रने पर्यायार्थिक नयवडे पर्यायनो विवरो थाय बे, ए बंने नय श्रुतज्ञानरूप बे, अने श्रुतज्ञान जे जे ते परोद झान बे; अने शुद्ध परमात्मानो अनुभव जे ले Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६२७ तो प्रगट के प्रत्यक्ष प्रमाणमां आवे बे, तेथी अनुभवज महा बलवान थको बिरा जमान थई रह्यो, एथी अनुजव ते अदोष के० शुद्ध बे. हवे अनुजवनां नाम कहे, अव कहिये, प्रमाण कहिये, जगवान कहीये, एनेज पुराण पुरुष कहीये, एनेज ज्ञान कहीये, एने विज्ञानघन कहीये, एनेज महा सुखनुं पोष कहीये, एनेज परम पवित्र कहिये, एवा अनुजवनां अनंत नाम बे. अने ए शुद्ध अनुजव शिवाय बीजे कोई स्थानके मोक नयी ॥ २७ ॥ वे शुद्ध कहे . व विना संसारमां जमे श्रने शुद्ध अनुभव प्राप्त थये मोह पामे ते व साम्यर्थ जलको दृष्टांतः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जैसे एक जल नाना रूप दरबानुयोग, जयो बहु जांति पहिचान्यो न परतु है; फीरि काल पाई दरबानुयोग डूरि होतु, अपने सहज नीचे मारग ढरतु है; तैसे यह चेतन पदारथ विज्ञावतासों, गति योनि नेष जव जावर जरतु है; सम्यक सुजाइ पाइ अनुमौके पंथ धाइ, बंधकी जुगती जानि मुगति करतु है ॥ ३० ॥ अर्थः- जेम पाणी एक रूप बे तथापि तेनेविषे नाना प्रकारनी माटी प्रमुख प्र व्यनो मिलाप थये पाणी पण तरेहवार जातनुं थाय बे, हवे देखवामां तो माटी प्रमुख देखाय बे, पण पाणी श्रोलखातुं नथी. फरी कोई औषधादिकथी ते द्रव्यनो मिलाप डूर यो अने पाणी तरी श्राव्युं त्यारे पोतानुं सहज रूप लईने नीचाण तरफ ढ लवा लग्युं; ते रीते जे चेतन पदार्थ बे ते विजावतासों के० पोतानी मुल थकी चार गतिमां चोरासी लाख जीव योनिने विषे नेष के० एक क्रोड सामासत्ता पुंलाख कुल कोमीमां जातजातना जवकरतो जावरी के० फरी रेहे बे, एज जीव कोई अवसर स म्यग् जाव पामीने पोताना अनुजवना मारगमां दोमीने अने बंधनना विलासने तो मीने कर्मनी मुक्ति करे बे. ॥ ३० ॥ दवे मिथ्यादृष्टि होय ते अनुभव शिवाय कर्मनो कर्त्ता होयज ते कहे बे:- अथ मिथ्यादृष्टि कर्तृत्व कथनः ॥ दोहा ॥ - निशिदिन मिथ्या जाव बहु, धेरै मिथ्याती जीव; ताते जावित कर मको, करता को सदीव ॥ ३१ ॥ अर्थ :- रात ने दिवस पोतानी झूलने विषे मिथ्यात्वी जीव होय ते फलाएं में की धुं में लधुं श्रमारुं इत्यादिक मिथ्या जाव धारे ते माटे अशुद्ध चेतनाजे बे ते विजा वित कर्म तेन कर्त्ता सदीव के निरंतर को. ॥ ३१ ॥ दवे ज्ञानी ने मूढ करम करे बे, ते एक सरखां देखाय बे, तथापि मूढ जीवने Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. कर्मनो कर्त्ता कह्यो ने ज्ञानी जीवने कर्मनो अकर्ता कह्यो तेनुं कारण कहे बेः-श्रथ मूढ कर्मको कर्त्ता झाता अकर्ता यह कथन: ॥ चोपाईः॥- करै करम सोई करतारा; जो जानै सो जाननहारा; जो कर्ता नहि जानै सोई; जानै सो करता नहि होई.॥३२॥ अर्थः- जे कर्मने करे तेज कर्त्ता कहेवाय अने जे जाणे तेने तो जाणनार कहीये; जे कर्त्ता के तेज जाणनार नयी श्रने जे जाणनार ते कर्ता नयी ॥ ३ ॥ हवे जे जाणनार ले ते अकर्ता बे ते समजावे बे:-अथ झाता अकर्ता कथन: ॥सोरगः॥-शान मिथ्यात न एक, नहि रागादिक ज्ञानमहि; झान करम अ तिरेक, जो झाता करता नही. ॥३३॥ अर्थः-झान नाव श्रने मिथ्यात्व नाव एक कहेवाय नही; अने रागादिक जे राग केष मोह इत्यादिक नाव ज्ञानमा होय नही; एथी झान जे जे ते कर्मथी अतिरेक के जुडुंबे, तेमाटे जे ज्ञाता होय ते कर्त्ता न होय ॥३३॥ हवे जे मिथ्यात्वी जीव बे ते पुजलव्य रूप कर्मनो अकर्ताज ने अने नाव कर्मनो कर्ता डे ते कदे-- श्रथ जीवऽव्य कर्मको अकर्ता यह कथन:-- ... ॥उप्पयबंदः ॥- करम पिंम अरु राग, नाव मिलि एक होहि नहि; दोऊ जिन्न स्वरूप, वसहि दोऊ न जीवमहि; करम पिंड पुजल बिनाव रागादि मूढ नमः अलख एक पुग्गल अनंत किम धरहि प्रकृति सम; निज निज विलास जुत जगत महि, जथा सहज परिनमदि तिम; करतार जीवजम करमको, मोह विकल जन कहहि श्म ॥३४॥ अर्थः-- पुजग अव्य रूप कर्म पिंम अने राग द्वेषादिक नाव ए बंने मलीने एक रूप थाय नही, ए बंने नाव निन्न स्वरूपमां , पण ए बेज नाव जीवमां रेहेता नथी. एनो विवरो कहेजेः-- कर्मपिंड डे तेतो पुजलरूपी बे. अने जे रागादिक विनावडे तेतो मूढ जीवनो भ्रम में अलख जीव तेतो एकता सीधे रह्यो ने अने पुजल श्र नंतताने लेई रह्याने. तो कर्मनुं कर्त्तापणुं एवी सम प्रकृति बेज केम धारण करशे? जगतमां सर्व कोई पोतपोताना स्वजाव विलासमां युक्त थई रह्याने, जेवो पोतानोस हज स्वनाव जे तेवोज परिणमी रह्यो डे ए न्यायनी वात , तेथी जड रूपी कर्मनो की जीव , एवं वचन जे जीव मोहथी विकल होय जे ते कहे ॥ ३४ ॥ हवे सम्यक् प्रकारे करीने सिद्धांत समजावेजे. अथ सम्यक्त्व प्रजाव कथन:-- ॥उप्पयबंदः॥- जीव मिथ्यात न करै, नाव नहि धरै नरम मल; ज्ञान ज्ञान रस रमै, होश करमादिक पुजल; असंख्यात परदेश, सकति जगमें प्रगटे अति; चिद् वि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६ए लास गंजीर, धीर थिर रहै विमल मति; जब लगि प्रबोध घटमहि नदित, तब लग अनय न पेखियैजिम धरमराज वरतांतपुर, जह तह नीति परेखिये ॥ ३५॥ अर्थः- जीव बे ते मिथ्यारूपी कर्म करे नही, एनो हेतु कहे के, भ्रम मल रूपी जे नार ले तेने ए जीव धारण करे नही. अने ज्ञान ज्ञाननाज रसमां रमे एटले झा तापणामा रहे. अने कर्मादिक जे झानावरणादिक राग वेषादिक तेतो पुजलसाम ग्रीले. अने ए जीवना तो असंख्यात प्रदेशने विषे एवी शक्ति अति प्रगटपणे जग मगी रही बे. ते कहीये बश्ये के, चिदविलास के ज्ञान विलासने विषे गंनीरजे, धीर ने विमल मतिवंत थको स्थिरता थई रह्यो बे; एवं प्रबोध सम्यग् ज्ञान जां सुधी घट पिंझमा प्रकाशमान थई रह्यु डे त्यांसुधी अनय के अन्याय खंरूपने दे खीये नही, ते उपर दृष्टांत कहे जेम पुर नगरमां धर्मराज वर्त्तता थका जहां तहां नीतिज जोवामां आवे ॥ ३५॥ ॥ इति श्रीसमयसार नाटक कर्ता कर्म क्रिया छार तृतीय बालबोध सहित समाप्तं ॥ ॥दोहराः।- करता किरिया करमको, प्रगट बखान्यो मूल; अब बरनौं अधिकार यह, पाप पुण्य समतूल ॥३६॥ अर्थः- कर्त्ता क्रिया अने कर्म एउनुं मूल के रहस्य ते प्रगट करी वखाण्यु. हवे. पाप अने पुण्य ए बने बराबर ले तेनो अधिकार वर्णन करुं बुं ॥३६॥ हवे पाप पुण्य छार विषे प्रथम ज्ञानचंधनी कलाने नमस्कार करे: अथ ज्ञानचंड कला वर्णनं:॥कवित्तबंदः॥-जाके उदै होत घटअंतर, विनसे मोह महातम रोक; सुन अरु अशु न करमकी सुविधा, मिटे सहज दीसे इक थोक; जाकी कला होतु संपूरन, प्रतिनासै सब लोक अलोक; सो प्रबोध शशि निरखि बनारसि, सीश नमार देतु पग धोक ॥३॥ अर्थः- जे प्रबोध चंजना प्रकाशवाथी समान घटमां जे मोहरूप महातम के घोर अंधकारनुं रोक जे अटकाव ते नाश पामे, अने जेम अंधकार गयाथी एक कर्म शुज श्रने एक कर्म अशुन एवी जे कर्मने विषे द्विविधा बे ते मटी जाय, अने स हज नावे कर्म बंधरूप बे एवं एक थोक देखाय अने जेने प्रबोधचंजनी सर्व संपूर्ण कला प्रगट थयेथके सर्व लोकालोकनो प्रतिनास थाय ते प्रबोधरूपी चंडकलाने नि रखीने बनारसीदास माथु नमावीने पगधोकदेतुहे के प्रणाम करे. ॥ ३७॥ हवे मोहमा शुन्न अशुन कर्मनी विविधता देखाय ते एकरूपपणे देखाडेबेः Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो. अथ शुभाशुभ एकत्वीकरनः ॥सवैया इकतीसाः॥ - जैसे काढु चंडाली जुगल पुत्र जने तिन्ह, एक दियो बामन कूं एक घर राख्यो है; बामन कहायो तिन्ह मद्य मांस त्याग कीनो, चंगाल कहायो तिन मद्य मांस चाख्यो है; तैसे एक वेदनी करमके जुगल पुत्र, एक पाप एक पुण्य नांत जिन्न जाख्यो है; हों माहिं दोरधुप दोउ कर्म बंधरूप, पाते ज्ञानवंतने न को जिलाख्यो है. ॥ ३८ ॥ अर्थ :- जेम कोई चंगालनी स्त्री जुगल पुत्र के० वे पुत्र जणे ने पढी एक ढोकरो ब्राह्मणने थपे, ने एक ढोकरो पोताना घरमा राखे, हवे जे बोकरो ब्राह्मणना घ रमां उबरें ते ब्राह्मण केदेवाय, ने ते मद्य मांसनो त्याग करे, जे चंकालना घरमा रहे ते चंगाल के देवाय, ने ते मद्य मांस पण चाखे, ते रीते एक वेदनीय कर्मनां बे पुत्र बे, एक पाप ने बीजो पुण्य, एवां जुदां जुदां नाम कह्यांबे, पण बनेनो स्वजाव एक बे, एटले वेउने विषे दोरधूप के० वेदनानी सत्ता बे. एटले खेदसंताप वे वली पापने पुण्य ए बेउ कर्म बंधरूप बे, एटला वासते ज्ञानीजने ए बेतमांथी कोइनो पण अ जिलाष कीधो नथी. ॥ ३८ ॥ ६३० हवे पाप तथा पुष्यं ए बेजने समान कह्यां तेजपर शिष्य प्रश्न पूबेबे : श्रथ शिष्य प्रश्नः - ॥ चोपाईः ॥ - कोऊ शिष्य कहै गुरु पांही; पाप पुण्य दोऊ सम नांही; कारन रस सुनाव फल न्यारे; एक अनिष्ट लगै इक प्यारे ॥ ३९ ॥ अर्थः- कोई शिष्य गुरुनी पासे श्रावी कहे के, खामी पाप ने पुण्य ए बेने समान कह्यां पण ते समान देखातां नथी केमके, ए बेनां कारण, रस, खजाव तथा फल ते तो जुदां जुदां बे; वली एमांर्थी एक प्रिय लागे बे, ने एक अप्रिय लागे बे. ॥ ३९ ॥ दवे शिष्य ए बेनां कारण प्रमुख जुदां जुदां कड़े बेः - श्रथ शिष्य कथनः॥ सवैया इकतीसाः ॥- - संकिलेस परिनामनिसों पाप बंध होइ, विशुद्धसों पुन्य बंध हेतु नेद मानिये; पापके उदे असाता ताको है कटुक स्वाद, पुन्य उदे साता मिष्ट रस जेद जानिये; पाप संकिलेस रूप पुन्यहिं विशुद्ध रूप, डुढूंको सुनाउ जिन्न भेद यों बखानिये; पापसों कुगति होय पुन्यसों सुगति होय, ऐसो फल जेव परत परवानिये ॥ ४० ॥ -- अर्थः- तीव्र कषायमय जे परिणामडे तेनुं नाम संक्वेश परिणाम, तेथे करीने पा पनो बंध थाय; अने कषायनुं जे मंदपणुं तेने विशुद्ध कहिये; तेवडे पुण्यनो बंध याय; एवा हेतु एटले कारण नेद मानिये बइये. अने पापना उदययी अशाता थाय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६३१ जे, तेनो स्वादतो कटुक होय जे. ने पुण्यना उदयवडे शाता उपजे , तेनो मिष्ट स्वाद होय बे. एटले पाप ने पुण्य ए बेजने विषे रसन्नेद थयो; वली पापकर्म क्लेश रूप , तोत्र कषाय रूप ; अने पुण्य कर्म विशुफ रूप . मंद कषायरूप में; ए बंने कर्मनो निन्न निन्न खनाव थयो, ते एज उपरथी ए बंने कर्मनो नेद वखाणीये श्ये; अने पापश्री कुगति के नर्क गति तिर्यंच गति, थाय बे, अने पुण्यवडे मनुष्यगति, देवगति एवी सुगति थाय ; ए रीते पाप पुण्यरूप कर्मने विष फलनो नेद प्रत्यक्ष प्रमाणथी ॥४॥ हवे शिष्यना प्रश्ननो गुरु उत्तर करे :-अथ गुरु उत्तर वचन यथाः ॥सवैया श्कतीसाः।- पाप बंध पुन्य बंध फुहमें मुगति नांहि, कटक मधुर खाद पुग्गलको पेखिये; संकिलेस विशुद्धि सहज दोन कर्म चालि, कुगति सुगति जग जालमें विशेखिये; कारनादि नेद तोहि सूफत मिथ्यातमांहि, ऐसो बैत नाव झान दृष्टिमें न लेखिये; दोउ महा अंधकूय दोज कर्म बंध रूप, उहू को बिनास मोष मारगमें देखिये. ॥४१॥ अर्थः- पापनो पण बंध थाय ने पुण्यनो पण बंध थायबे ने ज्यां बंध होय त्यां मुक्ति न दोय, एटले बेथी मुक्ति नही ते माटे बेउ समान बे; अने जे कटुक र समां पाप डे ने मधुर रसमां पुण्य जे ए बेज रस पुद्गलना बे तेथी पापने पुण्य स मानज . वली जे संक्वेश वनावने लीधे पाप ने, ने विशुद्ध खन्नावथी पुण्य बे; पण ए बेज खन्नाव जे ते कर्मनी चाल जे. अने कुगति तथा सुगति ते पाप पुण्यनां फल , ते नेदवडे जगत् जालनी विशेषता बे, तेथी पाप पुण्य समानज बे. अरे! शिष्य ! तने जे पाप पुण्यना कारणादि नेद तेणे करीने पाप पुण्यनो बैत नाव के विविध नाव सूजे , ते तो मिथ्यामतिमां सूजे जे; पण ज्ञान दृष्टि करी जोतां तो ए तनाव देखाशे नही. ए बेनेविषे आत्मानुं अवलोकन नथी, तेथी ए बेत महा अंधकूप , अने ए बेड कर्म बे; ते बंधरूप डे अने मोदमार्गने विषे ए बेउनो वि नाश देखीये बीए तेथी ए बेज समान ३ ॥४१॥ हवे मोक्ष मार्गनेविषे बेउनो विनाश बतावे -अथ मोद पति कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥- सील तप संजम विरति दान पूजादिक, अथवा असंजम कषाय विषै जोग है; कोउ शुजरूप कोउ अशुन सरूप मूल, वस्तुके विचारत छ विध कर्म रोग है; ऐसी बंध पति बखानी वीतराग देव, श्रातम धरममें करम त्याग जोग है; नौजल तरैया राग दोषको हरैया, महा मोषको करैया एक शुक उपयोग है. ॥४॥ अर्थः- ब्रह्मचर्य तप, पंचेंजिय निग्रह, संवर, दान पुजाप्रमुख क्रिया; पुण्य एबंध Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. नां कारण कर्म . अथवा पापना कारण असंयम कषाय श्रने विषय जोग जे. ए बेजमां कोई शुनरूप कार्य बे, अने कोई अशुनरूप कार्य बे; पण वस्तुनुं मूल विचा रतां तो बेजए कर्म रोग बे; एटले बेन प्रकारनो कर्म रोग ; एवी बंधनी पति के एक डंमी ते वीतराग देवे वखाणी; पण थात्मिक धर्ममा एटले यात्मानो खन्नाव जो तां कर्म किया त्यागवा योग्य बे; एवा पापपुण्यने हेय कहेनार, श्रने नवजल ने तर नार, राग शेषने हरनार तथा महा मोदनो करनार एक शुक उपयोग उपदेश .॥२॥ हवे अर्धा सवैयामां शिष्य प्रश्न करे, ने अर्धा सवैयामां गुरु तेनो उतर वाले बेः- अथ शिष्य प्रश्न गुरु उत्तर कथन:. ॥सवैया इकतीसाः॥-शिष्य कहै स्वामी तुम करनी शुज अशुज, कीनी है नि षिक मेरे संसो मनमांहि है; मोषके सधैया ज्ञाता देसविरती मुनीस, तिन्हकी श्र वस्था तो निरावलंब नांहि है; कहै गुरु करमको न्यास अनुनौ श्रन्यास ऐसो अव लंब उन्हहीको उनमांहि है; निरुपाधि श्रातम समाधि सो शिवरूप, और दौर धूप पुदगल परबांहि है. ॥४३॥ . अर्थः- शिष्य पूजे हे खामी, तमे तो मोद मार्गमा शुनने अशुन करणी बेचनो निषेध कीधो, तेनो मारा मनमां संदेह पडेले; केमके मोक्षमार्गना साधक ज्ञाता देश विरती पंचम गुण स्थान वर्ति थया श्रने मुनीश के षष्ट सप्तम गुणस्थानवर्ति सर्व विरती थया, तेमनी अवस्था तो निरालंबन नथी, एटलेपोतपोतानी शुक्रियाना था लंबनने लेईने देश विरती सर्व विरती कहेवायडे, त्यारे करणी निषिद्ध केम थई ? हवे गुरु कहेजेः- जेवो अदरनो न्यास मांड्यो तेवं श्रुत ज्ञाननु थालंबन होय तेम शुन कर्मनो न्यास तेतो जोवामां पण ते अनुजवनोज श्रन्यास, ते अनुनव श्र ज्यासरूप थालंबन ते तो ज्ञातानुं ज्ञाता पासेज बे, अने तेमां निरुपाधि के० राग वेष कषाय श्छादिकविना श्रात्मानी जे समाधी, एटले जे पर रूपने विषे निरुपयो गीपणे रहेई तेज शिवरूप, के. मोदरूपः श्रने जे दोरधूप के खेद संताप जे ते तो पुजलनी परिगही के० गया ॥४३॥ ___ हवे एज शुन क्रियाविषे बंध अने एज शुन क्रियाविषे मोद ए बेउ खरूप कही बतावेजेः--अथ बंध मोद खरूप कथन: ॥ सवैया तेईसाः ॥-मोडसरूप सदा चिनमरति, बंधमई करतूति कही हैः जा वतकाल वसै जह चेतन, तावत सो रसरीति गही है; आतमको अनुनौ जबलों त बलों शिव रूप दसा निवही है; अंध जयो करनी जब गनत, बंधविथा तब फेलि रही है ॥ ४ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ श्री समयसारनाटक. अर्थः- चिन्मूर्ति के चिदानंद ने ते तो सदा मोद खरूप में, अने करतूती के क्रिया तेतो सदा बंधमय. यावत् काल के० जेटला काल सुधी चेतन ज्यां वसे ता वत्काल के तेटला काल सुधी तेज रसरीत ग्रहण कीधी बे, एटले तेज रसमां र हे; एटले ज्यांसुधी आत्मानो अनुभव रहे त्यां सुधी शुज क्रिया करतां बतां शि वपद दशा निवही एटले मोद स्वरूपमा रहे, अप्रमतता कहेवाय; अने पोतार्नु स्वरूप मुलीने अंध थयो थको ज्यारे करणीनोज रस ठरावे त्यारे तो बंधनाज कष्ट रोग फेलावे ॥४४॥ हवे मोदप्राप्तितुं कारण कहेजेः-अथ मोद मार्ग निरूपणं:॥ सोरगः ॥-अंतर् दृष्टि लखाउ, अरु सरूपको श्राचरण; ए परमातमनाउ, शिवकारन एई सदा ॥४५॥ अर्थः- बाह्य दृष्टि मंडीने अंतर्दृष्टि श्रापीने श्रलदनो जापकरवो, अने तेना स्वरूपनुं श्राचरण करवू, एटले झान, दर्शन, चारित्रने याचरिये, तेथकी परमात्म नावसिक थाय; सदाकालनेविषे एज मोदनुं कारण वे ॥ ४५ ॥ . हवे बाह्य दृष्टिवमें बंध पति थाय ते कहे बे:-अथ बंध मार्ग निरूपणं: ॥ सोरगः ॥-करम शुनाशुन दोश, पुजल पिंम विनाव मल; इनसों मुगति न हो, नांही केवल पाए ॥४६॥ अर्थः- शुजकर्म ते पुण्य ने अशुल कर्म ते पाप ए बेन कर्मडे, पुजलना पिंड , अने विन्नाव जे राग केषादिक मलरूप डे ए बेउने विषे दृष्टि रहेवाथी मुक्ति थाय नहीं, अने केवलकाननुं पद पामिये नहीं ॥४६॥ _____ए वात उपर शिष्य प्रश्न करे , ने तेनो उत्तर गुरु दिये : अथ शिष्य प्रश्न गुरु उत्तर कथनः॥ सवैया श्कतीसाः ॥-कोउ शिष्य कहै खामी अशुन क्रिया शुरू, शुन कि या शुद्ध तुम ऐसी क्यों न बरनी ?; गुरु कहै जबलों क्रियाको परिणाम रहै, तबलों चपल उपयोग योग धरनी; थिरता न आवै तोलों शुद्ध अनुनो न होश, याते दोन क्रिया मोष पंथकी कतरनी; बंधकी करैया दोऊ मुहमें न नली कोऊ, बाधक विचा रमें निषिद्ध कीनी करनी ॥४७॥ __ अर्थः- कोई शिष्य पूजे जे के हे स्वामी ! तमे एवं वर्णन केम करता नथी के श्र शुन क्रिया जे हिंसादिक ते अशुकडे अने शुज किया जे दया दानादिक ते श कडे? त्यारे गुरु उत्तर श्रापेले के श्रदो शिष्य! ज्यांसुधी क्रियाना परिणाम रहे जे त्यां सुधी उपयोगनी धरनी के० देत्री एटले उपयोगवंत श्रात्मा चंचल रहे . ज्यांसुधी ८० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. क्रियामा उपयोग रहे त्यांसुधी श्रात्मानी स्थिरता थाय नहीं, अने श्रात्मानो शुद्ध अनुजव होय नहीं, ए उपरथी ए पुण्य पापनी बेउ क्रिया ले ते मोक्षमार्गनी कत रणी समान बे; बंधनी करनार एथी बेन क्रियामा एक पण नली नथी. ज्या मु क्तिमार्गनो बाधक विचारे त्यां बेउ क्रिया निषिक कीधी डे ॥ ४ ॥ हवे मात्र शान मोदनो मार्ग बे ते कहे :- अथ शान मोक्ष मार्ग यह कथनः ॥सवैया श्कतीसाः ॥- मुकतिके साधककों बाधक करम सब, श्रातमा थना दिको करममांहि लुक्यो है; एते परि कहै जो कि पाप बुरो पुण्य जलो, सोश महा मूढ मोबमारगसों चुक्यो है; सम्यक् सुजाउ लिये हियेमें प्रगट्यो शान, उरध उमंगि चल्यो काढूपे न रुक्योहै; थारसीसो उज्वल बनारसी कहत थापु, कारन सरूप हैके कारजकों दुक्यो है ॥ ४ ॥ अर्थः- जे श्रात्मा मुक्तिनो साधक बे, तेने सर्व कर्म बाधक बे; एथीज अनादि कालनो आत्मा कर्ममा लुक्यो एटले दबाई रह्यो बे; एम उतां पण जो कोई एबुं क हेके, पाप कर्म नगरुं बे, ने पुण्य कर्म सारु बे, तेने महा मूढ जाणवो; ने ते मोद मार्गथी चुक्यो , एम जाणवू. एवामां कोईने नव्यत्व परिपाक थकी सम्यक् स्वना वनी प्राप्ति थ तेवारे हीयामां ज्ञान प्रगट्युं तो ते उर्ध्व दशा तरफ उमंगे करीने चाट्यो, पण कोई कर्मथी रोकायो रह्यो नही. ते श्रारीसानी पठे उज्वल थईने निज ज्ञानोपयोगीपणे कारण स्वरूपी थईने पोताना मुक्तिरूप कार्यने पोतेज दुके , एवं बनारसी दास कहे ॥४ ॥ हवे झाननो तथा कर्मनो विवरो बतावेजेः- अथ ज्ञान तथा कर्म विवरन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- जोलों श्रष्ट कर्मको विनास नाही सरबथा, तोलों अंत रातमामें धारा दोई वरनी; एक ज्ञानधारा एक शुनाशुज कर्मधारा, मुहकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारीधरनी; ग्यान धारा मोठरूप मोडकी करन हार, दोषकी हरन हार नौ समुछ तरनी; इतनो विशेष जु करमधारा बंधरूप, पराधीन सकति विवि ध बंध करनी. ॥४॥ अर्थः- ज्यां सुधी श्राप कर्मनो सर्वथा विनाश थतो नथी त्यांसुधी मुक्ति न होय अने त्यांसुधी अंतरात्मा थकी बेधारा वडे; तेमां एक झाननी धारा ने बीजी शु नाशुल कर्मनी धारा. ए बनेनी प्रकृति जुदी जुदी , अने धरनी के क्षेत्र ते पण जुएं जुडं जे. एमां एटलुं विशेष डे के जे कर्मधारा ते बंधरूप जे; अने जमपणाने लीधे एनी शक्ति पराधीनरूप अने प्रकृतिबंध, स्थितिबंध तथा रसबंध एवा नात ना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६३५ तना बंधनी करनारी; अने ज्ञानधारा मोक्षस्वरूप जे; मोदनी करनारी बे ने दोष मा त्रनी हरनारी श्रने नवसमुख तरवाने तरनी के नाव समान बे. ॥ ४ ॥ हवे मोद कर्ता जे ज्ञान क्रिया एवो जे स्याहाद तेनी प्रशंसा करे: अथ स्याहाद प्रशंसाः॥सवैया इकतीसाः॥-समुफै न ज्ञान कहै करम कियेसों मोद, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहलमें; ज्ञान पर गहै कहै श्रातमा अबंध सदा, वरते सुबंद तेउ बूझे है च हलमें; जथाजोग करम करे मैं ममता न धरै, रहै सावधान ज्ञान ध्यानकी टहलमें तेईन वसागरके उपर व्है तरै जीव, जिन्हको निवास स्याद्वादके महल में ॥ ५० ॥ अर्थः- क्रियावादी कहे के, “ न झान श्रेय” एनो अर्थ एडे के ज्ञान नबुं नथी. जेमा संशय उपजे बे, अने संशय थया थकी जीव श्रहींनो नहीं ने तहीनो पण नहीं एवो थाय , माटे क्रिया कर्म करवाथीज मोक्ष बे, एम विकल थयलो जीव मिथ्यात्व नी गहलमां कहे. हवे जे ज्ञानवादी सांख्यमती ते झाननोज पद ग्रहीने रहे ने एवं कहेजे के बंध ने मोक्ष प्रकृतिने विषेज , पण यात्मा तो सदा प्रबंध पणे वर्त्त बे; एवी श्रद्धावडे खबंद के पोतानी मरजीमां श्रावे तेम चाले, तेउ चहल केक दममां बूमेला . अने जे स्याहादी बे ते कोश्ना विरोधी नथी, तेथी यथायोग्य ए टले गुण गणा माफक कर्म क्रिया करेबे, पण कर्मने उदय दशामा राखे बे, अने म मताने धरता नथी, ज्ञान ध्याननी सेवामां सावधान रहे बे; एवा स्याहादी जीव उप र थइ रह्या थका जवसागर तरे, जेनो निवास स्याहाद रूपमेहेलमां बे. ॥५०॥ हवे मूढनी तथा विचक्षणनी क्रियानुं वर्णन करे :- अथ मूढविचक्षण क्रिया वर्णनंः. ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जैसे मतवारो कोउ कहै और करै और, तैसे मूढ प्रानी वि परीतता धरतु है; अशुन करम बंध कारन बखानै माने, मुगतिके हेतु शुन रीति श्रा चरतु है; अंतर सुदृष्टि नई मूढता विसरि गई, ज्ञानको जयोत म तिमिर हरतु है; करनसों निन्न रहै बातम सरूप गहै, अनुनौ आरंनि रस कौतुक करतु है. ॥५१॥ अर्थः- जेम कोई मतवारो पुरुष कहे कई थने करे कई तेम मूढ प्राणी उलटोज नाव धारे डे, एटले अशुज कर्मने बंधनुं कारण समजे अने मुक्तिनो हेतु शुज रीत के शुज क्रियाने श्राचरेडे. हवे ज्ञानीने अंतर सुदृष्टि थई तेथी मूढता मटी गई ने ज्ञान नो उद्योत थयो; तेणे करीने चमरूप तिमिरनो नाश थयो, त्यारे मुक्तिनुं कारण जे शुन क्रिया के तेथी ते ज्ञानी जिन्न रहे, ममतान धरे, अने आत्मानुज स्वरूप ग्रही थात्माना अनुजवना थारजना रसनुं कौतुक करे बे. ॥५१॥ ॥ इति श्री समयसार नाटकको पुण्य पाप एकत्वी कथन चतुर्थ घार संपूर्णः॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. ॥ दोहराः॥ - पुन्य पापकी एकता, बरनी श्रगम अनुप; अब श्राश्रव अधिकार कहुँ, कहीं अध्यातम रूप. ॥ ५२ ॥ -- यर्थः- पाप पुण्यनी एकता तो गम बे घने अनुपम बे तेनुं वर्णन कीधुं, दवे कक श्रावनो अधिकार बे ते कहुं अने अध्यात्मनुं स्वरूप कहुबुं ॥ ५२ ॥ श्राव सुटनो नाश करनार ज्ञान सुनटने नमस्कार करे बेः - थज्ञानबल वर्णनं :॥ सवैका इकतीसाः॥ - जे जे जगवासी जीव थावर जंगम रूप, ते ते निज वस करी राखे बल तोरिके; महा अभिमानी ऐसो श्राव अगाध जोधो, रोपि रनथंज वा ढो जयो मूब मोरिके; यो तिहि थानक अचानक परमधाम, ज्ञान नाम सुजट सवायो बल फोरके, श्राश्रव पठार्यो रनथंज तोरि डार्यो ताहि, निरखी बनारसी नमत कर जोरिके ॥ ५३ ॥ ; अर्थः- जे जे थावर जंगमरूप जगत्वासी जीव बे, तेना सहज बल ने तोमीने ते ते जीवोने व जोधाए पोताने वश करी राख्याबे, एवो महा अभिमानी श्राश्रवरूपी अगाध जोको जगत्मां रहे बे, ते रथं रोपीने मूल मरोमीने वाढो थयो बे; ते एम कदेबे के, जगत्मां मने जीते एवो कोइ नथी. ते स्थले अचानक परम धाम के० अति तेजस्वी ज्ञान नामनो सुजट उपला श्राश्रव जोद्धानो प्रतिपक्षी ते सवायो बल फोरवीने लडवाने श्रव्यो; तेथे श्राश्रव सुनटने पछाड्यो अने तेनो रणथंज तोमी नाख्यो. एवा ज्ञान सुनटने निरखीने बनारसीदास हाथ जोडी नमस्कार करेबे ॥ ५३ ॥ दवे द्रव्यरूपी श्राश्रव ने जावरूपी श्राश्रवनां लक्षण कहे :- अने सम्यग्ज्ञाननुं लक्षण पण कदेबे :- श्रथ द्विविध श्राश्रव लबन तथा ज्ञान लबन वर्णनं: ॥ सवैया तेइसाः ॥ - दर्वित श्राश्रव सो कहिये जहिं पुल जीव प्रदेस गरासै; जावित श्रवसो कहिए जहिं राग विरोध विमोह विकासैः सम्यक्पद्धति सो कहिये, जहिं दर्वित जावित श्राश्रव नासै; ज्ञान कला प्रगटै ति हि थानक, अंतर्बारि और न जासे ॥५४॥ अर्थः- ज्यां पुल द्रव्य बे ते जीवना सर्व प्रदेशने ग्रासेबे के० गली जायबे, ते द्रवित श्राश्रव जाणीये. अने ज्यां द्रवित श्राश्रवना प्रसंग थकी आत्माने विषे राग द्वेष विमोहनो विकाश थाय त्यां जावित श्राश्रव कहीये, अने ज्यां श्रात्माने विषे स म्यक् पद्धति के सम्यक् स्वरूप कहिये त्यां तेने शक्ति श्राश्रव ने जावित श्र श्रवनो नाश था, एटले सम्यक् पद्धतिने विषे ज्ञान कला प्रगटे, तेथी अंतर्भावाश्रव मां बाहिर व्याश्रवमां बीजुं जासे नहीं, सम्यकूज दीवामां श्रावे ॥ ५४ ॥ दवे सम्यक् स्वरूपनो धणी जे ज्ञाता तेनुं लक्षण कहेबे श्रथ ज्ञाता लक्षणं:--- Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक ६३७ ॥चोपाई बंदः॥-जो दरबाश्रवरूप न होई, जद जावाश्रव नाव न कोई जाकी दशा ज्ञानमय लहिये, सो शातार निराश्रव कहिये ॥ ५५॥ अर्थः- जे अव्याश्रवना स्वरूपमा होय नही, अने ज्यां जावाश्रवनो पण नाव कोई नथी, अने जेनी दशा ज्ञानमय होय, तेज जीव ज्ञानी अने आश्रवरहित कहिये. हवे ज्ञातानी समर्थाथी निराश्रवपणुं देखामे :-अथज्ञाताकोसमर्थपणोवर्णनं: ॥सवैया इकतीसाः।-जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि परवक, तिन परिनामनकीम मता हरतु है; मनसा श्रगोचर अबुद्धि पूरवक नाव, तिन्हिके विनासवेको उद्यम ध रतु है; याहि नांति परपरिनतिको पतन करे, मोखको जतन करै नौजल तरतु है; ए सै ज्ञानवंत ते निराश्रव कहावै सदा, जिन्हको सुजस सुविचक्षण करतु है ॥५६॥ अर्थः- जेटला परिणाम प्रगट मनगोचर , एटला जिन परिणामने मनमां संजा रेने, जाणे, अने बुझिपर्वक के पोतानी अहं बुद्धिवडे जे अशुद्ध परिणाम उपजे, ते परिणामनी ममता बांडे जे; अने जे नाव मनथी अगोचर के जेनुं स्वरूप मनवडे देखाय नही, अने बुद्धि पूर्वक के जेने बुझिनो प्रचार लागे नही, एवा अनागत कालना जे अशुभ परिणाम, तेनो विनाश करवाने उद्यम करे , ए रीते परपरिनति के पर वस्तुनो जे परिणाम जे अतीत कालमां थयो , वर्तमान कालमां बे, अनाग त कालमां थशे, तेनुं पतन करे. अने मोद के तेथी बुटवू तेनुं जतन करे, ते नव सागरथी तरे, एवा जे ज्ञानवान् प्राणी के तेतो सदा निराश्रव कहेनांवाय, जे सुजश ने स्तुति ते पंडित पुरुषो गाय ॥ ५६ ॥ झानीने निराश्रव कह्या तेउपर शिष्य प्रश्न करेजेः- श्रथ शिष्य प्रश्न कथनः ॥ सवैया इकतीसा॥-ज्यों जगमें विचरै मतिमंद सुबंद सदा वरतै बुध तैसे; चं चल चित्त संजत बैन, सरीर सनेह जथावत जैसे; जोग सजोग परिग्रह संग्रह मोह विलास करै जाहँ ऐसे, पूबत शिष्य आचारजसों यह, सम्यकवंत निराश्रव कैसे?॥५॥ अर्थः- जेम मतिमंद के अज्ञानी जन जगत्मा स्वबंद के मरजी मुजब वर्ते, तेम पंमित पण सदा तेवी रीते वर्ते, ते आवीरीते चंचल चित्तवाला रहे, असंजत बेन के० विचारविना वचन बोले, अने शरीर स्नेहने प्रवर्त्तावे, अने अझानीनी माफ क नोगसंयोग राखे, परिग्रहनो संग्रह करे, अने ज्ञान अवस्थामां मोहविलास एवो ज करे, ए रीते अज्ञानीनी अने ज्ञानीनी एक सरखी रीति जोईने शिष्य श्राचार्यने पूडे के, एने सम्यक्त्ववंत निराश्रव केम कहिये ? ॥ ५७ ॥ हवे ए प्रश्ननुं उत्तर गुरु आपेजेः- श्रथ गुरु उत्तर कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-पूरव अवस्था जे करमबंध कीने अब, तेई उदै आई नाना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. जांति रस देत हैं; केई शुज शाता के अशुल अशातारूप, उडुसों न राग न विरोध सम चेत हैं; यथा योग क्रिया करै फलकी न श्वाधरै, जीवन मुगतिको बिरुद गहिलेत हैं; यातें ज्ञानवंतकों न आश्रव कहत कोज, मुखतासोन्यारे नये सुद्धता समेत हैं. ॥५॥ ____ अर्थः-पूर्वकालमां श्रझान अवस्थाने विषे जे जे कर्मबंध कीधेला होय, तेज कमों वर्तमान कालमा उदय श्रावीने नाना प्रकारनो रस आपेले. तेमां केटलांएक शुन कर्म ते शातारूप , अने केटलांएक अशुन कर्म अशातारूप बे; एवां बेज जात नां कर्मनेविषे झानीने राग अने विरोध नथी, एथी ज्ञानी समचित्त बे. श्रने यथायो ग्य के उदयमाफक क्रिया करे, पण फलनी वा राखे नही; ने जीवताज मुक्त थया बे, तेथी जीवन्मुक्तिनुं बिरुद धारे , ए रीते ज्ञानवंत मनुष्यने कोई श्राश्रव कहेतुं नथी. ते मूढताथी न्यारो थयो अने शुद्धता समेत दे ॥ ५ ॥ हवे राग, द्वेष, मोह थने ज्ञाननां लक्षण कहेः-श्रथ राग, द्वेष, मोह, शान लक्षणः ॥ दोहराः॥- जो हितनाव सु राग है, अनहि तनाव विरोध; ब्रामकनाव विमोह है, निर्मल नाव सुबोध ॥५ए॥ अर्थः-जे हितनाव ले ते राग ने श्रने अनहितनाव ते विरोध बे; अने जामकला व तेने विमोह कहिये, अने निर्मलजाव ते बोध एटले ज्ञान कहिये ॥५॥ हवे राग द्वेषनुं स्वरूप कहेजेः- अथ राग द्वेष कथन:॥दोहाः।- राग विरोध विमोह मल, ए श्राश्रव मूल; ए कर्म बढाश्के, करै धरमकी नूल ॥ ६ ॥ अर्थः- राग, द्वेष ने विमोह जे ते श्रात्माने मल बे, अने एज दोष श्राश्रवनां मूख . अने एज राग द्वेष अने मोह . ते कर्मने वधारीने धर्मने जुलावी दिए॥६॥ हवे ज्ञाताने निराश्रव कहेजेः- श्रथ हातानिराश्रव कथनः॥दोहा॥- जहां न रागादिक दसा, सो सम्यक् परिनाम; यातें सम्यकवंतको, कह्यो निराश्रव नाम ॥६१॥ अर्थः-ज्यां राग, द्वेष, मोहनी दशा न मले तेने सम्यक् परिणाम कहिये, ए परथी सम्यक्त्ववंत पुरुषने निराश्रवी नाम आप्यु ॥६॥ हवे ज्ञाता जे जे ते निराश्रवणपणामां विलास करेजेः- श्रथ ज्ञाता कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥- जे कोई निकट जव्य रासी जगवासी जीव, मिथ्या मदनेद झान जाव परिनये हैं; जिन्दकी सुदिष्टिमें न राग दोष मोह कहूं, विमल विलोकनि में तीनो जीति लये हैं; तजि परमाद घट सोधि जे निरोधि जोग, शुरू उपयोगकी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६३ए दशामें मिलिगये है; तेई बंध पति विडार पर संग मारि श्रापुमें मगन व्हेके श्रा परूप नये हैं ॥ ६॥ ___ अर्थः- जे कोई जव्य राशिमां जगत्वासी जीव बे, ते जव्यत्व परिपाकने लीधे नि कट के० पासे थया; ने मिथ्यामतिने नेदीने पोतानुं स्वरूप जे ज्ञान नाव तेने विषे परिणमी रहे बे; जेनी ज्ञानरूपी दृष्टिमां राग, द्वेषने मोह कंश पामिये नही; अने नि मल निज स्वजावनी विलोकतामा राग, द्वेषने, मोह ए त्रणेने जीती लीधा बे; श्रने पांचे प्रमाद तजी पोताना शरीरने साधीने मन, वचन अने कायाने शैलेशीकरणमा निरोध करीने शुक उपयोग दशा जे केवल दशा तेने विषेमली गया, तेवा ज्ञानी बंधनो मार्ग विडारी अने परवस्तुनो संग डोमीने श्रात्माने विषे मग्न थई श्रापरूपें थया ॥६॥ शिष्य पूजे के, एम ज्ञाताने विषे निराश्रवपणुं श्रशे तो श्रायुष्यपर्यंत ज्ञाता निरा श्रवी थशे. गुरु उत्तर श्रापे के, हातापणुं तो उपशमनावने क्षयोपशम नाववडे चं चल जे ते कहेजेः-श्रथ उपशमी क्षयोपशमी व्यवस्था कथनः ॥सवैया इकतीसा॥-जेते जीव पंमित खयोपशमी उपशमी, तिन्हकी अवस्था ज्यों बुहारकी संडासी है; दिन श्रागमांहि दिन पानिमांहि तैसे एउ, जिनमें मिथ्या त लिनु हान कला नासी है; जोलों शान रहै तोलो सिथिल चरन मोह, जैसे कीले नागकी सगति गति नासी है; थावत मिथ्यात तब नानारूप बंध करै, जो उकीले ना गकी प्रकृति परगासी है ॥ ६३ ॥ अर्थः- मिथ्यात्वनी गांठ नेद कीधा पडी जे मिथ्यात्वनो अंश उदय श्रावे ने ते जेनो खपी जाय श्रने मिथ्यात्वपुंज उपशम्यो रहे, ते जीव क्षयोपशमी कहिये अने जेने अंतरमुहर्त्तलगी उपशम्योज रहे तेने उपशमी कहिये. एवा बेन नाव ते जे जीव पंडित ने तेनी अवस्था ते लुहारनीसाणसी समान बे; जेम साणसी घडीमा लोहने ग्रहण करी आगमां होयडे, ने घमीमां तेहज साणसी लोखंडने उको करवा सारु पाणीनेविष होयजे; तेम ए क्षयोपशमी अने उपशमी जीव क्षण एकमां मिथ्यात्व नावमां आवे ने क्षणनेविषे झानकलाना प्रकाशमां रहे. एवी श्रवस्थाने विषे ज्यांसुधी झानकला रहे, त्यांसुधी चारित्र मोहनीयनी पचीस प्रकृ ति शिथिल के ढीली थई रहेजे; जेम मंत्रनी जमीए करीने सर्पनी शक्ति-गति शिथिल थई जायचे, तेम ए पण जाणवू. हवे ए जीवने फरी मिथ्यात्व उदय श्रा वे त्यारे तो नाना प्रकारना कर्मबंध करेजे; जेम नागनी उकीलनी करवाथी ना गनी पोतानी प्रकृति फरीथी प्रगटे ते रीते जाणवू. ॥ ३ ॥ हवे ज्ञानना शुद्धपणानी प्रशंसा कहेजेः-श्रथ शुभनय प्रशंसाः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ॥दोहा॥-यह निचोर या ग्रंथको, कहै परम रस पोष; तजै शुधनय बंध है, गहै शुद्धनय मोष ॥ ६४ ॥ ___ अर्थः-श्रा समयसारग्रंथर्नु रहस्य एज ने अने एज उत्कृष्ट रसनो पोषकडे के जे शुद्धतानी नय रीति गंडी तो बंध ने अने शुहतानी नयरीति ग्रही तो मोद ॥६॥ हवे बे नयनेविषे जीवनो विलास कही बतावे बेः-अथ जीव विलास वर्ननं: ॥ सवैया इकतीसाः॥-करमके चक्रमें फिरत जगवासी जीव, व्है रह्यो बहिर में ख व्यापत विषमता; अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुजलसों प्रीति टूटी बूटी माया ममता; सुद्ध नै निवास कीन्हो अनुनौ अन्यास लीन्हो, ब्रमनाव बां मिदीनो जिनो चित्त समता, अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलंबी अवलोके राम रमता ॥६५॥ अर्थः-चौदराजलोकमां कर्मनुं चक्र के कटक फरी रह्यं बे, तेमां जगतवासी जीव पण फरी रह्यो , श्रने ए फरवामां जीव विषमताए युक्त थयो थको क्यारे श्ष्ट संयोगी ने क्यारे थनिष्ट संयोगी थई ने तेमा बहिर्मुख थई रह्यो, एटले बाह्य विषय जोगनोज ग्राहक थयो, श्रने अंतरदृष्ठिथकी थात्मा न जाएयो, एटलामां अंतर्ने विषे सुमति उपजी, तेणे करीने पोतानी निर्मल प्रजुताने पाम्यो, त्यारे परव स्तु जे पुजल तेनी प्रीति तटी. एटला कालसुधी पुजलनी माया ममता जे नहीं बुटी हती ते बुटी. जेम शुद्धनयवडे श्रात्मानुं स्वरूप कडं, तेवा शुधनयमा पोते नि वास कीधो, श्रने यात्मस्वरूपमा उपयोग राखीने अनुजवनो अन्यास लीधो, एथी ब्रमन्नावनो त्याग थयो, अने मन जे जे ते समाधिने विषे लीन थयु, त्यारथी अनादि अनंत कालसुधी जे स्वरूपमा कं वीजा विकल्प न पामिये एवं पोतानुं अचल पद श्रवलंबीने पोतानुं जे रमतारामपणु तेने अवलोके ॥६५॥ हवे आत्मानुं शुद्धपणु सम्यग् दर्शन , तेनी प्रशंसा करे बेः-अथसम्यक्त्वप्रशंसाः ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जाके परगासमें न दीसे राग दोष मोह, आश्रव मिटत न हि बंधको तरस है; तिहुँ काल जामें प्रतिबिंबित अनंतरूप, थापु हु अनंत सत्ता नं ततें सरस है; नावश्रुत शान परवान जो विचारि वस्तु, अनुलो करे जहां न बानीको परस है; अतुल अखंम अविचल विनासी धाम, चिदानंद नाम ए सो सम्यक दरस है अर्थः-जे शुकथात्माना प्रकाशमां राग, वेष, मोह न देखाय, थने आश्रव न होय तेमां बंधनो तरस के लागवं ते पण न होय, अने जे शुरु आत्माना प्रकाशमांत्रणे काले अनंतरूप प्रतिबिंबित थाय बे; अने निजस्वरूप पण अनंत बे, अने सत्तानंत मां सरस बे, ते सत्तास्वरूपी अनंत पदार्थ बे, तेथी सरस , एटले जेना अनंतपर्याय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५१ सर्व तेज धर्म कहे, श्रने नावश्रुत शानने प्रमाण करी वस्तुनो विचार अनुनव करे अने ज्यां वाणीनो स्पर्श नही, एटले जे वचन गोचर नथी, अनदररूपनो अनुभव पोते करे, ए संयोगी गुणस्थानकनी दशा बे. जेनी तुलना नथी एटले अतुल; वली जेनी खंडना नथी माटे अखंड, एवं अचल ने अविनाशी धाम के तेजोमय तेज चिदानंद स्वरूप ; एवं इश्वररूप सम्यग् दर्शननुं स्वरूप कहिये ॥६६॥.. ॥इति श्री नाटक समयसारविषे बालाबोधरूप आश्रवहार पंचम संपूर्णः ॥ ॥ दोहा॥- अधिकार श्राश्रवको यह, कह्यो यथावत् जेम; अब संवर वरनन करों, सुनौ नविक धरि प्रेम. ॥ ६॥ अर्थः- ए रीते श्राश्रवनो अधिकार कह्यो; हवे संवरतत्त्व- वर्णन करूं; अहो ! जविक के जव्य प्राणी ! प्रेम धरीने ते सांजलो. ॥ ६ ॥ हवे संवरनु आदि ज्ञानवस्तु तेने नमस्कार करेः- अथ शान वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः॥-श्रातमको अहित अध्यातमरहित ऐसो, श्राश्रव महातम अखंग अंडवत है; ताको विसतार गिविबेकों परगट नयो, ब्रहमंगको विकासी ब्रह मंगवत है; जामें सवरूप जो सबमें सवरूपसो में सबनि सों अलिप्त अकाशखंमवत है; सौ है शान नानु शुक संबरको नेष धरे, ताकी रुचि रेखको श्रमारे दंडवत है।दना अर्थः- श्रात्मानुं श्रहित करता थने अध्यात्मखरूपथी रहित एवं श्राश्रवरूप म हातम के महा अंधकार अखंगपणे अंडवत के सर्व लोकने ढांकी रह्यो , तेनो विस्तार गलवाने जे ज्ञानसूर्य प्रगट थयो ते ब्रह्मांड जेवो सर्व लोकालोकने विकाश नो करनारो थयो, श्रने ब्रह्मांडनुं मंडन जेथकी थाय बे,अने जेने विषे सर्वरूप नासे ने अने जे सर्वरूपे सर्वमां पामिये बियें अने जे सर्व मूर्तिक वस्तुथी श्राकाशखंडनी परे अलिप्त बे; ते ज्ञानरूपी सूर्य तथा जे शुरू संवरनो नेष धरी रह्या बे; तेनी रुचि रेखाने एटले तेना जदयने श्रमारो दमवत् के० नमस्कार बे. ॥६॥ हवे जम चेतनना नेद शान थकीज संवररूपी परमात्माने जेलखाय बे, ते सम जावे बे:- अथ नेदज्ञान महिमा कथन: ॥ सवैया तेश्साः॥-शुफ सुबेद अनेद अबाधित, नेद विज्ञान सु तीन बारा; अं तर नेद सुनाउ विनाव, करे जम चेतनरूप उफारा; सो जिन्के उरमें उपज्यो न रुचै तिन्हको परसंग सहारा; श्रातमको अनुन्नौ करि ते हरखे परखे परमातम धारा॥६॥ अर्थः-शुकपणे स्वछेद के० पोतपोताना न्यारा स्वरूपने बतावनार,अनेद के एक स्वरूप अबाधित एटले कोई प्रमाणांतरे अखंमित एवं नेदज्ञान ते तीक्ष्ण सुलाख बे, ते सुलाखथी अंतरात्मामां नेदन करीने स्वनाव थने विनावने जुदा जुदा करे, ने ज Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. डरूप तथा चेतनरूपने डुफार के० न्यारा करी बतावे, एवं नेदज्ञान जेना रुदयने विषे उपज्युं बे, तेज जीवने परवस्तुनो संग ते सहारा के० रुचे नही. अने तेज जीव पो ताना स्वरूपनो अनुज करी यथार्थपणे अंतरात्माने विषे जे परमात्मानी धारावे तेनेपारखे. हवे दविज्ञान जे बे, ते सम्यग् ज्ञान बे, तेनी समर्थाइ थकी स्वरूपनी प्राप्ति थाय बे; ते कवेः - छाथ सम्यक्त्व सामर्थ्य कथनः ॥ सवैया तेइसाः॥ - जो कबहु यह जीव पदारथ, औसर पाइ मिथ्यात मिटावै; स म्यक धार प्रवाह व गुन, ज्ञान उदे मुख ऊरध धावै; तो अनिांतर दर्वित जावित कर्म किलेश प्रवेश न पावै; प्रतम साधि अध्यातमको पथ पूरण व्है परब्रह्मकावै ॥ ७० ॥ अर्थः- जो कोई या जीव पदार्थ बे ते यथाप्रवृत्ति करणरूप अवसर पामीने मि ध्यात्वग्रंथि नेदीने मिथ्यात्वने मिटावे; शुद्ध सम्यक् श्रने स्वरूप जलधारानो प्रवाद a ने ज्ञानगुणना उदय वडे ऊर्ध्व मुख थईने मुक्ति सन्मुख दोने, त्यारे अन्यंतर जे प्रति कर्म ने जावित कर्म तेना क्लेशनो प्रवेश ते न थाय. जे प्रकृति प्रदेशरूप कर्मति कर्म अने राग द्वेषादिक ते जावित कर्म ए बने प्रवेश नही करी शके अने अध्यात्मना पंथ सेलीमां श्रावीने श्रात्माने साधीने पोताना रूपमा पूर्ण थईने परब्रह्म कवाय. ॥ ७० ॥ दवे संवरनुं कारण सम्यग्दृष्टिबे, तेनो महिमा कहे बेः :- सम्यग् दृष्टि महिमा:॥ सवैया तेइसाः ॥ - नेद मिथ्यात सु वेद महारस, नेद विज्ञान कला जिन पाई; जो अपनी महिमा अवधारत, त्याग करे उरसों ज पराई; उद्धतरीति वसे जिनके घट, हो तु निरंतर ज्योति सवाई; ते मतिमान सुवर्ण समान लगे तिनकों न शुभाशुभ काई ॥ ७१ ॥ अर्थः- मिथ्यात्वग्रंथि नेदीने तथा उपशमरूप महारस वेदीने जे बुद्धिवं नेद वि ज्ञाननी कला पामी बे, अने जे ए नेदविज्ञान व पोताना स्वरूपनी प्राप्ति करीने पोताना ज्ञान, दर्शन चारित्ररूप महिमाने अवधारे, जर के० हैया थकी पराई सोज के० सामग्री तेनो त्याग करे ने जेना घटमां उद्धतरीति के० देशविरति तथा सर्व विरतिनी रीत फुरी अने निरंतर तप थकी जेनी सवाई ज्योति थाय बे, तेने बुद्धिमा नू कहिये, ते सुवर्णसमान बे. तेमने शुभाशुभ कर्मरूप काट लागी शकतो नथी ॥ १ ॥ हवे संवरनुं मूल नेद विज्ञान बे; ते मोदनुं कारण कही समजावे :श्रथ नेदज्ञान महिमा कथन: ॥ मिल बंदः ॥ - नेदज्ञान संवर निदान निरदोष है; संवरसो निरजरा श्रनुक्रम मोष नेदज्ञान शिवमूल जगतमहि मानिये, यदपि देय है तदपि उपादेय जानिये ॥ ७२ ॥ अर्थः- नेदज्ञान जे बे ते निर्दोष संवरनुं निदान के० मूलकारण वे श्रने निर्जरा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६४३ मुं कारण संवर ने श्रने निर्जरा जे लेते मोदनुं कारण बे. ए अनुक्रम प्रमाणे मोदनुं का रण परंपराथी नेद विज्ञानज बे. अगर जो शुद्ध स्वरूपनी अपेदाने लीधे नेदज्ञान त्याग जोग , तो पण नयोनु उपादेय, ते श्रादरवा जोग्य जाणिये. ॥ २॥ हवे स्वरूपनी प्राप्ति थया पली नेदशाननुं हेयपणुं देखाडेः-स्वरूप कथनः ॥दोहा॥-नेदज्ञान तबसों नलो, जवलों मुक्ति न होय: परम ज्योति परगट जहां, तहां विकल्प न कोय ॥७३॥ अर्थः- दशान त्यांसुधी नढुंबे, के ज्यांसुधी मुक्ति थई नथी. ज्यां परम ज्योति प्रग ट थाय त्यां विकल्प कोई रहे नही, तो नेदझान केम करीने रही शके ? ॥ ३ ॥ नेदज्ञान मुक्तिनो उपाय ते कहेजेः- श्रथ नेदज्ञानमहिमा कथनः॥ चोपाई॥- नेदज्ञान संवर जिन्दि पायो, सो चेतन शिवरूप कहायो; नेदज्ञान जिनके घट नाही, ते जमजीव बंधे घटमांही. ॥ ४ ॥ अर्थः-जे जीवने नेदज्ञानरूप संवरनी प्राप्ति थर, तेज चेतन शिवरूप कहियें; जेना हृदयनेविषे नेदशान नथी, ते मूर्ख घट पिंमने विषे बंधायलो रहे ॥४॥ हवे नेदविज्ञानवडे थात्मानो महिमा वधे ते कहेजेः-अथ नेदज्ञानको महात्म्यः ॥दोहराः॥-नेदज्ञान साब जयो, समरस निर्मल नीर; धोबी अंतर श्रातमा, धोवै नीज गुन चीर. ॥ ५ ॥ अर्थः- नेदज्ञान जे जे ते साबुरूप जाणवू; अने उपशम रस ते निर्मल पाणी लेने अंतर श्रात्माने धोबी मानवो; ते धोबी पोताना गुणरूप वस्त्रने धुवे ॥ ५ ॥ हवे नेदविज्ञाननी जे क्रिया डे ते कहेजेः-श्रथ नेदझानकी कर्त्तव्यता महात्म्यः-- ॥ सवैया इकतीसाः ॥-जैसै रजसोधा रज सोधिके दरब काढे, पावक कनक काढी दाहत उपलकों, पंकके गरजमे ज्यो मारिये कतक फल, नीर करे उज्वल नितारिडारे मलको; दधिको मथैया मथि काढे जैसै माखनको, राजहंस जैसै दूध पीव त्यागि ज लको; तैसै ज्ञानवंत नेदज्ञानकी सकति साधि, वेदे निज संपति उदे परदलको॥६॥ अर्थः- जेम को रज सोधा के जोनारो रजने सोधीने एटले सोना रूपा प्रमुख अव्यने काढवाने पावक के अग्निने लगाडे, ने सोनुं काढील पथरा धूल वगेरेने बाली नाखेडे. वली जेम कतकफलने पंकना गर्जनेविषे नाखीये तो ते फल जलने मे लथी जूठं करे, वली जेम दधिनो मथनहार दधिनुं मथन करी माखणने जूउं करेले ने राजहंस पाणी दूध नेगां होय तेमांथी मात्र दूध पी जाय, पाणीने जूठं करे बे; तेम ज्ञानवंत प्राणी नेद विज्ञाननी शक्ति साधीने पोतानी झानसंपत्तिने वेदे अने परदल के० पुजलनु कटक जे राग द्वेषादिक तेने कापी नाखेडे. ॥ ६ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. श्रथ नेदशान मोदमूल यहु कथनः-- ॥ उप्पय बंदः।- प्रगट नेद विज्ञान, श्रापगुण परगुणजानै परपरिनति परि त्यागि शक अनुनय थिति गन; करि अनुनव श्रन्यास, सहज संवर परगासे, श्राश्रव घार निरोक, कर्म घनतिमिर विनासै; आय करि विन्नाव समन्नाव नजि, निरविकल्पनिज पद गहै; निर्मल विशुद्ध सासुत सुथिर, परम अतींजिय सुख लहै. ॥ ७ ॥ अर्थः- नेद झान जे जे ते प्रगटपणे पोताना तेम पारका गुणने जाणे, तेथी पर वस्तुमा जे परिणमन ले तेनुं ज्ञान करे, पोताना शुफ अनुजवनो ठराव राखे, ने ते अनुनवनो श्रन्यास करीने सहज संकरना रूपनो प्रकाश करे, श्राश्रव हारनो निरो ध करीने कर्मरूप मेघ अंधकारनो नाश करे; अने विजाव के मोह दशानो क्ष्य क रीने समजाव के समाधिने जजे, तेणे करीने ज्यां कोई विकल्प नथी एवं पोतानुं निर्विकल्प पद तेने पामे, एटले जे सुखनेविषे मल नथी ए उपरथी ते विशुद्ध अनंत कालसुधी एकरूप तेथी शाश्वत स्थिर एवं अतींजिय के इंडियगोचर नही एवं सुख पामे. ॥ इति श्री समयसारनाटकको बालाबोधरूप संवर घार बठगे संपूर्णः॥ ॥ दोहाः-बरनी संवरकी दसा, जथा जुगति परमान; मुक्ति वितरनी निर्जरा, सु नहु नविक धरि कान ॥ ७ ॥ अर्थः-संवररूपनी दशा कही ते युक्ति तथा प्रमाणे करी कही; हवे मुक्तिनी वितरणी के० आपनारी एवी जे निर्जरा तेनुं वर्णन करुवुः- ते अहो! नव्य लोको तमे कान दर्शने शांचलो. ॥ ७ ॥ हवे निर्जरा- केतुं स्वरूप ने ते कहेः- अथ निर्जराखरूप कथनः॥ चौपाई॥-जो संवर पद पाश् अनंदे; जो पूरव कृत कर्म निकंदे; जो अफंद ठहै बहुरि न फंदे; सो निरजरा बनारसि बंदे. ॥ ए॥ अर्थः-पोतानुं जे शुद्ध स्वरूप राखतुं तेनुं नाम संवर कहिये; तेनुं पद पामीने संवर थानंद करे; अने पूर्व कालनेविषे जे कर्म कीधांजे, तेने जमथी उखेमी नाखे; श्रने जे पूर्व कर्मना फंद ते थकी बूटीने पाहु ते फंदमां सपडाय नही तेनुं नाम श्रात्मानी निर्जरा कहिये. ते निर्जराने बनारसी दास वंदन करे. ॥ ए॥ निर्जरानुं कारण सम्यक्त्व , माटे सम्यक्त्वनो महिमा वखाणे बेः अथ सम्यक्त्व महिमा कथन:___॥ दोहाः॥-महिमा सम्यक् ज्ञानकी, अरु विराग बल जोश; क्रिया करत फल तुं जते, करमबंध नहि हो. ॥ ७ ॥ अर्थः-जे कर्म बुटे तेनुं फरीने बंधन यश् शके नही, ए सम्यग् ज्ञाननो महिमा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६४५ जे. वली ए सम्यग्ज्ञान साथे वैराग बलनो जोग बे, तेथी शुनाशुज क्रिया करता थका ने तेनुं फल नोगता थका शंखलाबंध नवां कर्मनो बंध थतो नथी. ॥ हवे सम्यक्त्वनी महिमामा क्रिया करतांज कर्मनी निर्जरा थाय ते दृष्टांते कहेजेः ॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसे नूप कौतुक सरूप करै नीच कर्म, कौतुकी कहावै तासों कौन कहै रंक है; जैसे विजचारिनी विचारै विनिचार वाको, जारदीसों प्रेम जरतासों चित्त वंक है; जैसे धाश् बालक चुंघाश करै लालि पालि, जानै तांहि और को जदपि वाके अंक है; तैसै ज्ञानवंत नानानांति करतूति गनै, किरियाको निन्न मानै यातें निकलंक है. ॥ १ ॥ __ पुनः- जैसै निशिवासर कमल रहै पंकहिमें, पंकज कहावै पै न याके ढिग पंक है; जैसे मंत्रवादी विषधरसों गहावै गात, मंत्रकी सकति वाके विना विषडंक है; जैसे जीन गहै चिकना रहै रूख अंग, पानी में कनक जैसै कांसो अटंक है; तैसै ज्ञान वंत नानाजांति करतूति गनै, किरियाको निन्न मानै याते निकलंक है. ॥ २॥ ___ अर्थः- जेम कोई नूप के राजा होय ने ते पोताना कौतुके करीने गमे तेवू नीच कर्म करे ते क्रिया करवाने लीधे ते कौतुकी कवाय पण कोई ते राजाने रंक नही कहे; जेम कोई कुलटा व्यभिचारिणी स्त्री होय ते यद्यपि पोताना धणीनी साथे रहे खरी, तोपण धणीनी साथे तेनुं चित्त बुब्ध होतुं नश्री; चित्तने विषे तो व्यनिचारनो ज विचार थाय, के जो वखत मले तो नीकली जालं ने यारने मढुं; जेम को धाव होय ने ते पारका बालकने धवरावे, अने रमाडे लालन पालन करे, अने अंक के पोताना खोलामां लश्ने बेसे, यद्यपि एवी क्रिया तो करे खरी, पण एम जाणे के श्रा बालक पारकुंडे; तेवीज रीते जे सम्यग् ज्ञानी डे ते नाना प्रकारनी शुनाशुन क्रिया राजा श्रेणिक तथा नरत चक्रवर्ति श्रने बीजा साधुनी माफक करे बे, पण ए क्रिया ने पुजलरूप जाणे, पोताना स्वरूपथ निन्न माने जे एथी बंधननुं कलंक लागतुं नथी. __एज उपर बीजा दृष्टांत कहे के जेम कमल ले ते रात्र दिवस पंक के कर्दमने विषे रहे , तेथकीज उत्पन्न थयुं बे, तेथी पंकज कहेवाय बे; तोपण कमलने पंकनो स्पर्श नथी होतो; जेम कोई गारूडी मंत्रवादी होय ते पोताना गात के शरीरने सर्प पासे पकमावे करमावे, पण ते मंत्रवादीना मंत्रनी शक्तिवडे सर्पनो डंख विषसंजोगर हित होय; जेम जिव्हा इंघिय घी दही प्रमुखनी चीकणाई ग्रहण करे, पण पो ताना अंगने ते चिकाशनो लेश रहेवा देती नथी, किंतु नूखीज रहेजे; जेम सोनुं पाणीनेविषे रेहेतां थका काटवाडं थतुं नथी, तेवी रीते ज्ञानवंत प्राणी . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. नाना प्रकारनी क्रिया करे, पण क्रियाने पुजल संयोगवाली जाणी आत्मस्वरूपश्री जिन्न माने बे, तेथीज कर्म बंध कलंकथी जुदो रहे ॥ २ ॥ हवे विषय जोगवता थका कर्म बंध न थाय एवी ज्ञानवैराग्यनी शक्ति बतावे :अथ ज्ञान वैराग शक्ति वर्णनं: ॥ सोरठाः।।- पूर्व उदय संबंध, विषय नोगवै समकिती; करै न नूतन बंध, महि मा ज्ञान विरागकी ॥ ३ ॥ अर्थः- पूर्व संचित कर्म उदय श्राव्याश्री तेना संबंधे समकीति जीव विषय जोग जोगवे , पण नवां कर्मबंध करतो नथी, ए सम्यग ज्ञान तथा वैरागनी शक्ति ॥३॥ __ हवे जे ज्ञाता होय जे ते सम्यग् ज्ञान अने विषयनी अरुचि ए बेजने साधेने, ते कहेजेः- अथ ज्ञाताकी व्यवस्था कथनः ॥सवैया तेश्साः ।- सम्यकवंत सदा जर अंतर, ज्ञान विराग उनै गुन धारै; जासु प्रजाव लखै निज लछन, जीव अजीव दशा निरवारै श्रातमको अनुन्नौ करि व्है थिर, आपु तरै अरु औरनि तारै; साधि सुदर्व लहै शिवसम सुकर्म उपाधि व्यथा वमिडारै. अर्थः-जे समकिती होय ते सदा पोताना अंतःकरणने विषे झान थने वैराग ए बे गुणने धारे जे गुणना प्रनाववडे पोतानुं ज्ञातापणुं लक्षण जोईने जीव अजीव दशा एटले जीव अजीवनुं स्वरूप निरवार के जुडं जुडं जाणे, ते पठी श्रात्माने यथार्थ पणे वेदीने आत्मिक स्वनावमा स्थिरता थक्ष रहे; ते पोते पण तरे अनेसत्यनपदे श थापी बीजाने पण तारेजे; ए रीते पोताना श्रात्मडव्यने साधीने मोक्षसुखने पामे, अने कर्मउपाधि सहित जे व्यथा तेनुं वमन करे ॥ ४ ॥ हवे विषयनी अरुचि विना ज्ञान- बल निष्फल बे, श्रने एवा ज्ञानीने एकांत पढ़ने विषे रहेवाश्री मिथ्या दृष्टि ठरावे बेः- श्रथ मिथ्यादृष्टि व्यवस्था कथनः ॥सवैया तेश्साः॥- जो नर सम्यक्वंत कहावत, सम्यग् ज्ञान कला नहि जागी; श्रातमभंग श्रवंध विचारत, धारत संग कहै हम त्यागी; नेष धेरै मुनिराज पटंतर. मोह महानल अंतर दागी; सून्य हिये करतुति करै परि,सोश जीव न हो विरागी. अर्थः- जे मनुष्य पोते सम्यक्त्ववंत कहेवाय अने सम्यग् ज्ञाननी कला न जागी, एटले सम्यग् ज्ञाननी प्राप्ति न थई तेथी आत्माना अंगविषे बंधविचारे नही, आत्मा अबंध डे एम माने ने तेथी ते अत्यंतर संयोग धारे बे. वली कोई निश्चय नयनो पद लश्ने पोते त्यागी ने एम कहे, मुनिराजनी पठे पटंतर के नेष धरे; पण अंतर नेविषे मोहमहानल के मोहरूप अग्नि शलगी रही होय; विषय थकी वैरागी न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६४७ थयो, तेथी हैया सुन्य थको मुनिराजनी पेठे क्रिया करे, पण ते जीव मूर्खज कहेवा यडे पण वैरागी कहेवाय नही ॥५॥ हवे जे सर्व क्रिया करता थका पण मूढ कहेवाय जे ते कहे जेः अथ मूढ क्रिया वर्णनंः॥सवैया तेश्साः ॥- ग्रंथ रचै चरचै शुन पंथ लखै जगमें व्यवहार सुपत्ता; साधि संतोष अराधि निरंजन, देश सुसीख न वेश् अदत्ता; नंग धरंग फिरे तजि संग के सरवंग मुधारस मत्ता; ए करतुति करै शठ में समुफै न अनातम श्रातम सत्ता-॥६॥ ध्यान धरै करि इंडिय निग्रह, विग्रहसों न गिनै निज नत्ता; त्यागि विनूति विनूति मिटै तन जोग गदै नवजोग विरत्ता; मौन रदै लहि मंद कषाय सहै वध बंधन होश न तत्ता; ए करतुति करै सठ पै समुफै न शनातम श्रातम सत्ता ॥ ७ ॥ अर्थः- ग्रंथ रचना करे, जला मार्गनी चरचा करे, जला मार्गने लखे, जगत्मा व्यवहार मार्गमा प्राप्ति थको रहे, संतोषी थने निरंजनने आराधे, लोकोने सारी शीखामण थापे, श्रदत्तदान ले नही, परिग्रह संग त्यागीने नंग धरंग फिरे के दि गंबर थई फरे, श्रने मुधा के मुग्धपणे पोताना रसमां मातो थको सर्वांगे बक्यो रहे एवी एवी क्रिया मूर्ख होय ते करे डे पण अनातम सत्ता के० आत्माथी पृथक् जे मो हनी गहलता ने तेने अने यात्मसत्ता के शुद्ध जाणपणानी जे सत्ता, तेने जदी जुदी जाणे नही तेमने मूर्ख कहेवा ॥ ६ ॥ वली मूढनी क्रिया केहे के, ध्यान धरे, इंज्यि दमन करे, विग्रह करे ते शरीर नी साथे पोताना थात्मानो संबंध गणे नही. विनूति के संपत्तिनो त्याग करीवि जूति के नस्म शरीर उपर लगाडे, योग मार्ग पहे, अने संसारना नोगथी विरक्त रहे, मौनपणे रहे, कषाय, मंदपणुं समजे, वध बंधन सहतो थको पण तातो नही थाय, क्रोधादिक न करे, एवी क्रिया शठ मूढ होय ते करे , पण अनातम सत्ता एटले कर्मादिक प्रजावनी सत्ता थने श्रात्मसत्ता एटले आत्मानुं सत्य स्वरूप तेने स मजे नही माटे तेने मूर्ख समजवो. ॥ ७ ॥ हवे फरी मूढपणानुं स्वरूप बतावेः- पुनः मूढ वर्णन:॥ चौपाई॥- जो बिनुज्ञान क्रिया अवगाहै; जो बिनु क्रिया मोख पद चाहै; जो विनु मोख कहै में सुखिया; सो अजान मूढनिमें मुखिया ॥ ७ ॥ अर्थः- जे जन ज्ञान विना क्रिया अवगाहे अने क्रिया विना मोद पद वांडे, वली जे मोद पाम्या शिवाय कहे के हुँ सुखी बुं, तेने अजाण मूर्खनो शिरोमणि जाणवो. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६धन प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. __ हवे जेने कर्मसत्ता तथा श्रात्मसत्तानी जिन्नता नासती नथी, तेने महामूढ कहि ये. तेनुं विवेचन करेजेः- श्रथ महामूढ व्यवस्थाकथनः ॥ सवैया इकतीसाः॥- जगवासी जीवनिसों गुरु उपदेश कहै, तुम्हे श्हां सोबत अनंत काल बीते हैं; जागो व्है सुचेत चित समता समेत सुनो, केवल वचन जामें अदर सजीते हैं; थाउ मेरे निकट बताउं में तुमारे गुन, परम सुरस नरे करमसों रीते हैं; ऐसे बैन कहै गुरु तन ते न धरे उर, मित्रकेसे पुत्र किधो चित्रकेसे चीते हैं. अर्थः- सर्व जगवासी जीवना हित वात्सल्यने अर्थे गुरु एवो उपदेश करे के,अहो! जव्य प्राणी जीव! तमे था जगत्मां मोहनियाने विषे सूता रह्या थकाज अनादि अ नंतकाल तमोने वीत्यो , माटे हवे तो चित्तमां सचेत थईने जागो; श्रने समता स हित थका केवलीनां वचन सांजलो, जे केवलीनां वचनमां श्रदर रस के इंजियना विषय रस तेने जीतेला बे; अने तमे मारी पासे श्रावो तो तमारा गुण बताएँ; ते गुण केवा , परम एटले उत्कृष्ट सुरसे करीनरेला बे; अने कर्म थकी रीते के न्यारा बे; एवां वचन गुरु कहे ते जे प्राणी हैयामां धरता नथी ते मित्रना पुत्र जेवाडे, के मके मित्रना पुत्रवडे पोतानुं घर उघा रेहेतुं नथी. श्रने तेने शीखामण शी देवी? अने चित्रामण जेवा बे, कारण के चित्रामण थकी कांई सत्य क्रिया थती नथी. ॥ नए ॥ ॥ दोहाः।- एते पर बहुरो सुगुरु, बोलै बचन रसाल; सेन दशा जागृत दशा, कहै उदूंकी चाल. ॥ ए ॥ अर्थः- ए प्रमाणे सरु ले ते फरी सरस वचन बोले , के जीवने एक सयनद शा ने बीजी जागृतदशा एवी बे दशा ने तेनी चाल शांजलो.॥ ए हवे सैन दशानुं वर्णन करेजेः- श्रथ शयन दशा वर्णनं:- ॥ सवैया इकतीसाः ॥- काया चित्र सारीमें करम परजंक नारी, मायाकी संवारी सेज चादर कलपना; सैन करै चेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यहै लोच नको ढपना; उदै बलजोर यदे श्वासको सबद घोर, विषे सुख कारजकी दोर यदे सपना; ऐसी मुढ दसामें मगन रहै तिह काल, धावै नमजालमें न पावै रूप अपना. अर्थः- कायारूप चित्रशाली बे, तेमां कर्मरूप पर्यंक बे, तेजपर मायानी सेज सं वारी , कल्पना के मननी विकल्पनारूप चादर बे, अचेतनानी ऊंघ लईने एवी सामग्रीमा चेतन शयन करी रह्यो , मोहनी मरोम तेणे करीने लोचन ढंकाया डे उदय बल जोर जे बे, ते श्वासनो घोर शब्द , अने विषय सुख कार्यनी दोड एटले करणी करवी ते स्वप्नावस्था बे, अने एनुंज नाम मूढदशा तथा शयन दशा कहिये. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६४ए अने ए दशानेविषे जे मूढ जन होय, ते त्रणे काल मग्न थको धावे बे, एटले ब्रम जालमां दोडे, पण पोतानुं रूप पामतो नथी. ॥१॥ हवे जीवनी जागृतदशानुं वर्णन करेजेः- श्रथ जागृतदशा वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः॥-चित्र सारी न्यारी परजंक न्यारो सेज न्यारी, चादर जी न्यारी शहां फुली मेरी थपना; थतीत अवस्था सैन निनावही कोउ पैन, विद्यमान प लक न यामें अब बपना; श्वास औ सुपन दोउ निमाकी अलंग ब्रऊ, सूफै सब अंग लखि थातम दरपना; त्यागी नयो चेतन अचेतनता नाव त्यागी, नाले दृष्टि खोलि के संजाले रूप अपना. ॥ ए॥ ___ अर्थः- श्रात्मज्ञान पाम्याथकी कायारूप चित्रसारी जुदी जुए, श्रने कर्मरूप पलं गने पण न्यारो देखे; मायारूप सेज पण जुदी जुए, कल्पनारूप चादरने न्यारी जुए, मतलबके ए ठेकाणे मारी स्थापना जुठी जे एम समजे. अतीत अवस्थानेविषे एटले सयनदशामां निखा लेनार पण कोई बीजा रूपे हुंज ९, विद्यमान कालमां ते अवस्था नथी, हवे पलकमात्र पण आ अवस्थामां मारो अनाव थनार नथी. श्वास अने स्वप्न ए बे निखानी अलंगना संयोगे बूके, अने थात्मारूप धारिसामां आत्मा मुंज सर्व अंग सूफे, एवी रीते अचेतनतारूप निखानो त्याग करीने चेतन त्यागी थयो, त्यारे पोतानी दृष्टि खोलीने जूए, श्रने पोतानुं रूप संन्नाले. ॥ ए॥ वली सद्गुरु शिदानां वचन कहेजेः- अथ पुनः सद्गुरु शिक्षा कथन: ॥ दोहाः ॥- इहि विधि जे जागै पुरुष, ते शिवरूप सदीव; जे सोवहि संसारमें, ते जगवासी जीव ॥ ए३॥ अर्थः- ए रीते जे पुरुष जागे बे, तेतो सर्व कालनेविषे शिवरूप के मोदरूप जा णवा. अने जेटला संसारनेविषे सूता बे, तेटला तो जगत्वासी जीव समजवा.॥३॥ हवे मोक्षपद उपादेयरूप कहीने स्तुति करेः-श्रथ श्रात्मजव्य स्तुतिकथनं: ॥ दोहाः ॥- जो पद नौपद जय हरै, सोपद सोउ अनुप; जिदि पद परसत और पद, लगै थापदारूप ॥ ए४ ॥ अर्थः- जे पद के जे स्थानक जवस्थानकनो नय हरे , तेनेज पद कहे, तथा अनुप स्थानक कहेवं, अने जे पदनो स्पर्श थतांज अन्य पद जे कर्म पद बे, ते श्रा पदारूप लागे . ॥ ए४ ॥ हवे नव जे संसार पद तेनो नय बतावे बे:-अथ संसार वर्णन:॥ सवैया श्कतीसाः ॥- जब जीव सोवै तब समुफ सुपन सत्य, वदि मुग लागे जब जागै नींद खोश्के; जागे कहै यह मेरो तन यह मेरी सोज, ताहू मुठ मानतम ८२ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. रथिति जोइके; जाने निज मरम मरन तब सूकै झूठ, बूकै जब और अवताररूप होइ के; वाहु अवतारकी दशामें फिरि यहे पेच, याहि जांति जूठो जग देख्यो हम ढोके ॥ ए५॥ अर्थः- ज्यारे जीव सयन दशामां सूतो होय बे, त्यारे स्वप्नने सत्य करी माने बे. अने तेज स्वप्न रूपने ज्यारे निद्रा मूकी जागीने जुए बे, त्यारे फूलूं जाणे बे, जागी ने क के श्री मारुं शरीर तो यहीं बे, या सोंज के० सामग्री सर्व मारी बे; ने ज्यारे पोतानी मरण स्थितिनो विचार करे बे, त्यारे तो वर्त्तमान शरीर तथा सामग्री सर्वने झूठी माने बे, अने ज्यारे पोताना मर्मनी वात जाणे एटले पोताना स्वरूपनी वातने जाणे, त्यारे तो मरणने पण झूलूं जाणे; एमज वली बीजो अवतार ले त्यारे बीजा रूपे ईने बीजी वात जाणे; फरी तेज अवतारमां सूता-जागता, जूता- साचानो पेचया गलीज रीते लाग्यो रहे. ए रीते वारे वारे अवतार लेवाने वली सामग्रीने पोतानी स मजवी ने वली मरखुं; ए रीते सर्व संसारने ढोई के० देखीने श्रमे सर्व संसारने जूठोज जायो. ॥ ५ ॥ हवे ज्ञाता केवी क्रिया करे ते समजावे बे:- अथ ज्ञाताकी क्रिया कथनंः॥ सवैया इकतीसाः॥ - पंमित विवेक लहि एकताकी टेक गहि, इंदज अवस्थाकी अनेकता हरतु है; मति श्रुत अवधि इत्यादि विकलप मेटी, निरविकलप ज्ञान मन में धरतु है; इंद्रियजनित सुख दुःखसों विमुख व्हैके, परमकी रूप व्है करम निर्जरतु है; सहज समाधि साधि त्यागी परकी उपाधि, श्रातम आराधि परमातम करतु है . ६ अर्थ :- जे पंक्ति जन होय ते विवेकनो नेद एटले विज्ञान लहीने पोतानी एक तानी टेक राखीने प्रथमनी द्वंद्वावस्था जे भ्रम अवस्थामां अनेकता हती तेने हरे बे ने मति, श्रुत, अवधि इत्यादि ज्ञानस्वरूपना विकल्पने मटामीने निर्विकल्प ज्ञान तेने मनमां धरेवे ने इंद्रियजनित जे सुख दुःख तेश्री विमुख थई परमात्मारूप ईने कर्मनी निर्जरा करे बे, एटले निर्जरा थाय बे. तेथी पोतानी सहज समाधिसा धिने पर जे कर्म पुलादिकनी उपाधि जे राग द्वेषादिक, तेनो त्याग करीने आत्मा ने राधी परमात्माप करे. ॥ ए६ ॥ हवे जे ज्ञान समुद्र परमात्मानी प्राप्ति थाय बे, ते ज्ञाननी प्रशंसा करे:अथ ज्ञान समुद्रवर्णनंः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जाके उरअंतर निरंतर अनंत दर्व, जाव जासि रहे पें सुना उन टरतु है; निर्मलसों निर्मल सुजीवन प्रगट जाके, घटमें घट रस कौतुक करतु हैं; जानै मति श्रुतधि मनपर्ये केवल सु, पंचधा तरंगनि उमंग उबरतु है; सो है ज्ञानज्रदधि उदार महिमा अपार, निराधार एकमें अनेकता धरतु है ॥ ७ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५१ अर्थः- जे ज्ञान सागरना मध्यभागनेविषे निरंतर अनंत द्रव्य पदार्थ जासी रह्या बे, पण ते द्रव्यनो स्वभाव पोते पामतो नथी, निर्मलमां निर्मल एवं सुजीवन के० जी वन के जीवितव्याने समुद्र पदे सुजीवन के० पाणी ते, जेनुं प्रगट बे, अने घट में के० हृदयनेविषे श्रघट के० अक्षरस कौतुक के० सत्यार्थ वेदननो जे रस तेनुज कुतुहल करे बे, एटले ए समुद्रने विषे रस कुतुहल घृणा बे, अने जे ज्ञान समुद्रने विषे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान ने केवल ज्ञान ए पांचे ज्ञान तरं रूप बे, उमंग के० पोतपोताने ठेकाणे प्रगट थर रह्यां बे एवो ज्ञानसमुद्र ते उदार प्रधान बे, एनो अपार महिमा बे, एने विषे सर्व पदार्थ जासे बे तेथे पोते निराधार एक स्वरूप तां ज्ञातापणामां अनेकता धरे बे ॥ ए ॥ दवे ज्ञानविना मात्र क्रियावज मोहनी प्राप्ति नथी तेनु वर्णन करे :अथ मोक्षमार्ग प्राप्ति कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः॥ - केई क्रूर कष्ट सदै तपसों शरीर दहै, धुम्रपान करें अधो मुख व्के जुले है; केई महा व्रत गर्दै क्रियामें मगन रहें, वह मुनि जार में पयारके से पूले है; इत्यादिक जीवनको सर्वथा मुगति नांहि, फिरे जगमांहि ज्यो वयारके धुले हैं, जिनके हिये में ज्ञान तिन्हही को निरबान, करमके करतार जरम में भूले हैं ॥८॥ अर्थः- कोई अज्ञानी क्रूर कष्ट सहन करेबे ने पंचाग्नि प्रमुख तप करीने शरीर ने वाले कई अज्ञानी अग्निना धुमामानुं पान करेबे, नीचुं मुख राखी उंचा पग क रीने जुलेबे; केटलाक अज्ञानी जैन लिंग लईने पांच महाव्रत द्रव्यथी ग्रहण करेबे, ने क्रियामां मग्न रहे; ए रीते मुनिराज पणानो जार वहेबे, पण ते पयारना जेवा पूले बे, (देश जाषायें ) पयार एटले पलाल, जेना फूलने विषे कण होता नथी, तेवी रीते नि राश जाणवा; इत्यादि केवल क्रिया कलापवडे जीवने सर्वथा मुक्ति यती नथी; ते ज गत्ने विषे वयारना बघुल जेम उंचा नीचा फरी रहे बे, पण एक ठेकाणे ठरता नथी तेवा समजवा; अने जेना हृदयनेविषे ज्ञान कला जागृतरूप ईबे, तेमने निरवाण के० मोक्ष बे; अने जे कर्मना करतार एटले केवल क्रियानाज करनारा बे तो जर्म नेविषेज जूली रह्यावे. ॥ ए८ ॥ वे जे मूढ जन बेतेनी दृष्टि निश्चयमां नयी, पण व्यवहारने विषे बे, तेथी ने विषे ज्ञान वे ते कवेः - श्रथ मूढ व्यवस्था वर्णनं: ॥ दोहा ॥ - लीन जयो विवहार में, उकति न उपजै कोइ; दीन नयो प्रभु पद जपै, मुकति कहांसों दोइ ॥ ए॥ कार्थ :- जे व्यवहारमां लीन थई रह्यो होय एटले मन थइ रह्यो होय, तेने कोई Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ प्रकरणरत्नाकर जाग पड़ेलो. कति के तत्त्वदृष्टि उपजे नही, ने पोते अनाथ थईने पोताना नाथना पदने जजे, ते पोतानुं निश्चयरूप जाण्याविना मुक्ति क्यांथी याय ? ॥ ए ॥ ॥ दोहा ॥ - प्रभु समरो पूजो पढो, करो विविध विवहार; मोक्ष सरूपी श्रातमा; ज्ञानगम्य निरधार ॥ २०० ॥ अर्थः- प्रजुने समरो, जावे पूजो, ने जावसहित पढो इत्यादि व्यवहार करो प मोक्ष स्वरूपी श्रात्मा तेतो निरधार के० निश्चय ज्ञान गम्य ते ॥ २०० ॥ हवे निश्चय स्वरूपने विषे ज्ञान पर्याय रूपी अर्थनुं निरूपण करे:err पर्यायार्थ निरूपणंः शिवपंथ न सूजै ॥ १॥ ॥ सवैया तेइसाः ॥ - काज विना न करे जिय उद्यम, लाज विना रनमांहि न जुं जै; डील विना न सधै परमारथ, सील विना सतसो न अरूकै; नेम विना न लहे नि हुचे पद, प्रेमविना रस रीति न बूफै; ध्यान विना न थने मनकी गति, ज्ञान विना अर्थः- हीं अतर बतावे वे के. जेम जीव पोताना काम विना उद्यम करतो नथी; जेम लाज विना रणसंग्रामने विषे कुऊतो नथी; वली जेम देह धस्याविना पर मार्थ यतो नथी; ने शील धारण कीधाविना सत्व साथे मलातुं नथी; वली नियम या शिवाय निश्चय पद मलतुं नथी, ने जेम प्रेमनी प्रीत विना रसरीत जाती नथी, तथा ध्यान विना मननी गति योजाती नथी, तेम ज्ञानविना शिवपथ के० मु क्तिमार्ग ते सूजतो नथी. ॥ १ ॥ हवे ज्ञानवंतनो महिमा देखामी ने तेनी व्यवस्था कहेबे :ज्ञानमहिमा धारक व्यवस्था कथनं:-- ॥ सवैया तेईसाः॥ ज्ञान उदै जिनके घट अंतर, ज्योति जगी मति होति न मै ली; वा हिज दृष्टि मिटी जिन्हके हिय, यातम ध्यान कला विधि फैली; जे जड चेत न जिन्न लखै सु विवेक लिये परखे गुन थैली; ते जगमें परमारथ जानि गहै रुचि मानि अध्यातम सैली ॥ २ ॥ अर्थः- जेना हृदयने विषे ज्ञाननो उदय थवाथी पोतानी ज्योति जागृत थईने तेथ मति जे बुद्धि ते उज्वल थई पण मेली नथी; अने पोताना बाह्य शरीरने आत्मा करी माने व बाह्य दृष्टि ते मटी गई, छाने हृदयनेविषे श्रात्मध्याननी कला तेनी विधि जे यमनियमादिक ते विधि फेली एटले पसरी, ते वखतथी जड चेतनने जिन्न जिन्न लखे, ने पोतानो विवेक के० नेदविज्ञान तेणे करी पोताना गुणनी थेली पार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५३ खी लीधी. एवा जे जीव तेज जगत्मा परमार्थने जाणी तेने रुचिये करी ग्रहण करे. ए रीते अध्यात्मशैली मान्य करीने परमार्थने जाणे, ॥२॥ हवे मोदनी समग्र प्राप्ति देखामेजेः- श्रथ मोक्षप्राप्ति कथन:॥ दोहाः ॥- बहु विधि क्रिया कलेससों, शिवपद लहै न कोश, ज्ञान कला परका शसों, सहज मोद पद हो. ॥३॥ ज्ञान कला घट घट वसे, योग युगतिके पार; निज निज कला उदोत करि, मुक्त हो संसार. ॥४॥ अर्थः-नात नातनी क्रियाने निमित्ते क्लेश करवो, तेथी मोक्षपद मले नही. पण झानकलानो प्रकाश थवाथी सेहेज मोदपद थाय. ॥ ३॥ ज्ञानकला तो घट घटने विषे वसी रहेली बे, पण मन वचन अने कायाना योगनी युक्तिश्री पार रहेली बे, माटे पोत पोतानी कलाने प्रकाश करवाथी संसारथ। मुक्त थवाय , एवो सर्वेने सक रुनो श्राशीर्वाद . ॥४॥ हवे मुक्तपणुं अनुन्नव थकी थायडे माटे अनुजवनी प्रशंसा करे: श्रथ अनुनव प्रशंसाः॥ कुंमलिया बंदः।- अनुभव चिंतामनिरतन, जाके हिय परगास; सो पुनीत शि वपद लहै, दहै चतुर्गतिवास; दहै चतुर्गतिवास श्रास धरि क्रिया नमंडै, नुतन बंध निरोध, पूर्वकृत कर्म विहंडे; ताके न गनु विकार, नगनु बहु नार न गनु जौ, जाके हिर देमांहि रतनचिंतामनि अनुनौ ॥५॥ __ अर्थः- अनुनवरूपीचिंतामणिरत्न जेना हृदयनेविषे प्रकाशमान थई रह्यु, ते जीव पुनीत के पवित्र थईने शिवपदने पामे, ने चतुर्गतिनो जे वास तेने दहन करेने; एटले देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंच्गति ने नरकगति ए चारे गतिना वासने बाली नाखेने अनुनवी जननी रीत ए के ते आशा धरीने क्रिया मांडे नही. नुतन बंध के नवा कर्मना बंधने निरोधीने संवर धारण करे, तथा पूर्वकृत कर्मने विहंमी ना खीने तेनी निर्जरा करे, तेना विकारने अहो! नव्य जीव ! तुं गणोश नहीं; अने तेना अतिजारने तुं गणीश नही, अने तेना जयने पण गणोश नही, जेना हृदयमां अनुन्न वरूपी चिंतामणिरत्न प्रकाशी रडं ॥५॥ हवे अनुनवीनी ज्ञानदृष्टिनुं सामर्थ्य वखाणे:-अथ शानदृष्टि सामर्थ्य कथन: ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जिनके हियेमें सत्य सूरज उदोत जयो, फेलिमति किरन मिथ्यात तम नष्ट है; जिनकी सुदृष्टिमें न परचै विषमतासों, समतासों प्रीति ममतासों लष्ट पुष्ट है; जिन्हके कटाबमें सहज मोक्ष पथ सधै, साधन निरोध जाके तनको न कष्ट है: तिन्हिकों करमकी किलोल यह है समाधि, मोले यह जोगासन बोले यह मष्ट है॥६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. अर्थः- जेना हियाने विषे सत्य सूर्यनो उद्योत थई इह्योबे, अने सत्य सूर्यना मति रूप किर्ण फेली रह्याबे, तेथी मिथ्यात्व रूप अंधकार ते नाश पाम्यो. वली जे जीवनी सुदृष्टिमां विषमतानो परिचय नथी, एटले समतासाथे प्रीति बंधाणी बे ने ममतासा ये तथा मोहसाथे लष्ट पुष्ट के० चित्तविनानी प्रीति राखेडे, ने जेना कटाने विषे ए टले थोडा विलोकनमां सहज वनावे मोक्षमार्ग सिद्ध थायडे. साधन के० मनोयोगा दिक ऋण योगनो निरोध एटले निग्रह कस्यो ने जेना शरीरने कष्ट नथी, एवा ज्ञानधारीने जे कर्म लदेर आवेढे तेने गणतीमां समाधि जावज जाणे; जो कदी गति कर्मना उदयवडे डोलेबे तोपण ते जोगासनधारीबे ने जो बोले तोपण मष्ट के० मौनत्रति बे ॥ ६॥ हवे ज्ञानीने परवस्तुनो त्याग को अने विशेषपणे तेनोज त्याग वखाणेढेः॥ श्रथ परवस्तुको त्याग ताको विशेष वर्णनंः- ॥ ॥ सवैया इकतीसाः॥ - श्रातम सुनाउ परजानकी न सुद्धि ताकों, जाको मन ग मन परिग्रह में रह्यो है; ऐसो अविवेकको निधान परिग्रह राग, ताको त्याग इहांलों समुच्चैरूप को है; ब निज परे म डूरि करिबेके काजु बहुरो सुगुरु उपदेशको मह्यो है; परिग्रह अरु परिग्रहको विशेष अंग, कहिबेको उद्यम उदीरि लह लह्यो है. अर्थः- जेनुं मन परिग्रहविषे मग्न थई रधुं बे, ते जीवने पोताना तथा पारका स्वजावनी शुद्धता यती नथी. परिग्रहनो राग तेतो विवेकनुं निधान कयुं बे, जे प रिग्रहना रागने विषे पोताना ने पारका खजावनी शुद्धता नथी, ते परिग्रह रागने त्याग हीं सुधी सामान्य मात्र कह्यो. दवे निजस्वरूपनो भ्रम ने पर स्वरूपनो चम तेने डूर करवाना कार्यने घणा प्रकारे सद्गुरु उपदेश करवाने जंगवंत थया बे. दवे इहां परिग्रह तथा ते परिग्रहनुं विशेष अंग केदेवाने सद्गुरु जे बे ते उद्यम उदीर या करीने लह लह्यो के० सचेत थया बे. ॥ ७ ॥ हवे सामान्यरूप परिग्रहनो राग ने विशेषरूप परिग्रनो राग तेनो विवरो कहे a:- अथ सामान्य विशेष कथनंः ॥ दोहा ॥ - त्याग जोग परवस्तु सब, यह सामान्य विचार; विविध वस्तु नाना विरति, यह विशेष विस्तार ॥ ८ ॥ अर्थः- जेटली परवस्तु बे तेटली बधी त्याग जोग बे. एतो सामान्यपणे परिग्रह ना त्यागनो विचार जाणीये; अने ते परवस्तु जात जातनी वे अने तेना उपर विचा रपण जातजातनो बे; एने विशेषपणे परिग्रह त्यागनो विस्तार जाणवो. ॥ ८ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ श्री समयसारनाटक. हवे परिग्रह बतां ज्ञातानी परिग्रह उपर अलिप्त दशा कहे : अथ ज्ञाता अलिप्त कथनं:॥ चोपाई॥-- पूरव कर्म उदै रस चुंजे; ज्ञान मगन ममता न प्रयुंजे, उरमें उदा सीनता लहिये, यों बुध परिगह वंत न कहिये ॥ ए॥ ___ अर्थः- पूर्व कर्मना उदयथकी जे शुजाशुन रस उपजे ते जोगवे पण ते रस नोग नेविषे ममता प्रयुंजे नही, मात्र ज्ञाननेविषेज मग्न रहे, पण परिग्रहना संयोग वियो गनेविषे हर्ष विषाद उपजे नहीं, एवी रीते जेना मनमा उदासीनता पामीये श्ये, एवा बुध के पंमितने परिग्रहवंत कहेवाय नही ॥ ए॥ हवे ज्ञानीनी निस्पृह दशा वखाणे बेः- श्रथ ज्ञानी अवांढक कथनं:___॥ सवैया इकतीसाः॥- जे जे मनवंडित विलास जोग जगतमें, तेते विनासिक सब राखे न रहत हैं; और जे जे नोग अनिलाष चित्त परिणाम, तेते विनासीक धर्मरूप व्है वहत हैं; एकता न उदों मांहि ताते वांबा फुरे नाही, ऐसे ब्रम कारजको मूरख वहत हैं; सतत रहे सचेत परसो न करे हेत, याते ज्ञानवंतको अवंबक कहत हैं॥१॥ अर्थः- मनना मानी लीधेला जे जे जगत्ना जोग विलास , ते ते नाश रूप ले, थापणा राख्या रेहेता नथी. वली जे जे जोग अनिलाषरूप चित्त परिणाम रहेने ते ते चित्त परिणाम चंचलपणे विनासी धर्म रूपने विषे थई रह्या बे. एवा नोगने विष तथा नोग थनिलाषने विषे अनेकता बे, पण एकता नथी. वली विनश्वरपणुं ने तेथी एना उपर ज्ञानीनी वांग फुरती नथी. एवा व्रम कार्यने मूर्ख होय तेज चाहेबे, जे सतत के निरंतर सावधान रहे अने परवस्तु साथे हेत करे नही, एज माटे ज्ञान वंतने अवंडक निस्पृही कहे. ॥१०॥ हवे परिग्रहमा रेहेता बतां ज्ञाताने अलिप्तपणुं केवी रीते कहेवाय ते दृष्टांत श्रा पीने समजावे बेः- अथ झाता अलिप्त दृष्टांत कथनः ॥सवैया इकतीसाः।- जैसे फिटकडी लोड हरकी पुटविना स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमें; नीग्यो रहै चिरकाल सर्वथा न हो लाल, नेदे नही अंतर सपेती रहे चीरमें; तैसे समकितवंत राग दोष मोह बिनु, रहे निशिवासर परिग्रहकी नीरमें, पूरव करम हरे नूतन न बंध करे जाचे न जगत सुख राचे न शरीरमें ॥ ११ ॥ अर्थः- जेम को स्वेत वस्त्र होय तेने फटकमी लोदर तथा हरमानी पुट के पट दीधा शिवाय मजीठना लाल रंगना पाणीमां चिरकाल के घणाकाल सुधी नीनावी राखे तोपण ते वस्त्र सर्वथा प्रकारे लाल थाय नही; अंतरंग नेदे नही तेथी ते ची रमां सफेती रहेज; तेमज समकितवंत जे जीव होय ते राग वेष मोहना पटविना Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. निशिवासर के रात दिवस परिग्रहनी नीडमां रहे, तोपण पूर्व कर्मना नोगनी नि र्जरा करे, अने नवां कर्मनुं बंधन करे नही, अने जगत्ना सुखने जाचे नही. वली शरीरने जोईने राचे नही. ॥११॥ हवे परिग्रहने विषे रेहता ज्ञाताने उठेग रहितपणुं होय जे ते दृष्टांत वडे दृढ क रावे बेः- श्रथ झाता अनुछेग कथन: ॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसे काहु देसको वसैया बलवंत नर, जंगलमें जाई मधु उत्ताको गहतु है; वाकों लपटाय चहु और मधुमक्षिका पे कंबलीकी उँटसों अडंकित रहतु है; तैसे समकिती शिव सत्ताको सरूप साधे उदेकी उपाधिकों समाधिसी कहतु है: पहिरे सहज को सनाह मनमें उबाह, ठाने सुखराह उदवेग न लहतु है. ॥१॥ अर्थः- जेम कोश्क देशनो रेहेवासी नील वगेरे बलवंत नर जंगलमां जश्ने मध पुडाने ग्रहण करे , ते वखत ते पुरुषने चारे तरफ मधु मदिका के मध माखील पटाई जाय , पण ते पुरुषना शरीर पर कामली होय, तेथी अडंकित के डंखवि ना अडंख रहे; तेमज समकिती जीव शिव के परमात्मानी सत्ता के सनूतपणुं तेनुं स्वरूप जे एक विज्ञानघनपणुं तेने साधे , अने कर्म उदयनी जे आत्माने जपा धि लागी रही, तेने ते समाधि करी जाणे . सहज गुण जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप जे सनाह के बखतर ते पहेरी राखेने, अने ए रीते जे कर्मनिर्जरा तेनो उग ह मनमा धारण करे एवा अनंत सुखना राह के मार्गने विषे रहेतो थको जग द शाने पामतो नथी. ॥ १५ ॥ हवे ए रीतमां ज्ञातानुं अबंधकपणुं बतावेजेः- अथ ज्ञाता श्रबंध कथनं:॥ दोहराः॥ ज्ञानी झान मगन रहे, रागादिक मल खोश् चित उदास करनी करे, करम बंध नहि होश.॥ १३ ॥ मोद महातम मल हरे, धरे सुमति परगास; मुगति पंथ परगट करे, दीपक ज्ञान विलास. ॥ २४ ॥ अर्थः- ज्ञानी पुरुष तो ज्ञानमा मग्न रहेने, अने रमेडे, श्रने राग-द्वेष-मोहरूपी जे मल बे, तेने खो दिए अने जे क्रिया करे ते पण उदासीनरूप करेजे, माटे एवा ज्ञानीने कर्म बंध थतो नथी. ॥ १३ ॥ वली मोहरूपी महातम के घोर अंध काररूप जे मल तेने हरे, अने सुमतिना प्रकाशनार दीपकने धरे, ए रीते मुक्ति पं थने प्रगट करी बतावे, एवोज ज्ञाननो विलास ते दीपकरूप जाणवो. ॥ १४ ॥ हवे ज्ञानदीपकनुं स्वरूप कही देखाडेजेः-- अथ शान दीपक वर्णन:॥सवैया इकतीसाः॥-जामें धूमको न लेस बातको न परवेस, करम पतंगनिका नाश करे पलमें; दसाको न नोग न सनेहको संयोग जामें, मोह अंधकारको विजोग Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५७ . जाके थलमें; जामें तप्तता नही रागरंग नांइ रंच, लट् लदे समता समाधि जोग ज लमें; ऐसी ज्ञानदीपकी सिखा जगी अनंगरूप, निराधार फुरी पें डुरी है पुदगल में ॥ अर्थः- जे ज्ञान दीपकमां घुमाडानो लेश नथी ने जेमां वायुनो पण प्रवेश नथी ने जे कर्मरूपी पतंग जीवनो पलकमां नाश करे बे, ने जेमां दशा के० दीवेटनो जोग नथी, ( बीजो अर्थ ) - कोइ विकल्प दशा नथी ने जेने सनेह के० घृत तेलनो संयोग नथी; वली जेना प्रकाशमां मोहरूप अंधकारनो वियोग थयो बै; वली जे दीपकमां तत तापं नथी; वली जेमां लालरंगनी रंचमात्र लालाश नथी, अने जे समता समाधिनो जोगते रूप जल ते विषे लहलहायमान थई रह्यो बे, एवो जे ज्ञानदीपक बे, तेनी शिखा सदा अनंगरूप जागी रही बे, अने ए शिखा सर्व पदार्थनुं ज्ञान करवानो आधार बे पोते निराधार फुरी रही बे, अने पुलमां डुरी के० पी रही बे. ॥ १५ ॥ हवे ज्ञानना वजावमां खंमना नथी ते उपर दृष्टांत अथ ज्ञान वजाव अखंमित दृष्टांत कथनंः पेढे: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जैसो जो दरब तामें तैसोही सुजान सधे, को दर्द का को सुनाउ न गहतु है; जैसे संख उज्वल विविध वर्ण माटी नखे, माटी सो न दीसे नित उज्वल रहुतु है; तैसे ज्ञानवंत नाना जोग परिगह जोग, करत विलास न श्र ज्ञानता लहतु है; ज्ञानकला डूनी होइ रुंद दशा सूनी होइ ऊनी होई जौथिति वनारसी कहतु है- ॥ १६ ॥ अर्थः- जे जेवुं द्रव्य बे, तेमां तेवोज स्वनाव सिद्ध बे, पण कोई द्रव्य अन्य व्यनो स्वजाव ग्रहण करे नही. जेम कोई जलाशयमां संख बेइंडीजीव होय ते स्वरू मां उज्वल होय बे, पण जात जातनी माटी खाय बे, तेम बतां माटीनो रंग तेना स्वरूपमा देखा तो नथी, तेतो नित्य उज्वलज देखाय बे; तेम ज्ञानवंत प्राणी परिय हना जोग की नाना प्रकारना जोग जोगवतो बताने विलास करतो बतां अज्ञानता पामतो नथी. ने ज्ञाननी कला बमणी थाय बे, अने द्वंद्वदशा के चमदशा ते शुनी या बे ने जवस्थिति के० संसारस्थिति ते उणी के० बी थाय बे, एवी रीतें वना रसी दासनुं कहेतुं बे ॥ १६ ॥ हवे सम्यग् ज्ञाननी साथै सम्यक् क्रिया स्याद्वाद मतने श्राश्रयी कहे बे:अथ स्याद्वाद प्ररूपन कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जोलों ज्ञानको उदोत तोलों नहीं बंध होतु, वरते मिथ्या त तब नाना बंध होहि है; ऐसो नेद सुनिके लग्यो तुं विषै जोगनिसों, जोगनिसों उद्यमकी रीतितें विबोहि है; सुनो नैया संतत कहे में समकितवंत, यहु तो एकंत प ८३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. रमेसरकी दौहि है; विषेसों विमुख होश अनुनो दशा आरोहि, मोख सुख ढोहि ऐसी तोहि मति सोहि है ॥ १७ ॥ अर्थः- ज्यां सुधी ज्ञाननो उद्योत हे त्यांसुधी बंध थतो नथी अने ज्यारे मिथ्या त्वदशावंत , त्यारे तो नाना प्रकारनो बंध थाय बे, कोई एकांतवादीयें एवो ज्ञान माहात्म्यनो नेद सांजलीने एवं कह्यु, के तुं विषय नोगववा लाग्यो बे, अने मन, वच न, कायाना योग थकी उद्यमनी रीति जे क्रिया, तेने तें बोमी दीधी , तेने कहेले के हे सत् पुरुष, सांजल तुं जे कहे , के हुं समकितवंत बु, पण ए एकांतमत जे ले ते परमेश्वर परमात्मानी दोही के प्रोह करनारी , माटे तुं विषयथी विमुख थईने अनुजव दशामा गुण श्रेणि धरी थारोहण करी अने मोदना सुखने ढोही के जो, तो एवीज बुझि थकी शोने दे. ॥ १७ ॥ हवे ज्ञान, तथा विषय विमुखतानुं सहचारिपणुं बतावेजेः अथ ज्ञान वैराग्य युगपद वर्णनं:• ॥ चौपाई॥- ज्ञानकला जिनके घट जागी; ते जगमांहि सहज वैरागी; ज्ञानी मगन विषसुखमांही; यह विपरीत संनवै नांही.॥१७॥ दोहाः।-ज्ञान सहित वैराग्य बल, शिव साधै समकाल; ज्यों लोचन न्यारे रहैं, निरखै दोऊ नाल. ॥ १५ ॥ __ अर्थः- जेना घटनेविषे ज्ञानरूपी कला जागी डे तेतो जगत्ने विष सहेजे वैरागी रहे ले. ज्ञानी थईने विषयसुखमां मग्न होय ए विपरीत वात संनवती नथी॥ १७ ॥ वली छाननी संगति ने वैरागनी संगति ए बंने चीज समकाल मलीने मोदने साघे; जेम बे आंखो जुदी रही, पण नाल के साथे बेल नेत्र पदार्थने जुए. ॥ १५ ॥ हवे मूर्खने कर्मनुं कर्त्तापणुं थने ज्ञानीने निर्जरानुं कर्त्तापणुं ए बेनुं स्वरूप कहे. अथ मूढ कर्ता कर्मको यह कथनं: ॥चौपाई॥- मूढ कर्मको कर्त्ता हो; फलअनिलाष धरै फल जोवैः कानी क्रिया करै फल सूनी; लगै न लेप निर्जरानी ॥ २० ॥ दोहाः- बंधे कर्मसों मूढज्यो, पाट कीट तन पेम; खुलै कर्मसों समकिती, गोरख धंधा जेम. ॥१॥ अर्थः- मूढ २ ते कर्मनो कर्ता बने बे, केमके ते क्रियाना फलनो अभिलाष धरे बे, अने फलने जोई रहेजे; ने जे झानी होय ते क्रिया तो करें पण फल शुन्य करे, तेथी हानीने कर्मनो लेप लागतो नथी; एथी बमणी निर्जरा थाय बे. ॥ २० ॥ वली जे मूढ जे ते कर्मनेविषे बंधार रहे, जेम रेशिमनो किमो पोताना शरीर ना प्रेमवडे पोतानी लाल थकी पोतेज बंधाय बे, अने जे समकिती होय तेतो कर्म Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ए श्री समयसारनाटक. नी जालथी खुलेलो रहे , कोनी पेठे ? जेम गोरखधंधो पोतानी जालथी खुली जा यडे तेम जाणवू ॥१॥ हवे ज्ञानी जीवने कर्मनुं अकर्त्तापणुं तथा निर्जरारूप ठरावे : अथ झानीको अकर्तृत्व कथन:॥ सवैया तेईसाः ॥- जे निज पूरव कर्म उदै सुख चुंजत जोग उदास रहेंगे; जे मुखमें न विलाप करै निरवैर हिये तन ताप सहेंगे; है जिनके दृढ श्रातम ज्ञान क्रिया करिके फलकों न चहेंगे; ते सुविचछन झायक है तिनको करत्ता हम तो न कहेंगे॥२॥ अर्थः- जे जीव पोताना पूर्व संचित शुन कर्मना उदय वडे सुख नोगवतो थको पण जोगथी उदास रहे बे, अने जे जीवने असाता वेदनीयना उदयथी दुःख उपजे तो पण विलाप करेनही, अरतिनो वित्नाग करे नही, अंतरमां कोई चिंता नही राखे; अने शरीरनो संताप सहन करे, वली जेनीपासे आत्मज्ञान , तेतो क्रिया करीने फ लने श्छे नही, तेज उत्कृष्ट विचक्षण ज्ञानी कहेवाय बे, श्रने तेने कर्म करता थका कर्मना कर्ता एम तो अमे कही शकशुं नही ॥१२॥ हवे एवा ज्ञानीनी व्यवस्था कहे . ज्ञाता वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः॥- जिनकी सुदृष्टिमें अनिष्ट इष्ट दोउ सम, जिनको श्राचार सुविचार सुन ध्यान है; स्वारथको त्यागी जे लहेंगे परमारथको, जिनके वनिजमें नफा न है न ज्यान है; जिनकी समुऊमें शरीर ऐसो मानीयतु, धानकोसो बीलक कृपान कोसो म्यान है; पारखी पदारथके साखी चम नारथके, तेई साधु तिनहीको ज थारथ हान है. ॥ २३॥ अर्थः- जे ज्ञातानी सुदृष्टि एवी के, जेनेविषे इष्ट वस्तु तथा अनिष्ट वस्तु बेज बराबर , अने जेनो श्राचार एवो बे के जे जला विचारथी शुज ध्यानमांज रहे, अ ने विषय सुख प्रमुख स्वार्थने त्यागीने जे अध्यात्मरूप परमार्थ तेनेविषे लागी रहे, वली जेनां वचन एवां बे के, जेमा नफो नथी तेम टोटो पण नथी, एटले कोईने सु सीख किंवा कुसीख देता नथी; मौन वृत्तिज रहे. वली जेनी समऊ एवी होय के श रीरने धाननी बील के तुस जेवू श्रने कृपान के तरवार तेना म्यान जेवं माने , मतलब के श्रात्माने शरीरथी जुदो जाणे . वली जे जेवो पदार्थ होय तेवी तेनी परीक्षा करे ,अने जेम नय छानविना पांच दर्शनमांजे चमनुं नारथ चाली रह्युबे,तेनोसादी पूबवानुं थानक , तेहिज साधु कहेवाय , अने तेने यथार्थ ज्ञानी कहिये. ॥२३॥ हवे समकितनुं साहसपणुं वर्णन करेजेः- अथ सम्यक्वंतको साहसकथनं:॥ सवैया इकतीसाः ॥- जमकोसो जाता फुःखदाता है असाता कर्म, ताके उदै . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मूरख न साहस गहतु है; सुरग निवासी नूमिवासी औ पतालवासी, सबहीको तन मन कंपत रहतु है; उरको उजारो न्यारो देखिये सपत नेसों, डोलतु निशंक नयो श्रानंद लहतु है; सहज सुवीर जाको सासुतो शरिर ऐसो, ज्ञानी जीव आरज श्रा चारज कहतु है ॥२४॥ अर्थः- श्राहं संसारनेविषे जे असाता वेदनीय कर्म , ते केवां कुःखदाता ? अहिं उत्प्रेदा करे बेः- जमकोसो नाता के यमना नाई बे, तेनो उदय थता मूरख जन जे बे, तेतो साहस ग्रही शके नही. सुरगनिवासी के देवता नूमिवासी के म नुष्य तियेंचू अने पातालवासी देवता नारकी एवा सर्व त्रिलोकवासी जीवोनां तन मन असातावेदनीय थकी कांपता रहे, हवे ज्ञानी जीवना उरनुं अजवायुं जे ते अंत रना चांदरणां जेवू , ते केवु ? ते समजावे के, ते सात जय थकी जुउंज , जे अजवालाथी साते जय प्राप्त यता नश्री, श्रने ए प्रजावधी निःशंक थई मोले , अने आनंद पामे बे. सहज सुवीर के महोटो साहसीक सुजट, जेनुं ज्ञानरूपी शरीरशा श्वत , एवा झानी जीवो श्राचार्य के महा पुरुष पूज्य जाणवा, एवं श्राचार्य कहे.॥॥ हवे साते जयनां नाम कहेजेः- अथ सप्त नयनामः॥ दोहाः॥-श्ह नव नय परलोक लय, मरन वेदना जात; अनरदा अनगुप्तजय अकस्मात नय सात ॥ २५॥ अर्थः- या नवनो जय, परलोकनो जय, मरण जय, वेदना उपजवानो नय, अनर दानो नय, अनगुप्त नय, अने अकस्मात् जय. ए सात नय जाणवा ॥२५॥ हवे साते जयनां लक्षण कही जुदां जुदां उलखावे बेः-श्रथ सप्त नय सहन कथनंः ॥ सवैया इकतीसा॥- दसधा परिग्रह वियोग चिंता श्ह जव, मुर्गति गमन पर लोक लय मानिये; प्रान निको हरन मरन ने कहावै सोई, रोगादिक कष्ट यह वेदना वखानिये; रक्षक हमारो कोउ नांही अनरदा जय, चौर नै विचार अनगुप्त मन था निये, अनचिंत्यो अबहि अचानक कहांधों होश, ऐसो जय अकस्मात जगतमें जानिये.॥ अर्थः- शास्त्रमा जे दश नातनो परिग्रह कह्यो , तेना विजोगनी चिंता रहे तेज था जवनो जय जाणवो. उर्गतिगमननो जे जय ते परलोकनो जय कहिये; प्राण बूटवा नोजे जय ते मरण जय; रोग प्रमुखथकी जे कष्ट उपजे ते वेदना नय वखाणिये; श्र मारी रक्षा करनार कोई नथी देखातो ए अनरदा जय; चोर अथवा पुश्मन थाव्या थी हुं शुं यत्न करी शकीश एवो जे जय तेने थनगुप्त जाणिये. अणचिंत्युं शुं थशे एवो जे जय मननेविषे रहे तेनुं नाम अकस्मात् जय जाणवो.॥ २६ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. हवे आ जवना जय निवारण रूप मंत्र कहे:- श्रथ इह जव जय निवारण कथनं: ॥बप्पय बंदः॥-नख शिख मित परवान, ज्ञान अवगाह निररकत; आतम अंगअनंग, संग परधन म अरकत; बिननंगुरसंसार, विजव परिवार नारज सु; जहाँ उतपति तहाँ प्रलय, जासु संयोग विरह तसु; परिग्रह प्रपंच परगट परखि, ह जव नय उपजै न चित; ज्ञानी निशंक निष्कलंक निज; ज्ञानरूप निरखंतनित ॥ २७॥ अर्थः- पगना नखथी ते माथानी शिखासुधी एटले सर्व शरीर प्रमाण श्रात्मानो गुण जे ज्ञान ते अवगाह के व्याप्ति तेने जुए, एवां नख शिख सहित ज्ञानमय श्रा मानुं अंग अनंग रहे, तेनी साथे पुजल डे तेने परधन के० परजव्य कहेडे, अने सर्व संसार क्षणभंगुर , ने तेने जे विनव परिवाररूप नार बे, ते पण क्षणभंगुर बे, अने जेनी उत्पत्ति तेनो विनाश , जेनो संयोग तेनो वियोग पण थाय बे, एवो परिग्रहनो प्रपंच प्रगट परखीए तो था नवनो नय चित्तमां उपजे नही. ए रीते जे झानी होय ते परिग्रहना वियोगनी चिंता न राखे, निःशंक रहे, पोतानुं निष्कलंक वरूप ज्ञान मय सदा जुए. ॥२७॥ हवे परलोकनय निवारण, मंत्र कहेः- श्रथ परलोक लय निवारण मंत्रः॥बप्पय बंदः॥-झान चक्र मम लोक,जासु अवलोक मोख सुख; इतरलोक मम नाहि नांहि जिसमांहि दोष मुख; पुन्न सुगति दातार, पाप पुरगति पद दायक; दो खंकि त खा निमें, अखंमित है शिवनायक; इह विधि विचार परलोक नय, नहि व्यापक वरते सुखित; ज्ञानी निःशंकनिष्कलंक निज झानरूप निर्खतनित ॥ २ ॥ अर्थः- ज्ञान चक्र के ज्ञान विस्तार तेतो ममलोक के मारो लोक , महारो प्र चार बे, तेने प्रत्यक्ष जोवो, अने मोद सुख बन्ने रूप में, अने इतर लोक के० तेवि ना अन्य लोक ते मारो नथी, महारो शान लोक मारी साथेबे, जेनेविषे दोष फुःख नथी. परलोकमां सुगतिनुं देनार पुण्य बे, श्रने परलोकमां कुगतिर्नु आपनार पाप बे. ए बे पुण्य पाप आत्मानी खंडनानी खाणी जे. अने हुं अखंडित रूप बु. शिवना यक के सिद्धरूपी बुं एवा विचारथी परलोक लय व्यापे नही; अने सुखित के० सदा सुखवंत वर्ते; ए प्रमाणे परलोक जय बांमिने ज्ञानी पुरुष निशंक थको निष्कलंक एवं जे निजज्ञानरूप तेने सदा निरखे ॥ २ ॥ हवे मरणजय निवारणनो मंत्र कहे बेः-अथ मरन नय निवारण मंत्रः॥ उप्पय बंदः॥- फरस जीन नाशिका, नैन अरु श्रवन श्रद इति; मन वच तन बल तीन, सास उस्सास थाउ थिति; ए दस प्राणविनाश, ताहि जग मरण कहीजे; Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. झान प्राण संयुक्त; जीव तिहु काल न बीजे; यह चित करत नहि मरण नय, नय प्र माण जिनवर कथित; झानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंतनित.॥ ए॥ अर्थः- स्पर्श, रसना, घ्राण, चनु, श्रोत्र, ए पांचे इंजिय; मनोबल, वचनबल, ने कायबल ए त्रण, श्वासोश्वास, आयुस्थिति, ए दश प्राण आदिनो विनाश थाय, तेने जगत्मां मरणनय कहे , पण जीव पदार्थ डे ते ज्ञानरूपी नाव प्राण संयुक्त डे, तेतो जीवने ज्ञान प्राण त्रणे कालनेविषे त्रूटे नही, एवो विचार मनमां करवाथी मरणनय उपजे नही. नय प्रमाण वडे एवं जिनेश्वरनु कथन बे, ज्ञानी लोक निःशंक पणे पोताना निष्कलंक स्वरूप ज्ञानरूपने सदा निरंतर निरखत के सत्यपणे जुए ॥२॥ हवे वेदना जय निवारणरूप मंत्र कहे जेः-अथ वेदना जय निवारण मंत्र: उप्पय बंद॥:-वेदनवारो जीव, जांहि वेदंत सोन जिय; यह वेदना अनंग, सुतो मम अंग नांहि व्यय; करम वेदना विविध, एक सुखसमय पुतीय उख; दोऊ मोह विकार, पुजलाकार बहिरमुख; जब यह विवेक मनमहिं धरत, तब न वेदना जय विदित; झानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ३० ॥ अर्थः-वेदनावारो एटले जाणनारो तेतो जीव , अने जेने जाणवू बे, तेपण जीवज में, एटले वेदनावंत ते ज्ञानी जीवए ज्ञानरूप वेदन जे अन्नंग रूप ले तेतो मारु अंग , श्रने कर्म वेदना जे जे ते मारी नथी. थने ते कर्मरूप वेदना बे प्र कारनी , एक सुखमय वेदना ने बीजी फुःखमय वेदना बे, ए बेन मोह विकार बे, एवी सुख दुःखनी वेदना पुजलाकार , पुजलनी बाया बाह्यरूप बे, ज्यारे एवो विवेक विचार मनमां धरे बे, त्यारे वेदनानो नय वेदी शकातो नश्री. ज्ञानी लोक होय तेतो वेदनाना जयथी निःशंक रहे श्रने निष्कलंक एवं पोतानुं ज्ञान स्वरूप तेने सदा जोता रहे ॥ ३० ॥ हवे अनरदानय निवारणरूप मंत्र कहे जेः-अथ अनरला जय निवारण मंत्र: ॥उप्पय बंदः॥-जो स्ववस्तु सत्ता सरूप जगम हि त्रिकाल गत; तास विनास न हो। सहज निहचे प्रमाण मत; सो मम श्रातम दरब, सरवथा नहि सहायधर; तिहि कारन रडक न, होइ नछक न कोई पर; जब यहि प्रकार निरधार किय, तब अन रग नय नसित; शानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥३१॥ अर्थः-स्ववस्तु के निजात्मरूप वस्तु; सत्तास्वरूप के० ऽव्यपणे बतुं कहेवा य ते जगत्मांत्रणे कालनेविषे पामिये, तेनो क्यारे पण विनाश नथी थतो, एवं स हज स्वरूप निश्चयनयना प्रमाणवडे जाणवू; एज मारुं श्रात्मजव्य जे , तेतो सर्वथा प्रकारे कोनो सहाय धरतुं नथी, तेमाटे ए श्रात्मअव्यनो कोई रक्षक नथी. तेमज Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६६३ कोईपर के बीजो एनो जदक पण नथी. जेवारे एवो विचार हृदयमां नकी करी राखे, त्यारे अनरक्षा जय नाश पामे, एवा ज्ञानी होय ते अनरदा नयथी निःशंक थका पोताना निष्कलंक झानस्वरूपने सदा निरखे ॥३१॥ हवे चौरजय निवारण रूप मंत्र कहे :-श्रथ चौरजय, निवारनमंत्रः ॥प्पय बंदः॥-परम रूप परतब, जासु ललन चिन् मंमित; पर प्रवेश तहाँ नाहि महि माहिं अगम अखंमित; सो मम रूप अनूप, अकृत अमित अखूट धन; तांहि चोर किम गहै, ठगेर नहि लहै और जन; चितवंत एम धरि ध्यान जब, तब अगुप्त नय उपसमित; ज्ञानी निसंक निकलंक निज, झानरूप निरखंत नित. ॥३॥ अर्थः-जे परम स्वरूप कहेवाय बे, अने मान सन्मानवडे प्रत्यद , चिन्ममित के चिन्मय एवं जेनुं लक्षण बे, अने जेना स्वरूपनेविषे परस्वरूपनो प्रवेश नथी; महीमांहि के पृथ्वीना वचमा अगम्य बे, अने अखंडित बे, एवं तो अनूपम मारु रूप बे, ते कोईनुं कीधेवू नथी, अमित के प्रमाण विना, एवे श्रखूट धन , ते ध नने चोर केम हरी शके ? अने और के बीजा कोई लोक तेनी जगा पामी शके नही. ज्यारे ध्यान धरीने एवं चिंतवन करे त्यारे अगुप्त नय के० उघाडा धननो जे जय ते उपशमी जाय. अने एवा हानी होय ते अगुप्त नयथी निःशंक थका पोताना निष्कलंक ज्ञान स्वरूपने सदा निरखता रहेजेः ॥३२॥ हवे अकस्मात्नय निवारण रूप मंत्र कहेजेः-अथ अकस्मात्नय निवारण मंत्रः ॥उप्पय बंदः॥-शुक शुरू अविरुफ, सहज सु समृक सिक सम; अलख अनादि अनंत, अतुल अविचल सरूप मम; चिद विलास परगास, वीत विकलप सुख थानक; जहाँ सुविधा नहि को, होइ तहाँ कबु न अचानक; जब यह विचार उपजंत तब, अकस्मात नय नहि जदित; ज्ञानी निसंक निकलंक निज, ज्ञान रूप निरखंत नित. ॥३३॥ अर्थः-जे वस्तु शुफ, केवल पोताना स्वरूपने विषेज बे, बुद्ध के ज्ञानमय , अविरोधी बे, सिकसमान शहिवंत बे, अलद बे, श्रादिरहित बे, अने अंत रहित बे, जेनी तुलना कोईथी न थाय माटे अतुल बे, एवं अविचल मारु रूप बे. चिदविलास के ज्ञान विलासनो जेने प्रकाश बे. वीतविकलप के० अवस्था नेद रहित बे, अने समाधि सुखनुं थानक बे. ज्यां कोई विजातीय न पामिये त्यां कोई अणचिंतव्यो अचानक जय शोक कांई उपजे नही, श्रावो विवेक विचार हृदया मां ज्यारे उपजे जे, त्यारे अस्कमात् जय जे , ते उदय थतो नथी. जे ज्ञानी हो Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो. ते कस्मात् जयथी निःशंक थको पोताना निष्कलंक ज्ञान स्वरूपने सदा जोता रहे. ॥ ३३ ॥ दवे निर्जराना करनार ज्ञानीनी व्यवस्था कहे :- श्रथ ज्ञानी व्यवस्था कथनंः॥ बप्पय छंदः॥ - जो परगुन त्यागंत, शुद्ध निजगुन गत धुव; विमल ज्ञान अंकूरा जासु घट मदि प्रकास दुव; जो पूरव कृतकर्म, निर्जरा धार वदावत; जो नव बंध निरोध, मोक्ष मारग मुख धावत; निःसंकतादि जस ष्ट गुन, अष्ट कर्म र संदर सो पुरुष विचन तासु पद, बनारसी बंदन करत. ॥ ३४ ॥ त; अर्थः- जे कोई पुलादि गुणनो त्याग करे, अने ध्रुव के० निश्चयरूप एवा शुद्ध पोताना गुणनुं ग्रहण करे; निर्मल ज्ञाननो अंकुर के उदय जेना घटमां प्रकाशित थयो, अने जे पूर्वकृत कर्मने निर्जरानी धार के० श्रेणि विषे वदावि दिये वली जे नवा बंधनो निरोध करीने एटले निराभव थईने मोक्षमार्गने सन्मुख दोडे बे; गुण श्रेणिमां दोडे, निशंकित प्रमुख जेना आठ गुण बे, ते याठे कर्मरूप शत्रुनो संहार करे, तेज विचक्षण पुरुष कदेवाय, अने तेना चरणकमलने वणारसीदास वंदन करे ॥ ३४ ॥ दवे व अंगनां नाम कहे :- अथ अष्टांगके नाम कथनं: ॥ सोरठाः ॥ - प्रथम निसंसैजानि, डुतिय श्रवंबित परिनमन; तृतिय अंग गि लान, निर्मल दृष्टि चतुर्थ गुन ॥ ३५ ॥ पंच कथ परदोष, थिरी करन बम सहज सत्तम वचल पोष, श्रम अंग प्रजावन ॥ ३६ ॥ अर्थः- पेलुं निःसंशय के० निःशंकित, बीजुं समकितनो गुण जे अवांतक पणारूप मननो परिणाम, त्री अंग अग्लान, चोथुं गुण निर्मल दृष्टि एटले मूढ दृष्टि नही ते ॥ ३५ ॥ पांचमुं परदोष कथन, बतुं यंग समकित स्थिर करवाना स्वनावरूप, सा मुं सर्व साथै वालपणुं अध्यात्मक पोषक, अने आठमुं अंग प्रजावना गुणरूप ॥३६॥ हवे अंगनां लक्षण कहे बे:- अथ यंग लक्षणंः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ धर्ममें न संसै शुभकर्म फलकी न इछा, अशुजको देखि न गिलानि खाने चित्तमें; साचि दृष्टि राखे काढू प्रानीको न दोष जाखै, चंचलता जानि थिति नै बोध चित्तमें; प्यारे निजरूपसों उबाहके तरंग उठे, एह आगे गजब जागे समतिमें; तांहि समकितकों धरे सो समकितवंत, वहे मोषपावे न श्रावै फिर इसमें ॥ ३७ ॥ पुनः- धर्मविषे संदेह नहोय ते निःशंकित गुण, शुज कर्मना फलनी इछा न होय निस्पृह गुण, अनिष्ट वस्तुने जोइने चित्तमा ग्लानी न लाववी ते श्रग्लान गुण, कोईना Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६६५ काव्यानुं नदी ने साचनेविषे दृष्टि राखवी ते अमूढ दृष्टिगुण, कोई प्राणीनो दोष कदेवो नही ते दोषाकथन गुण; चंचलता त्यागीने ज्ञानरूप चित्तने विषे स्थिरता राखी ते थिरीकरण गुणः श्रात्म स्वरूप मां प्रेम राखवो ते वबल गुण; श्रने श्रात्मस्वरूप साध विषेा लहरी के० तरंग उठवाएं लीधुं रहे ते प्रभावना गुण, एम एक स कितना वे अंग ज्यारे जागे, अने ते आठ गुणे सहित सम्यक्त्व धारण करे, ते सम कितवंत के देवाय ने तेवाज सम किती मोक्ष पामे, ने फरीथी या संसारमां श्रावे नदी हुवे निर्जराधारी चैतन्यनुं नाटक कहे बेः- अथ चैतन्य नाटक कथनंः॥ सवैया इकतीसाः॥ - पूर्व बंध नासे सोतो संगित कला प्रकाशे, नव बंध रुंधी ताल तोरत बरि; निसंकित आदि अष्टांग संग सखा जोरी, समता थलाप चारि करे सुख नरि; निरजरा नाद गाजे ध्यान मिरदिंग वाजे, बक्यो महानंद में समाधि रीकि करिके; सत्तारंग भूमिमें मुक्त जयो तिहू काल, नाचे शुद्ध दृष्टि नट ज्ञान वांगंधरिके ३८ अर्थ :- जेम पूर्वकालने विषे उत्कृष्ट स्थिति थकी बंध करतो हतो तेवी रीते न क अनुत्कृष्ट स्थिति थकी करवो एम पूर्व बंध नासे, तेतो संगित कला श्रालापचारी प्रकाशे, ने नवा बंधने रोधवं ते रूपताल उबले बे, तालतोरे बे, निःशंकित प्रमुख जे सम कितना कह्यां, ते सहाय जोगी समता समाधि धारी तद्रूप वर बांधी ने लाप करेबे, ही कर्मनी निर्जरा हेतु बे, एटले कर्मनाश करवारूप कार्यनुं निर्जरा कारण बे, ते ध्यानविषे एक स्वरूपनाद गाजे बे, अने “सोहं" ध्वनि बे रूप मृदंग वाजे बे, छंदी जे महानंदमय थईने वाक्यो तेतो सुखी थयो, ते जाणिये रीऊ थई, ने पोतानी श्रात्मसत्ता तेज कोई रंगभूमि बे एटले रंग मंडप थयो, तेनेविषे त्र का मां शुद्ध दृष्टिसहित ज्ञानरूप वेष स्वांग पढेरी धरीने नटरूप चैतन्य मुक्त थइने नाचे वे ॥ इतिश्री समयसार नाटकविषे बालबोधरूप निर्जराद्वार सप्तम संपूर्ण . ॥ ॥ दोहा ॥ - कही निर्जराकी कथा, शिवपथ साधनहार; अब कटु बंध प्रबंधको, कहुं प विस्तार ॥ ३० ॥ अर्थः- मोक्ष मार्गनी साधनकार जे निर्जरा तेनी कथा हती ते कही, हवे जे बंध थाना अधिकारनो अल्प विचार कहे ॥ ३ ॥ दवे बंध जे बे ते ढांडवा योग्य बे, माटे ते बंधनो विदारणहार जे समकित तेने नमस्कार करे::- बंध विदारन सम्यक्त्व वर्णनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - मोह मद पाई जिन संसारी विकल कीने, याहिते श्रजा नुबाहु विरद वढ्तु है; ऐसो बंध वीर विकराल महाजाल सम, ज्ञान मंद करे चंद राहु ज्यों गढ़तु है; ताको बल जंजिबेकों घटमे प्रगट जयो, उद्धत उदार जाको ८४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. उस मदतु है; सो है समकित सूर श्रानंद अंकूर ताही, निरखी बनारसी नमो नमो कतु है. ॥ ४० ॥ अर्थः- जे बंधरूप सुजट बे ते मोहरूप मदिरा पाईने सर्व संसारी जीवने विकल करेबे, एथी ए बंधरूप वीर बे ते अजानुबाहुनुं बीरुद कहावेबे के० सार्वजौम थई र हेला बे, एवो विकराल ए बंधरूप वीर सुजट डे, वली ए महाजाल समान े. अने एज ज्ञान प्रकाशने मंद करेबे, कोनी पेठे ? जेम राहु चंद्रने मंद करेबे, तेनी पठे जाणी लेबुं. दवे एवा बंधरूप वीरनो प्रतिपक्षी जे बे, ते एनुं बल तोमवाने घटनेविषेज प्रगट थयो बे, जेनो उद्यम उद्धत बे, एटले कोईथी रोक्यो रहे एवो नथी, अने उ दार बे के श्रेष्ठ बे. तथा महत के० मोटो बे, तेतो समकितरूप शूरवीर जाणवो. ते आनंद अंकूर लईने उदय थयो बे, ते सम्यक्त्व शूरवीरने जोईने पोताना अंग उल सितको बनारसीदास नमो नमो कहेते. ॥ ४० ॥ हवे चेतनाविना कर्म बंध नथी यतां, माटे ज्ञानचेतना तथा कर्म चेतना ए बे उनी समज पाडेबे:-: :- श्रथ कर्मचेतना ज्ञानचेतना वर्णनं : ॥ सवैया इकतीसा : - जहां परमातम कलाको परगास तहां, धरम धरामें सत्य सूरजको धूप है; जहां शुभ अशुभ करमको गढाश तहां; मोह के विलासमें महा धेर कूप है; फैली फिरै बटासी घटासी घट घन बीच, चेतनाकी चेतना होंधा गुपचूप है; बुद्धिसों न गही जाय बेनसोंन कही जाय, पानी की तरंग जैसे पानीते गुरुप है - ॥ ४१ ॥ अर्थः- जे चेतनामां परमात्मानी कलानो प्रकाश थाय बे, ते धर्म धरती बे. ते धर तीमां सत्यरूप सूर्यनो तमको बे, एटले उजली जगा ठे. बली जे चेतनाने विषे शुन अशुभ कर्मना रसनी गढाश बे, एटले शुभाशुभ कर्मना रस वडे जे चेतना घोलाइ रही बे, त्यां मोहराजा विलास करे बे, तेतो घोर अंधकार बे, ए रीते चेतन पुरु पनी जे चेतना के संज्ञा बे, तेतो घटाघन बीच के० शरीररूप मेघवचे बटानी माफक फैली रही बे, घने घटानी माफक फेलीथकी फरे बे, अने ए चेतना ते पर मात्मानी कलाना प्रकाशमां तथा मोहविलासमां ए बेड तरफ गुपचुप बे, एटले चुप थई रही बे; एवीए चेतना वे तरफ प्रवेश करे बे, ए वात बुद्धिश्री ग्रहण याय बे; पण वचनथी कही जाय एवी नथी, जेम पाणीना तरंग पाणीमां गुरुप्प बे तेम चेतना बेज तरफ गुरुप्प बे ॥ ४१ ॥ वे बंध द्वारविषे बंधनो हेतु कहे :- अथ बंध निदान कथनंः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - कर्मजाल वर्गनासों जगमें न बंधे जीव, बंधे न कदापि मन वच काय जोगसों; चेतन अचेतनकी हिंसासों न बंधे जीव, बंधे न अलख पंचविषै Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६६५ विखरोगसों; कर्मसों अबंध सिद्ध जोगसौं अबंध जिन हिंसासौं अबंध साधु ज्ञाता विषै जोगसों; इत्यादिक वस्तुके मिलापसों न बंधे जीव, बंधे एक रागादि अशुद्ध उपजोगसों ॥ ४२ ॥ अर्थः- कोई कहे बे के कर्मजाल वर्गला थकी जगत्मां जीव बंधाय बे, ते वात खोट एटले कर्म वर्गणा जीवना बंधनो हेतु नथी, एवी रीते कदाचित् मनवचन का याना योगथी पण जीव बंधातो नथी; चेतन तथा अचेतननी हिंसाथकी पण जीवने बंध यतो नथी. लक्ष पति बे, तथा छालहरूपी बे; ते पंचेंद्रियना विषयरूप विष रोग व पण बंधातो नथी. कर्म वर्गणाथी सिद्धना जीव बंधाता नथी; वली जिनेश्वर देव े तेतो त्रणे योगमां बे तोपण अबंध बे; साधुजेबे, ते अनाजोगपणे हिंसा करे बे, तोपण बंध बे; ज्ञाता विषय जोगवेढे, तो पण ते अबंध बे. ए रीते कर्म व गणा प्रमुख वस्तुना मिलापथी जीव बंधातो नथी. पण मात्र एक राग द्वेषने मोह अने जीव बंधरूप अशुद्ध उपयोगथीज जीव बंधाय बे ॥ ४२ ॥ हवे राग द्वेष ने मोहनेज दृढपणे बंधना हेतु ठरावे :बंध निदानदृष्टि करन व्यवस्था: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ कर्मजाल वर्गनाको वास लोकाकाश माहिं, मन वच का याको निवास गति श्रनमें; चेतन अचेतनकी हिंसा वसै पुलमें, विषै जोग वरते उदेके उरजाजमें; रागादिक शुद्धता अशुद्धता है अलखकी; यहे उपादान हेतुबंध के ब ढाउमें; याहि ते विचवन प्रबंध कह्यो तिहूं काल, रांग दोष मोहनादि सम्यक् सुनाउमें.५३ :- कर्म जाल वर्गणानो वास तो लोकाकाशमांज बे, केवल कर्म वर्गणा कार थकीज जो श्रमूर्त्ति चेतनद्रव्य बंधनावने पामे, तो लोकाकाशनो बंध केम नही थाय ? तेमज मन वचन छाने कायाना योगनो वास तो चारे गतिने विषे बे, अने चारे वामां बे, त्यारे योग ते आत्माना बंधना हेतु केम थाय ? चेतननां प्राण हरणथी . हिंसा थाय बे; ते पुल बंधरूप प्राणमांज हिंसा थाय बे, एमज श्रचेतननी हिंसा पण पुलमांबे, ते श्रात्मासाथै स्पर्शती नथी, तो बंध केम थाय ? अने विषय जोग जे वरते बे, तो कर्मना उदयमां बे, अरुजी रह्या बे, अने श्रात्मा तो तेथ। निरालो बे, ते बंधा केम ? माटे राग द्वेषने मोह की जेशुद्धता के० मुग्धता याय ने परवस्तु ने पोतानी करी मानवी ते अलख पुरुषनी अशुद्धता बे. अने एज अशुद्धता बंधने धारे बे, ए माटे विचक्षण पुरुषने त्रण कालविषे प्रबंध कह्यो; केमके, तेने सम्यक् स्वजावां राग द्वेष ने मोह नथी. ॥ ४३ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. हवे ज्ञाताने श्रबंध कह्यो तोपण उद्यमी थश्ने क्रिया करवी ते समजावेजेः अथ उद्यम प्रशंसाः॥ सवैया इकतीसाः ॥- कर्मजाल जोग हिंसा जोगसों न बंधे पै त, थापि झाता उद्यमी बखान्यो जिन बैनमें; शानदृष्टि देतु विषै जोगनिसों हेतु दोज, क्रिया एक खेत यो तो बनै नांहि जैनमें; उदै बल उद्यम गहै पै फलकौं न चहे, निरदै दसा न होश हिरदेके नैनमें; थालस निरुद्यमकी नूमिका मिथ्यात माहि, जहां न संजरै जीव मोहनींद सैनमें ॥४४॥ अर्थः- जीव ते कदापि कर्मजालथी बंधाय नही,अने जोग थकी, पण बंधाय नही अने हिंसा थकी पण नबंधाय, जोगवडे बंधायतोपण जिनेश्वरनावचनथकी ज्ञाता जीवने उद्यमीज वखाण्यो बे. ज्ञानने विष दृष्टिपण आपेडे, अने विषयजोगमा प्यार पण राखे बे, एवी बे क्रिया एक खेत के एक आत्माविषे एक स्थानकविषेकरे, एवं तो जैनवासीमां बने नहीं; अने जे ज्ञानी होय ते एटबुं तो करेके जे संहनन के सं घयण प्रमुख कर्म- उदय बल , तेथी यथायोग ते क्रियाविषे उद्यमवंत थाय, श्रने तेना फलने श्छे नही, ने हृदयरूप नेत्रनेविषे निर्दय दशावंत न थाय; अने बालस निरुद्यम तो मिथ्यात्वमांज पामिये, एथी बालस ने निरुद्यमनी मिथ्यात्व नूमिका बे, जे नूमिकानेविषे जीव मोहनिला लेतो थको शयन दिशामां रहे, अने पोताना स्व रूपने संचारतो तथी.॥४४॥ हवे जे उदय माफक क्रिया कही तेथी उदय बलनी व्यवस्था कहे: अथ उदै व्यवस्था वर्णनं:॥ दोहाः ॥- जब जाको जैसे उदै, तब सो है तिहि थान; सकति मरोरे जीव की, उदै महा बलवान ॥ ४५ ॥ अर्थः- जे कालनेविषे जेनो उदय जेवो थाय ते कालने विषे ते स्थान के ते खरू पमां जीव रहे बे; ते जीवनी शक्ति मरोडीने पोतानी शक्ति प्रगट करे, एथी कर्म उद य महा बलवान् ॥ ४५ ॥ हवे उदय बल उपर दृष्टांत थापैः - श्रथ उदै बल वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसे गजराज पस्यो कर्दमके कुंडवीच उद्यम अहुटै न पैबू टै दुःख इंदसों; जैसे लोद कंटककी कोससो उरज्यो मीन, चेतन असाता लहै साता लहे संदसों; जैसे महाताप सिरवाहिसों गरास्यो नर, तकै निजकाज उठी सकै नसुबं दसों; तैसे ज्ञानवंत सब जानै न वसाईकलु, बंध्यो फिरै पूरब करम फल फंदसों.४६ अर्थः-जेम हाथी कर्दमना कुंडमां पड्यो पड़ी तेमाथी निकलवाने उद्यम अहुटै के० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६६ए करेले, पण ते पुःखदंडथी बूटी शक्तो नथी; जेम हृदयमा लोद कटकी के लोढाना कांटानी श्रणीमां नरायो एवो म बुटो थई शकतो नथी, तेथी मत्स्यनुं चेतन अशा ता पामे, अने संद के बुटे तो शाता लहे पण बूटे नही; वली कोई माणस ताप ज्वर अने माथाना दरदथी हेरान थतो पथारीमा पनी रह्यो होय अने ते मनुष्य पो ताना कार्य करवाने वास्ते त्यांथी उठवाना अनेक उपाय करतो बतां पोताना स्वळ दथी उठी शकतो नथी, तेमज झानवंत जीवतो सर्व देय उपादेय जाणे बे पण को पोतानुं बल चाले नही; पूर्व संचित कर्मना फलना फंदथी एटले कर्मना उदयथी बांध्यो फरे ॥४६॥ हवे बालसुने निरुद्यमीनी जेवी अवस्थाले तेवी बतावे :-श्रथ यथावस्था वर्ननं:- . ॥ चौपाई॥-जे जिय मोहनींदमें सोवै, ते बालसु निरुद्यमि होवै; दृष्टिखोबिजे जगै प्रवीना; तिन्दि थालस तजि उद्यम कीना ॥४॥ अर्थः- जे जीव मोहरूप निखानेविषे सुश्रह्या , ते जीवने बालसु कहीए ने तेज निरुद्यमी कहेवाय. अने जे प्रवीण जीव ज्ञान दृष्टि खोली जागृत , ते बालस त जीने उद्यम करे ॥४॥ हवे बालसु ने उद्यमीनी क्रियानुं वर्णन करे :- श्रथ यथावस्थातथा क्रिया कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः॥- काच बांधै सिरसों सुमनी बांधै पायनिसों, जानै न गवार कैसी मनी कैसो काच है; योंदी मूढ जूठमें मगन जूनहिकों दौरै, जूठ बात मानै पै न जाने कहा साच है; मनीकों परखि जानै जोहरी जगत मांहि, साचकी समुजी ज्ञान लोचनकी जाच है; जहांको जु वासी सो तो तहांको मरम जाने, जाको जैसो स्वांग ताको तैसेरूप नाच है ॥ ४ ॥ अर्थः- काचने माथानपर बांधे अने मणिने पगे बांधे, एवा गमार लोकने खबर नथी होती के काच शी वस्तु बे, अने मणि शी वस्तु ? एम मूढ अज्ञानी जीव फूठी वातमा मग्न रहे, ग कार्यमा दोडे, श्रने फूठी वात माने, पण एम न जाणे के एमां साच केटबुंडे ? मणि रत्ननी तो जे जवेरी होय तेज जगत्मां परीक्षा करी शके, ते मज साचानी समऊ पण तेनेज पडे, जेने ज्ञानरूपी लोचननी उत्पत्ति थई होय ? के मके, जे ज्यांनो वासी होय ते त्यांनो मरम जाणे, एटले मिथ्यात्व नूमिकानो वासी मिथ्यात्वनेज ग्रहे श्रने सम्यक्त्व नूमिकानो वासी ते समकितनेज साचुं माने, मतलब जे जेवो वेष धरी श्रावे ते तेवोज नाच नाचेले. ॥ ४ ॥ हवे जे जेवी क्रियाकरे ते तेवं फल पामे ते कहेजेः-अथ यथाक्रिया तथा फलकथन: Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ___॥ दोहाः ॥- बंध बंधावे अंध व्है, आलसी अजान; मुक्ति हेतु करनी करे, ते नर उद्यमवान. ॥४ए ॥ __ अर्थः- जे नाव अंध थईने बंधने वधारे, ते अजाण थालसु कहेवाय ने अने जे मुक्ति हेतुने अर्थे क्रिया करे, ते मनुष्य उद्यमवंत कहेवाय बे ॥४॥ हवे जो ज्ञान होय तो वैराग्यपण होय अने जो वैराग्य न होयतो झान पण न होय, तेथी ज्ञान वैराग्यनुं सहचारिपणु:-अथज्ञानवैराग्य सहचारित्ववर्णनं:- कहे बे. ॥ सवैया इकतीसाः।- जब लगु जीव शुछ वस्तुको विचारे ध्यावै, तबलगु नोगसों उदासी सरबंग है; नोगमें मगन तब शानकी जगन नाहिं, जोग अनिलाषकी दशा मिथ्यात अंग है; तातें विषै नोगमें मगन सो मिथ्याति जीव, नोगसों उदासि सो समकिति अनंग है; ऐसी जानि नोगसों उदासि व्है मुगति साथै, यहै मन चंगतो कगेत मांहि गंग है. ॥ ५० ॥ अर्थः- ज्यांसुधी जीव शुद्ध वस्तुना विचारमा दोमतो होय, ज्यांसुधी सर्व अं गने विषे नोगथी उदासीनपणुं जोवामां आवे; श्रने ज्यारे नोगमां मगन रेहेतो होय, त्यारे तो ज्ञाननी जगन के० जागृती न होय, केमके लोग अनिलाषनी दशामां वर्त्त बुं तेतो मिथ्यात्वनुं अंग बे, तेथी विषयत्नोगमां मगन रहे ते जीव मिथ्यातनुं अंग , तेथी विषयनोगमां मगन रहे ते जीव मिथ्यात्वी कहेवाय, अने जे विषय जोगथी उ दासी रहे ते तो अनंग सम किती जे. एवं जाणीने अहो! नव्यलोको! लोगथी उदास थई, ने मुक्तिने साधो. ते उपर दृष्टांत कहे जे के, जेनुं मन चंगुळे तेने कथरोटमांज गंगा बे, मतलब के कथरोटमा नातां थका गंगा स्नान- फल ते पामे.॥५०॥ हवे मोदना अधिकारने विषे चार पदार्थनुं स्वरूप कहे : अथ पदार्थ चतुष्क कथन:॥ दोहाः॥- धरम श्ररथ थरु काम सिव, पुरुषारथ चतुरंग; कुधी कलपना गहि रहै, सुधी गहै सरवंग ॥५१॥ अर्थः- धर्म, अर्थ, काम, ने मोद, पुरुषार्थना ए चार अंग , ए पुरुषार्थ विषे कुधी के० कुमतिवालो पोतानी मति कल्पनाने कालीने बेसे बे, अने सुधी के० पंकि त पुरुष बे ते सर्वांगनुं ग्रहण करे .॥५१॥ __ हवे चारे पदार्थनी न्यारी न्यारी व्यवस्था सुमति अने कुमतिनामन श्राश्री कहे बेः- श्रथ पदार्थ व्यवस्था कथनं:- . ॥ सवैया इकतीसाः॥-कुलको श्राचार ताहि मूरख धरम कहै, पंमित धरम कहै वस्तु के सुनाउकों; खेहको खजानो ताहि अज्ञानी अरथ कहै, ज्ञानी कहै अरथ दरवदरसा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उककों; दंपतिको जोग ताहि पुरबुद्धि काम कहै, सुधीकामकदेशनिलाष चित श्राउको; इंडलोक थानकों अजान लोक कहै मोक्ष,मतिमान मोक्ष कहै बंधके अनाउकों ॥५॥ अर्थ:- जे मूर्ख जन होय ते पोताना कुलना श्राचारने धर्म कहै , अने पंमित जन तो वस्तुना स्वजावने धर्म कहे , अज्ञानी जन होय ते खेहना खजाना जे सोनुं रुपुं जवाहिर वगेरे बेतेने अर्थ के अव्य कहि बतावे बे, अने ज्ञानी जन होय ते अव्यना दरशावने अर्थ कहे बे; एटले षट्रव्यने अर्थ कहे . पुबुकि जन स्त्री जर तारना नोग संयोगने काम कहे , पण सुधी के पंमित जन तो चित्तनी श्वा श्र निलाषने काम कहे , श्रने जे इंजन स्थानक बे, तेने अजाण लोक मोद कहे , अने जे मतिमान एटले पंमित लोक तेतो जेथकी बंधनो अनाव थाय बे, तेने ए टले बंधना नाशने मोद कहे जे ॥ ५॥ हवे चारे पुरुषार्थने अध्यात्मरूप कहे बे-श्रथ पुरुषार्थ चतुष्क अध्यात्मरूपकथनं: ॥सवैया इकतीसाः॥-धरमको साधन जु वस्तुको सुजाउ साधै, अरथको साधन विलब दर्व षटमें; यहै काम साधना जु संगहै निरास पद, सहज स्वरूप मोष सुरू ता प्रगटमें; अंतर सुदृष्टिसों निरंतर विलोकै बुध, धरम थरथ काम सोड निजघटमें; साधन थाराधनकी सोंज रहै जाके संग, नूलो फिरे मूरख मिथ्यातकी अलटमें ॥५३॥ अर्थः- धर्मनुं साधन तो तेने कहीये के जे वस्तुना वनावने साधवो एटले वस्तु ना स्वजावने यथार्थ जाणवो; अर्थनुं साधन तेने कहीये के जे षट्र अव्यने विलक्षण के जुदां जुदां जाणवां; काम साधन तेनुं नाम के, जे निरास पदनो संग्रह करवो, एटले निस्पृह दशामा रहेवू; मोदनुं साधन ते डे, के जेवके पोतानी सहज स्वरूप शु कता प्रगट नावमा करवी; ए रीते अंतर्दृष्टि वडे एटले ज्ञान दृष्टि थकी बुकिमान पुरुष धर्म, अर्थ, काम ने मोद ए चार पुरुषार्थने निरंतर पोताना घटमां देखे; एम चारे पुरुषार्थ साधवानी जेना संघाते सोंज के सामग्री रहे , तोपण मूर्ख जे जे ते मिथ्यातनी अटलमां नूस्या फिरे जे ॥ ५३॥ हवे शुद्ध व्यवहार नये करी वस्तुनुं सत्य स्वरूप कहेजेः अथ शुरू नय वस्तु स्वरूप कथन:॥ सवैया एकतीसाः॥-तिहुँ लोकमांहि तिहूं काल सब जीवनिको, पूरव करम उदै श्राश् रस देतु है; कोउ दीरघाउ धरे कोउ अलपाउ मरै, कोउ मुखी को सुखी कोउ समचेतु है; यादीमें जीवायो याहि माख्यो याहि सुखी कस्यो, कुखी कस्यो एसी मूढ श्रापु मानी बेतु है; याही अहं बुद्धिसों न विलसै नरम मूल, यहै मिथ्या धरम करम बंध हेतु है. ॥ ५४॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. . अर्थः-त्रणे लोक तथा त्रणे काल तेनेविषे जगत्वासी सर्व जीवने पूर्व संचित कर्म उदय थावे, ने ते पोतानो कडवो तथा मीठो रस थापेजे, तेणे करी ने कोई - दीर्घ आयुष्य नोगवी मरेडे, ने कोई अल्प श्रायुष्यमांज मरेडे, कोई कुःखी बे, श्रने कोई सुखी होय, कोई समचित के सम जावमा रहेडे, एम पोत पोतानी कमाई थी सर्व जीव सुखी अथवा फुःखी बे. तेने मूढ प्राणी जे जे ते पोताना साधन माने डे के, जो में फलाणाने जीवाड्यो, फलाणाने मारी नाख्यो, फलाणाने पुःखी कीधो, ने फलाणाने सुख प्राप्यु. एवो मूढ अहं बुद्धिथी नर्ममा जुल्यो फरेडे, अने ए नूल एनी मटती नथी, एज मिथ्या धर्म मूढने कर्मबंधनो हेतु थाय बे. ॥५४॥ हवे फरी मूढनीज व्यवस्था कहेजेः- अथ मूढता कथनंः॥ सवैया इकतीसा॥-जहांलों जगतके निवासी जीव जगतमें, सबै असहाको ऊ काहुको न धनी है; जैसी जैसी पूरव करम सत्ता बांधि जिन, तैसी तैसी उदै. अवस्था श्राइ बनी है; एते परि जो कोज कहै कि में जीवावो मारो इत्यादि अने क विकलप वात घनी है, सो तो अहं बुछिसों विकल नयो तिहुँ काल, मोले निज श्रातम सकति तिन्ह हनी है. ॥ ५५ ॥ . ___ अर्थः- ज्यांसुधि जीव जगत्मां निवास करेले त्यांसुधी एक बीजाने असहाय पणे रहेने, कोई कोनो सहायकारी नथी, तेम कोई कोश्नो धणी नथी, श्रने जेवी जेवी पूर्व कालनेविषे कर्मसत्ता बांधी राखी, तेवी तेवी उदय कालनेविषे जीवनी वस्था बने; एटला उपर जे कोई कहे के में थाने जीवाड्यो ने थाने मार्यो, इत्या दि अनेक मनना विकल्पनी वातो घणी , ते सघली अहंबुद्धि थकी थाय , अने ते जीव त्रणे कालने विषे अहंकार बुद्धिमां मोले ; तेणे शुरू ज्ञानशक्तिने हणी ने अने ते जीवनी ए मूढ अवस्था कडेवाय बे ए रहस्य बे. ॥५६॥ हवे चार प्रकारे करीने जीवनी व्यवस्था उपर चार दृष्टांत आपेजेः श्रथ चार प्रकार जीव व्यवस्था कथनं:॥ सवैया इकतीसाः॥- उत्तम पुरुषकी दशा ज्यों किसमिस जाख, बाहिज अनि तर विरागी मृा अंग है; मध्यम पुरुष नारीयर केसी नांति लिये, बाहिज कछिन हिय कोमल तरंग है; अधम पुरुष बदरीफल समान जाके, बाहिरसों दिसै नरमा दिल संग है; अधमसों अधम पुरुष पुंगीफल सम, अंतरंग बाहिर कठोर सरवंग है __ अर्थः- उत्तम पुरुषनी दशा किसमिस प्राद जेवी बे, जेम किसमिस सादब हिरथी ने अंदरथी कोमल बे; तेमज उत्तम पुरुष बाह्य व्यवहार श्रने अत्यंतर व्य हारमा पण मृड अंग के कोमल डे; मध्यम पुरुष नारीयल सरीखो , जेम नारी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६७३ ल बाह्य व्यवहारमा कठोर अने अन्यंतर कोमल , तेम मध्यम पुरुष पण बहारथी कठण अने हश्यामां कोमल होय . श्रधम पुरुष बोर समान बे; जेम बोर बाह्य व्य वहारने विषे नरम देखाय डे, ने मांडेथी कठोर बे, तेम अधम पुरुष बहार नरमाश राखे पण अंतरमा संग के पाषाण जेवो कठण होय. अने अधमाधम पुरुष पुंगी फल के सोपारी जेवो; जेम सोपारी बहारने अंदर सर्वांगमां कगेर बे, तेम अध माधम पुरुष मांहे अने बहार सघले कठोर होय . ॥५६॥ हवे उत्तम पुरुषनी दशा कही बतावे:-अथ उत्तम पुरुष कथन:॥सवैया इकतीसाः।-कीचसो कनक जाके नीचसो नरेसपद, मीचसी मित्ताई ग रवाई जाके गारसी; जहरसी जोग जानि कदरसी करामति, हहरसी हौस पुदगल बवि बारसी; जालसों जग विलास नालसों नुवन वास, कालसों कुटंब काज लोक लाज लारसी; सीसों सुजश जानै वीउसों वखत मानै ऐसी जाकी रीति ताही वंदत वनारसी. ॥२७॥ अर्थः- जे पोताना हैयानेविषे सुवर्णने कादव सरखं जाणे, श्रने नरेश पद के राज्य गादीने नीच सरखी जाणे, मित्राने मीचसी के मरण जेवी जाणे, ने गरवाई के वमाई ते लीपवानी गार जेवी जाणे, रसायन प्रमुख व्यजोगनी जातिने जे फेर सरिखी जाणे, मंत्र शक्तिव जे करामत थाय तेने कहर सरखी जाणे, देशी जापाने विषे इहर के अनर्थ ते सरखी होंस , अने पुद्गलनी बबी ते राख समान जाणे, माया रूप जाल तथा जगत्नो विलास तेने जाल जेवो जाणे, जुवनवास के घरवास ने तीरना नाल समान जाणे, कुटुंब कार्यने काल समान करी जाणे, लोकलाज रा खवी ते मोहमानी लाल जेवी जाणे बे, सुयशने सीट के० नाकना मेल समान जाणे, जाग्यो दयने विष्टासमान जाणे, एवीजेनी रीत होय तेने बनारसीदास वंदना करे ५७ हवे मध्यम पुरुषनी दशा बतावे बेः- अथ मध्यम पुरुष यथाः॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसे कोउ सुजट सुनाय ठग मूरखाय, चेरा नयो उगनी के घेरामें रहतु है गोरी उतरि गई तब तांहि सुधि नई, पस्यो परवस नाना संकट सहतु है; तैसेही अनादिको मिथ्याति जीव जगतमें, मोले धागे जाम विसराम न गहतु है; ज्ञान कला नासी जयो अंतर उदासी में तथापी जदै व्याधिसों समाधि न सहतु है. ॥ ५७ ॥ अर्थः-जेम कोई खनावे सुजट होय ने तेने कोश्ग मले नेते सुनटने कोश्जडी मूली खवरावे, तेथी ते सुजट गनो चेलो थक्ष जाय, अने उगना घेरामां पड्यो रहे, पीते सुनटे मूली खाधेली तेनी असर नीकली जाय ने पालो पोतानी शुधिमां श्रावे, तेवा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. रे ते उगने उर्जन करी जाणे, पण पोते परवश पड्यो तेथी नाना प्रकारना संकट स हन कर्या करे , तेम अनादि कालनो मिथ्यात्वी जीव परवश पडेलो नाना प्रकारना संकट सहन करे, ते श्राप प्रहर संसारमा विकल थ ने डोले, पण विश्राम लिये नही, एटलामां ज्ञान कलानो नास थयो, तेवारे अंतरमा उदासी थयो तो पण कर्म ना उदयरूप व्याधिवडे समाधि लेतो नश्री, श्राश्रवमांज रहे ॥ ५ ॥ हवे अधम पुरुषनी दशा दृष्टांत दश्ने दृढावे :- अथ अधम पुरुष यथाः ॥ सवैया इकतीसाः॥-जैसें रांक पुरुषके नाये कानी कोमी धन, जलूवाके नाय. जैसे संकाई बिहान है; कूकरके नाये ज्यों पिंमोर जिरवानी मग, सूकरके नाय ज्यों पुरीष पकवान है; वायसके नाये जैसे नींबकी निंबोरी दाख, बालकके नाये दंत कथा ज्यों पुरान है; हिंसकके जाये जैसे हिंसामें धरम तैसें, मूरखके जाये सुन बंध निरवान है अर्थः- जेम रांक पुरुषने काणी कोढी ने तेहीज धन मनाय बे, अने जेम घुबडने संध्याकाल प्रजात मनाय बे,श्रने कुकमाने पिंडोर जीरवानी के गाय नेसनुं पाणी ते दहींनो थमो मनाय बे, अने सूकर के सूअरने पुरीष के० विष्टा तेज पक्वान्न मना यो श्रने कागडाने लींबोडी तेज बाद जेवी मनायडे, अने वालकने दंत कथा के० लोकनी कथा डे तेज पुराण मनाय बे, ने हिंसकने हिंसामाज धर्म मनाय बे, तेम ज मूर्खने पुण्यबंध ते निरवाण के मोदपद मनाय ने, ए श्रधम पुरुषनी दशा जाणवी. हवे अधमाधम पुरुषनी दशा दृष्टांतेकरी दृढावेजेः-अथ अधमाधम पुरुष यथाः ॥सवैया इकतीसाः॥- कुंजरको देखि जैसे रोष करीनुसे खान, रोष करै निधन बिलोकि धनवंतकों; रेनके जगैयाको विलोकि चोर रोष करै, मिथ्यामति रोष करै सुनत सिझांतको, हंसकों विलोकी जैसे काग मनि रोष करे,अनिमानी रोष करै देख तमहंतकों; सुकविकों देखि ज्यों कुकवि मन रोष करै त्योंही उरजन रोष करै देखि संतको. अर्थः- जेम हाथी जोश्ने कुतरा रीशे जराईने लुकेले, जेम निर्धन पुरुष धनवान ने जोईने रीशे जराय बे, जेम राते जागनार पुरुषने जोईने चोर रीशे नराय , जेम मिथ्यात्वी सिद्धांतने शांजली रीशे जराय बे, जेम हंसने जोईने कागडो रीशे जराय बे, जेम महंतने जोईने अनिमानी रीश करे , जेम सुकवि के सारा कविने जोई ने कुकवि के नगरो कवि रीशे बले बे, तेम अधमाधम पुरुष साधुने जोईने पुष्ट मन वमे रीशे जराय बे. ॥६०॥ हवे वली अधमाधम पुरुषनी चाल कहेः-श्रथ पुनः अधमाधम पुरुष वर्णनं: ॥ सवैया श्कतीसाः ॥-सरलकों सठ कहै वकताको धीठ कहै, बिनो करे तासों कहै धनको अधीन है; बमीको निवल कहै दमीकों श्रदत्ती कहै, मधुर वचन बोलै Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६५ तासों कहै दीन है; धरमीको दंनी निसपृहीको गुमानी कहै, तिशना घटावै तासो कहै नागहीन है; जहां साधु गुण देखे तिन्हको लगावै दोष, ऐसो कबु उर्जनको हिरदो मलीन हे.॥६१॥ अर्थः- सरल चित्तवालाने शठ के० मूर्ख कहे, वक्ता के० कथा कीर्तन वांचनारने धीठ कहे, विनय करनारने कहे के एतो धननी आधीनताथी करे, दमावंतने नि बल कहे; इंजिय दमन करनारने श्रदाता कहे, अने मधुर नाषण करनारने कहे एतो गरीब बीहामणो , धर्मीने दंनी कहे, निस्पृहीने अहंकारी कहे , तृष्णा बगे मनारने नाग्यहीन कहे,ज्यां एवा सरलतादिक गुण देखे त्यां पूषण लगाडे, एवं उर्ज ननुं हश्यु मलीन के मेधुं होय . श्रने एवा उर्जननेज अधमाधम पुरुषनी प्रकृति जाणवी. हवे मिथ्यादृष्टिनी अहंबुछिनुं वर्णन करे :- श्रथ मिथ्यादृष्टि वर्णन:॥ चौपाई॥- में करता में कीन्ही कैसी; अब यों करो कहौ जो ऐसी; ए विपरीत नाव है जामें; सो वरतै मिथ्यात दसामें. ॥ ६॥ दोहराः- अहं बुझि मिथ्यादसा, धरै सु मिथ्यावंत; विकल यो संसारमें, करै विलाप अनंत. ॥ ३ ॥ अर्थः- हुं कर्त्ता बुं, था वर्तमान कालमां केवी वात करूंबु, नविष्य कालमां जेवी कहीश तेवी करीश, एवी अहं बुकि ए विपरीत जाव , थने ए नाव मिथ्यात्व दशा ना ॥६५॥ जे एवी श्रहंबुकि, तेज मिथ्यात्व दशा , अने ए मिथ्यात्वदशाने धारण करे, तेज मिथ्यात्वी कहेवाय ,अने एवा पुरुषोज संसारने विषे विकल थका संसारमा नटकता दुःख सहता अनंत विलाप करेजे. ॥ ६३ ॥ हवे मूढ प्राणीनी व्यवस्था कही देखाडे :- अथ मूढ व्यवस्था कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- रविके उदोत अस्तहोत दिनदिन प्रति, अंजुलीके जीवन ज्यों जीवन घटतु है; कालके ग्रसत बिनबिन होत बीन तन, औरके चलत मानो का उसो कटतु है; एते परि मूरख न खोजे परमारथकों, खारथके हेतु बम जारथ उट तु है; लग्यो फिरे लोगनिसों पग्यो परजोगनिसों, विषै रस नोगनिसों नेकु न हटतु है. ॥६॥ जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपतिमांहि तृषावंत मृषा जल कारण अटतु है; तैसे जववासीमायाहीसों हित मानिमानि गनिगनि चमनूमि नाटक नटतु है; श्रागेकों ढुकत धाय पाडे बबरा चराय, जैसे दृग दीन नर जेवरी वटतु है; तैसे मूढ चेतन सु कृत करतूति करै, रोवत हसत फल खोवत खटतु है. ॥६५॥ अर्थः- सूर्यना उदयथी ते अस्तसुधीमां अंजबिना पाणीनी परें आयुष्य घटतुं जा यो, श्रने क्षण क्षणविषे काल जे जे ते शरीरने ग्रासे, तेथी शरीर दीण थाय बे. ए रीते तन और के शरीर तरफ काल असी रह्यो, एटले जेम शस्त्र कोई वस्तुने का Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. पेठे तेम कालरूपी शस्त्र शरीरने कापेले. एवं कार्य थ रथु डे तोपण मूर्खजन जे ते परमार्थने खोजतो नश्री, पण पोताना स्वार्थने माटेज चमना नारने खेंची रहे; लोग के परवस्तु जे काम क्रोधादिक ते साये लागो फिरे, अने परपुजलजोग तेथी पग्यो के हलि मलि रहे, तेथी विषयरसने जोगवतां जरा पण हटतो नथी. ॥६॥ वली जेम को जबरो मृग होय ते वृषादित्य के वृषसंक्रांतनो सूर्य एटले जेष्टमास तेना तापनेविषे श्रति तृषावंत थयो थको मृषा के० फूठी श्छा थकी पाणीने माटे अटत हे के० चटके , तेवी रीते संसारी जीव परस्वरूप मायाजालने विषे हेत राखीने एटले तेने हितकारी मानीने भ्रमरूपी नूमीने विषे ठराव करी नट नी पेठे नाची रह्यो . ते केवो ने तो के जेवो कोई दृगहीन के श्रांख विनानो पुरुष होय ने ते दोरी वाटतो होय त्यां पासे वाहुं होय ते दोरीने चावी नाखतो होय तेने ते जाणी शकतो नथी तेथी तेनी मेहनत व्यर्थ जाय . तेम मूढ प्राणी जे ने ते सुकृतनी क्रिया करेने त्यारे रोवत हासत के० अरति अने रतियें करी क्रिया करे तेथी ते करेली क्रियाना परम फलने खोई देय. ॥६५॥ हवे फरी बंधना करनार मूढ विषयिनी अवस्था कदेबेः-अथ मूढ विषयी वर्णनं: ॥ सवैया इकतीसाः॥- लिये जिढ पेच फिरे लोटन कबूतरसो, उलटो अनादि को न कहो सुलतु है, जाको फल फुःख ताही सातासो कहत सुख, सहित लपटी असी धारासी चटतु है; ऐसे मूढ जन निज संपती न लखे क्योही, मेरी मेरी मेरी निशिवासर रटतु है; याही ममतासों परमारथ विनसी जाइ, कांजीको फरस पाई पूध ज्यों फटतु है. ॥६६॥ अर्थः- जेम लोटण खबुतर होय ते जो पांख बंध करीने पेच लाग्यो तेथी उलट पालट फरेने, तेम मूढ प्राणी अनादि कालना कर्म बंध पेचमां पडेलो माटे अवलो मार्ग धरे, पण कोई रीते सवलो मार्ग धरतो नथी. अने जेनुं फल फुःख डे एवा वि षय जोगवडे जे कंईक साता उपजे, तेने सुख माने, जेम कोई मधे लपेटी तरवार नी धारने चाटे, जेमां मधनी मीगश थोमी होय ने तरवारनी धार ते मीगस चाख वा जतां जीनने बेदी नाखे तेनुं पुःख बहु थाय, तेम मूर्ख प्राणी पोतानी ज्ञानादिक संपत्तिने कदी उलखतो नथी, पण परवस्तुने रात दिवस मारी मारी मानी रह्योडे, एज फूठी ममतावडे परमार्थ जाणवानो विनाश थई जायजे; जेम कांजीना पाणीना स्पर्शथी दूध फाटी जाय, तेम ममताश्री परमारथ बगडी जाय. ॥ ६६ ॥ हवे मूढनी अहंबुछिनी वव्यवस्था कही बतावे:- श्रथ पुनः मुढ व्यवस्थाः॥ सवैया इकतीसाः॥-रूपकी न कांकहिये करमको मांक दिये, ज्ञान दवि रह्यो Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६७७ मिरगांक जैसे घनमें,लोचनकी ढांकसों न मानै सदगुरु हांक,मोलै पराधीन मूढरांक तिहूं पनमें; टांक श्क मांसकी डलीसी तामें तीन फांक, तीनि कोसो अंक लिखिराख्यो काहु तनमें; तासों कहै नांक ताके राखिवेको करे कांक,लांकसो खरग बांधिवांक धरै मनमें. अर्थः- श्रात्मानुं रूप हश्यामां नथी दी, तेथी कर्मनो डांक पीधो, एटले कर्मनो रस व्यापी गयो, तेणे करी आत्मानुं स्वरूप जे शुभ ज्ञान ते दबाई रद्यु. कोनी पेठे ? जेम धन कहेतां मेघरुप वादलाउने विषे चंड ढंका रहेने तेम ज्ञानरुप लोचनउपर मिथ्यात्वनी ढांक पडी तेथी सद्गुरुनी हांक के श्राज्ञा तेने मानतो नथी, अने मूर्ख पराधीन थको रांक वचन बोले, अनेत्रणे कालनेविषे निःशंक रहे. हवे मूढता प्र गट करी बतावेजे जे नाक ते टांक के एक मांसनी सीमरी तेनेविषे फांक ने ते प्रत्यक्ष प्रमाणे देखिये बैयें, ते त्रण फांक केवा देखाय ते कहे, ते जाणे त्रणनो श्रांक त्रण फांकवालो कोए शरीरमांज लखी राख्यो, ते औदारिक अवयवने नाक कहे, अने ते नाकने राखवाने कांक के लडाई करे ने विचारे जे मरी जश तोप ण नाक तो रदेशे एवा विचारथी लडाई करेने खग धरे अने मनमां वांक धरीज राखेडे. हवे मूढना विषय रागीपणानी दशा कहे बेः- अथ मूढ विषय वर्णनं: ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जैसे कोउ कूकर कुधित सूके हाड चावे, हामनिकी कोर चिहू उर चुन्ने मुखमें; गाल तानु रस मांस मूढ निको मांस फाटे, चाटै निज रुधिर मगन स्वादमुखमें; तैसे मूढ विषयी पुरुष रति रीत गने, तामें चित साने हित माने खेद उखमें, देखै परत बल हानी मल मूत खानी गहे न गिलानि पगी रहे रागरु खमें अथः- जेम कोई कुतरो जुख्यो थको हामकाने चावे , ते हाडकु सूकु होय बे, तो पण तेने चारे तरफ फेरवीने ते चाटे बे, ने तेम चाटतां तेना गाल जीन ने ता लवानी चाममी फाटे , अने तेथी लोही नीकले डे ने तेज पोताना लोहीना खाद थी मगन थई जाय बे, तेमज जे मूढ विषयी पुरुष बे, ते रति के० स्त्री पुरुष संयोग नी रीति जे श्रृंगार रस तेने विषे मग्न रहे , अने तेथी खेद पुःख उपजे बे, तोप ण तेमां सुख माने , अने ते कार्यथी प्रत्यक्ष पणे बलनी हानि थती जाणे , तथा तेने मल मूत्रनी खाण जुए ले. तेम बतां तेमां ग्लानि ग्रहण करतो नथी, उगंबा पामतो नथी, अने रागरूप रुख के वृक्षमा मली रहे, तेनो शोक आणतो नथी, उलटो तेमा चित्त लगावी थानंद माने. ॥ ६ ॥ हवे संसारीनी विकलता कहीने साधु जननी व्यवस्था कहे बेः । श्रथ संसारी तथा मुनि व्यवस्था कथनः॥श्रडिन बंदः॥- सदा करमसों जिन्न सहज चेतन कह्यो; मोह विकलता मानि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मिथ्याती व्है रह्यो; करै विकल्प अनंत, अहंमति धारिके; सो मुनि जो थिर होश ममत्त निवारि के ॥ ६ ॥ अर्थः- निश्चयनय वडे सहजरूपे चेतन बे, ते सदा कर्मथी जिन्न कयु , पण व्यवहारमा पडीने मोहनुं विकलपणुं मानीने मिथ्यामती थई रह्यो , तेथी मनमां अनंत विकल्प धरीने अहंबुकि धारी रह्यो बे, अने जेणे ममत्व निवारण की, ने स्थिरता पाम्यो तेज साधु थयो. ॥६॥ हवे मिथ्यात्व नावथकी व्यवहारर्नु असंख्यातपणुं कहे बेः अथ मिथ्यात्वनाव व्यवहार एकत्व कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-असंख्यात लोक परवान जो मिथ्यात नाव, तेई व्यवहार नाव केवली उकत है; जिन्दके मिथ्यात गयो सम्यक दरस नयो, ते नियत लीन वि वहारसों मुकत है; निरविकलप निरुपाधि श्रातम समाधि, साधि जे सगुन मोब पंथ को ढुकत है, तेई जीव परम दशामें थिररूप है के, धरममें दुके न करमसों रुकत है. अर्थः- एक लोकाकाश, तेनी असंख्यातपणे कल्पना करीयें; तेना प्रदेश असं ख्यात , ते प्रमाणेज मिथ्यात्व नाव ले. जीवना अध्यवसाय स्थान , ए व्यवहार जावे केवलीनु कहेवू डे,अने जेनु मिथ्यात्व गयु, जेने सम्यक् दर्शन थयु,जे निश्चय-लीन थयो, ते व्यवहारथी मुक्त थाय. जेमां विकल्प नथी ते निर्विकल्प, अने जेमां उपाधि नही ते निरुपाधि, एवी समाधिथी जे सगुण थईने एटले ज्ञानादिकगुणमय थईने मोद मार्गने जुए बे, ते जीव परम दशामा स्थिर रूप थईने यात्मिक धर्ममां दुके पण कर्मथी रोकाय नही. ॥ ७० ॥ हवे गुरुने शिष्य प्रश्न पूछे जेः-अथ शिष्य प्रश्न कथनं:कवित्त बंदः॥- जे जे मोह करमकी परिनति, बंध निदान कही तुम सबसंतत जिन्न शुद्ध चेतनसों, तिन्हिको मूल हेतु कहु अब्ब; कै यह सहज जीवको कौतुक, कै निमित्त है पुमल दव; शिश नवा शिष्य श्म पूबत, कहै सुगुरु उत्तर शुनु जब॥७॥ अर्थः- मोह कर्मनी जे जे परिणति बे, एटले राग केषादिक डे, ते तो तमे सर्व बंधन निदान कह्यु, अने एतो निरंतर शुक चेतन थकी जिन्न डे, ते माटे ए बंधनो हवे मूल हेतु कहो; ए बंध थाय ने ते शुं जीवने सहज कौतुक , के एने पुजल अव्य निमित्त २ ते कहो एम, शिष्य माथु नमावीने गुरुने पूछे . हवे गुरु उत्तर थापे डे के जव्य प्राणी एनो उत्तर शांजलो॥१॥ अथ गुरु वचनं:॥ सवैया इकतीसाः ॥- जैसे नाना वरन पुरी बनाइ दीजै देछि, उहाल विमल मनु Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६७ए सूरज करांति है; उजलता नासै जब वस्तुको विचार कीजै, पुरीकी फलकसों वरन नाति नाति है; तैसे जीव दरबको पुग्गल निमित्त रूप, ताकी ममता सो मोह मदि राकी मांति है; नेद ज्ञान दृष्टिसों सुनाव साधि लीजे तहां, साचि शुरु चेतना श्र वाची सुख शांति है. ॥ ७॥ अर्थः- जेम सूर्यकांति मणि ने तेम बीजो काश्मिरी पाषाण तेवोज बे, ने ते महा उज्वल ने, ने तेनी नीचे तहरेतहरेना रंगनी पुरी बनावी आपिये, त्यारे तेमां नात नातनो रंग देखाय; पण ज्यारे ते सूर्यकांति मणिना खन्नावनो विचार करिये,त्यारे तो तेनी कांति जे उज्वल , तेज मनमां श्रावे, अने दीगमां तो नीचेनी बनावेली रंग नी पुरणीनी जलक पडे तेथीज तरेहवार रंग वरण देखाय बे, ते रीते जीव व्यनी अशुद्ध दशानुं निमित्त कारण पुजल अव्य , तेनी ममताथी मोहरूप मदिरान जन्म त्तपणुं श्रने ज्यारे जम चेतननीनेद ज्ञान दृष्टिवडे चेतननो स्वनाव साधिये, त्यारे साची शुद्ध चेतनाज नासे. अने अवाच के वचन गोचर नही, एवीरीतनी सुख शांति बे तेज नासे. ॥ २ ॥ हवे वस्तुना संयोगथी स्वनावमा नेद पडे, ते उपर दृष्टांत आपे : अथ संयोगिका खनाव वर्णनं:॥ सवैया श्कतीसाः॥-जैसे महिमंमलमें नदीको प्रवाह एक, ताहीमें अनेक नांति नीरकी ढरनि है; पाथरको जोर तहांधारकी मरोरि होति, कांकरिकी खानि तहां कागकी करनि है; पौनकी ऊकोर तहां चंचल तरंग उठे, नूमिकी निचानि तहां नौरकी परनि है तैसे एक श्रातमा अनंत रस पुदगल, मुहकी संयोगमें विनावकी जरनि है.॥७३॥ अर्थः- जेम पृथ्वी मंगल उपर नदीनो प्रवाह एकरूप बे, अने तेज नदीना प्रवा हमां पाणीनु व्हे अनेक तरेहनुं , जे ठेकाणे नदीना प्रवाहमां मोटा मोटा पथरा श्रावी अमेला होय त्यां धार मरडाईने पमे डे, श्रने ज्यां कांकरी घणी होय त्यां का गनी करनी के० फाग एटले पाणीना जरा जनकी उठे. अने ज्यां पवननी फकोर चालती होय त्यां चंचल तरंग उठेने, अने जे ठेकाणे जमीन नीची होय त्यां जोर पडेबे, वमल थायडे, तेम यात्मजव्य ,तेने पुजल अव्यनो संयोग डे अने रस जे लेते षट्रगुणी हानि वृद्धिश्रीअनंत , तेनो संयोग थये श्रात्माने विषे विनावनी जरणी थायले. हवे श्रात्मा अने शरीर एक मेक बंधाई रह्यां बे पण लक्षण नेदे जुदा जुदा बे. ते बतावे :- श्रथ श्रात्मशरीर लहन निन्न कथन:-- ॥ दोहराः॥-चेतन लखन थातमा, जम लबन तन जाल; तनकी ममता त्यागि के, लीजें चेतन चाल ॥ ४ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- आत्मानुं चेतन लक्षण जे. शरीरनुं जम लक्षण बे, तेथी शरीरनी ममता बोडीने चेतननुं शुरू झानपणुं तेनुं ग्रहण करी लेवु. ॥ ४ ॥ __ हवे निःकेवल श्रात्मानी शुरू चाल कहेजेः- श्रथ श्रात्मा यथाः॥ सवैया तेईसाः॥- जो जगकी करनी सब गनत, जो जग जानत जोवत जोई देह प्रमान पै देहसुँ दूसरो, देह अचेतन चेतन सोई, देह धरे प्रजु देहसु निन्न, रहे पर बन्न लखै नहि कोई, लगन वेदि विचबन बूऊत अबनिजों परतब न होई. ॥५॥ अर्थः-जे पदार्थ सर्व जगतनी करणी करेजे, एटले चतुर्गति गमन करेले, अने जे जगत्ने जाणे , श्रने जोवत के० देखेडे, प.नाना देख्ने प्रमाणे बे, पण देहथी ते जुदो बे. देह अचेतन पिंम जे अने श्रात्मा चेतनपिंम बे, देहधारी ,प्रनु बे, पण दे हथी जिन्न . देहनेविषे प्रबन्न के ढंकाई रह्यो बे, एने को लखतो नथी, पण एनां जे लक्षण ले तेने वेदी के जाणीने विचक्षण पुरुष एने उलखे. एवो ए थात्मा श्रद के इंडियथी प्रत्यद नथी. ॥ ५ ॥ ___ हवे देहनी चाली कहेजेः- श्रथ देह यथाः॥ सवैया तेईसाः॥-देह अचेतन प्रेत दरी रज रेत जरी मल खेतकी क्यारी; व्या धिकी पोट अराधिकी उंट उपाधिकी जोट समाधिसों न्यारी; रे जिय देह करे सुख हानि श्ते परि तोहि तु लागत प्यारी; देह तु तोहि तजेगि निदान पितूहि तजे क्यु न देह कि यारी ? ॥ ७६ ॥ अर्थः- देह अचेतन , प्रेत दरी के जमतारूप प्रेतनी गुफा . रज के लोहि, रेत के वीर्य ते थकी नरेलो बे, अने मलरूप खेतरनो क्यारो जे.व्याधित रोगनी पोट बे, श्राराध के श्रात्माने बुपावाने चेंट ने अने उपाधिनी जोट के मेलारूप जे. एने विषे असमाधिज रहे , समाधि रेहेती नथी. माटे अरे! जीव ! एदेह ते सुखनो नाश करे ने एवो , तोपण तने ए देह प्यारो लागे . अरे! जीव! तुं समझ के ए देह नि दान तनेज तजशे पण तुं ए देहनी यारीनो त्याग करतो नथी ? ॥ ६ ॥ ॥ दोहराः॥- सुनु प्रानी सद्गुरु कहै, देह खेहकी खानि; धरै सहज मुख दोष कों, करै मोडकी हानि.॥ ७ ॥ अर्थः-सद्गुरु कहे के अरे प्राणी! शांजलो. देह ते खेह के धुलनी खाण डे. एनो सहज स्वजाव वात, पित्त, कफ रूप सुःख दोषने धरनारो बे. अने मोदनी हानि करे बे. ॥ ७॥ हवे देहy वर्णन करे:-अथ देह वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः ॥- रेतकीसी गढी किधों मढी है मसान केसी अंदर अंधेरी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६७१ जैसी कंदरा है सैलकी; ऊपरकी चमक दमक पट नूखनकी, धोखे लागे नली जैसी कली है कनैलकी; औगुनकी ओंमी महा नोंमी मोहकी कनोंडी, मायाकी मसूरति है मूरतिदमैलकी; ऐसी देह याहि के सनेह याकी संगतिसों, व्है रही हमारीमति कोलू केसेबैलकी. ॥७॥ गैर गैर रकतके कुंम केसनिके कुंड हाडनिसों नरी जैसे थरी है चु रेलकी; थोरेसे धकाके लगे ऐसे फट जाइ मानो, कागदकी पुरी किधों चादर है चै लकी; सूचै ब्रम वानि गनि मूढ निसों पहिचानि, करै सुखहानि अरुखानि बदफैल की; ऐसी देह याहिके सनेह याकी संगतिसों, व्है रही हमारी मति कोलू केसे बैलकी. अर्थः- जाणे रेतीनी ढीग बांधी होय, के मसाणनी मढी एटले अपवित्र ठेकाणे हाम मांस, एक थर्बु कयुं होय, वली जेनी अंदर सैल के पहाडनी कंदर के गु फाजे अंधारुं बे, एवं अपवित्र देहरूप स्थान. ते उपरना नूषणना चमक दमकथी शोने बेधोखे के फूग जनकाथी देद जलो लागे .ते उपर दृष्टांत ने के, जेम कनेरनी कलि उपरथी सुंदर देखाय , पण तेमां अंदर बिलकुल सुवास होतो नथी; तेथी उचाटकारी लागे , तेमवतीदेह अवगुणनी जेरडी बे, महामुंडो बे, थने मोहनी कनोंडी के मोहनी काणी आंख बे, तेथी सूजतुं नथी, अने मायानी मसूरति के मायानो समुदायले; एवी मेलनी मूर्ति ए देह बे; एना स्नेहथी श्रने संगतथी श्रमारी मति शेलडीपीलवानुं कोल्हु तेना बलद सरखी बनी गई बे. ॥ ७ ॥ वली ए देखनेविषे ठेकाणे ठेकाणे लोहीनां कुडलां ने, ने अपवित्र केशनी ऊंगले. तेमां हाडकां नरेला बे. जेम चूडेल- व्यंतरीतुं स्थानक होय तेवो एदेह बे. थोमोधको लागवाथी ए देह फूटी जाय बे; जेम कागलनी पुडी अने जुनी मेली चादर ते टकोराथी फाटी जाय, तेम देह फाटी जाय बे; एवी ए देहनी ममताथी ब्रम वाणी के० मिथ्यावाणी सुचै के कहे, अने मूढलोक एनी पिलान राखे डे, श्रने ए देह सुखनी हानिकर्ता ने, अने बदफेलीनी खाण बे. एवा ए देहना स्नेह तथा एनी सोबत थकी श्रमारी बुद्धि शेलमी पीलवाना कोब्हाना बलदनी गति जेवी थई गई. __ हवे कोल्हुना बलदनी अवस्था अने तेनी बराबर संसारी जीवनी गति बे, एवं स्पष्ट करी बतावे जे; अथ कोल्हुका बैलकी अरु संसारी जीव समानरूप कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- पाटी बंधे लोचनसों संकुचै दबोचनिसों, कोचनिकोसोच सोनिवेदे खेद तनको;धाश्वोही धंधा अरु कंधा माहि लग्योजोत,वार वार बारस हैकाय र है मनको; नूखसहे प्यास सहे उर्जनको त्रास सहे, थिरता न गहेन उसास लहे दिनको; पराधीन घूमै जैसो कोदहुकोकमेरो बेल, तेसोश खन्नाव नैया जगवासी जनको. अर्थः- जेनी शांख उपर पाटी बांधी ,जे दबोच के पगथी वेलवं, तेथी संकोचा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. य बे, श्रने परोणानी थारना घोंच वागे , तेनी सोचनांथी शरीरने खंचवा दे नही, ने दोमतो फिरे, पोताना धंधामां धावतोज रहे, जे ने खांधेजोतर लाग्यु रहे बे,वारंवा र जेनेभारनो मार पडे जे, तेजे सहन कस्यां करे, अनेजे मननो कायर डे, नूखने पण वेठे बे, अने उर्जननो त्रासपण खमे , श्रने स्थिरता पकमतो नथी, क्षण वार पण सुखे मोडेथी श्वास लई शकतो नथी, एरीते पराधीन थको जेम कोल्हुनो कमेरो, के काम करनारो बलद घूमे, तेम जगत्वासी लोक घूमे ले. अर्थात् हे ! नाई!कोल्हुना बलद सरखो तेमनो पण वजाव . ॥ ७० ॥ हवे जगत्वासी जीवनी व्यवस्था कहे :- अथ जगत्वासी यथाः॥ सवैया इकतीसाः ॥- जगतमें डोले जगत्वासी नर रूप धरी,प्रेतकैसे दीप किधों रेत केसे धुहे है; दीसे पटखन आमंबरसों निके फिरे, फीके बिनमांही सांजीअंबर ज्यों सुहे है; मोह के श्रनल दगे मायाकी मनीसों पगे दानकी अनीसों लगे उसकेसे फुहे है, धरमकी बुफिनाहिं, रिके नरम माहि नाचि नाचि मरजाहि मरीकेसे चहे है. अर्थः- जगत्वासी जीव मनुष्यरूप धरीने मोली रह्या बे; ए केवा , जाणियें प्रे तना दीप बे, ते जेम जलदी मटी जाय , तेम ए पण समऊवा. वली रेतिना धूमा डा जेवा , तथा वस्त्र भूषणना आमंबरथी शोजायमान देखाय , अने दणेकमां फीका थई जाय बे, जेम सांऊ समयेथाकाशमांवादल रंग बदलेले, तेम जाणवा. वली मोहना अग्निथी दाजे , ने मायानी मनी के पोतापणुं तेथी पगे के व्यापी रह्या बे, जाणिये डाननी श्रणीउपर लागेला पाणीना बिंडु सरखा , गिरना बिंदु जेवा . धर्मनी उलखाण जेने नथी श्रने चमनेविषे जे अरुकी रह्या बे,जेम मरी उत्पादनां लं दरमां नाची नाची ने मरी जाय . तेम ए संसारी जीव नाचीने मरण पामे. ॥२॥ हवे जगत्वासीनी मोह व्यवस्था कहेजेः- श्रथ जगत् व्यवस्था कथनं:॥ सवैया इकतीसा:- जासों तुं कहत यह संपदा हमारी सोतो, साधनि अमारी ऐसे जैसे नाक सिनकी; जासों तुं कहत हम पुन्य जोग पाई सोतो, नरककी साई हैवडाई देढ दिनकी; धेरा मांहि पर्यो तू विचारै सुख थाखिन्दिको, माखिनके चूंटत मिगई जैसे जिनकी; एते परि होहि न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक दिनकी. ॥ २ ॥ अर्थः- अरे !प्राणी !जेने तुं कहे के था मारी संपत्ति , तेने तो साधु लोके नाकना मेलनी जेम नाखी दीधी, श्रने जे बमाईने तुं कहे के पुण्यना जोगथी हुँ पाम्यो बुं, ते तो नरकनी सहायी बे; जे राजादिकनी साहेबीवे. ते दोन दिवसनी जे. ए परिवारना घेरामां तुं पड्यो थको अांखनुं सुख समजे , पण Jain Education Interational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६८३ ते मिठाईनी ऊपर माखीनी पेठे टोलानो नानपाट थई रहे तेम परिवारनो घेरोटे, एवं तां जगवासी जीव उदास थतो नयी. वास्तविक रीते तो जगत्ने विषे सा ताज बे, एक क्षणमात्र पण साता नथी. ॥ ८२ ॥ ॥ दोहाः ॥ - यह जगवासी यह जगत्, इनसों तोहि न काज; तेरे घटमें जग वसै, तामें तेरो राज ॥ ८३ ॥ अर्थ :- ए जे पूर्वे खाण्या एवा जगत्वासी लोक बे, घने ए लोकोनो ज्यां वास बे, तेने जगत् जावं, ए साथ संबंध राखवानुं तारुं काम नथी, पण तारा घटनेविषे ज जगत्नो वास बे, घने ते जगत्मां तारुं राज्य बे ॥ ८३ ॥ पेढे: दवे जे पिं ते ब्रह्मांडे एवात साची बे, एवं सिद्ध करी पिंड ब्रह्मां वर्णनं: ॥ सवैया इकतीसाः॥ - यादी नर पिंक में विराजे त्रिभुवन थिति, याहि में त्रिविध परिणाम रूप सृष्टि है; याहि में करमकी उपाधि दुःख दावानल, याहि में समाधि सुख बारिकी वृष्टि है; यामें करतार करतुति याहिमे विभूति, यामें जोग याही में वियोग या घृष्टि है, या हिमें विलास सब गर्मित गुप्तरूप, ताहिकों प्रगट जाके अंतर सुदृष्टि है. अर्थः- मनुष्य पिंडने विषे कटीनी नीचे पाताल लोकबे, नानि ते तिर्यक् लोकबे, ते उपर उई लोकबे, एवी त्रिभुवननी स्थिति जाणवी, छाने एनेविषेज कईक परि णाम उपजे बे ने कईक नाश पामे बे, ने कईक स्थिर बे, एवी विविध सृष्टि बनी रही बे; ने एज पिंडमां श्रात्माने कर्मनी उपाधि वलगी बे, तेज दुःखकारी दावानल के० अमिनो समूह लाग्यो बे; अने एज पिंडमां कोईबारे समाधि सुख वेडे तेज वाद लनी वृष्टि जावी. ते दावानल उपर मेघनी वृष्टि बे, एज पिंडमां कर्मनो कर्ता पुरुष बे, एज पिंडमां कर्त्तानी क्रिया बे; ए पिंकमांज विनूति के० ज्ञानादिक संपत्ति बे, एज पिंगमां कर्मनो जोग ने कर्मनो वियोग बे ने एज पिंगमां श्रात्मानुं धृष्टके दलन जे शुभाशुभ गुणोमां घसनाई रहेवुं ते बे; ए रीते ए पिंगमां गर्जित के० मध्य नागमां गुप्तरूपे सर्व विलास बे. पण जेना अंतर्मा सुदृष्टिनो प्रकाश बे, तेने सर्व विलास प्रत्यक्षपणे जपाय बे ॥ ८४ ॥ हवे ए वानो उपदेश गुरु कहे बे:- अथ गुरूपदेश कथनं: ॥ सवैया तेईसाः॥ - रे रुचिवंत पचारि क है गुरु, तुं छापनो पद बूजत नांही; खोज दिये निज चेतन लबन, है निजमें निज गुरुत नांही; सिद्ध सुबंद सदा प्रति उऊल मायाके फंद रूजत नांही; तोर सरूप न डुंदकि दोहिमें तो हिमं है तुहि सूक्त नांही ॥ ८५ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. । श्रर्थः-पचारी के० बोलावीने गुरु कहे , के रे ! रुचिवंत तुं पोतानुं पद के स्थान तेने जाणतो नथी. पोतानुं चेतन लक्षण हश्यामां खोज. ए पोतानुं लक्षण पोताने विषे जे ते गुऊत के गुप्त नथी; तारूं स्वरूप सिक समान , स्वबंद के निज श्रा धीन , सदा अति निर्मल बे, पण मायानी जालना फंदमां पमयुं बे, तेमांधी बूटी शकतुं नथी; तारूं स्वरूप हंछनेविषे नथी एटले जम जालनी विविध दशामां नथी. तारामाज बे; पण तने सूजतुं नथी. ॥ ५॥ हवे ज्ञानना प्रकाश वडे ईश्वरताने पमाय ते समजावे : अथ ज्ञान महात्म्य कथनं:॥ सवैया तेईसाः॥-केश उदास रहै प्रजु कारन, केश कहीं नगि जाहि कहींके; केश प्रनाम करै गढि मूरति, केश पहार चढे चढि बीके केश कहे असमान के ऊपरि,केश कहे प्रनु हेछि जमीके;मेरो धनी नहिरदिशांतर मोमहि है मुदि सूजतनीके॥६॥ __ अर्थः- कोई पोताना परमेश्वरने उलखवाने उदासी थई बेसी रहे , कोई कई देत्रने विषे जतो रहे बे, कोई परमेश्वरनी घमेली मूर्तिने प्रणाम करे बे, कोई परमे श्वरने पामवाबीकामां बेसी पर्वत उपर चढे डे,कोई परमेश्वरने आस्मान उपर ले एवं कहे बे, कोई कहे जे के परमेश्वर जमीननी नीचे डे, (ए कुरानवालानी श्रद्धा ); पण ए विषे मारो निश्चय तो ए डे के मारो धणी तो कांश र देश नथी; पण माराविषेज बे. एम अनुजवथी मने सारं मालम पडे बे.॥ ६ ॥ ॥ दोहराः॥- कहै सुगुरु जो समकिती, परम उदासी हो; सुथिर चित्त अनुनौ करै, यह पद परसै सोश॥ ७ ॥ अर्थः- सद्गुरु कहे जे केजे समकिती होय ते परम उदासी रूप थर चित्तने स्थिर राखीने निज श्रनुनव श्रन्यासथी पोताना पदने पामे. ॥७॥ हवे मननी चंचलता दर्शावी तेने स्थिर केम राख ते उपदेशे बे: अथ मन स्वरूप कथनं:॥ सवैया इकतीसाः॥- बिनमें प्रवीन बिनहीमें मायासों मलीन, बिनकमें दीन दिन मांहि जेसो शक है; लिये दोरधूप बिन बिनमें अनंतरूप कोलाहल गनत मथानको सो तक है; नट कोसो थार किधों हार है रहट कोसो नदी कोसो नौर कि कुंजार कोसो चक्र है; ऐसो मन नामक सुथिर श्राजु केसो हो, उरहिको चंचल अनादि हीको वक्र है. ॥ ७ ॥ धायो सदा काल पै न पायो कहू साचो सुख रूपसों विमुख मुख कूपवास वसा है; धरमको घाती अधरमको संघाती महा, कुराफाती जाकी सं निपातीकीसी दसा है; मायाको ऊपटि गहै, कायासों लपटि रहै, चूल्यो भ्रम नीरमें Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६८५ बहीरकोसो ससा है; ऐसो मन चंचल पताका कोसो अंचल सु ज्ञानके जगेसें निर वान पथ धसा है ॥ ८ ॥ अर्थः- श्र मन क्षणमां प्रवीण थायडे, क्षणमां मायाने विषे मलीन थायबे, दण मां दीन दशा धरेबे, क्षणमां शक्र के इंद्र जेवुं बनेबे, क्षणमां दोम धाम करेबे, द मां अनंतरूप धरे बे, जेम दद्दीने वलोवतां कोलाहल थायडे, तेवो कोलाहल ए मन करे. वली नट जे नाचनार घुमे तेवो, के रट्टनी माला घुमे तेवो, के नदीनो वम ल घुमेढे तेवो, अथवा कुंनारनुं चक्र फरेबे तेवो सदाकाल मननो नामक स्वाव े. एवं ए मन याज केम स्थिर थाय ? जाते चंचल ने अनादिकालथी वाकुं चालनारुं मन बे. वली केवुं बे ? ॥ ८८ ॥ हमेशा दोडतुं फरेबे, पण एने किहांय साधुं सुख प्राप्त यतुं नथी, पोताना समाधिसुखथी विमुख ययुंबे छाने दुःखरूप कूप वास मां वस्युं बे, वली ए मन धर्मनुं घाती बे, अने धर्मनुं संघाती वे, एवं महा कुरा फाती बे, ए मननी दशा तो जेम कोई पुरुषने सन्निपात थयो होय तेना सरखी बे. द्रोह तथा वंचनाने ऊट यही लिये ने कायाना मोहश्री मग्न रहे, ने जम जालमां पकी ब्युंज फरे. जेम कटकनी जीममां ससलुं श्रावी पदे ने जमतुं फरे, तेवुं मन a. ने पताका के० ध्वजा तेना अंचल के० बेमानी पेठे जाणवुं. ते ज्यारे ज्ञान प्रगटे त्यारे निरवाण के मोह मार्ग तेने विषे गमन करे एवं बे ॥ ८‍ ॥ ॥ दोहराः ॥ - जो मन विषय कषायमें, वरते चंचल सोइ; जो मन ध्यान विचार रुके सुविचल होइ ॥ ए० ॥ ताते विषय कषायसों, फेरि सु मनकी वानि; तम अनुजौ विषे, कीजे अविचल यानि १ ॥ अर्थः- जो मन विषय कषायरूप राग द्वेषमां वर्त्ते तो चंचल जाणवुं श्रने जो ए मन राग द्वेष बांडो ध्यान विचारथी रोक्युं रहे तो अविचल जाणवुं ॥ ० ॥ माटे विषय कषायमां मननी लागणी बे तेने काढी निज शुद्धात्मना अनुजवमां लगामीने मनने अविचल करियें ॥ ५१ ॥ वे मन स्थिर करवाने श्रात्मानो विचार करवो ते कड़े :arr विचार शिक्षा कथनंः ॥ सवैया इकतीसा ॥ - श्रलख मूरति रूपी अविनासी अज, निराधार निगम निरंजन निरंध है; नानारूप जेष धरे द्वेषको न लेस धरे, चेतन प्रदेस धरे चेतनाको बंध है मोह धरे मोहीसो विराजे तोमें तोही सो, न तोहिसो न मोदीसो नि रागी निरबंध है; ऐसो चिदानंद याही घटमैं निकट तेरे, ताही तुं विचार मन और सर्व धंध है. ॥ २ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- ए श्रात्मा श्रलद , श्रमूर्ति , अरूपी बे, अविनाशी. श्रज के ज न्म्यो नही एवो बे, अने जेने कोईनो श्राधार नही, ज्ञानरूपी बे, तथा रंगविनानो ने विष विनानो बे. व्यवहारमा जोईये तो नाना प्रकारना वेष धरनारो बे, निश्चय मांजोईये तो वेषनो वेशधरे नही मात्र चेतनाए प्रदेशनुं धारण करनारो बे, अने चेतना नो पंध के पुंजरूप , ए उपदेश मनने बाह्यात्मानो जे. ते मनने कहे जे के, ए चिदानं द जेतेराजा ने थामिनो मोह धरे ,श्रने हे! मन ! ए चिदानंद तारामां ताराजेवो विराजे , पण निश्चयनयथकी तारा ने माराविषे एने मोह नथी, एवो निरागी नि बंध बे, एवो जे चिदानंद नगवान बे, ते अरे मन जे घटमांहे ज्यां तुं वसे तेज घटमां ते पण वसे माटे ते ईश्वरनोज विचार तुं कर, बीजो विचार सर्व इंछ रूपले. हवे ए चिदानंदनो जे रीते शुद्धानुजव थाय, ते रीते मनने उपदेश करे: अथ शुधानुनव शिदा कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-प्रथम सु दृष्टिसों सरीररूप कीजे जिन्न; तामै और सूबम शरीर जिन्न मानियें; अष्ट कर्मनावकी उपाधि सोई किजे निन्न, ताहमें सुबुद्धिको वि लास निन्न जानिये; तामें प्रनु चेतन विराजित अखंगरूप, वहे श्रुत ज्ञान के प्रवान ठीक श्रानिये: वाहिको विचार करि वाहिमें मगन हुजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी विधि गनिये. ॥ ए३॥ __ अर्थः- प्रथम सम्यग् दृष्टिवडे शरीररूप बाह्यात्मा जिन्न राखवो, ते बाह्यात्माने विषे बीजुं सूक्ष्म शरीर कर्म संबंधी अंतरात्मा ने ते पण जिन्न जाणवो, ते अंतरात्मा थी परमात्माना ज्ञान दर्शननुं थाछादन थायडे, एवं श्रष्ट प्रकारचें कर्म तेना नावनी उपाधि ते पण जिन्न जाणवी थने ते अंतरात्मानेविषे सुबुझिनो विलास जे नेद ज्ञा नादिक ते पण निन्न जाणीये, थने ते सुबुषि विलासमां चेतनरूपी प्रजु जे जे तेथ खेमरूपे विराजे , अने ते चेतन श्रुत ज्ञानना प्रमाणयी हृदयमां सारी पठे ठरावि ये, ए रीते हे ! मन ! तुं तेनाज विचारमा मग्न रेहेजे, ने ते चेतन, पद साधवाने एटले मोद मार्ग ग्रहवाने एज विधि युक्त ने एम जाणजे. ॥ ए३॥ हवे ज्ञाता जीव, खरूप वर्णवे :- श्रथ ज्ञानी जीव कथन:॥ चोपाईः॥-इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने; रागादिक निजरूप न माने; तातें ज्ञानवंत जगमांही, करम बंधको करता नाही. ॥ ए॥ अर्थः- ए रीते वस्तुनी व्यवस्था जाणे अने राग द्वेषादिक जे नाव , तेने पोता नुं रूप न माने, तेणे करीने ज्ञानवंतने जगत्मां कर्म बंधनो कर्त्ता कह्यो नथी. पाठ कर्म तेने बंध करी शकतां नथी. ॥ ए४ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ឌុចS हवे ज्ञातानी क्रिया कहे :- थथ झाताकी क्रिया कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥- ज्ञानी नेद झानसों विलेडि पुदगल कर्म, श्रातमाके धर्म सों निरालो करि मानतो; ताको मूल कारन अशुद्ध राग नाव ताके, नासिवेको शुद्ध अनुनौ अन्यास गनतो; याही अनुक्रम पररूप निन्न बंध त्यागि, श्रापुमांदि अपनो सुनाउ गहि थानतो; साधि शिवचाल निरबंध होतु तिहू काल, केवल विलोक पाई लोकालोक जानतो. ॥ ५॥ अर्थः- ज्ञाता होय ते नेद ज्ञानव पौद्गलिक कर्मनुं विलक्षण केम करे ते कहे . श्रामिक धर्मथी पौदगलिक धर्मने जूदो करी जाणे, एम विलक्षण करे, अने ते पु दगल धर्मनुं मूल कारण अशुद्ध रागद्वेषादिक नाव , तेनो नाश करवाने शुद्ध श्र नुजव अन्यास जे रीते पूर्वे कह्यो ते प्रमाणे अवस्था देखी श्रन्यास राखे. ए रीते अनुक्रमे प्रथम सुदृष्टिथी शरीररूप निन्न करवू, ए अनुक्रमें पूर्व संबंधथी अनादि कर्म बंधने त्यागीने पोताने विषे पोतानोज ज्ञानादिक खन्नाव ग्रहण करे, एम शिव पदनी साधना करीने त्रणे काल निबंध थाय, तेवो थई केवल ज्ञान पामीने लोकालोकने जाणनार थाय. हवे सम्यक्त्व धारीनु पराक्रम कही बतावे बेः- श्रथ सम्यक्त्वधारी वैनव वर्णन: ॥ सवैया इकतीसाः॥- जैसे कोउ हिंसक अजान महा बलवान, खोदि मूल विर ख उखारे गहि बाहसों; तसे मतिमान दर्वकर्म नावकर्म त्यागि, है रहै अतीतमति झानकी दसाहुसों; याहि क्रिया अनुसार मिटे मोह अंधकार, जगे ज्योति केवल प्र धान सवि ताहुसों; चुके न सकतिसों बुके न पुदगलमांहि, ढुके मोषथलकों रुके न फिरि काहुसों. ॥ ए६॥ अर्थः- जेम हिंसक पुरुष जील प्रमुख जे हिंसानां फलथी अजाण , अने महा बलवान , ते वृदना मूलने खोदीने पठी पोताना जुजाना बले करी तेने उखेडी नाखे बे, तेम मतिमान के सम्यक्त्वी पंडित जे , ते पुद्गल स्वरूपी अव्य कर्मने अने झा नावरणीय, दर्शनावरणीय इत्यादि श्राप नाव कर्मने त्यागीने ज्ञान दशावडे अतीत के० कर्मरहित थई रह्यो , श्रने क्षण दणमा ए क्रियाना अनुसारे मोह अंधकारने म टावे , अने तेथी केवल ज्ञाननी ज्योति उदय थाय, ते ज्योति मतिज्ञान प्रमुख सर्व ज्ञानोमां प्रधान बे, थने एथी अनंत वीर्य प्रगटे, ने फिरि ए शक्तीते चुके नही अने मोक्ष स्थानने जई ढुके, अने कोईथी रोकाय नही. ॥ ए६ ॥ ॥इतिश्री समयसार नाटकविणे बंध घार बालबोध रूपअष्टम समाप्तः॥ ॥ दोहराः॥-बंध घार पूरन गयो, जो सुःख दोष निदान; अब बरनों संपसों मोद धार सुखखान ॥ ए॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर जाग पड़ेलो. अर्थः- दुःखने दोषनुं निदान जे बंध तेनो द्वार संपूर्ण थयो. दवे सुखनुं स्थान जे मोद तेनो द्वार संदेपथी वरणयुं बुं. ॥ १ ॥ हवे मोक्ष द्वारने श्रादि ज्ञान विलासने नमस्कार करे बे:-थ ज्ञान विलास वर्णनंः ६८० ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - नेद ज्ञान रासों डुफारा करै ज्ञानी जीव, खतम करम धारा जिन्न जिन्न चरचै अनौ अन्यास लहै परम धरम गहै, करम जरमको ख जानो खोलि खरचै; यही मोखमुख धावै केवल निकट यावे, पूरन समाधि लहै पू रनके परचै; यो निरदोर याहि करनो न कटु और ऐसो विश्वनाथ ताहि बना रसी चै ॥ ए८ ॥ अर्थः- जेम कोई परीक्षानो करनार पुरुष मुद्रा प्रमुख द्रव्यने सुलाकनी श्रारवडे दी सुधातु बे, के कुधातु बे, तेनो निश्चय करे बे, तेम ज्ञानी जीव बे, ते नेद ज्ञान रूपी र वडे श्रात्मा तथा कर्म ए बेउने जुदा करे बे, अने ते बेउने जुदा जुदा चरचे के० तेमां यात्मिक धाराने विषे तो अनुजवनो अभ्यास धारण करे, तेथी परम धर्म के शुद्ध समाधि तेनुं ग्रहण करे; अने कर्मजालने जुदी जाणी बे, तेने सत्ता कर्मरूप खजानो खोलि खरचे के० विखेरी नाखे, तिहां निर्जरा थाय, एवी रूपक श्रेणिने लीधे मोहना सुखने धाय, त्यां केवल ज्ञान दुकको आवे, अने पूर्ण म स्वरूपना परिचय थकी पूर्ण समाधि पाने, पढी जव भ्रमणनी दोर बांडीने निर्दोर थाय. ते पढी तेने कई बीजुंकृत्य करवानुं बाकी रहे नहीं; ने तेथी ते विश्वनो ना थयो, तेने बनारसी दास पूजे बे ॥ ए८ ॥ मा हवे सुबुद्धि विलास वडे आत्मस्वरूप सधाय ते अधिकार कहे :- नी सुबुद्धि विलास वर्णनंः ì ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - काहु एक जैनी सावधान व्है परम पैनी, ऐसी बुद्धि बै घटमांहि डारि दीनी है; पैठी नौ करम जेदि दरब करम बेदि, सुनाउ विजाज ता की संधि सोधि लीनी है; तहां मध्य पाती होइ लखी तिन्दि धारा दो, एक मुधा मई एक सुधारस जीनी है; मुधासों विरचि सुधा सिंधू में मगन नई, ए ती सब कि या एक समै वीच कीनी है ॥ एए ॥ ॥ दोहराः ॥ - जैसी बैनी लोदकी, करै एक सों दोइ; जड चेतनकी निन्नता, त्यों सुबुद्धिसों होइ ॥ ३०० ॥ अर्थः- कोई एक जैनी जैन श्रागमना जाणनारे सावधान थईने परमपैनी के० ति तीक्ष्ण एवी बुद्धिरूप बैनी के० सोनीनी बीपी ते शस्त्र विशेष, पोताना घटमां नाखी दीदी, पढी ते सुबुद्धिरूप बीनी नौ कर्म के आत्म प्रदेशने विषे श्लेष्म रूप जे राग द्वेष परिणाम बे, ते नौ कर्मना नेद तेना पुफलरूपी द्रव्य कर्मने बेदीने स्व זה Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६नए जाव अने विनावतानी संधी शोधि लीधी बे, त्यां सांधनेविषे मध्यपाती के० विहा ईत बनीने ते पुरुष बे धारा लखी, तेमां एक तो मुधाम के श्रज्ञान मय ने, ने बी जी सुधारस नीनी के अमृत रस नीनी ज्ञान समाधिमय बे, बहीं राग द्वेषादिकनी दशा बे, ते मुधा दशा बे, तेथी विरचि के० वैराग धारीने सुधा सिंधुमां मग्न थएँ, ज्ञान समाधिरूप सुधा समुजमां मग्न रेहेवं, ए जे क्रिया कही ते सर्व क्रियानो विचार एक समयमां करे ॥ एए॥ जेम लोढानी बीणी एकना बे नाग करे बे, तेम जड चे तननी एकता नांगीने निन्नता करवी ते सुबुकिथकीज थाय बे ॥३०॥ हवे जेवो सुबुछिनो विलास , तेवो कहे जेः- श्रथ सुबुद्धि विलास कथन: ॥सवैया इकतीसाः॥-(सर्व ढस्वादर चित्रालंकार) धरति धरम फलहरति क रम मल, मन वच तन बल करत समरपन; नखति असन सित चखति रसन रित, लखति श्रमित वित करि चित दरपन; कहति मरम धुर ददति नरमपुर, गहति प रम गुर उर उपसरपन; रहति जगत हति लहति जगति रति, चहति श्रगति गति यह मति परपन ॥१॥ अर्थः-सुबुकि जे जे ते धरम रूप फलने धारेने, कर्मरूप मलने हरे, अने ए क्रियाने विषे मनबल, वचनवल अने कायानुं बल तेने समर्पण करे एटले ए त्रणे बल ते क्रियामां कामे लगाडे. जखति के खाय बे, सित के० शीतल नोजन ते रसन ज के जीनना स्वादविना नोजन जमे, अमित वितके परिमाण विनानुं पो झानादिक धन चित्तरूप दर्पण वडे जुए, मर्म धुर के मर्मनी वात जे जीवनुं नाप ते कहे, भ्रम पुर के० मिथ्या नगर तेने बाले, अने अंतर्ने विषे उत्कृष्ट गुरुनां नने ग्रहण करे, अने हृदयने विषे उपसरपन के० स्थिरता धारे श्रने जगतनो हि नकारी थको रहे, त्रणे लोकनी नक्ति श्रने रति के सुख तेने लहे, एटले सर्व लो कने प्रजनीक थाय. होई श्रगति गति के जेनेविषे बीजा सामान्यनी गति थती नथी, तेवी मोदगति चाहे, एवो सुमतिनो उत्कृष्ट विलास जे. ॥१॥ हवे ज्ञातानो विलास कहे बेः- श्रथ ज्ञाता वर्णन:॥सवैया इकतीसाः॥-(सर्व गुरु थदर चित्रालंकार) रानाकोसो बाना लीने थापा साधे थाना चीने, दाना अंगी नानारंगी खाना जंगी जोधा है; माया वेली जेती तेती रेतेमें धारेती सेती, फंदाहीको कंदा खोदे खेतीकोसो लोधा है; बाधा सेती दांता लोरे राधासेती तांता जोरे, बांदी सेती नांता तोरै चांदी कोसो सोधा है; जानै जाही ताही नीके माने राही पाही पीके, गनै बाते माही ऐसो धारा वाही बोधा है. ॥२॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- जे बुध के ज्ञानी बे, ते राणा के राजा जे पातसाहन खांग खेतो थको रहे जे. जेम राजा पोताना यात्मानुं साधन करे; अने पोताना मंगलनो साज राखेपोताना थाणाने चीन्हे के नीचेबानी राखे, दाना राखे पण नादानी नदी राखे, ए चारे उपाय वडे नाना रंग करे, खाना जंगी के० लमाईनेविषे जोका थई रहे, तेम ज्ञानी पुरुष आत्म साधन करे, गुणगणा चिन्हे अने त्यागी थको कर्म निर्जराने विषे नाना प्रकारना रंग धारे, राग-द्वेष उर्जन साये लमी तेने हटावी देय, एवी रीते एक पदमां बे अर्थ थाय जे. जेम खुदार रेतरमीवमे लोढाने घसी नाखे बे, तेम जेटली जे टली माया वेली के० कर्मजाल तथा गजवेल ने क्रोध तेने मेधा के० सुबुद्धि ते रूप रेतरमी वडे घसी नाखे; श्रने फंदना कंदने खोदे. जेम लोधा के खेत खेतरनी ध रतीने कंद के मूलथी खोदी नाखे बे, तेम बाधा के० कर्मबंध तेथी हातालोरे के जुदाई करे, अने राधा के सुबुद्धि ते साथे नातो जोडे; बांदी के कुबुद्धि तेनो नांतो के संबंध ते तोडे. जेम सोनारूपानी चांदी शोधनार वस्तु उज्वल करेले, तेम जे जेने तेने जाणे, हेय जे गंडवा योग्य वस्तु अने उपादेय जे आदरवो योग्य वस्तु तेने पण नीके के ठीक जाणे, पण हैयाने राहीपाही के फुल समान पीकसमान जाणे जीनासथी खीलावेजे, ए रीते माही वातो ठरावे एवो सम्यक्त्व धारानो वेहेनार बोधा के० पंडितने ज्ञानी कहीये. ॥२॥ हवे ज्ञाताने चक्रवर्ति समान कही बतावेजेः- श्रथ ज्ञाता चक्रवर्ति समान कथन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- जिन्हिके दरव मिति साधत उ खंड थिति, विनसै विना व अरिपंकति पतन है; जिन्डिके जगतिको विधान पश्नो निधान त्रिगुनके नेदमान चौदह रतन है; जिन्दिके सुबुझि रानी चूरि महा मोह वज, पूरे मंगलीक जे जे मो खके जतन है; जिन्दिके प्रमान अंग जोहै चमू चतुरंग,तेई चक्रवर्ति तनुधरै पैतन है. ___ अर्थः- जेणे बए अव्य प्रमाण करी साध्या तेज जाणे बये खंड साधी लीधा अने जेना राग केषादि विनावदिशा वणस जाए तेज जाणिये शत्रुनी पंक्तिनुं पतन के नाश थयो, अने तेने नव प्रकारनी नक्तिनुं विधान के० करवं तेज तेने नव निधान बे, ज्ञान दर्शनने चारित्ररूप जे त्रण गुण , अने तेना क्षयोपशम माफक जे नेद उपजे, ते जेना चौद रतन प्रगटमान बे,अने जेम चक्रवर्तिने स्त्रीरत्न होय , ते तेनो उ खंड साधवानो राज्याभिषेक समय होय त्यारे वजरत्न हाथवडे चूरीने, मुख पागल मंगलीक पूरे तेम जेने सुबुधिरूप स्त्री रत्न ,ते महा मोहरूप वलिने चूरीने मोदन जतनने माटे मंगलीक पूरे डे, एटले मंगल कार्य करे; अने जे, प्रत्यक्ष प्रमाए. करीने अर्थनुं ग्रहण करे, तथा परोक्ष प्रमाणे करीने पण श्रर्थनेग्रहे, एवा जेना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ श्रीसमयसारनाटक. प्रमाणरूप अंग , तेज तेनी चतुरंगी सेना थई एम जाणवू. ए रीते ज्ञाता पुरुषे च क्रवर्त्तिनो देह धार्यों बे, तेम बतां पण ज्ञाता अतनके अशरीरीजेवो बे. ॥३॥ पूर्वे कही जे नवधा नक्ति तेनुं हवे वर्णन करेजेः- श्रथ नवधा नक्ति वर्णन: ॥दोहाः॥-श्रवन कीरतन चितवन, सेवन वंदन ध्यान; लघुता समता एकता, नौधा जक्ति प्रमान. ॥४॥ अर्थः- उपादेय स्वरूपने शांजलवं, किरतन करवू, चितवन कर, सेवा पूजा कर वी, वंदन स्तुति करवी, ध्यान धरवं, तन्मयता करवी, समाधि करवी, श्रने एकमेक पणुं, ए नौधा के नव नेदवडे नक्ति प्रमाण थायजे. ॥४॥ हवे जे ज्ञाता मोद सन्मुख थयो तेनी अनुनव दशा कहे : अथ अनुजवी वचनं:॥ सवैया श्कतीसाः॥- कोई अनुनवी जीव कहै मेरे अनुनौमें, ललन विनेद निन्न करमको जाल है; जाने श्राप श्रापुकों जु थापु करी थापुविषे, उतपति नासध्रुव बारा असराल है। सारे विकलप मोसों न्यारे सरवथा मेरो निहचै सुनाउ यह विवहार चाल है; मैं तो शुद्ध चेतन अनंत चिन मुजा धारी, प्रजुता हमारी एक रूप तिहू काल है. अर्थः-जे श्रात्मानो अनुभव पाम्यो तेज श्रनुजवी जीव एवू कहे डे, के मारा थ नुनवमां लक्षण नेदथकी कर्म जाल हवे निन्न दीसवा लागी. अने श्रात्माज कर्त्ता कारक, आत्माज करण कारक, थात्माज अाधार कारकविषे श्रात्माज कर्म कारकने जाणे. अने श्रहीं कोई पर्यायनी उत्पत्ति श्रने नाश , अने अव्य ध्रुवता पणे बे, ए त्रणे धारा अहीं असराल पणे वही रही डे, तोपण ए त्रणे धारा विकल्परूप , अने. माराथी तो सर्व विकल्प सर्वथा जुदाज बे, विकल्पमां तो कहीं निश्चय नथी. श्रने मारो तो चेतना स्वरूप निश्चय स्वजाव ,अने श्रागल कही जे त्रण धारा तेतो व्यव हार नयनी चालमां बे. या जे सिद्धांत वचन कहुँ नु तेणे करीने हुँतो शुरू चेतना स्वरूपी ढुं, अनंत चिन्मुडा धारी के अनंत ज्ञाननो धरवावालो ढुं, एहवी महारी प्रजुता त्रणे कालने विषे एक रूपे. ॥५॥ हवे चेतनाज स्वरूप बतावे ः-अथ चेतना वर्णन:॥सवैया इकतीसाः॥- निराकार चेतना कहावे दरसन गुन साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण सार है; चेतना अद्वैत दोउ चेतन दरवतांहि, सामान विशेष सत्ताहीको विसतारहै; कोउ कहै चेतना चिनद नाही आत्मामें, चेतनाके नास होत त्रिविध वि कार है; लबनको नास सत्ता नास मूल वस्तु नास, तातें जीव दरवको चेतना श्रा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ एश् प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. धार है ॥ ६ ॥ ॥ दोहराः ॥ - चेतन लबन श्रातमा, श्रतम सत्ता मांहि; सत्ता प रिमित वस्तु है, नेद तिहूमें नांहि ॥ ७ ॥ अर्थः- श्रात्मानो दर्शन गुण जे निराकार कही ये बइये तेतो निराकार चेतना थई, जे श्रात्माने शुद्ध ज्ञान गुण सारभूत कही ये बइये तेतो साकार चेतना थई, विशेषताने बीधे रह्यो बे माटे साकार कहिये, ए रीते निराकार याने साकारपणे दर्शन तथा ज्ञानने विषे द्वैत जाव थयो, पण चेतनाने विषे तो अद्वैत नावज रह्यो बे, ने चेतनागुण थकी चेतन द्रव्य बे, तेथी चेतन द्रव्यमां बेड समाइ गयां. वली निराकार ने साकारपणुं सामान्य ने विशेषपणाथकी बे, ते तो सामान्यता ने वि शेषता चेतना द्रव्यनी सत्तानो विस्तार बे; कोई मूढमति वैशिषिक प्रमुख दर्शन चालाक बे, के, श्रात्माने विषे चेतन चिन्ह नथी, चेतना लक्षण नथी, तेने केहेतुं के रे! मूढ, ! जो चेतन चिन्ह न कहिये तो चेतनानो नाश श्रवाथी त्रिविध विकार उ पजशे, ते कया ? तो के मन वचन ने कायाना विकार जाणवा, माटे लक्षणनो नाश थ वाथी वस्तुनी सत्तानो नाश यशे अने वस्तुनी सत्तानो नाश थवाथी मूल रूप वस्तु नो पण नाश यशे, माटे जीवने जाणवानो तो एक आधार चेतनानोज बे ॥ ६ ॥ श्रात्मानं चेतना लक्षण बे, सत्ता धर्मविना आत्मा वरे नही तेथी आत्मा सत्ताने वि जबे, ने पोतपोतानी सत्ता प्रमाणेज सर्व वस्तु बे, वस्तु द्रव्य विचारी जोइये त्यारे उत्पादादि त्रणे वस्तुमां नेद कोई नयी ॥ ७ ॥ दवे चेतना लक्षणनुं शाश्वत तथा अविनाशीपणुं दृड करावेढेःअथ चेतना अविनाशी यह कथनं: ॥ सवैया तेईसाः ॥ - ज्यों कलधौत सुनारकि संगति, भूषन नांड कहै सब कोई; कंचनता न मिटी तिहिं हेतु वहै फिरि टि तु कंचन होई, त्यों यह जीव जीव संयोग यो बहु रूप जयो नदि दोई, चेतनता न गई कबहू तिहिं, कारन ब्रह्म क दावत सोई. ॥ ८ ॥ देखु सखी यह आपु विराजत याकि दसा सव यादिकुँ सोहै; एक मेँ एक नेक अनेक में, द्वंद्व लिये दुविधामहि दो है; यापु सँजारि लखै श्र पनो पद, श्रपु विसारकें श्रापुदि मोहै; व्यापक रूप यहै घट अंतर, ज्ञान मेँ कौन ज्ञानुमेँ को ! ॥ ए ॥ ज्यों नट एक धरै बहु जेष कला प्रगटै जग कौतुक देखै; लखै अपनी करतूत व नट जिन्न विलोकत पेखै; त्यों घटमें नट चेतन राज विजाउ दसा धरि रूप विसेखै; खोलि सुदृष्टि लखै अपनो पद, डुंद विचार दसा नदि लेखे. ॥ १० ॥ अर्थः- जे कलधौत के० सोनुं तेने सोनी घमीने भूषण बनावेढे, त्यारे ते घाटना Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६ए३ संयोगयी लोको तेने नूषण केहेवा लागे. पण मूल वस्तुजे कंचन ते काई जतुं रद्यु नथी, केमके, ज्यारे ते घाटने अग्निमां गाली नाखे त्यारे पाटुं ते सोनु केहेवाय, तेम श्रा जीव जे डे, ते अजीवरूप कर्म पुद्गल इत्यादिक बीजा पण पुजलना संयोगथी एक कोमी साडी संतागुं लाख कुल कोमीमां बहुरूपे थयो, तोपण विविध नथी थयो। केमके, चेतनता कई गई नथी; तेमाटे ते खरूपमा जीव ब्रह्मज केहेवाय बे, जेनो वि स्तार मोटो तेने ब्रह्म कहीये. ॥७॥ आत्मानी अनुभूति ते सुबुझि सखीनेकहेबे, हे सखी, जो श्रा श्रापणो ईश्वर विराजे , अने ए ईश्वरनी दशा सर्व एनेज शोने, एवी विरुष्ता बीजे ठेकाणे न शोने. लदाणवडे एकतामा जोईये तो एक रूप , श्रने अपर सत्ताए देखीये तो अनेकरूप , अने इंछ दशामां देखीये एटले श्र झान दशामां देखीये अने ज्ञान दशामां देखीये तो विविध रूप बे, ते विविधपणुं कहेजेः- क्यारेक तो पोतानुं पद जे पोतानुं स्वरूप तेने संजारीने जुए, अने क्यारेक तो पोताने विसरीने पोते मोदमां पडे. हे सखी, ए हिज ईश्वर घटने अंतयापक रूप बे, तेथी जे जे अवस्थामां बाप बे, तेवारे ज्ञाननेविषे पण बीजो कोश् नथी अने श्र झाननेविषे पण बीजो को नथी.॥ ए॥ इवे एना उपर दृष्टांत कहेजेः- जेम कोई नट होय ते बहु वेष धरे, ने तेते वेषनी कला प्रगट करेजे, त्यारे जगत् तेने कुतु हल समजे पण नट पोते पोतानी किया जाणे, ने तेणे धरेला वेषथी पोते जुदोडे, एवं जाणे. तेम घटनेविषे चेतन राजा रूप नट बे, ते विनाव दशा धरीने रूप वि शेष करे, पण ज्यारे सुदृष्टि खोली जुए त्यारे तो पोतानुं पद उलखे अने इंछ वि चारनी दशाने पोते लेखामां गणे नही. ॥ १० ॥ हवे चेतन नटनी सघली चेतना एक बे, ते कडे:- श्रथ चेतना उपादेय कथन: ॥श्रमिल बंदः॥- जाके चेतननाव चिदातम सोश है; और जाव जो धरे सु औरे कोश है। यों चिनमंमित नाव, जपादे जानते; त्याग जोग परनाव पराये मानते ॥१९॥ थर्थः- जेनेविषे चेतन नाव , तेने चिदात्मा अथवा चिबूप कहिये , श्रने ए चेतनाजावथी बीजो जाव जे धारे, तेतो कोई बीजो डे, एथी चेतना मंडित जे नाव ने तेतो उपादेय रूप जाणवो, अर्थात् पोतानो करी जाणवो, श्रने चेतना जावधी जे परजाव , तेसघलो त्यागवा योग्य बे ने तेने पारको करी मानी लेवो.॥ ११॥ हवे जे सम्यग् दृष्टि चेतना उपादेय राखीने मोद मार्गना साधक थया तेनी श्र वस्था कहेः- श्रथ सम्यग्दृष्टि मोड मारगको साधक कथन: ॥सवैया इकतीसाः ॥- जिन्दकेसुमति जागीनोगसों नये विरागी, परसंग त्यागी जे पुरुष त्रिजुवनमें; रागादिक जावनिसों जिन्हकी रहनि न्यारी, कबहु मगन व्है रहै Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ व प्रकरणरत्नाकर जाग पडेलो. धाम धनमें; जे सदीव श्रापकों विचारै सरवंग सुझ, जिन्हके विकलता न व्यापै कब मनमें; तेई मोक्ष मारगके साधक कहावै जीव, जावै रहो मंदिरमें जावे रहो बनमें अर्थः- जेना हश्यामां सुबुद्धि जागी, अने विषय जोगथी जे वैरागी थया, अने जे रागद्वेषादिक परनाव बे, तेना सेवना संग के त्रण लोकनेविषे तेना त्यागी जे पु रुष , श्रने जे राग द्वेषादिक नाव पदार्थ ते थकी जेनी रेहेणी न्यारी बे, तेथी धाम के घर अने धन तेनेविषे मग्न थई न रहे, अने जे सदा निश्चय दृष्टिए देखीने श्रा त्माने सर्वांग शुभ विचारे बे, तेथी जेना मनने विषे विकलता नही व्यापे, एवी दशा लईने जे जीव रह्या , तेज जीव मोद मार्गना साधक केदेवाय, पनी ते नावे तो मं दिरमा रहे, ने नावे तो वनमा रहे, पण तेनी दशा सर्व स्थानके एकज होय ॥१॥ हवे मोदगामी जीव विचक्षण पुरुषनी दशा कहेजेः- श्रथ विचदणदशा वर्णनं: ॥ सवैया तेईसाः॥- चेतन मंडित अंग अखंडित शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो; राग विरोध विमोह दशा समुफे ब्रम नाटिक पुग्गल केरो; जोग सँयोग वियोग व्यथा श्र विलोकि कहै यह कर्मज घेरो; है जिन्हकों श्रनुजौ इहि नांति सदा तिन्हिकों परमारथ नेरो. ॥ १३ ॥ अर्थः- जे परमात्माने विषे दृष्टि दैने विचार करे के, जे मारो पदार्थ , ते चेतन मंमित , अने अखंडित ने, अवेद्य , अन्नेद्य , अने शुद्ध, पवित्र , अने एथी जुदी जे राग द्वेषने मोहनी दशा थई रही, तेने तो चमरूप मिथ्याजाल पुद्गलनुं नाटक करी समके , अने पंचेंजियना नोगसंयोगने वियोग एवी बाह्यात्माने विषे व्यथा अवलोकीने एवं कहे के, एतो कर्मनो घेरो , कर्मनो उदय बे, एवो अनुभव जेने नित्य रहे, तेने परमार्थरूप मोद ते सदा नेरो के नजीक बे. ॥ १३ ॥ हवे जे मोक्षथी पूर ते चोर, ने मोदथी निकट ते साहुकार एवं कहेजेः अब चोर तथा साहुकार वर्णन:॥ दोहराः ॥- जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अझ; जो अपनो धन विव हरै, सो धनपति धरमझ.॥ १४ ॥ परकी संगति जो रचै, बंध बनावे सोश, जो निज सत्तामें मगन, सहज मुक्त सो होश. ॥ १५॥ अर्थः-जे पुमान के पुरुष परधनने हरे, ते अपराधी जीव अझ के अजाण क हीये; ने जे पोतानाज धननो व्यवहार राखे, ते धनपति कहिये, धर्मज्ञ के धर्मने जाणनार कहियें ॥ १४ ॥ तेम जे परवस्तुनी संगतीए राचे ते चोर केहेवाय, ने तेज पोताना बंधने वधारे, अनेजे पोतानी सत्तामां सदाकाल मग्न रहे तेज मुक्तरूप थाय. . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री समयसारनाटक. ६एए हवे वस्तु कोने कहिये अने सत्ता कोने कहिये ते बतावेजेः-अथवस्तुसत्तावर्णन:॥ दोहराः॥- उपजे विनसे थिर रहे, यह तो वस्तु वखान; जो मरजादा वस्तुकी सो सत्ता परवान. ॥ १६ ॥ __अर्थः- उत्पत्तिवंत, विनाशवंत, स्थिरतावंत एतो वस्तुनुं वखाण , अने जे वस्तु नी मर्यादा जे परिमाण ते धर्मने सत्ता कहीये, ए अनुनव प्रमाण ग्राह्य . ॥ १६॥ हवे केवा केवा अव्यनी केवी केवी सत्ता जे ते कहेजेः श्रथ सत्ता व्यवस्था वर्णन:॥ सवैया श्कतीसाः॥- लोकालोक मान एक सत्ता है आकाश दर्व, धर्म दर्व एक सत्ता लोक परिमिति है; लोक परवान एक सत्ता है अधर्म दर्व, कालके अणु असंख सत्ता श्रगनिति है; पुदगल शुक परवानकी अनंत सत्ता, जीवकी अनंत सत्ता न्यारी न्यारी थिति है; कोउ सत्ता काहुसों न मिलै एकमेक होई, सबे असहाययों अनादि हीकी थिति है. ॥ १७॥ अर्थः- श्राकाश अव्यनी मर्यादा लोकालोक लगे एक बे, तेथी आकाश व्यनी एक सत्ता , अने धर्मास्तिकाय अव्य लोक प्रमाण रूप , तेथी धर्म अव्यनी एक सत्ता बे, अने अधर्मास्तिकाय अव्य पण लोक प्रमाण एक रूप ले तेथी अधर्म अव्य नी एक सत्ता , अने कालना अव्यना अणु ने ते लोकाकाश प्रदेश परिमाणे असं ख्यात डे, तेथी काल अणुनी असंख्यात सत्ता , ए कदेवं दिगंबर संप्रदायर्नु , अने अने योग शास्त्रमा पण का बे, अने लोकविषे पुजलरूपी शुरू परमाणुनी पण अ नंत सत्ता बे, अने लोक विषे जीव अनंत बे, तेथी जीवनी पण अनंत सत्ता , तेथी ज जीवाजीवनी जुदी जुदी क्षेत्रावगाहना बे, जे व्यनी जे सत्ता होय ते बीजी कोई व्यनी सत्ता साथे मले नही, जो एकमेक थ जाय तो सर्व सत्ता असहाय पणे वर्ते, माटे एकमेक न थाय एवी अनादि कालनी स्थितिजे. ॥ १७ ॥ हवे चेतन अव्यनी सत्तानुं वर्णन करेजेः- श्रथ चेतन सत्ता वर्णनं:॥सवैया इकतीसाः।- एशबदो अव्य इन्ददीको हे जगतजाल, तामें पांथ जम एक चेतन सुजान है; काहुकी अनंत सत्ता काहुसों न मिले कोई, एक एक सत्तामें अनंत गुण गान है; एक एक सत्तामें अनंत परजाय फिरे, एकमें अनेक श्ह नांति परवान है; यहे स्यादवाद यहै संतनिकी मरजाद, यहे सुख पोष यहै मोदको निदान है. ॥२०॥ अर्थः- ए गए अव्ये करी एथीज जगतजाल वर्ते, ते बनेविषे पांच अव्य जड रूपी बे, ने एक चेतनरूपी अव्य ते जाणनार जे. अंडी पुद्गलनी अनंत सत्ता कही, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर जाग पड़ेलो. जीवनी अनंत सत्ता कही, एवा अनंतपणे करीने कोईनी सत्ता कोई साथे मले नदी, एटले जुदी जुदी अनंत सत्ता बे, अने प्रत्येक सत्तामां अनंत गुणनुं ज्ञान बे, अने एक एक सत्तामां अनंत पर्याय अनंत अवस्था नेद फिरे तेथी जे पूर्वे एकमां श्र नेक कर्तुं ते एरिते . स्याद्वाद मतमां ए वात प्रमाण बे, अने सत्पुरुषनां वचननी पण एज मर्यादा बे, तथा एज मत सुखनुं पोषण करनार बे, अने मोनुं निदान एटले मूल कारण बे ॥ १८ ॥ ६६ दवे ए वचन की जे वस्तुनो धर्म ग्रह्यो जाय तेज सत्ताधर्म कहीये तेथी एक जीव द्रव्यनी सत्ता कहे :- अथ एक जीव द्रव्यसत्ता वर्णनं : ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - - साधि दधि मंथन श्रराधि रसपंथ निमें, जहां तहां ग्रंथ निमें सत्ताही को सोर है; ज्ञान जानु सत्तामें सुधा निधान सत्ताही में, सत्ताकी दुरनि सांकि सत्तामुख जोर है; सत्ताको सरूप मोख सत्ता जूलै यहै दोष, सत्ताके जलंधे धूम धाम चिकू घर है; सत्ता की समाधिमें विराजि रहे सोई साहु सत्तातें निकसि और गहे सोई चोर है ॥ १७ ॥ अर्थः- जे वस्तुविषे बती देखाय, जेम दहीना मंथनमां घीनी सत्ता साधिये, जे औषधमां मधुर रस बे, तो तेथी वस्तु नीपजे बे, माटे रस मार्गमां सत्ताविना सिद्ध नथी. जे वस्तुमां बताएंडे तेने सत्ताक दिये. शास्त्रमां ज्यां त्यां ग्रंथोनेविषे सत्तानोज सोरके० शब्दबे. ज्ञान रूपी जानुनो उदय जीवनी सत्तामां निपजे, वली सुधा के० मृत ते पण सत्तामांज पामिये, निधान पण सत्तामांज पामिये. जे सत्तानुं दुरनि के० पाव ते संध्या रूपबे, अने जे सत्तानी मुख्यताबे तेज जोर के प्रजात रूपबे. जी वनी सत्तानुं जे स्वरूप वे तेज मोद बे, अने सत्ताने जुली जवुं एज दोषरूप बे. स तानुं उलंघन करवाथी चीदोजर के चारों तरफ धामधुम नीपजे, जे पोतानी सत्ता सद्भूतपणुंबे, तेमां विराजमान थई रहे तेने साहुकार कहिये, छाने जे पोतानी सत्ताथी नीकलीने अन्नी सत्ताने ग्रहे तेने चोर कहीये. ॥ १७ ॥ हवे सत्तानी समाधिनुं वर्णन करे :- श्रथ समाधि वर्णनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- - जामें लोक वेद नांदि थापना उबेद नांहि पाप पुन्य खेद ait क्रिया नादि करनी; जामें राग दोष नांदि जामें बंध मोष नदि, जानें प्रभु दास नाकास नादि धरनी; जानें कुलरीत नांदि जामें हारजीत नांहि जामें गुरु शिख नांहि विष नांदि नरनी; श्राश्रम वरन नांहि काढुकी सरनि नांदि ऐसी सुद्ध सत्ता की समाधि भूमि वरनी. ॥ २० ॥ अर्थः- मां लौकिक वेदवुं नथी, अने जेमां स्थापनानो उबेद नथी, जेमा पाप Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमयसारनाटक.. पुण्यनो खेद नथी, जेमा कोइ क्रियाकरणी नथी, जेमा राग द्वेष नथी, जेमां बंध मोद नथी, जेमा प्रजुताने दासपणुं नथी, जेमां श्राकाश श्रने धरती नथी, जेमांकु लनी रीत नथी, जेमा हारने जीत नथी, जेमां गुरु अने शिष्य नथी, जेमा विष जर नी एटले चालवू हालवू नथी, जेमां कोई श्राश्रम व्यवहार नथी, तथा वर्ण व्यवहार नथी, जे कोश्नी शरण रूप नथी, एवी शुभ सत्तानी नूमि ते समाधिरूप वरणवी. एटले खरूपनी शुभ समाधिने विषेज शुरू सत्ता पामीये. ॥२०॥ हवे मिथ्यादृष्टिने चोर अने अपराधी कही देखडावे : अथ मिथ्यादृष्टि अपराधि यह कथनंः॥ दोहराः॥- जाके घट समता नही, ममता मगन सदीव; रमता राम न जान ही, सो अपराधी जीव ॥ २१॥ अपराधी मिथ्यामती, निरदै हिरदै अंध; परकों माने श्रातमा, करे करमको बंध ॥२२॥ फूठी करनी आचरे, फूलै सुखकी श्रास; फूठी जगती हिय धरे, फूठगे प्रज्जुको दास ॥२३॥ अर्थः-जेने केवल जाणपणुं जे समता ने समाधि ते नथी, अने जे सदा परवस्तुनी ममताविषे मगन थई रहे, ने निज घट अथवा खरूपने विषे रमी रह्यो एवो जे था त्मराम तेने जेणे जाएयो नथी तेनेज अपराधी चोर जीव कहीये ॥१॥ जे पर वस्तु लेय ते अपराधी ने तेज मिथ्यामति, तेज निर्दय ने तेज हैयानो अंध कहिये, एटले जे पररूप पुजलने श्रात्मा माने ते कर्मनो बंध करे ॥२२॥ ज्यांसुधी पोतानी वस्तुने न जाणे त्यांसुधी तो जे क्रिया याचरे ते सर्व फूली बे, थने तेने जे मोद सुखनी श्राशा डे, ते सर्व फूठी बे. पोताना प्रज्नु जाएया विनानी जे नक्ति हैयामां धरे , ते सर्व फूठी जाणवी, अने परमेश्वरने उलख्याविना दासपणुं राखq ते पण सघj फूलु डे ॥२३॥ हवे मूढ लोकना फूठपणानी व्यवस्था कहे बेः- श्रथ मूढ व्यवस्था यथाः ॥ सवैया इकतीसाः॥-माटी नूमि सैलकी सु संपदा बखाने निज, कर्ममें अमृत जाने ज्ञानमें जहर है; अपनो न रूप गहै थोरहीसों थापु कहै, साता तो समाधि जाके असाता कहर है; कोपको कृपान लिये मान मदपान किये, मायाकी मरोरि हिये लोजकी लहर है, याही जांति चेतन श्रचेतनकी संगतिसों, साचसों विमुख जयो फूठमें बहर है ॥ २४ ॥ तीन काल थतीत अनागत वरतमान, जगमें अखं डित प्रवाहको महर है; तासों कहै यह मेरो दिन यह मेरी घरी, यह मेरोई प रोई मेरोई पहर है; पेहको खजानो जोरे तासों कहे मेरो गेह, जहां वसे तासों Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६एन प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. कहे मेरोई सहर है; याहि जांति चेतन अचेतनकी संगतिसों, साचसों विमुख नयो फूलमें बहर है ॥ ॥ अर्थः-सात धातु जे जे पहामनी धरतीनी माटी जेवी बे, तेने संपत्ति करी वखा णे . पोतानी शुरू क्रियामां अमृत जाणे , अने ज्ञानमां फेर समजे बे; एटले क्रिया थकी सिफि जाणे, ने शान थकी नही जाणे. जे पोतानुं चिदानंद स्वरूप ने, तेने ग्रहे नही, पण शरीरादिक जे जे तेने आत्मारूप जाणे. अने जे साता वेदनीय उपजे , तेने तो समाधि करी जाणे बे; असाता वेदनीयने कहर के उपभव माने डे, कोपर्नु कृपान जे खडग ते लईने रहे थे; मान ने अहंकार रूप मद पीइने रहे; हेयानेविषे मायानो मरोम राखे, लोचनी फेर खाया करे , एवी रीते श्रचेतननी संगती थकी एटले जम पुजलनी संगतीश्री साच थकी विमुख थयो, ने जुम्मा ब हर हे के० तत्पर थई रह्योबे, ॥२४॥ अर्थ स्पष्ट. ॥२५॥ हवे सम्यग् दृष्टि साहुकारनी व्यवस्था कहे बेः-श्रथ सम्यकदृष्टि व्यवस्थाकथनं: ॥ दोहराः॥- जिन्हके मिथ्या मति नही, ज्ञान कला घटमांहि; परचे श्रातम रामसों, ते अपराधी नांहि ॥२६॥ अर्थः- जेनी मिथ्यामति नाश पामीने घटनेविषे ज्ञान कला प्रगटी बे, जेणे श्रा त्मारामने उलख्यो , ते लोक अपराधी नथी, साहुकार ॥२६॥ हवे झानीनी व्यवस्था कहे बेः- श्रथ ज्ञानी यथाः॥सवैया इकतीसाः॥- जिन्हके धरम ध्यान पावक प्रगट नयो, संसे मोह वि चम विरष तीन्यो वढे हैं, जिन्हकी चितौनि श्रागे उदे खान नूसि जागे लागे, न क रमरज ज्ञान गज चढे हैं; जिन्हिकी समुझिकी तरंग अंग अंगममें, श्रागममें निपुन अध्यातममें कढे हैं; तेई परमारथी पुनित नर श्राों जाम, राम रस गाढ करे यहै पाठ पढे हैं ॥२७॥ जिन्हकी चिहुंटी चिमटासी गुन चूनबेकों, कुकथाके सुनबेकों दोउ कान मढे हैं; जिन्हको सरल चित कोमल वचन बोले, सोम दृष्टि लिये मोले मोम कैसे गढे हैं; जिन्हि के सगति जगि अलख अराधिबेकों, परम समाधि साधिवेगो मन बढे हैं; तेई परमारथी पुनित नर आवों जाम, राम रस गाढ करे यहे पाठ पढे हैं।श्न॥ ___ अर्थः- जेना हैयामां धर्म ध्यानरूप पावक के० अग्नि प्रगट थयो, तेथी संशय, मो ह अने विन्रम ए त्रणे वृक्षरूप , ते वढे के० बली गया , जेनी चितौनी के ज्ञा नदृष्टि श्रागल उदयरूप कुतरो जसीने जागी जाय ,श्रने जे ज्ञानरूपी गजराज उपर चढी रहे, तेथी जेने कर्मरूप रज लागतीनथी, बीजानुं जे अगम अंग बे, तेमां जेनी समजना तरंग उठी रह्या बे एवा आगम के जैन वाणीमां जे निपुण थयो, अने श्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ६एए ध्यात्म ज्ञानमां पूर्ण थयो , तेनेज सम्यग्दृष्टि कहिये; परमार्थने पामनार पुनित के पवित्र रूप थयो जाणवो. श्रात्मारामना अनुनव रसमां बारे प्रहर गढे के संपूर्ण मन थई, एज पाठ पढे , एटले नणे , ॥२७॥ वली जेम चीमटी के हाथनी चिमटी अथवा चिपीयो तेवडे कई नानी वस्तुने पकमी लश्ये उश्ये, तेम पारका गुण चुंटी लेवाने जेनी एवी चपटी बे, अने विकथा सांजलवाने जे बने कानने बंध करी राखे , जेनुं चित्त सरल ने निष्कपटी , जे निरहंकारीपणे कोमल वचन बोले : काम क्रोधादिक विकारविना सौम्य दृष्टि जे राखे , वली जे मोम केसेगढेहें केमी एना घडाजेवं हृदय कोमल राखे बे, अने पोताना अलख समाधि खरूपने साध वाने जेनी सुमति जागी बे, अयोगी अवस्थामा जेनी परम समाधि थने, तेने साधवाने जेनुं मन वध्यु , तेज सम्यग् दृष्टि परमार्थना पामनार पुनित के पवि त्र रूप थई रह्या डे, ने तेज आत्मारामना अनुनव रसमां थावे पहोर दृढ मग्न थई एज पाठ पढे . ॥ २ ॥ हवे समाधि स्वरूप कहे जेः- श्रथ समाधि वर्णनः॥दोहराः॥- राम रसिक अरु रामरस, कहन सुननकों दोश; जब समाधि परगट नई, तब पुविधा नहि को. ॥२॥ नंदन वंदन थुति करन, श्रवन चितवन जाप; पढन पढावन उपदिसन, बहुविध क्रिया कलाप. ॥३०॥ शुझातम अनुनौ जहां, सु नाचार तिहि नांहि; करम करम मारग विशे, शिव मारग शिवमांहि.॥३१॥ अर्थः-श्रात्माराम जे जे ते रसिक के रस नोक्ता , अने राम के रमतुं ते रस रूप ने, केहेवाने सांजलवाने रसिकने रस बेन बे, पण जेवारे एनेविषे समाधि प्रगट थाय ने त्यारे बे पणुं नथी रेहेतुं. त्यारेतो रसिक श्रने रस ए बे एकज वस्तु ॥णा राम के रसिक अवस्था धारतो एटली क्रिया करे बे के, नंदन के० श्रानंद पामे , वंदन के प्रणाम करे, थुती के० नात नातना गुणनी स्तुति करे बे, अने एवाज गुण सांजली एनुंज चितवन करे, एनोज जाप जपे बे, नणे, नणावे, उपदेशे, एवी रीते र सिक अवस्थामां जात नातना क्रिया कलाप डे ॥३०॥ प्रर्वे कही जे क्रिया तेने करता करतां ज्यां शुभ यात्मानो अनुनव थाय शुना चार बुटीजाय, कृत-कृत्यपणे ते अयोगी दशामां बे, कर्म जे जे ते कर्म मार्ग मांज रहे, एटले संसार मार्गनेविषेज रहे, शुज कर्म पण संसार मार्गमां बे श्रने शिव मार्ग ते शिवमांहे एटले शुफ आत्माने विषेज बे. ॥३१॥ ॥चोपाईः॥-इहि विध वस्तु व्यवस्था जैसी, कही जिनिंद कही में तैसी; जे प्रमाद संयति मुनि राजा, तिन्दिको शुजाचारसों काजा. ॥ ३२ ॥ जहां प्रमाद द Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. सा नहिं व्यापे; तहाँ अवलंब यापनो थपे, ता कारन प्रमाद उतपाती, प्रगट मोद मारगको घाती. ॥ ३३ ॥ जे प्रमाद संयुक्त गुसांई; ऊहि गिरिहि गिडुककी नांई; जे प्रमाद तजि उद्धत दोही, तिन्हिको मोष निकट हग सोही ॥ ३४ ॥ घटमें है प्रमाद जबताई, पराधीन प्रानी तबतांई; जब प्रमादकी प्रभुता नासै, तब प्रधान अनुज परगासे ॥ ३५ ॥ अर्थः- ए रीते श्री जिनेंद्र देवे वस्तुनी व्यवस्था कही बे, ने तेवीज श्राज्ञा प्र माघी में पण कही बे, अने जे मुनिराज प्रमाद दशामां बे, तेने तो शुजाचार ए टले शुभ क्रियानुं आलंबन लीधाथीज कार्य सिद्धि थाय ॥ ३२ ॥ ने जे मुनिराजने श्रात्माना अधिक वीर्यांशने लीधे प्रमाद दशा न व्यापे त्यां पोतानुं श्रालंबन पोते लिये, तेमाटे प्रमाद तो उत्पाती बे; अने प्रगट रीते मोक्ष मार्गनो घात करनार बे, अने अंतरायनो करनार बे ॥ ३३ ॥ गुसांई देशी जापानो शब्द बे, एनो अर्थ मुनिराज थाय छे. जे मुनिराज प्रमाद संयुक्त बे, ते तो गिडुक के० दमानी रीते उठे बे, ने पडे बे, पण स्वस्थताने पामे न ही ने जे प्रमाद बोडीने अप्रमादपणे उठीने उजा रहे बे, तेने पोतानी दृष्टि नजीक मोक्ष बे. ॥ ३४ ॥ ज्यां सुधी घटमां प्रमाद बे, त्यांसुधी ते पराधीन बे, अने ज्यारे श्रात्मानी शक्ति जागे बे, त्यारे प्रमादनी प्रभुता नाश पामे बे. त्यारे तो पोताना प्र धान अनुजवनो प्रकाश थाय बे ॥ ३५ ॥ ॥ दोहराः ॥ - ता कारन जग पंथ इत उत शिव मारग जोर; परमादी जगकों ढूंके, परमाद सिव र ||३६|| जे परमादी खालसी, जिनके विकलप जूरि, दोहि सिथिल अनुज विषे, तिन्हिको शिवपथ दूरि ॥ ३७ ॥ जे विकलपी अनुजवी, शुद्ध चेतना यु क्त; ते मुनिवर लघु कालमें, दोहि करमसों मुक्त ॥ ३८ ॥ जे परमादी खालसी, ते श्रभिमानी जीव, जे विकलपी अनुभवी, ते समरसी सदीव ॥ ३५ ॥ अर्थः- तेमाटे जगत्नो मार्ग प्रमादीनी तरफ बे, अने अप्रमादीनी तरफ मोद मार्ग बे, केमके, जे प्रमादी होय ते जगत्ने जुए ने अप्रमादी मुक्ति तरफ जुए बे ॥ ३७ ॥ जे प्रमादी बे, ते घालसु बे. तेने नूरि के० घणा विकल्प उठे बे, अने पो ताना अनुवमां तेने शिथिलपणुं रहे बे, अने तेने मुक्ति मार्गरूप स्वरूपाचरण पूर बे ॥ ३७ ॥ ने जे विकल्पविना अनुजवमां वसे बे ने शुद्ध चेतना युक्त बे, ते मु नीश्वर थोमा कालमां कर्मश्री मुक्त थाय बे ॥ ३८ ॥ जे प्रमादी अने श्रासु बे, तेने बुद्धिनिमानी कहिये. ने जे विकल्प रहित पोताना अनुभवमां बे तेने तो सदाय समरसी कहिये ॥ ३७ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. दवे अजिमानी तथा ज्ञानीनी अवस्था उपर दृष्टांत श्रपेढे:अथ अजिमानी तथा ज्ञानी व्यवस्था कथनंः ॥कवित्त बंदः॥ - जैसे पुरुष लखे पदार ढि, नूचर पुरुष तांहि लघु लग्ग; नूचर पुरुषलखे ताकों लघु, उतर मिलै डुडुको भ्रम जग्ग, तैसे श्रनिमानी उन्नतगल, और जीवको लघुपद दग्ग; अजिमानीको कहे तुछ सब, ज्ञान जगे समतारसजग्ग ॥ ४० ॥ १०१ अर्थः- जेम कोई माणस पद्दाम उपर चड्यो होय तेने नूचर के० तलाटीपरना माणसो न्हानो एम जुए, अने तलाटी वाला माणसने पहाड़ उपर चडेलो न्हाना जुए, अने पी पद्दाम उपर चडेलो देवे उतरी तलाटी वालाने मले त्यारे बेनो नाना पणानो भ्रम दूर थाय, तेम अजिमानी पुरुष उंची गरदन राखनारो, अन्य, जीवने नाना जुए, तुब जाणे, अने बीजा पुरुषो ते श्रनिमानी पुरुषने तुब जाणे, एम रस्परस विचारमां विषमता रहे बे, ते ज्यारे ज्ञान जागे त्यारे बेखना मनमां विषमता मटीने समपणुं श्रवी जाय ॥ ४० ॥ वे एकला अजिमानीनी व्यवस्था कड़े बेः - श्रथ अजिमानी यथाः ॥सवैया इकतीसाः॥-करमके जारी समुजे न गुनको मरम, परम नीति अधरम रीति गहे है; दोहि न नरम चितगरम घरमहुते, चरमकी दृष्टिसों जरम मूली रही है; शासन न खोले मुख वचन न बोले सिरधूनाएहू न डोले मानो पाथरके चहे है; दे खनके हाउ जव पंथके वटाउ ऐसे, मायाके खटाउ अभिमानी जीव कहे हैं. ॥४१॥ अर्थः- जे करम बंधथी श्रति जारी बे, जे द्वेषने गुण जाणेबे, पण गुणनो मर्म जा तो नथी; ने परम अन्याय तथा अधर्मनी रीत ग्रही राखेखे; जेना चित्तने विषे नरमा: श तथा दया परिणाम नथी; द्वेषनो अति धर्म ताप डे, तेथी जे गरम रहेबे, ज्ञान दृष्टि नथी अने चर्मरूप दृष्टिवने ममां मूल्यो फरे बे, कोई विकट श्रासन बांधे तेने खो ले नही, ने मोमेथी वचन बोले नही, मौन व्रती रहे, तेने ज्ञानी महा पुरुष जाणीने कोई माथु नमावे, तो तेनो सत्कार ने अंग चेष्टा पण न करे, जालिये पथर थवानीज शा करतो होय; नेवली जेम बालकने डराववाने हाउ कहीये बइये तेम लोकोने डरावाने वेष धरी दाउ बनीने बेसे, छाने जव मणना मार्गमां वटाउना सरखो चाले; एरीते माया जालना खाटनारा अजिमानी जीवने उलखीये ॥ ४१ ॥ दवे ज्ञानी जीवनी व्यवस्था कहे बेः:- छाथ ज्ञानी यथाः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - धीरके धरैया जवनीरके तरैया जयजीरके हरैया वर वीर ज्यों उमड़े हैं; मारके मरैया सुवीचारके करैया सुख ढारके ढरैया गुनलोसों लह लहे हैं; Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ०२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. रूपके रीजैया सबनैके समुया सबहीके लघुलैया सबके कुबोल सहे हैं; वामके व मैया मुखदामके रमैया ऐसे रामके समैया नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥४॥ अर्थः-धीरजने धरनार, संसार सागरने तरनार, नवनीडने हरनार, मोटा शूर वीरनी परे पोताने साह्य श्रापवाने उमंगी रह्याने, कंदर्पने मारनार, जला विचारना करनार, सुख समाधिना ढालामां ढलनार,थात्माना गुणनो लव एटले अंश तेमां ल हलहि रह्या बे, श्रात्मरूपना रीजवनार, सर्व नयना सारनो रस समऊनार, निरहं कारी पणे सर्वना नाना नाई जे थई रह्याने; दमावंतपणे सर्वनां पुष्ट वचन जे सहेजे; वाम के स्त्रीने वमैया के बोडनार, फुःखनी परंपराना दमनार, एवा आत्मारामने विषे रमनारा मनुष्यने ज्ञानी जीव कहीये ॥४॥ हवे शुझात्मना अनुजवनी प्रशंसा करेः-अथ शुझात्म अनुभव प्रशंसाः ॥चौपाई॥-जे समकिती जीव समचेती; तिन्हि की कथा कहों तुमसेती; जहां प्रमाद क्रिया नहि कोई निर्विकल्प अनुनौ पद सोई. ॥ ४३ ॥ परग्रिह त्याग जोग थिर तीनो; करम बंध नहि हो नवीनो; जहां न राग दोष रस मोहे; प्रगट मोषमारग मुख सोहे. ॥ ४४ ॥ पूव बंध उदे नहि व्यापे, जहां न नेद पुन्न अरु पापे; दरब नाव गुन निर्मल धारा, बोधविधान विविध विस्तारा. ॥ ४५ ॥ जिन्हि के सहज श्र वस्था ऐसी; तिन्हि के हिरदे पुविधा केसी; जे मुनिषिपक श्रेणिचढी धाये; ते केवति जगवान कहाये. ॥ ४६॥ दोहराः-शहि विधि जे पूरन नये, अष्ट करम वनदाहिति न्हिकी महिमा जो लखे, नमे बनारसि ताहि.॥४७॥ अर्थः-जे समकिती जीव ते समचेती के वीतरागपणे समतावंत अहो! जव्य प्राणी ! तेनी कथा हुँ तमने कहवं. ज्यां कोई प्रमादनी क्रिया नथी, तेने नि विकार निर्विकल्प अनुनव पद कहीये, एटले अनुनवमां विकल्प नथी.॥४३॥ ज्यां परिग्रहनो त्याग बे, अने त्रणे जोग स्थिर , त्यां नवीन कर्मनो बंध नथी थतो; वली ज्यां जीवने राग द्वेष रस मोह नथी, तेज प्रगटपणे मोद मार्ग- मुख के० प्रारंन बे. ॥४४ ॥ वली ज्यां पूर्वे जे कर्मबंध , तेनो उदय नथी, अने ज्यां पुण्य पापना नेदनो विचार नथी, श्रने ज्यां साधुना सतावीस गुण अव्यपणे नाव पणे निर्मल धाराये वही रह्या , वली ज्यां बोधविधान के ज्ञानना प्रकार नात नातना विस्तारमा बे. ॥ ४५ ॥ जेनी एवी सहज अवस्था थई होय तेना हृदयमा श्रात्म उलखवानी सुविधा केम रहे? श्रने एज अवस्थामां जे मुनिराज दपक श्रेणि चढी ऊर्ध्व मुख धाये तेतो केवली जगवंत जाणवा. ॥ ४६॥ ए रीते करी श्रष्ट कर्म रूप वनने बालीने पूर्ण वात्मारूपमा जे थायडे अने जेना महिमाने जे सत् पुरुष Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ज०३ होय तेहिज जुएबे, एटले सत्य पणे जाणे, तेने वारणसीदास नमस्कार करे ॥४॥ हषे मोद पदार्थनी उत्पत्तिनो क्रम कहेजेः-अथ मोद उत्पत्ति वर्णनंः।॥ उप्पय बंदः-नयो गुफ अंकूर, गयो मिथ्यात् मूर नशि; क्रमक्रम होत उदोत, सहज जिम शुक्लपद शशि; केवल रूप प्रकासि, नासि सुख रासिधरम धुव; करि पूर न थिति थाज, त्या गिगतनाव परम हव; इह विधि अनन्य प्रजुता धरत, प्रगटी बंद सागर नयो; अविचल श्रखंड अननय अखय, जीव दरब जगम हि जयो. ॥४॥ अर्थः-शुद्धतानो अंकुर प्रगट थतां मिथ्यात मूलश्री नाश पाम्युं, तेवारे जेम थ जवालीया पखवामोयामां चंद्रमा क्रमे क्रमे उद्योतवंत थायडे, एरीते श्रात्मापण क्रमे क्रमे उद्योत थतां केवल ज्ञान रूपनो प्रकाश थाय, श्रने श्रात्मानो निश्चल ध्रुव धर्म सुख समुह ते नासे, ते पनी थायुष्य कर्मनी स्थिति पूर्ण करीने अने मनुष्य गतिनो नाव बोडीने परमात्मारूपे थाय, एरीते अनन्य प्रजुता एटले सर्वथी श्रेष्टता धारण करे. कोनी पेठे ? तो के जेम पाणीनी बुंदबुंद एकठी मली समुछ थायडे तेम श्रात्मा गु णना अंश मे क्रमे प्रगट करतो पूर्ण थयो, ते पळी अविचल, अखंग, अजय ने थ दय एवं जीव जव्य जगत्ने विषे सदा जयवंत थायडे. ॥४॥ __हवे श्रष्ट कर्मनो नाश थयेथी जे श्रात्मामां सहज श्राठ गुण प्रगट थाय ते कहे-अथ श्रष्ट कर्म नाशते श्रष्ट गुन प्रकाश वर्णन:____॥ सवैया इकतीसाः॥- ज्ञानावरनी के गये जानिये जु है सु सब, दंसनावरनके ग येते सब देखिये; वेदनी करमके गयेते निराबाध रस, मोहनीके गये शुक चारित विसे खिये, थानकर्मगये अवगाहनअटल हो, नामकरमगये ते अमूर्तिक पेखिये; श्रगुरुशलघुरूप होई गोत कर्म गये, अंतराय गयेते अनंत बल लेखिये. ॥ ४५ ॥ अर्थः- ज्ञानावरणीय कर्म नाश थता लोकालोकमां जे वस्तु , ते सर्व जणाय, एटले केवल ज्ञान प्रकाश थाय; अने दर्शनावरणीय कर्मनो क्षय थवाथी लोकालो कना नावने सामान्यपणे जोईये, एटले केवल दर्शनगुण प्रगट थाय, श्रने वेदनीय कर्मना दयथी निराबाध रस उपजे एटले श्रात्मा बाधपणाथी मुक्त थाय, ते अबा धपणे अनंत सुखरूप गुण उपजे; वली मोहनीय कर्मनो नाश थयेथी विशेषणपणे शुद्ध चारित्र प्रगट थाय, एटले यथाख्यात चारित्र स्पष्ट गुण होय; श्रायु कर्मनाश थयेथी अवगाहनानी सादि अनंत स्थिति थाय (आयुकर्मगते निश्चला स्थितिवति); नाम कर्म नाश थयेथी श्रमूर्तिकपणुं जीवनुं शुरू स्वरूप उपजे; गोत्र कर्मनो क्षय थयेथी अगुरुलघु गुण उपजे, जेथी जीवमा लघुपणु तथा गुरुपणु न होय; श्रने अं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. तराय कर्मनो नाश थयेथी अनंत बल उपजे, एटले अनंत वीर्यपणानो गुण उपजे बे. ए श्राप गुण उपजे. ॥४ए ॥ ॥इति श्री समयसार नाटक बालबोधरूप नवमो मोद हार समाप्तः ॥ ॥दोहराः॥ इति नि नाटिक ग्रथमें, कह्यो मोद अधिकार; अब बरनों संदेपसों, सरब विशुद्धीद्वार. ॥ ५० ॥ अर्थः- इति के० संपूर्ण नाटक समयसारविषे मोद हारनो अर्थ कह्यो ने हवे दशमुं संदेपथी सर्व विशुद्धि हारनुं वर्णन करुं बु॥ ५० ॥ हवे अंही सर्वउपाधि रहित शुभ श्रात्म खरूपनुं वर्णन करे :॥ सवैया इकतीसाः॥-करमको करता है जोगनिको नोगता है, जाकी प्रजुतामें ऐ सो कथन अहित है; जामें एक इंजियादि पंचधा कथन नांहि, सदा निरदोष बंध मोक्षसों रहित है; ज्ञानको समूह ज्ञान गम्य है सुनाज जाको, लोक व्यापी लोका तीत लोकमें महित है; शुद्ध वंस शुक चेतनाके रस अंश नयों, ऐसो हंस परम पु नीतता सहित है॥५१॥ दोहरा:-जो निहचे निरमल सदा, श्रादि मध्य अरु अंत; सो चिप बनारसी, जगतमांहि जयवंत ॥ ५५ ॥ अर्थः- कर्मनुं कर्त्तापणुं श्रने सुखदुःखनुं लोक्तापणु एवं जे लोक व्यवहारमा केहेवाय , ते जेनी प्रजुतामां ईश्वरताई , तेमां अहितकारी वली जेनी प्रजुता मां एकेंघिय प्रमुख पांच नेदर्नु केहे, ते पण श्रहितकारी,सत्य नथी. केमके जेस दा निर्दोष , तेना निश्चय स्वनावमां बंध नथी, धने मोद पण नथी, एवो जे बंध मोद रहित डे. त्यारे ए अव्य शुंबे, एवो प्रश्न उठे तेनो खुलासो करे के, ए ज्ञा ननो समूह जे पुंज ते रूप जे. जेनो स्वनाव ज्ञान गम्य, झान वडे जाणवामां आवे एवो बे, लोकमां सघले स्थले व्यापी रह्यो बे, लोकातीत के क्षेत्र लोकथी जुदो ने, ने लोकमां महित के पूजनीक उपादेय बे, अनादि कालनो एवोज चाल्यो आवे ते थी जेनो शुभ अवतंश के अने शुरू चेतनाना रस प्रदेशथी जरपूर , एवा जे हंस जे ते परम पुनीतता सहित एटले उत्कृष्ट शुद्धता सहित जे ॥५१॥ जे निश्चय स्वरूपमा सदा निर्मल , आदि मध्यने अंत्य श्रवस्थाने विषे एक रूप , ने तेज चिप बे. तेनी वणारसी स्तुति करे के एवा नगवान जगत्मा जयवंत थाो. ॥ ५ ॥ हवे जीवन अनोक्ता पणुने कर्त्ता पणु उरावे :- अथ जीव अकर्ता वर्णनं: ॥ चोपाई॥-जीव करम करता नदि ऐसो; रस नोगता सुनाउ न जैसो; मि थ्याम तिसों करता होई गये अज्ञान अकरता सोई ॥ ५३॥ अर्थः-जेम जीवने कर्मनो कर्त्ता न कहिये तेम रसनो नोक्ता पण न कहिये; जीव Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ०५ ज्यांसुधी मिथ्यामति वालो , त्यांसुधी तो कापणुं केदेवतमां साचो . पण ज्यारे ए अज्ञान जायजे, त्यारे जीव श्रक पणे बे एवं स्पष्ट जणाय बे. ॥५३॥ हवे श्रात्माना शुद्ध स्वन्नाव तथा विनावनुं वर्णन:-श्रथ स्वजाव विनाव वर्णनं: ॥सवैया इकतीसाः॥-निहाचे निहारत सुनाउ जाहि आतमाको, श्रातमीक धर म परम परगासना; अतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल सरूप गुन लोका लोक नासना; सोई जीव संसार श्रवस्थामांहि करमको, करतासो दीसे लिये नरम उपासना; यहे महा मोहके पसार यहे मिथ्याचार, यहे नौ विकार यहे व्यव हार वासना ॥ ५४॥ अर्थः- निश्चय दृष्टिए जोतां जे श्रात्मानो श्रामिक धर्म परम प्रकाशरूप सदा स्वनाव बे. एटले निश्चयनयथी अतीत, अनागत तथा वर्तमान कालमां लोकालोक ना सनानो करनार केवल स्वरूप गुण बे. तेज आत्मा संसार श्रवस्थानेविषे भ्रम उपा सनावडे एटले मिथ्यात्व-अज्ञाननी सेवाने सीधे कर्मना कर्त्तानी पेठे देखाय , एम मिथ्यात्वनी सेवामां जे रेहेवं ते मोहनो पसार जे, एज मिथ्याचार बे; जीवने नव ब्रमणनो एज विकार . तथा एज व्यवहार वासना डे ॥ ५४॥ हवे जीवनी अनोक्ता अवस्थानुं वर्णन करे:- श्रथ जीव अनोक्ता वर्णनं: ॥चोपाई॥- तथा जीव करता न कहावै; तथा नोगता नाउ न पावै; हे जोगी मिथ्यामति मांही; मिथ्यामती गयेतें ते नाही.॥५५॥ अर्थः- जेम जीव कर्ता नश्री तेम जोक्ता पण नथी, मात्र मिथ्यात्वमा कर्ता जीव बे, ने जोक्ता पण जीव , पण मिथ्यात्व नाश थाय त्यारे जीव कर्ता अने जोक्ता नाम धरावतो नथी. ॥५६॥ हवे नय स्वरूपमा नोक्ता अजोक्का पणानां लक्षण बतावेजेः श्रथ जोगतापना अनोगतापनाको लक्षणः॥सवैया इकतीसाः॥- जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धी, सोतो विषे जोग निको जोगता कहायो है; समकिती जीव जोग नोगसों उदासी तातें, सहज थनोगता गरंथ निमे गायो है; याही नाति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे बुध, परनाउ त्यागि अपनो सुनाउ आयो है; निरविकलप निरुपाधि आतमा अराधि, साधि जोग जुगति समाधिमें समायो है. ॥ ५६ ॥ अर्थः- जगत्वासी जे अज्ञानी , त्रणे काल विषे पर्याय बुद्धि , एटले अव्यबुद्धि नधी, ने हं सुखी, हुं पुःखी एवी पर्याय बुद्धि करेजे, पण निन्नपणे शुफ आत्म ७ व्यने नही जाणे, एवो अज्ञानी जीव तो विषय नोगनो जोक्ता केहेवायडे, श्रने सम Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ०६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. किती जीव मनवचन ने कायाना योगथी तथा विषय नोगथी उदासीपणे रहे अने शुभ श्रात्म अव्यना अनुनवमां मग्न , तेश्री समकितीने शास्त्रमा सहज अनोक्ता पणे गायलो बे, एरीते पंमित ले ते वस्तुनी व्यवस्था अवधारीने एटले वस्तुनो स्व नाव विचारीने परजावने त्यागीने पोताना सहज स्वनावमां आवे बे, तेथी सुखी पुःखी इत्यादि विकल्पविना, कर्म संयोगरूप उपाधिविना, एवा श्रात्माने श्राराधीने झान दर्शन चारित्ररूप जोगनी जुगति साधी समाधि एटले सहज स्वरूपमा समायले. हवे अनोक्ता जीवनी श्रवस्थानुं वर्णन करे:- अथ जीव थनोक्ता वर्णनं: ॥ सवैया श्कतीसाः॥-चिनमुखा धारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुन, रतन लंडारि अप हारी कर्म रोगको प्यारो पंमितनिको हुस्यारो मोख मारगमें, न्यारो पुदगलसों उजियारो उपयोगको; जाने निजपर तत्त रहे जगमें विरत्त, गहे न ममत्त मन वच काय जोगको; ता कारन ज्ञानी ज्ञानावरनादि करमको, करता न होइनोगता न होश नोगको. ॥ ५७ ॥ दोहाः॥-- निरनिलाष करनी करे, नोग अरुचि घट मांहि%B तातें साधक सिह सम करता जगता नांहि. ॥ ५ ॥ अर्थः- चेतना चिन्हनो धरनार, निश्चल स्वन्नाव ज्ञातापणुं तेनो अधिकारी, ज्ञा नादिक गुणरूप रत्नना नंडारनो मारी, कर्मरूप रोगनो विनाश करनार, पंमित नो प्यारो एटले तत्त्व ज्ञानीने वहन, मोदमार्गमां दुशीयार के सावधान, पौलिक धर्मथी जुदो रेहेनार, मतिश्रुत प्रमुख उपयोगनुं अजवावं जेना हृदयमां थयुंजे,पोता नां अने पारकां सर्व तत्वनो जाणनार, जगतमा विरक्तपणे रेहेनार, एटले वैरागी,मन वचन ने कायाना योगनी ममता नही राखनार माटे ज्ञानी जीव झानावरणीय प्रमुख कर्मनो कर्त्ता पण नश्री, श्रने फुःख सुखना नोगनो नोक्तापण नथी. ॥ ५७ ॥ श्वा विना क्रिया करवी, अने घटमिमां नोगनी रुचि नही राखवी, तेथी मुक्तिनो सा धक पुरुष सिझ समान कह्यो, अने ते कर्ता तथा नोक्ता नथी. ॥ ५७ ॥ हवे अहंबुछि थकी कर्त्तापणु थाय ते कदे:-अथ श्रहंबुद्धि वर्णन:॥ कवित्तबंदः ॥-ज्यों हिय अंध विकल मिथ्यात धर मृषा सकल विकलप उपजा वत; गहि एकंत पड श्रातमको, करता मानि अधोमुख धावत; त्यों जिनमती दरब चारित कर, करनी करि करतार कहावत; वंबित मुक्ति तथापि मूढमति, विनु सम कीत जवपार न पावत. ॥ ५५ ॥ चोपाई॥-चेतन अंक जीव लखि लीन्हा, पुजल क रम अचेतन चीन्हा; वासी एक खेतके दोऊ; यदपि तथापि मिले नहि कोऊ॥६॥ ॥ दोहराः॥- निज निज नाउ क्रिया सहित, व्यापक व्यापि न को करता पुन ल करमत्ये जीव कहांसों हो. ॥ ६१॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमयसारनाटक. ១០១ अर्थः-जेम को हृदय अंधपुरुष विकल मिथ्यात्वधारीने हैयामां विकल्प उपजावे, ते सर्व जग बे, ते क्रियावादीनो एकांत पद ग्रहीने आत्माने कर्त्ता मानीने अधोमु ख के नीची गतिने पकडी रह्यो, एवो जे जिनमती ले ते नाव चारित्रविना अने अव्य चारित्रयुक्त करणी करे, ने क्रिया करण एटले शुन क्रियानो कर्त्ता पोते के हेवायचे, ते मुक्तिने वांडे तोपण मूढमतिले; नवनो पार समकित विना पामतो नथी. ॥५॥ ॥ श्रने जीवनो अंक के चिन्ह चेतना जाणवी; थने पुजल तथा कर्म ए बे जने जम जाणवां. चेतन अने अचेतन बेज एक देत्रावगाही एटले एक देत्रवासी बे, तथापि कोई कोईथी मले एवां नथी. ॥ ६० ॥ जे पदार्थ डे ते पोतपोताना नावनी क्रिया सहित रहे बे; जेमा व्यापी रहे ते वस्तुने व्याप्य कहीये श्रने व्यापी रहे नार पदार्थने व्यापक कहीये तेथी पुजल व्याप्यमां जीवनुं व्यापकपणुं नथी, माटे पौगलिक कर्मनो कर्त्ता जीव क्यांथी थाय अर्थात् न ज थाय. ॥१॥ हवे व्यवहारमा जे रीते जीवनुं कर्त्तापणुं ठरेले ते जणावेजेः-श्रथ कर्ता कथन: ॥ सवैया श्कतीसाः- जीव अरु पुजल करम रहे एक खेत, जद्यपि तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है; लबन सरूप गुन परजे प्रकृति नेद, मुहमें अनादिहीकी छ विधा रही है। एते परि निन्नता ननासे जीव करमकी, जौलों मिथ्या जाउ तोलों ओंधी वाउ वही है; ज्ञानके उदोत होत ऐसी सूधी दृष्टि जई, जीव कर्म पिंको अं करतार सही है. ॥ ६॥ दोहराः॥- एक वस्तु जेसी जु दे, तासों मिले न थान, जीव श्रकर्ता करमको, यह अनुनो परवान. ॥३॥ अर्थः- जेम श्राकाश प्रदेशमा पुद्गल कर्म अवगाहि रहे बे; तेज श्राकाश प्रदेशमां जीव प्रदेश पण अवगाहि रहे जे. एम जीव अने पुल एक देवना वासी, तथापि चेतननी सत्ता अने जडनी सत्ता ए बे जुदी बे. अनादि कालनी लक्षण ने दवडे, खरूप नेदवडे, गुणपर्यायवडे ने प्रकृति नेदवझे ए बेजनेविषे विविधता चाली यावे. तेम बतां लक्षण प्रमुखनी जिन्नता मिथ्यात्व नावने सीधे जीव थने कर्मनी ज्यां सुधी नासे नही, त्यां सुधी उधोवायु वहे डे एटले जीवने कर्त्ता मानीये .ये. अने झाननो उद्योत थवाथी सम्यक्त्वनी एवी शुभता थई के तेथी कर्म पिंडनो अकर्ता जीव सही थयो , एम जाएयु ॥६॥ जे वस्तु जेवीरीते ते साथे थानके बीजा खरूप वाली वस्तु मलती नथी; एकमेक थती नथी; एथी जीव कर्मनो अकर्ता जे.ए अर्थ अनुजव प्रमाणधी समजाय ॥ ६३ ॥ हवे मूढ जीव कर्मनो कर्त्ता मानी लेय ले ते कहे बेः-अथ मूढकायहकथन:॥ चोपाई॥- जेजुरमती विकल अज्ञानी; जिन्दि सुरीति पररीति न जानी; मा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOG प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. या मगन जरमके जरता; ते जिव जाव करमके करता ॥ ६४ ॥ दोहराः। - जे मिथ्या मति तिमरसों, लखे न जीव जीव; तेई जावित करमके, करता होइ सदीव | ६ ||५|| जे अशुद्ध परिनति धरे, करे श्रहं परमान; ते शुद्ध परिनाम के, करता होइ जान ॥ अर्थः- जे जीव दुष्ट बुद्धिवडे विकल बे, अज्ञानी बे, जे पोतानी ने पारकी रीत जाणता नथी, माया जालमां मग्न बे, चमनाजरता के० धणी बे, ते जीव जाव कर्मना करनारा बे ॥ ६४ ॥ जे जीव मिथ्यामति अंधकारथी जीव अजीवने जिन्न पणे जा पता नथी, ते जीव सदाकाल जावित कर्मना कर्त्ता बे, एटले पोतपोताना कर्मनो जे स्वाव तेनेज जावित कर्म कहिये ॥ ६५ ॥ जे जीव अशुद्ध परिणतिने धरेबे, सर्व क्रियामा अहंकार बुद्धिथी श्रहं कर्त्ता एवं प्रमाण करबे, ते जीव अजाण थका अ शुद्ध परिणामना कर्त्ता यायने ॥ ६६ ॥ अथ शिष्य प्रश्नः - ॥ दोहराः ॥ - शिष्य कहैं प्रभु तुझ कह्यो, दुविध करमको रूप; दर्व कर्म पुदगल मई, नाव कर्म चिप ॥ ६७ ॥ करता दरबित करमको, जीव न होइ त्रिकाल; ब इह जावित करम तुम कहो कौनकी चाल ॥ ६८ ॥ करता याको कौन है, कौन करे फल जोग; के पुदगल के श्रतमा, के हुहुको संयोग ॥ ६५ ॥ अर्थः- दवे शिष्य प्रश्न पुढे बे के, हे प्रभु ! तमे कयुं वे के, कर्मनुं स्वरूप वे प्रका रनुं बे; एकतो पुद्गलमय ते पुद्गल पिंडरूप द्रव्य कर्म बे, अने बीजुं नाव कर्म बे ते चिडूप के० चेतना विकार रूप बेः ॥ ६७ ॥ वली स्वामी तमे एवं कयुं के द्रव्य क मनो करनार जीव त्रणे कालमां नथी, त्यारे जावित कर्म तमे कोनी चाल कहो हो ? ॥ ६८ ॥ ए जावित कर्मनो कर्त्ता कोण बे, ने एना कर्म फलनो नोक्ता कोण बे ? पुद्गल कर्त्ता जोतावे ? के खात्मा कर्त्ता, जोक्ता बे ? किंवा पुल घने आत्मा ए बे हुनो संयोग कर्त्ता जोक्ता बे ? ॥ ६ ॥ हवे या प्रश्ननो गुरु उत्तर थापेढे:- अथ गुरु उत्तर कथनं: ॥ दोहराः ॥ - क्रिया एक करता जुगल, यों न जिनागम मांहि अथवा करनी औरकी, और करे यों नाहि ॥ ७० ॥ करे और फल जोगवे, और बने नदि एम; जो करतासो जोगता, यहे यथावत जेम ॥ ७१ ॥ जाव कर्म कर्त्तव्यता, स्वयं सिद्धन हि हो; जो जगकी करनी करे, जग वासी जिय सोइ ॥ ७२ ॥ जिय करता जिय - जोगता, जाव कर्म जिय चालि; पुदगल करे न जोगवे, डुविधा मिथ्या जालि ॥ ७३ ॥ तातें जावित करमकों, करे मिथ्याती जीव; सुख दुख थापद संपदा, गुंजे सहजसदीव ॥ ७४ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. sou अर्थः- क्रिया करणी एक होय थने तेना करनारा जुगल के बे एवी वात जि नेश्वरना श्रागममा नथी कही, तेम पुद्गल अने जीव ए बेन एक क्रिया करे नही अथवा बीजानी क्रिया के अने करनार वली बीजोज , एपण वे नही, एटले पु दगलनी क्रिया जीव न करे अने जीवनी क्रिया पुद्गल न करे ॥ ७० ॥ ए रीते करे एक अने तेनुं फल जोगवनार बीजोज होय एवं बने नही, एवं जिनेश्वरना आग ममां नयी कह्यु, एटले पुदगलनी क्रियानुं फल जीव नोगवे नही; केमके जे कर्ता तेहिज नोक्ता; जे कर्म करे तेज फल जोगवे ए वात केहेवत प्रमाणे खरी बे. ॥७॥ नाव कर्मनी कर्त्तव्यता के क्रिया तेतो स्वयं सिक न थाय; एटले नाव कर्म पो तानी मेले सिझ नही थाय. तेथी एवं ठरे डे के जे जगत्नी क्रिया करे ते नाव क मनो कर्त्ता बे; एटले गमनागमन क्रिया करे तेज नाव कर्मनो कर्त्ता जगत् वासी जीव ॥ २ ॥ जीव ज कर्ता अने जीवज नोक्ता डे, जीवनी चल विचलताथी नाव कर्म उपजे , एथी नावित कर्म जीवनी चाल . ए नावित कर्मने पुजल करे नही, तेम जोगवे पण नही, एमां जे अद्वैत मतवाला द्विधा राखे बे; ते मिथ्या जाल बे ॥७३॥ तेमाटे जे मिथ्यात्वी जीव बे, ते नावित कर्मने करे . तेणे करी सुख फुःख श्रापदा संपदा सदा सहजे नोगवे ने ॥ ४ ॥ हवे एकांत वादिसांख्यमतना वचननुं वर्णन करे बे:-अथ एकांत वादी वर्णन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥- कोई मूढ विकल एकंत पळ गहै कहै श्रातमा अकरतार पूरन परम है; तिन्हसो जु कोउकहै जीउ करता है तासो, फेरी कहै करमको करता करम है; ऐसे मिथ्यामगन मिथ्याती ब्रह्म घाती जीव, जिन्हेके हिये अना दि मोहको नरम है; तिन्हको मिथ्यात पूरि करिबेको कहै गुरु स्यादवाद परवान श्रतम धरम है ॥ ५॥ अर्थः- कोई मोह मूढ जीव ज्ञानवडे विकल एकांत पद ग्रहीने एम कहे ले के, आत्मा अकर्ता , परम पूर्ण डे, ते एकांत वादीने कोई एवं कहे के, आत्मा कर्ता , तेने सांख्यमति प्रमुख एकांत वादी कहे जे के, कर्मनो कर्त्ता कर्मज बे. एवा मिथ्यात्वमां मन मिथ्यात्व जीव ब्रह्म घाती बे. तेमना हैयामां अनादि का लथी मोह कर्म लाग्युं रहे बे, ते मिथ्यात्वी जीवनुं मिथ्यात दूर करवाने स्याहाद रूप जे आत्म धर्म , ते धर्मज बधी रीत प्रमाण करी कहे ॥ ५ ॥ हवे जेम स्याहाद वस्तु खरूप ले तेम कहे बेः-श्रथ स्याहाद कथनं:॥दोहाः॥-येतन करता नोगता, मिथ्या मगन अजान; नहि करता नहि नो गता, निदचे सम्यकवान ॥ ६ ॥ सवैया इकतीसा॥:- जैसे सांख्यमति कहै अलख Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रकरणरत्नाकर जाग पड़ेलो. करता है सर्वथा प्रकार करता न होइ कब ही; तैसे जिनमति गुरु मुख एक पक्ष सुन, याही जति मानै सो एकंत तजो बही, जोलों डुरमति तौलो करमको कर ता है, सुमती सदा करतार कह्यो सब ही; जाके घट झायक सुनाउ जग्यो जब ही सो, सोतो जग जालसो निरालो जयो तबही ॥ ७७ ॥ अर्थः- मिथ्यात्वमां मग्न अजाण थको चेतन कर्त्ता बे. अने जोगता पण बे ने समकिति जीव निश्चयथी कर्त्ता पण नयी छाने जोक्ता पण नथी ॥ ७६ ॥ जेम सांख्यमति पोताना मतमां एवी प्ररूपणा करेले के, जे अलरूप बे ते स या कर्त्ता बे, पण क्यारे कर्त्ता थतो नथी, ने सत्व रज तम गुण प्रकृति कर्त्ता बे, एरीते जे सांख्यमतिवाला कहे बे, तेम कोई जिनमती पण कोई गुरुना मुखश्री निश्चय नयनो एक पक्ष सांजलीने एमज माने, एटले जीवने कर्त्ता माने बे. पण श्री जिनेश्वरना मतमां स्याद्वाद पक्ष बे. ते एवो ठराव बे के ज्यां सुधी दुष्ट बुद्धि मि यामती श्रहं बुद्धिमां बे, त्यां सुधी जीव कर्मनो कर्त्ता छे; श्रने सुमति श्रवेथी सदा कर्त्ता बे, जेवो बे तेवोज कर्त्ता कह्यो, जेना घटमां पोतानो झायक स्वजाव ज्यारे जाग्यो ते वखतथीज ते जगजालथी निरालो थइ, तेणे अर्ध पुल पराव मां संसार लावी मुक्यो ॥ ७७ ॥ हवे एकांत वादी बौधमती नि बुद्धिनुं वर्णन करे :- अथ बौध मति वर्णनं ॥ दोहरा ॥ - बोध बिनय वादी कहै, बिनु जंगुर तनुमांहि; प्रथम समे जो जीव है, डुतिय समे सो नांहि ॥ ७८ ॥ ताते मेरे मतविषे, करे करमजो कोइ सो न जोग वे सरवथा, और जोगता होइ ॥ ७९ ॥ ते :- बौध क्षणिक वादी बे, ते एवं कहे बे के शरीरमां रेहेनारो जे पदार्थ बे जंगुर वे एटले प्रथम समयमा जे जीव पदार्थ शरीरने विषे बे, ते बीजा स मां न पामिये, एथी सर्व कणनंगुर बे ॥ ७८ ॥ वली बौध कहे बे के मारा मनमां एवी श्रद्धा तरी बे, के जे कोई कर्म करेबे, ते तो कर्मना फलनो जोक्ता नथी. दण जंगुर पणाने लीधे बीजोज जोक्ता थाय बे ॥ ७९ ॥ दवे एकांत वादी बौधमतीना खंगननो उपदेश करेढेः - अथ बौध मतखंमन उपदेश: ॥ दोहा ॥ - यह एकंत मिथ्यात पष, डूरि करनके काज; चिद विलास श्रविचल कथा, जा श्री जिनराज ॥ ८० ॥ बालायन काढू पुरुष देख्यो पुर कइ कोश; तरुन जये फिरिके लख्यो, कहे नगर यह सोइ ॥ ८१ ॥ जो डुडु पनमे एक थो, तो तिन्हि सुमिरन कीय; और पुरुषको अनुजव्यो, और न जाने जीय. ॥८॥ जबयद वचन प्रगट सुन्यो, सुन्यो जैनमत शुद्ध; तब इकांत वादी पुरुष, जैन जयो प्रति बुद्ध ॥ ८३ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __. ११ - श्री समयसारनाटक. अर्थः- ए जे एकांत हणनंगुरपणुं ते मिथ्यात्व पद , तेने पूर करवाने चिद्वि लास अविचल कथा के जीवना अचल पदनी वात सामान्य केवलीना राजा श्री जिनेश्वर देव कहे. ॥ ७० ॥ कोईक पुरुषे बाल्यावस्थामा एक नगर दी होय ने ते पड़ी ज्यारे जुवानीमां श्राव्यो त्यारे फरीथी तेज नगरने तेणे जोयुं त्यारे तेने रेहेतां रेहेतां स्मृति श्रावी के, श्रा नगर तो में बालपणामां जोयु हतुं तेज बे. ॥१॥ हवे अही जीवना अचलपणानो संजव देखाडे:-के, बेहु कालमां जो ते एकज हतो ते वारे ते पुरुषे बालपणामां ते नगर जोयुं हतुं त्यारे तेने जुवानीमां तेनुं स्मरण थयु ए वात सत्य बे. एटले बने वखतमां नगर तेज खलं , तेम एक पुरुषनो अनुनव के जोगवेबु कार्य तेने बीजो पुरुष जाणी शके नही. ॥ २ ॥ ज्यारे था वात प्रगट सां जली अने जैनना शुरू मतनी वात सांजली त्यारे एकांतवादी पुरुषे प्रतिबोध पामीने जैनमत ग्रहण कीधो भने बौधमतने बोडी दीधो. ॥ ३ ॥ . हवे बौधमतीना दणनंगुरपणामां सद्दहणा केम थई ते कहे : श्रथ बौध मतीकी सहहना कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥- एक परजाय एक समैमे विनसि जाइ, दूजी परजाय दूजै समै उपजति है; ताकी बल पकरिके बोध कहै समै समै, नवो जीव उपजे पुरातनकी षति है; ताते मानै करमको करता है और जीव, जोगता है और बाके हिय ऐसी मति है; परजै प्रवानको सरवथा दरव जाने, ऐसे कुरबुद्धिकों अवश्य उरगति है ॥४॥ अर्थः- हरकोई अव्यनो एक समयमा जे एक पर्याय ,अव्य, क्षेत्र, काल, ना वने लीधे अवस्था नेद बे, तेतो पर्याय ते समदमांज विनाश पामे , अने बीजा समयमां बीजो पर्याय उपजे बे, एवी जैननी वाणी बे. ते वातनेज बौध मतीवाला निश्चलपणे पकमी राखीने कहे जे के, समय समय नवो नवो जीव उपजे बे, श्रने पाउला जुना जीवनी हाणी थायडे; वली आम माने के कर्मनो कर्ता कोई बीजो जीवने अने कर्मनो जोक्ता कोई बीजोज जीव जे. एम बौधमति कहे; अव्यना प र्यायतो समयमा फरे बे, तेने बौधमति पर्याय प्रमाणने सर्वथा प्रकारे अव्यज जाणे बे. एवा पुर्बुछिने अवश्य उर्गतिज प्राप्त थाय . ॥ ७ ॥ हवे उर्बुजि अने उर्गतिनु लक्षण कहे जेः-अथ उगति स्थिति लक्षणः॥ दोहराः ॥-पुर्बुद्धी मिथ्यामती, पुर्गति मिथ्या चाल; गहि एकंत उर्बुझिसों, मुगति न हो त्रिकाल ॥ ५ ॥ कहै अनातमकी कथा, चहै न श्रातम शुद्धि, रहै अध्यातमसों विमुख, मुराराधि पुर्बुकि ॥ ६ ॥सवैया इकतीसाः ॥-कायासे विचारि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. प्रीति मायाहिमे हारि जीति, लिये हरीति जैसे चरिलकी सकरी; चूंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहै नूमि,त्योंहि पाई गाडेपेंन बोडेटेक पकरी; मोहकी मरोरसों जरमको न गर पावे, धावै चिहु और ज्यों बढावै जाल मकरी; ऐसी दुर्बुझि नूलि फूटके फरोखे नूली, फूली फिरे ममता जंजीरनिसों जकरी. ॥ ७ ॥ बात सुनि चौक उठे वातहिसों लौकी उठे, बातसों नरम हो बातही अकरी; निंदाकरे साधुकी प्रशंसा करे हिंसककी, साता माने प्रजुता असाता माने फकरी; मोख न सुया दोख देखै तहां पेचि जाई, कालसो डराई जैसे नाहरसों बकरी; एसी मुरबुकि नूलो जूके फरोखे जूली, फुली फिरे ममता जंजीरनिसों जकरी ॥ अर्थः- मिथ्यामतिने उर्बुद्धि कहिये, अने मिथ्या चालने उर्गति कहिये, जे पुष्ट बुद्धि , ते एकांत मतीने ग्रहणेकरी रदेबे, तेने त्रणे कालमा मुक्ति न थाय. ॥५॥ हवे फुर्बुधिनी व्यवस्था कहेजेः-जे आत्माथी जिन्न होय ते अनात्मा कहिये. तेथ नात्मानी कथा करे, आत्मानी शुद्धता न जाणे, अने जे श्रात्माने आश्रयी विचार ने तेने अध्यात्म कहिये, ते तेनाथी पुराराध्य के० मुखे समजायो जाय; तेनाथी उर्बुद्धि जीव विमुख रहे डे ॥ ६ ॥ पुर्बुझिनो विचार कहेजेः-कायासाथे प्रीति विचारे; हार जीत करी मायामां गही रहे; हठ पकडी रहे; जेम हारल पदी पोताना पगमां लाकडी पकमीज राखे बोडे नही. वली बीजो दृष्टांत एक बे; जेम कोई एक चोर चुंगली बंध देई करी गोदने मेहल अथवा हवेली उपर चमावे , ते बंधना जोरथी गोह जुमीने पकडी राखे, ने त्यां पोताना पग घटी राखे, पण जे टेक पकडी ते मूके नही, तेम मोह कर्मनी मरोम लागी तेथी बननो ठगेर पामे नही, एटले चम बोमे नही. जेम मकमी जाल वधारती पसारती चारे तरफ दोमे , तेम चारे तरफ दोडती फरे, ए रीते पुर्बुछिये नूली जुग्ने जरुखे फुली रहे, ने ममतारूप 5 बुछिना जंजीरनी बेमीने जकडी रह्यो , ॥ ७ ॥ .. बली एवाने कोई अध्यात्मनी वात कहे त्यारे चोंकी उठे, ने नों जो करी उठे,कदा ग्रह करे श्रने पोताना मनने रुचती वातथी नरम थाय ने मनमानती वात न थाय तो प्रकृति अकारी करे, मोक्षमार्गना साधकनी निंदा करे, अने जे हिंसक अधर्म कहे, तेनी प्रशंसा करे, पोतानी मोटाईने साता सुख समजे असाताने फकीरी जाणे मोदनी वात सुहाय नही, ज्यां कोई दोष जुए त्यां चतुराईनु अनिमान बतावे, अने मृत्युथी एवो डरे के, जेम नाहीरथी बकरी मरे, ए रीते मरतो रहे एम बुद्धि जीव जूट्यो फरे, ने जूठने फरुखे जुलतो ममतारूप बेमीमां बंधाई रह्यो . ॥ ७ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ श्री समयसारनाटक. हवे एकांत पदीना मतनी स्थापनाउपर अनेकांत स्याहादी मतनी प्रशंसा करे : अथ अनेकांत श्लाघा कथनः॥ कवित्त बंदः।- केई कहै जीव बिन जंगुर, केई कहै करम करतार; केई कर्म रहित नित जंपहि, नय अनंत नाना परकार; जे एकंत गहै ते मूरख, पंडित अने कांत पखधार; जैसे जिन्न जिन्न मुगतागन, गुनसों गहत कहावे हार. ॥ ए॥ ॥ दोहराः॥-जथा सूतसंग्रह विना, मुक्तमाल नहि होश तथा स्याहादी विना, मोख न सधे कोई. ॥ ए॥ अर्थः- कोई बौध मती जेवा तो जीवने दणभंगुर कहे जे; कोई मिमांसक सर खा कर्मने कर्त्ता मानेके कोई सांख्यमती सरखा तो सदा जीवने कर्मरहित कहे . एरीते अनंत नय नाना प्रकार कहे , एमांथी जे एकांत पदज ग्रही रहे ते तो मूर्ख ने अने पंमित जन जे जे, ते अनेकांत पद ग्रहे, जेम एक मालामां मोतीनो समुदाय थापणी थापणी सत्तामा सज जुदा जुदा डे पण ते सुतरमा परोव्याथी स र्वनुं एक हार नाम पडे डे, ॥ नए ॥ तेवो अनेकांत मत बे, केम के, सूतरना संगवि ना मोतीनी माला बने नही, तेम स्याहादमत धारण कीधा शिवाय मोदनो साधन हार थाय नही. ॥ ए॥ हवे मत नेदतुं कारण पांच नय ने तेनुं वर्णन करेजेः- श्रथ पंच नय वर्णनं: ॥ दोहराः॥- पद सुनाउ पूरवउदे, निहचे उदिम काल; पदपात मिथ्यात पथ, सरबंगी सिव चाल. ॥ ए१ ॥ अर्थः- कोई पद वस्तु स्वनाव माने, कोई पूर्व कर्मनो उदय माने, कोई निश्चय माने, कोई उद्यम माने, श्रने कोई काल माने. एमां पदपात करी जे एकनेज माने ते मिथ्यात्व मार्ग कहेवाय. ॥ ए१॥ हवे जुदा जुदा मतनी व्यवस्था कहे :- अथ मतव्यवस्था कथन:॥ सवैया श्कतीसाः॥- एक जीव वस्तुके अनेक रूप गुन नाम, निरजोग शुद्ध पर जोगसों अशुद्ध है; वेद पाठी ब्रह्म कहै मीमांसक कर्म कहै सिवमति शिव कहै बौध कहे बुद्ध है; जैनी कहे जिन, न्याय वादी करतार कहै, ब हों दरसनमें वचनको धि रुक है; वस्तुको सरूप पहिचाने सो परवीन, वचनके नेद नेद माने सोई शुभ है। __ अर्थः-जीव वस्तु एक श्रने तेना गुण अनेक , रूप अनेक डे, अने नाम अनेक बे, निरजोग बे एटले परसंयोग विना पोताना खजावमा रह्यो शुकडे, अने परना संयोगथी अशुद्ध जे. वली वेद पाठी प्रनावे करी एने ब्रह्म कहे. मिमांसक जै मिनीय एने कर्म कहे शिवमती एटले वैशेषिक एने शिव कहे, बौधमती एने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. बुद्ध कहेबे, घने जैनी एने जिन कहेबे, न्यायवादी नैयायकार्दिक एने कर्त्ता कदेबे, एरीते बऐ दर्शनमां शुद्ध जीवने कलेवामां एकएकथी वचननो विरोध बे. ए बए द र्शनमां जे वस्तुनुं स्वरूप लखे तेज प्रवीण कदेवाय, अने वचनना जेद प्रमाणे सम निरूढ नयनिमित्ते वस्तुमां जेद प्रवीण माने तेज शुद्ध वात बे ॥ २ ॥ हवे ए दर्शननामत स्थापन करे बे:- अथ मतस्थापना कथनंः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - वेदपाठी ब्रह्म मानै निहचे स्वरूप गहै, मीमांसक कर्म मा ने दैमें रहतु है; बौधमति बुद्ध मानै सूबम सुजान साथै, शिवमती शिवरूप कालकी हरतु है; न्याय ग्रंथके पढैया थापे करतार रूप, उद्दिम उदीरी जर आनंद लहतु है; पांचो दरसनी तेतो पोषे एकएक अंग, जैनी जिनपंथी सरबंगी नै गढ़तु है ॥ ३ ॥ अर्थः- वेद पाठी के० वेदांती जीव वस्तुने ब्रह्म मानीने निश्चय स्वरूपने ग्रहे. ए. टले एक अद्वैत मत धारेबे. मिमांसक के० यज्ञना करनार जीवने कर्मरूप मानेवे, तेथी उदयरूप थया जे संस्कार तेनुं ग्रहण करेबे. बौधमती जीवने बुद्धमानीने कपनंगुर पाथी सूक्ष्म वजाव साधेबे, तेथी वस्तुना स्वनावनेज कर्त्ता मानेवे. शिवमती जे वै शेषिक ते जीवने कालरूप माने, छाने शिवने कर्त्ता मानेते. न्याय ग्रंथना जणनारा प्रमाणादिक सोल पदार्थने मानेबे, शुद्ध जीवनेज कर्त्ता मानीने उद्यमनी उदीरणामां चित्तने आनंद करी मन रहेबे, एम ए पांचे दर्शन वस्तु स्वजावादिक पांच नयना एक एक अंग पोषेठे, एटले एकांत पक्ष महे. अने जे जैन मार्ग के देवाय बे, तेतो सर्वांगी सर्व नय ग्रहण करेबे ॥ ७३ ॥ दवे जे मत स्थापनामा जुदी जुदी बुद्धि कही ते सर्व एक बे, एवं जणावेढेःअथ मत स्थापना एकत्वी कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - निचै अनेद अंग उदै गुनकी तरंग, उद्यमकी रीति लिये उद्धता सकति है; परजायरूपको प्रवान सूबम सुनाउ, कालकीसी ढाल परि नाम चक्र गति है; याही जांति तम दरबके अनेक अंग, एक माने एककों न माने सो कुमति है; टेक डारि एकमे अनेक खोजे सो सुबुद्धि, खोजी जीवे वादी मरे साची कहवति है ॥ ए४ ॥ अर्थः- सर्व जीवमां लक्षण नेद नथी एवं निश्चय अंग ते साचो तरतम योगे गु ना तरंग उठी रह्या बे तेथी उदय अंग साचो बे, अने जीवनी उद्धत शक्ति बे. त्यां ते प्रवर्त्ते बे, तेथी उद्यम अंगवडे कर्त्तापणुं साधुं बे, अने पर्याय कण कणमो जुदा जुदा बे, तेनारूपनुं प्रमाण सूक्ष्म बे. तेथी बौध सूक्ष्म वजावने साधेबे, ते पण सांच परिणामनी गति बे, ते फरता चक्रनी शक्ति बे, ते काल द्रव्यनी ढाल बे तेथी Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमयसारनाटक. १५ यहां कालने कर्त्ता कह्यो ते पण साचो बे, एरीते श्रात्मऽव्यमा अनेक अंग पामीये पण एमांथी एकज अंग माने अथवा एक अंग न माने तेनुं नाम कुमति बे, जे ए कांत पद डोमीने एक वस्तुमा अनेक अंग खोजे तेनुं नाम सुबुद्धि कहीए जेम के खोजी जीवे ने वादी मरे ए केहेवत , ते साची ॥ ए४ ॥ हवे स्याहाद, रूप कहेजेः-अथ स्याद्वाद स्वरूप कथनः॥ सवैया इकतीसाः ॥- एकमें अनेक है अनेकही में एक है सु, एक न अनेक क बु कह्यो न परतु है; करता करता है जोगता अनोगता है उपजे न उपजिति मूए न मरतु है; बोलत विचारत न बोले न विचारे कलु, नेषको न नाजन पै नेखसो धरतु है; ऐसो प्रजु चेतन अचेतनकी संगतीसो उलट पलट नट बाजीसी करतु है। ए५॥ अर्थः- एक अव्यमां अनेक पर्याय बे, श्रने अनेक पर्यायमां एक ऽव्य बे, ए थी हर कोई वस्तु एक बे, अथवा अनेकज बे, एम कांई केहेवातुं नथी. व्यवहार मां कर्ता , निश्चयमां अकर्ता डे, व्हवहारथी नोक्ता बे, निश्चयथी थनोक्ता , व्यवहारथी उपजे , निश्चयथी उत्पत्ति नथी, व्यवहारथी मुलं, ने निश्चयथी न श्री मन, व्यवहारथी बोले, विचारे, ने निश्चयनयथी कां बोले पण नही, ने विचारे पण नही, अविकल्पी, निश्चयथी नेषनुं नाजन के स्थानक नश्री, व्य वहारथी लेखनो धरनार बे. एवो चेतनवंत जे ईश्वर बे, ते पौलिक अचेतननि संगतीथी उलट पालट थई रह्यो, जाणे नटनी बाजीनो खेल करतो होय नी तेम खेल करे. ॥ ए५॥ अथ अनुजव व्यवस्था कथन:॥ दोहरा ॥- नट बाजी विकलप दसा, नाही अनुनौ जोग; केवल अनुनौ क . रनको, निरविकलप उपयोग. ॥ ए६ ॥ अर्थः- अनुजवमां श्रात्मप्रव्यनी जे अवस्था पामिये ते कहे. पूर्वे कही जे नट सरखी जीवनी उलट पालट बाजी डे ते तो विकल्प दशा . ए दशा अनुनवमा यो ग्य नथी, निःकेवल अनुजव करवाने निर्विकल्प उपयोग थापवो तेज सत्य बे.॥६॥ हवे अनुनवमां निर्विकल्प उपयोग आपवो तेनुं दृष्टांत कहेजेः अथ अनुनौ दृष्टांत कथनं:॥ सवैया इकतीसाः ॥-जेसे काहु चतुर संवारी हे मुगतमाल, मालाकी क्रियामें नाना नातिको विज्ञान है; क्रियाको विकलप न देखे पहिरन वालो, मोतीनकी शो जमें मगन सुखवान है; तेसे न करे न जुजे अथवा करे सु जुजे, जेर करे उर जुजे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. सब नै प्रवान है; यद्यपि तथापि वीकलप विधि त्याग जोग, निरविकलप अनुनौ अमृत पान है. ॥ ए॥ अर्थः- जेम कोई चतुर पुरुषे मोतीनी माला संमारीने बनावी ने तेमां जात जातनुं विज्ञान , पण ते मालानो पहेरनारो तेनी क्रियानो विकल्प जोतो नथी, पण मोतीनी शोनाथी मगन ने सुखवान थई रहे . जेम मोतीनी मालामां श्र नेक विज्ञान , तेम अही पण अनेक विकल्प बे, आत्मा कर्त्ता नथी, नोक्ता न थी, अथवा कर्ता ने, नोक्ता बे, अथवा राग हेषादिक करनारा बीजा डे, अने नो गवनारा बीजा ने; ए सर्व नय प्रमाण २. यद्यपि ए सर्व नय प्रमाण दे, तथापि ए सर्व विकल्प विधि त्यागवा योग्य जे. केमके अनुनव जे जे तेतो निर्विकल्प ले अने अमृतपान समान बे, उपादेय . ॥ ए ॥ हवे स्याहादी आत्माने कर्त्ता जे नयथी माने ते कहेजेः-श्रथ कर्ताकथन: ॥ दोहराः ॥- दरब करम करता थलख, यहु विवहार कहाउ; निहचे जोजे सो दरब, तेसो ताको नाज. ॥ एज ॥ अर्थः-पुजल व्यरूप कर्मनो कर्त्ता अलख पुरुष थात्मा बे, ए व्यवहारमा केहे वाई शके बे, निश्चय नयमां तो ए वात डे के जे जे अव्य होय तेवं तेनुं नाव स्वरूप होय, एथी पुल अव्यनी क्रिया पुनलवडेज बने. ॥ एG ॥ हवे जेतुं विपरीतपणुं बुद्धिमां नासेजे, तेवू कहे:-अथ विपरीत बुद्धिकथन: ॥सवैया इकतीसाः॥- ज्ञानको सहज ज्ञेयाकाररूप परिनमे, यद्यपि तथापि झान झान रूप कह्यो है; शेयझेय रूप यों अनादिहीकी मरजाद, काहु वस्तु का हको सुनाउ नहि गह्यो है; एते परि कोउ मिथ्या मति कहे ज्ञेयाकार प्रति नास निसों ज्ञान अशुद्ध व्है रह्यो है; याहि उरबुझिसों विकल जयो मोलत है, समुझे न धरम यों नर्ममा हि वह्यो है ॥ एए॥ अर्थः-झाननो ए सहज स्वन्नाव डे के, घट पट प्रमुख ज्ञेय के० जाणवाजोग जे पदार्थ बे, तेनो जे श्राकार , तेजरूपे श्रात्मानुं ज्ञान परिणमे, यद्यपि ए वात प्रमाण के तो पण ज्ञान जे जे, ते ज्ञानरूपज कदेवाय पण शेयरूप न कहेवाय अने जे ज्ञेय पदार्थ बे ते ज्ञानमा परिणम्यो बे तोपण शेयरूपज केहेवाय, पण ज्ञानरूप न केहेवाय एवी अनादि कालनी मर्यादा , कोई वस्तु बीजी वस्तुनो स्वनाव ग्रहण करे नही, तेम जुदो जुदो स्वजावपण धारण करे नही, एवी मर्यादाबंध वात, तेम उतां कोई वैशेषिक प्रमुख मिथ्यामति कहे, के ज्ञेय पदार्थना श्राकार प्रति जासे , तेथी ज्ञान पदार्थ अशुभ थई रह्यो . ज्यारे ए श्रशुद्धपणुं मटी जशे तारे मुक्तिथशे, एज पुष्ट Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. १७ बुद्धी मिथ्यात्व मोहनो विकल्प थयो, तेथी हि तहिं विकल थईने डोले बे, अ ने धर्म वस्तुनो स्वजाव जाणतो नथी. तेथी ममां वह्यो फिरे बे ॥ ॥ वे सर्व पदार्थ पोताना स्वभावमां व्यापीरह्याबे ते कहेतेः प्रथव्यापकताकथनः - ॥ चोपाईः ॥ - सकल वस्तु जगमें सहाई, वस्तु वस्तुसों मिले न काई; जीव वस्तु जाने जग जेती, सोऊ जिन्न रहे सबसेती ॥ ४०० ॥ अर्थः- जगत्ने विषे सर्व नाव असहायपणे वर्त्ते वे कोई कोईनो सहाय कारी नथी, एज अर्थ प्रगट पणे कहे बे, के एक वस्तु बीजी विलक्षण वस्तु साथे मले नही. जगत्मां जेटली वस्तु बे, तेटलीने जीव जाणे बे. एटले सर्व ज्ञेय वस्तु जी. वना ज्ञानमां परिणमे बे, तोपण जीव सर्व वस्तुथी जुदोज रहे बे, एम पोतपोतानां जुदां लक्षण बे तेथी जुदां रहेबे ॥ ४०० ॥ हवे व्यवहारनी केहेवत देखाडेबे : - :- अथ व्यवहार कथनंः ॥ दोदराः ॥ - करम करै फल जोगवै, जीव अज्ञानी कोई; यह कथनी व्यवहार की वस्तु स्वरूप न होइ ॥ ४०१ ॥ अर्थः- कोई अज्ञानी जीव बे, ते कर्मने करे अने तेनुं फल पण जोगवेढे, ए के देव त व्यवहारमां बे. पण जेवुं वस्तुनुं स्वरूप बे, तेवी केदेवत नथी ॥ ४०१ ॥ हवे व्यवहारने प्रमाण करे एवी विपरीत बुद्धिनुं वर्णन करे :विपरीत बुद्धि वर्ननं: ॥ कवित्त बंदः - ॥ श्राकार ज्ञानकी परिनति, पैं वह ज्ञान ज्ञेय नहि होइ; ज्ञेय रूप खट दरव जिन्न पद, ज्ञानरूप श्रातम पदसो; जाने नेद जान सुविचठन गुन ल बन सम्यग् दृग जोइ; मूरख कहे ज्ञान महि प्रकृति, प्रगट कलंक लखे नहिकोइ॥२॥ अर्थः- जेवो ज्ञेय वस्तुनो श्राकार बे, तेवी ज्ञाननी परिणती बे. एटले ज्ञान घट पटादिक ज्ञेया श्राकार परिणाम बे, पण ज्ञान वे ते ज्ञेय रूप न थाय. जगत्मां जे ज्ञेय वस्तु बेते व द्रव्य वे तेतो जिन्न पद के० जूदा जूदा खनावथी केहेवा योग्य बे, अने जे श्रात्मापं कहिये तेतो ज्ञानरूप के एवो जावनो जेद बे, ते गुण लक्षण लखीने जे जलो विचक्षण अध्यात्मनो वेत्ता सम्यग् दृष्टी होय तेज जाणे. पण वैशे षिक मति जेवो मूर्ख होय ते ज्ञानमां श्राकार विकल्प जोईने कड़े, अहो ! श्रा ज्ञानमां याकार जासे वे तो प्रगट कलंक बे. तेने कोई केम लखे नही ? ॥ २ ॥ दवे मिथ्यामति जीव पोतानी मतिने दृढ करेढेः - अथ मिथ्यामति कथनः॥ चोपाईः ॥ - निराकार जो ब्रह्म कहावे; सो साकार नाम क्यों पावे; ज्ञेयाका ज्ञान जबताई पूरन ब्रह्म नहि तबतांई ॥ ३ ॥ ज्ञेयाकार ब्रह्म मल माने; नास करनको उ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. दिम गने; वस्तु सुनाउ मिटे नहि क्योंही; ताते षेद करे सग्योही ॥४॥ दोहराः॥ मूढ मरम जाने नही, गहे एकांत कुपद; स्याद्वाद सरबंगमें, माने दद प्रत्यद॥५॥ - अर्थः-ब्रह्मतो निराकारज , ते साकार नाम केम धारण करे, जो ब्रह्मने आकार मानीये तो साकार केदूं जोये,ते केम बने, ज्यांसुंधी झेयनो थाकार ज्ञानमा प्रति जासे बे, त्यांसुधी पूर्ण ब्रह्म न केहेवाय ॥३॥ झेय वस्तुनो जे श्राकार के प्रति जासले ते ब्रह्मने मलरूप माने , ते मलनो नाश करवाने उद्यम करे, जे वस्तुनो जेवो व नाव होय तेवोज रहे पण कदी मटे नही, तेथी मूर्खजे शठ लोकजे ते श्रमथो जूगे वेष करे बे ॥४॥ जे मूर्ख बे ते मर्मनी वातने न उलखे ने एकांत पद जे जे कुपदा बे तेनेग्रहे अने जे डाह्यो पुरुष बे, ते स्याहाद मतना श्राश्रयश्री सर्वांगमय प्रत्यक्ष पणे माने, एटले निराकार साकार सर्व नय माने ॥५॥ हवे स्याछादने ग्रहण करनार जेसम्यक्त्वी जे तेनी स्तुति करे :-अथसम्यक्त्व स्तुतिः ॥ दोहराः॥-शुरू दरब अनुजौ करे, शुद्ध दृष्टि घटमांहि; ताते सम्यग्बंत नर, सहज उदक नांहि ॥६॥ अर्थः-सम्यक्त्वीना हृदयमा जे अनुभव , तेज शुद्ध अव्यने शुद्ध करे जे. केमके, हृदयमा वस्तु स्वन्नाव जाणवाथी शुभ दृष्टि बे, तेथी जे सम्यक्त्ववंत पुरुष बे, ते स हज वनावनो उदक थतो नथी, एटले सहज नावनो उद' मानतो नथी॥६॥ दवे परवस्तुमा परमव्यनुं श्रव्यापक पणुं दृष्टांतवडे दृढ करे: अथ श्रव्यापक अव्य कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥- जैसे चंदकीरन प्रगटि नूमि सेत करे, नूमिसीत होति सदा जोतिसी रहती है; तैसे ज्ञान सकति प्रकासे हेय उपादेय, झेयाकार दीसे पे न ज्ञेयकों गहती है; शुऊ वस्तु शुक परजायरूप परिनमै, सत्ता परवान मांहि ढाहे न ढहती है; सोतो औररूप कबहो न होई सरब था, निहचे अनादि जिनवा नी यों कहती है ॥७॥ अर्थः-जेम शरद्पुनमनी रात्री समे चंजना किरण प्रकाश वमे पृथिने श्वेत रूप करेले, पण ते चंडमानी ज्योति कई पृथ्वी बनती नथी, सदा ज्योतिरूप रहे, तेम ज्ञान शक्ति एवी के जे हेय उपादेय वस्तुने प्रकाशे त्यारे ज्ञान, ज्ञेय वस्तुने आकारे देखाय पण ज्ञेय वस्तुनुं स्वरूप ग्रहण करें नही. केमके, जे शुरू वस्तु ते शुद्ध पर्यायरूप पणेज परिणमे अने जेनी पोतानी सत्ताडे ते जेटलामां वस्तुनु साप पणुं बे, तेटला प्रमाण मांहे शुद्ध पर्यायनेज परिणमे बे, पण ए वस्तुनुं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७१ए स्वरूप ढांक्युं रहे नही, तेतो शुद्ध वस्तु कोईनी संगतीथी सर्व प्रकारे बीजे रूपे न थाय ए वात निश्चयमांबे, एवी अनादि कालनी जिनवाणी कहे ॥७॥ हवे वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप कहे जेः-अथ यथा स्वरूप कथनः॥ सवैया तेईसाः ॥- राग विरोध उदे तबलों जबलों यह जीव मृषा मग धावे; ज्ञान जग्यो जब चेतनको तब कर्म दशा पररूप कहावे; कर्म विलेन करे धनु जो तब मोह मिथ्यात प्रवेश न पावे; मोह गये उपजे सुख केवल सिझ जयो जगमांहि न आवे ॥७॥ • अर्थः-ज्यांसुधी श्राजीव मिथ्यात्व मार्गमा दोडे , त्यां सुधी राग शेषनो उदय बे, अने तेथी सत्य मार्गने पामतो नथी. ज्यारे शुभ चेतन वस्तुनुं ज्ञान जाग्युं त्यारे तो कर्म दशा जे जे ते पररूप जणाय, श्रने श्रात्मा तेथी जुदो जोवामां आवे. ज्यां चेतननो अनुभव डे त्यां सत्यार्थ पणे जाणवु होय ते कर्मनुं विलक्षण पणुं करे. एटले नेद विज्ञानवमे जिन्न लक्षण पणे जाणे, अने त्यां मोदरूप मिथ्यात्व प्रवेश करी शके नही. मोह गयाथी सुख समाधिमां केवल ज्ञान प्रगटे अने त्यारे जीव सिक थाय अने फरीथी जगत्ने विष श्रावे नही ॥७॥ हवे जेम अनुक्रमे वस्तु स्वरूपने प्रगट पणे स्वजावने वधारे ते कहे: अथ अनुक्रम वस्तु स्वरूप वर्षमानता कथनं:॥ अपय बंदः॥-जीव करम संयोग, सहज मिथ्यात रूप धर; राग दोष परिनत, प्रजाव जाने न श्रापापर; तम मिथ्यात्व मिटिगयो,नयो समकित उदोन ससि; राग दोष क वस्तु, नाहि लिनु माहि गये नसि; अनुनी अन्यासि सुखराशी रमि, जयो नि पुन तारन तरन, पूरन प्रकाश निहचलि निरखी, बनारसी बंदत चरन ॥ ए॥ अर्थः-श्रनादि कालनो जीवने कर्म साथे संयोग बे. तेथी सहज संबंधे मिथ्यात्व स्थिति रूप धारी जीव बे, श्रने क्यारेक जीव रागमा परिणम्यो रहे, अने क्यारेक केषनी परिणतिना प्रत्नावथी पोताने तथा परने जोणतो नथी. एवामां क्यारेक मिथ्या त्वरूप अंधकार मटी गयो ने समकितरूप चंडमानो प्रकाश थयो तेथी खबर पडीके रागडेष कई वस्तु नथी, एटले जली वस्तु नश्री; एम जाणी एना अनादरथी राग वेष क्षणमां नाश पाम्या अने ते पली पोताना अनुजवनो श्रन्यास कीधो, तेवारे तो सहज समाधिरूप सुखराशिमां रमी रह्यो. एरीते निपुण सर्व ज्ञानी, तरण तारण स मर्थ प्रनु थयो. हवे ए पूर्ण प्रकाश अनंत काल लगी निश्चय थयो तेना ध्यानने नि रखी बनारसीदास ते प्रजुना चरणने नित्य प्रते वंदेडे. ॥ ए॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. रागद्वेषना हेतुनु शिष्य प्रश्न करणे. गुरु उत्तर श्रापेजेः-श्रथ प्रश्नोत्तर कथन: ॥ सवैया श्कतीसाः ॥- कोउ शिष्य कहे स्वामी राग दोष परिनाम ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कोनहै; पुग्गल करमजोग किधो इंजिनिको जोग; किधो धन किधो परिजन किधों जोन है; गुरु कहे ग्रहों दर्व अपने अपनेरूप, सबनिको सदा असहाई परीनोन है; कोउ दर्व काहु को न प्रेरक कदाचिताते, राग दोष मोद मृषामदिरा अचोन है ॥ १० ॥ अर्थः-को शिष्य श्राचार्यने विनय पुर्वक पुरवा लाग्यो के हो स्वामी, श्रा माने राग द्वेष परिणाम उपजे बे. तेनो प्रेरक निश्चय पणे तमे कोने ठरावो ? ए टले श्रात्माने पौलिक कर्मनो योग , तेज श्हां हेतु , के पंचेंडियनो जोगदेतु के धन हेतु बे, के परिवार हेतु बे, अथवा मंदीर हेतु बे, ? इत्यादिकोमांची राग वेष परिणामनो हेतु कोण बे, ते कहो. गुरु कहे , हे! शिष्य, ए पुजल संबंध हेतु नथी, तेम व्य इडिय बे, तेतो पोतपोताने रूपे पोतपोतानी सत्तामा रहे बे, अने सर्व अव्योनुं परिणमन सदा असहाई डे, कोई कोनुं सहाय करतुं नथी. तेथी कोई काले कोई अव्य कोईनुं प्रेरक एटले हेतु नथी, माटे राग द्वेष परिणामनो हेतु तो मिथ्यात्व मोहकर्मरूप मदिरानी श्रचौन के उडतपणुं ॥१०॥ हवे कोई मूर्ख राग द्वेष परिणाममुं प्रेरक पुजलनुं बल ने एम कहे, तेने गुरु स मजावे :- अथ शिष्य प्रश्न गुरु उत्तर कथनं: ॥ दोहराः॥- कोऊ मूरख यों कहै, राग दोष परिनाम; पुगलकी जोरावरी, व रते श्रातम राम ॥ ११ ॥ ज्यों ज्यों पुग्गल बल करे, धरि धरि कर्मज नेष; राग दो षको परिनमन, त्यों त्यों हो विशेष ॥ १२ ॥ श्ह विधि जो विपरीत पख, गहे स दहे कोई सो नर राग विरोधसों, कबह निन्न न हो॥१३॥ सुगुरु कहै जगमें रहे, पुग्गल संग सदीव; सहज शुद्ध परिनमनको, औसर लहे न जीव ॥ १४ ॥ ताते चि दूतावनविषे, समरथ चेतन राज, राग विरोध मिथ्यातमें, सम्यकमेंसिव नाज॥१५॥ अर्थः-कोई मूर्ख लोक एम कहे के, आत्माराम विषे जे राग द्वेष परिणाम के, ते पुजलनी जोरावरीथी , एटले एज पुजलनुं जोर ॥ ११ ॥ जेम जेम कर्म नेख धारीने एटले कर्म वर्गनारूप धारीने पुजल अव्य श्रापणुं बल विस्तारे, तेम तेम रागद्वेषनुं परिणाम विशेषरूपे थाय बे, एम श्रात्मने विषे देखाय बे, ए सांख्यमतिर्नु केहेवू डे ॥ १५ ॥ ए रीते जे सांख्यमतिवाला आq विपरीत ग्रहण करे, अने सई देबे, ते पुरुष राग वेषथी एवी श्रझावमे पण कदी जुदो थाय नही ॥ १३ ॥ हवे स द्गुरु कहेडे, अरे! प्राणी !जगत्मा पुजलना संगमां जीव सदा रहे. अनादिथी ए पु Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७२१ लने जीवनुं संश्लेषपएं बे, तेथी सहज शुद्ध परिणामवालो जीव अवसर न पामे, एटले पोतानुं शुद्ध परिणाम ग्रहिशके नही ॥ १४ ॥ चेतनराय जे बे ते चिद्भावने विषे एटले ज्ञान जावविषे समर्थ बे, एटले जाणपणाना कार्यमां समर्थ बे, अने मिथ्यामति निमग्नताथी जाणपणामां राग द्वेष परिणाम देखाय बे, अने जीव सम्यग् मां रहे, त्यारे शिव जाव उपजेबे ॥ १५ ॥ हवे ज्ञान जावमां पुलनो जाव व्यापी शकतो नथी तेथी परजावनुं श्रव्यापक पण कहे :-थ व्यापकता कथनः ॥ दोहराः॥ -ज्यों दीपक रजनी समै, चिह्न दिसि करे उदोत; प्रगटे घट पट रूप में, घट पट रूप न होत ॥ १६ ॥ त्यों सु ज्ञान जाने सकल, ज्ञेय वस्तुको मर्म; याकृति परिनमन पे, तजै न श्रातम धर्म ॥ १७ ॥ ज्ञान धर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोइ; राग विरोध विमोह मय कबहु मूलि न होइ ॥ १८ ॥ ऐसी महीमा ज्ञानकी, निचे है घटमांहि; मूरख मिथ्या दृष्टिसों, सहज विलोके नांहि ॥ १५ ॥ अर्थ: जेम दीवो रात्रे चारे दिशाने प्रकाशमान करेबे, अने तेथी घटपटा दिक पदार्थ प्रगटे, पण दीपकनो प्रकाश घटपटरूप यतो नथी. ॥ १६ ॥ तेम सुज्ञान जेबे, ते सर्व ज्ञेय वस्तुनो मर्म जाणेबे तेना ज्ञानमां ज्ञेय पदार्थनो आकार पण परिणमेवे तो पण ज्ञान जे बे ते श्रात्म धर्म शुद्ध पणु बांडतुं नयी ॥ १७ ॥ ज्ञान धर्मथी जाणपणुं ते सदा अविचल बे ए जाणपणामां कोई विकार प्रवेश करे नही. राग द्वेषमोहमां जीव वदेबे खरो, तोपण जाणपणाने कही मूल तो नयी ॥ १८ ॥ एवो ज्ञाननो महिमा निवें स्वरूपे घटमां बे. पण मूरख मिथ्या दृष्टि सहज स्वरूपने विलोकतो नयी ॥ १८‍ ॥ वे नादिकाली जीवनो मूढ स्वभाव बे ते कहेबे :- अथ मूढ स्वभाव कथन:॥ दोदराः॥ परसुजाव में मगन व्है ठाने राग विरोध; धेरै परिग्रह धारना, करे म सोध ॥ २० ॥ न अर्थः- शुद्ध चेतन स्वजावथी बीजा स्वभाव जे बे ते पर स्वभाव बे, तेमां मन थईने राग द्वेषमां तेरी रह्यो, अने एज राग द्वेषथी परिग्रहनी धारणा धरेबे पण श्रात्मद्रव्यनो सोध करे नहीं ॥ २० ॥ वे मूढने कुबुद्धि ने पंडितने सुबुद्धि होय ते कड़े :- ाथ कुबुद्धि तथा सुबुद्धि विवरन:॥चौपाई॥ मूरखके घट पुरमति जासी; पंक्ति दिए सुमति परगासी; पुरमति कुबजा करम कमावे; सुमति राधिका राम रमावे ॥ २१ ॥ दोहा ॥ - कुब्जा कारी कू बरी, करे जगतमें खेद; लख राधे राधिका, जाने निज पर नेद ॥ २२ ॥ ९१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওহহ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- मूर्ख प्राणीना घटमां धर्मति नासी रही, अने पंडितना हैयामां सुबुद्धि प्रकाश थई रही जे. पुर्बुकि जे ते कंसराजानी दासी जे कुब्जा तेना सरखी . ते कर्मनी कमाई करेने अने सुबुद्धि जे ते राधिका सरखी बे. ते श्रआत्माराम नाय कने रमामनारी ॥१॥ कुब्जा दासी काली अने कुबमी बे, ते जगत्मां खेद प्रयास उपजावे एवा काम करनारी बे, अने सुबुझि राधिका जे , तेतो अलख ना यकनेज थाराधे . अने एज माहारो श्रेष्ट इष्ट नायक , अने बोजा सर्व पर बे; एवो नेद जाणे जे ॥२॥ हवे कुबुकि अने कुब्जानुं एकसरखं वर्णन करे:- अथ कुबुद्धि यथाः॥सवैया इकतीसाः॥-कुटिल कुरूप अंग लगी है पराए संग, अपनो प्रवान करि श्रापुहि विकाई है; गहे गति अंधकीसी सकती कमंधकीसी, बंधको बढाज करे धंध हीमें धाई है; रांडकीसी रीति लिए, मांग कीसी मतवारी, सांम ज्यों सुबंद डोले नांमकीसी जाई है। घरको न जाने नेद करे पराधिन खेद, याते ऽर्बुकि दासी कुत्र जा कदाई है ॥२३॥ अर्थः- जे कुबुझि ते मायाथी कुटील , तेज कुब्जा कुरूप अंग वाली, अने कुबुकि पारका संगमां लागी रहे, तेम कुब्जा पण एवीजे. कुबुकि पोताना श्रशुद्ध प्रमाण वडे पोतेज परवश थई, श्रने कुब्जा पण तेम वेचाश्वे. कबंध एटले मस्तक विना लडाई करे तेनी शक्ति बेफाम होपडे, ते आंधलानी माफक गति लई डोलतो फिरे तेम कुबुकि ने कुब्जापण माथा विनानी फिरे अने पुर्बुकि ते कर्मना बं धने वधारेजे, ने धंध के राग द्वेष विग्रहमा दोमेने, तेम दासी पण पारका घर धं धामा दोडती फरेजे. कुबुधि पोताना नायकने श्रोलखती नथी, तेथी रांग जेवी रीती राखे, तेम दासीपण नायकविना रांडनी रीते. वली सोहागननी रीते मतवारी थ की फरे. जेम सांढ जनावर स्वबंदे मोलेडे, श्रने नांडनी डोकरी लाज विनानी हो यजे, तेवी ए कुब्जा दासी बे. जेम कुबुकि पोताना घरनो नेद जे ज्ञानादिक वित्त ते जाणे नही, तेम दासी पण घरनो नेद जाणे नही, ने पराधीन थकी खेद कस्या करे माटे फुर्बुद्धिरूप दासी ते कुब्जा दासी सरखी ॥२३॥ हवे सुबुद्धि श्रने राधिका ए बेनुं एक स्वरूप कही देखामेजेः-अथ सुबुद्धि यथाः ॥सवैया इकतीसाः॥- रूपकी रसीली चम कुलफकी कीली सीली, सुधाके समुख कीली सीखी सुखदाई है। प्राची शान नानकी थजाची है निदानकी, सुराची नरवाची गेर साची ठकुराई है; धामकी खबर दार, रामकी रमन हार, राधा रस पंथ निमें ग्रंथनि मेगाई है; संतनिकी मानी निरवानी नूरकी निसानी याते सदबुझि रानी रा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्रीसमयसारनाटक. धिका कहाई है. ॥२४॥ दोहराः॥- वह कुवजा वह राधिका, दोउ गती मति मान; वह अधिकारनि करमकी, यह विवेककी खान. ॥ २५॥ दरब करम पुजल दसा, जा व कर्म मति वक्र; जो सुझानको परिनमन, सो विवेक गुनचक्र.॥ २६ ॥ अर्थः-सुबुकियात्मरूपनी रसीली बे. श्रने राधा पण रूपनी रसीली , अनेच मरूप तालाने खोलवानी कुंची बे. सुबुद्धि शील रूप सुधा समुद्रमा ऊली रदेडे अने राधा पण तेवी , एम ए बेन शील प्रकृतीयेकरी महा सुखदायी बे, ज्ञानरूप जानुनों उदय करवाने प्राची के पूर्व दिशा जेवी, निदाननी जाचनारी नथी, एटखे निस्ने हीपणे सुबुद्धि अने राधिका बे. निरवाची के वचन गोचर नथी, एवे ठेकाणे राची रहे, जेनी साची ईश्वरता धाम के जे पोतानुं श्रात्म घर तेनी खबरदार ने, जेनी साथे रमी रही ते राम एटले पोताना इष्टनी साये रमनारी जे. राधा रस पंथ ए टले राधावसनीना मार्गना रसग्रंथमां राधानामे ईश्वरनी प्यारी बे, तेवीज सुबुकि पण जे. एवी संतजननीमानीती थने स्वस्थपणे रेहेनारी श्रने नूर के शोनानी नि शाणी बे एवी सुबुकि वर्त्तने, माटे सुबुझिने राधिका राणी कहेवी ॥ २४ ॥ ए रीते कुबुद्धि कुब्जा थई श्रने सुबुछि राधिका थई, ए बे पोतपोतानी गति अने मति ली धी रहे. ते कुबुकि जे कुब्जा तेतो कर्म बंधनी अधिकारणी बे, अने सुबलि राधि का तो विवेकनी खाण . ॥ २५ ॥ ज्ञानावरणीय श्रादिक अव्य कर्म बे. ते पुद्गल रूप अने मतिनी वक्रता दे ते नाव कर्म जाणीए, जे सुझाननो परिणमन हाय तेने विवेक गुणनुं चक्र कहीए ॥ २६ ॥ हवे नाव कर्मना चक्रनी उपर दृष्टांत कहेजेः- श्रथ कर्म चक्र यथाः॥कवित्त बंदः॥-जैसे नर खेलार चोपरको, लान विचार करै चित चान; धरि स वारिसा बुझि बलसों, पासाको कुछ परे सुदाउ; तैसें जगत जीव स्वारथको करि उद्य म चिंतवे उपाज; लिख्यो ललाट हो सोई फल, कर्म चक्रको यही सुनाज ॥२७॥ ___ अर्थः- जेम कोई चोपटनो खेल करे, ते पुरुष चित्तमा लान विचारी खेलवानो चाह राखे, एहले हौस राखे, पोतानी बुद्धि बल ने जुग प्रमुखनो यत्न राखीने त्रिक चोक प्रमुख दाव उपर सारी संजाल राखीने रमे, पण दाव तो पासाने आधीन बे. तेम जगतनो जीव उद्यम करीने पोताना खारथनो उपाय चिंतवे, पण पोताना ल लाटमां लिख्युं होय तेज फल थाय,कर्म चक्र उदय माफक थाय एनो एज स्वजावलेश हवे विवेक चक्र उपर दृष्टांत कहे बेः- श्रथ विवेक चक्र यथाः॥कवित्त बंदः॥- जैसे नर खेलार सतरंजको, समुळे सब सतरंजकी घात; चले चा ल निरखै दोउ दल, मोह राग न विचारे मात, तैसे साधु निपुन शिव पथमे लदन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. लखे तजे उतपात; साधे पुन्य चिंतवे अन्नै पद, यह सुविवेक चक्रकी वात ॥ २७ ॥-- ॥दोहराः॥- सतरंज खेले राधिका, कुबजा खेले सारि: याके निसि दिन जीतवो, वाके निसि दिन हारि ॥शए ॥ दोहराः-- जाके उर कुबजा बसे, सोई अलख बजान; जा के हिरदे राधिका, सो बुध सम्यक वान ॥ ३० ॥ अर्थः-जेम कोश्माणस सेतरंजनो रमनार सेतरंजना खेलनी सर्व धात के० युक्ति अने दाव समजेने, पोताना पराया दल उदर नजर राखी चाल चाले, पोताना पारका वजीर हाथी प्रमुख मोहोरा गणतिमा राखी मनमां परने मांत करवानुं विचारे, तेम साधु लोक पंडित , ते मोद मार्गमा खेले; लदणथी वस्तुने जोय; तेमां उत्पातरूप कार्य होय ते गंडी दे, अने पोतानुं साधन करे, चित्तमां अन्नेद पद विचारे ए विवेक चक्रनी वात डे ॥२॥ सुबुकि राधिका ते सेतरंज खेली रही , थने कुमति कुब्जा पासा सरखो खेल खेले. तेमां था सुमति राधिका तेनु विवेक चक्रमा रातदिन जि तवं थायजे. अने कुमति कुब्जा ते कर्म चक्रमां रातदिन हारे ॥३॥ जेनां हैयामां कुमति कुब्जा वसे, तेतो अलख थात्माना अजाण जे; अने जेना हैयामां सुमति राधिका वसेजे, तेज सम कितवंत बुक कहेतां ज्ञाता कहिये॥३०॥ हवे ज्यां शुमशान डे त्यां शुक्रिया थाय ते कः-अथ छानक्रिया सहकार कथनः ॥सवैया इकतीसाः॥-जहां शुद्ध ज्ञानकी कला उद्योत दीसे तहां, सुझ परवान शुद्ध चारित्रको अंस है; ता कारन ज्ञानी सब जाने झेय वस्तु मर्म, वैराग विलास धर्म वाको सरवंस है; राग दोष मोहकी दसासों जिन्न रहे याते, सर्वथा त्रिकाल कर्मजालको विध्वंस है; निरुपाधि श्रातम समाधिमें विराजे ताते, कहिये प्रगट पूरन पर महंस है; ॥ ३१ ॥ दोहराः-झायक नाव जहां तहां, शुद्ध बरनकी चाल; ताते ज्ञान विराग मल, सिव साधे सम काल. ॥ ३ ॥ अर्थः-जे प्राणीविषे जे शुरू झाननी कलानो उद्योत देखायडे, ते प्राणी विषे तेज वखतमां श्रात्मानी शुद्धता प्रमाण करीने शुद्ध चारित्रनो पण अंस थाय ते कारणथी जे ज्ञाता होय तेतो ज्ञेय के हेय उपादेयरूप सर्व जाणवा योग्य वस्तुनो मर्म जाणे, त्यारे ते हेयने बांडे अने उपादेयरूप सर्व जाणवू तेने ग्रहे, एवो वैराग्यना विला सनो स्वन्नाव सर्व अंशे करी प्रगट थाय. अने वैराग्य श्राव्याथी राग केष मोहनी दशाथी प्राणी जिन्न रहे, तेथी पूर्वकृत कर्मनी निर्जरा थायडे, अने वर्तमानकालमां कर्म न बांधे, जे प्रकृति बुटी गई ते श्रागामिक कालमां बांधे नही, एम सर्वथा प्रकारे कर्मजालनो विध्वंस थाय. तेवारे राग द्वेषादिक उपाधि रहित आत्म समाधिमां बिराजे तेथी तेने पूरण परमहंस प्रगटपणे कहिये ॥३१॥ ज्यां शायक नाव Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ૩૨૫ बे त्यां शुद्ध चारित्रनी चाल पामिये तेथी शान अने वैराग्य मलीने समकाले शिवमार्ग साधे जे ॥ ३२ ॥ हवे ज्ञान क्रिया उपर अंध पंगुनु दृष्टांत देजेः- श्रथ ज्ञान क्रियाको दृष्टांतः॥दोहाः ॥-यथा अंधके कंध परि, चढे पंगु नर कोश; वाके दृग् वाके चरण, होहि पथिक मिलि दोश, ॥३३॥ जहां ज्ञान किरिया मिले, तहां मोद मग सोझ, वह जानै पदको मरम, वह पथमें थिर हो. ॥ ३४ ॥ अर्थः-कोई पांगलो नर जेम कोई आंधलाना खन्ना उपर चढवाथी, पांगलानी श्रांख अने ते अांधलाना पगथी चाले, त्यारे पंथ मार्ग होय तो बनेना मलवाथी गमन थाय, हाल चालवू बने, तेम ज्ञान वैराग्य मलेथी मोक्षमार्गे चलाय ॥३३॥ ज्यां ज्ञा श्रने क्रिया ए बे एका थई रहे त्यां मोदनो मार्ग थाय. एटले ज्ञानयी वस्तुनो मर्म जाणे श्रने क्रियाथी पोताना वस्तुवन्नावमा स्थिर थाय ॥ ३४॥ हवे ज्ञान अने क्रियानुं जेतुं स्वरूप ले तेवू कहे जेः- अथ ज्ञान क्रियाको स्वरूपः ॥दोहराः॥-झान जीवकी सजगता, करम जीवकी नूल; ज्ञान मोद अंकूर है, करम जगतको मूल. ॥ ३५ ॥ ज्ञान चेतनाके जगे, प्रगटे केवल राम; कर्म चेतनामें वसे, कर्म बंध परिनाम. ॥ ३६॥ अर्थः-शान ले ते जीवनी सजगता ने एटले जीवने जगावे बे: कर्म के क्रिया कार्य करवो ते जीवनी नूल डे, त्यां ज्ञान ने ते मोदनो अंकूर , एटले मोदनो हेतु बे, क्रिया कार्य करवो तेतो जवज्रमण- मूल डे ॥३५॥ चेतना बे प्रकारनी पूर्वे कही बे. तेमां ज्ञानचेतनाना जागवाथी केवल राम प्रगटे ते शुद्ध परमात्मा प्रगटे बे, अने बीजी कर्मचेतना कहिए तेमां थात्मानो बंधपरिणाम उपजे . ॥ ३६ ॥ हवे शाननो प्रजाव अने क्रियानो प्रनाव जिन्न जिन्न कही देखाडे : श्रथ ज्ञानक्रियाको प्रनाव निन्न कथनः॥चोपाई॥-जबलग ज्ञान चेतना जारी; तब लगु जीव विकल संसारी, जब घट झान चेतना जागी, तब समकिती सहज वैरागी. ॥३७॥ सिफ समान रूप नि ज जाने पर संजोग नव परमाने; शुझातम अनुनो श्रन्यासे, त्रिविध करमकी ममता नासे. ॥३०॥ अर्थः-ज्यांलगी क्रिया परिणामे करीने झान चेतना नारी थई एटले चेतना कर्मरूप थई, त्यांलगी तो संसारी जीव विकलरूप थई रह्यो डे अने ज्यारे घटमां झानचेतना जागृतरूप थई, त्यारे ते समकिती कहेवाय बे; तेने सहज वैरागी कहिए. ॥ ३७॥ श्रने ज्ञान चेतनाना जाणवाथी पोताना रूपने निश्चय सिझसमान Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. जाणे, श्रने पर पुजलना संयोगथी जे नाव उपजे, तेने तो पररूप माने, शुझात्मना अनुजवनो अभ्यास राखे; अव्यकर्म, नावकर्म, नोकर्म एवीत्रण जातिनां कर्मनी ममता गमावे. ॥ ३०॥ हवे ज्ञाता थईने जे पूर्वकाल विषे कर्म कीधांजे तेनी श्रालोयणाले, अने पोतानी विगत कहेजेः-अथ ज्ञाता पूर्व कृतकर्म बालोचन कथन:॥दोहराः॥-ज्ञानवंत अपनी कथा, कहै श्रापसों श्राप; में मिथ्यात दसाविषे, कीने बह विधि पाप. ॥ ३५॥ सवैया इकतीसाः ॥-हिरदे हमारे महा मोहकी विक लताही, ताते हम करुना न कीनी जीव घातकी; श्राप पाप कीने श्रोरनको उपदेश दीने, हती अनुमोदना हमारे याही बातकी; मन वच कायमें मगन ठहै कमाए कर्म, धाए ज्रम जालमें कहाए हम पातकी; ज्ञानके उदे लए हमारी दशा एसी नई, जेसी जान जासत अवस्था होत प्रातकी. ॥ ४० ॥ । श्रर्थः- ज्ञान चेतना जागतां ज्ञानवंत पोतानी कथा पोतानी मेले करे के में पूर्व कालमां मिथ्यात्व दशामां बहु जातनां पाप कीधां बे. ॥३७॥ हमारा हैयामा पूर्व काल विषे महामोहनी विकलता थई, तेथी में जीव घातनी करुणा न कीधी, ने निर्दयदशा राखी, पोतानी कायाथी तो पोतेज पाप कीधां अने बीजाने वचने करी पापनो उपदेश दीधो; अथवा कोईने पाप करतो देखीने में तेनी अनुमोदना करी एवी रीते मन वचन कायाना अशुफ व्यवहारमा मग्न थईने कर्मनी कमाणी करी मिथ्या जालमां एवी रीते दोड्या, तेथी श्रमे पातकी केहेवाइए बैये; हवे शाननो उदयथतां हमारी दिशा एवी थई के जेम सूर्यना नासवाथी प्रनात कालनी अवस्था उद्योतवंत थाय, तेम हमारी पण एवी अवस्था थई ॥ ४ ॥ हवे ज्ञाता ज्ञानना प्रजावधी जेवी श्रापणी अवस्था जाणे तेवी कहेडे. श्रथ ज्ञाता ज्ञान प्रनाव कथन:॥सवैया इकतीसाः॥-झान नान नासत प्रवान ज्ञानवान कहे, करुना निधान श्रमलान मेरो रूप है; कालसों अतीत कर्म चालसों अजीत जोग, जालसों अजीत जाकी महिमा अनुप है; मोहको विलास यह जगतको वास मेंतो, जगतसों शुन्य पाप पुन्य अंध कूप है; पाप किन कियो कौन करे करिद सु कोन, क्रियाको विचार सुपनेकी धोर धूप है ॥४१॥ अर्थः-झानरूप सूर्यनो प्रकाश होवाथी प्रमाण ज्ञानवान के ज्ञाता पुरुष एम कहे के, माझं स्वरूप करुणा निधान बे. तथा सर्वनुं पोताना जेवू स्वरूप जाणी ने सर्वनो हित वत्सल बे. अने अम्लान कदेता निर्मल बे, कालने वश नथी एटले Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ श्री समयसारनाटक. शाश्वत ले. कर्म चालनो तेने नय नथी, एटले कर्म जेना स्वनावनो नाश करी शके नही, मन वचन थने कायना योगनी जाल तेथी जे अजित , अने था जगत्नो वास , तेतो मोहतोविलास, पण मारो विलास नथी. जगत् कहिये जवज्रमण तेथी हुँ शून्य बुं, गति कर्म जगत् करे, तेतो मारा स्वरूपमा पाप पुण्य अंधकूप समान बे, एथी पाप कोणे कीg, हवे कोण करे , बागल कोण करशे; श्राजे क्रियानो विचार दिगमां श्रावे, तेतो स्वप्नानी दोरधाव समान मिथ्याव्यवहार ॥४१॥ . हवे मिथ्या परिणाममुं वर्णन करे:-अथ मिथ्यात्व परिणाम वर्णन: ॥ दोहराः ॥- में यों कीनौ यौँ करौं, अब यह मेरो काम, मन वच कायामें वसे, ए मिथ्यात परिनाम, ॥४२॥ मन वच काया करम फल, करम दशा जड अंग; दर वित पुजल पिंडमें, नावित नरम तरंग ॥ ४३॥ तांते जावित धरमसो, करम सुनाज थपूर; कोंन करावे को करे, कोसर लहे सब जूठ॥४४॥ श्रर्थः- मैं श्रावं कीg, श्राम करुंलु, हवे आ माझं काम , ते कहुबु, एरीते ज्ञान चेतना जाग्याविना मन वचन कायामां मिथ्या परिणाम वसे, ॥ ४२ ॥श्रा जे मन वचन कायाना जोग , ते कर्मनुं फल बे, अने कर्मनी दशा जडरूप अंग बे, ए जे मन वचन काया , ते पुजल अव्यनो पिंड बे, तेथी या मिथ्या तरंग नाव उपजे बे. ॥४३॥ तेमाटे आत्मानो नावित धर्म एटले शुक जाणपणुं तेथी मिथ्या तरंगरूप कर्म स्वन्नाव विपरीत ने तेने करावे कोण अने करे कोण ? अने सरल कोण बे एटले अनुमोदे कोण ए प्रपंच सर्व जुगेडे, ॥ ४ ॥ हवे था जोगथी क्रिया होय तेनी निंदा करे:-अथ क्रियाकी निंदा कथन: ॥दोहराः॥-करनी हित हरनी सदा; मुकति वितरनी नांहि गनी बंध परति विषे, सनी महा पुष मांहि, ॥४५॥ सवैया इकतीसाः॥-करनीकी धरनी में माहा मोह राजा बसे, करनी श्रज्ञाननाव राकसकी पुरीहै, करनी करम काया पुग्गलकी प्रती बाया, करनी प्रगट माया मिसरीकी बुरी है, करनीके जाल में उरकि रह्यो चि दानंद, करनीकी जट झान जान पुति फुरी है। श्राचारज कहै करनीसों विवहारी जीव करनी सदीव निहचै सरूप बुरी है ॥४६॥ अर्थः- करणी जे क्रिया बे ते सदा अहितनी करनारी , मुक्तिने देवा वाली नथी, था क्रियाने श्रागममां तो बंध पद्धतिमांज गणी बे, तेथी क्रिया महा सुख सहित डे. ॥४५॥ क्रियानी नूमिमा महा मोह राजा वसे, अने किया डे ते तो अज्ञान नाव राक्षसनी नगरी बे. एटले क्रियामां अज्ञान राक्षस रही शकेले. अने ए क्रिया ले ते तो कर्मनो पमनायो , अने काय योगनो पडायो जे. अने पुजलनो प Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्त प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मबायो . क्रिया के ते प्रगट माया जाल , तथा ते साकरनी बरी , मीठास थापी मारेले. श्रा करणीनी जालमां चिदानंद परमात्मा उरजी के मग्न थई रह्यो बे, थने क्रियाना श्रोथे ज्ञानरूप सूर्यनी ज्योति बपी रही बे. श्री श्राचार्य कहे के कि या करतो थको जीव व्यवहारीज कहिए. पण निश्चय रूपे देखवाथी क्रिया सदा सर्वदा बुरी बे, एटले खोटी जे.॥४६॥ . हवे पोतानी समज पामे तेने ज्ञाता कहेजेः- अथ ज्ञाता कथन:॥चौपाई॥- मृषा मोहकी परिनति फैली, तातें करम चेतना मैली; ज्ञान होत हम समुजी एती, जीव सदीव निन्न परसेती ॥४४॥ दोहराः॥-जीव अनादि सरूप मम, करम रहित निरुपाधि; अविनाशी अशरन सदा, सुखमय सिक समाधि ॥ ४ ॥ अर्थः- श्रमारामां पहेला मिथ्या मोहनी परिनति फेलाई, एटले मोहथी श्र शुक थई, त्यारे फेलाणी. तेनो उदय गाढो थयो, तेथी चेतना शुभ हती पण अशु कथई, कर्मसहित चेतना मलीन थई. हवे झान चेतना प्रगट थतां अमे एटली वात जाणी, के जे जीव ले ते निश्चये परजोगथी न्यारो ले ॥४॥ अनादि कालथी जे जीव प्राणधारी कहेवायजे, ते माझं स्वरूप जे. ते स्वरूप के ले ते कहेले. कर्म रहित बे; अने संयोगादिक उपाधि रहित बे; वली विनाश न पामे, सदा ईश्वर डे; कोई, शरण न राखे, अने था स्वरूप सिकसमाधिना सुखमय ॥४॥ हवे ज्ञानखरूप कर्म उपाधिथी जिन्नते कहेजेः- श्रथ ज्ञान स्वरूपी कथनः ॥चौपाई॥- में त्रिकाल करणीसों न्यारा, चिदविलास पद जगत उज्यारा; राग वि रोध मोह मम नाही, मेरो श्रवलंबन मुफमांही ॥४॥ सवैया तेइसाः।- सम्यकवंत कहे अपने गुनमें नित राग विरोधीँ रीतो, में करतूति करों निरवंबक, मोह विषे रस लागत तीतो; सुछ सुचेतनको अनुनौ करि, में जग मोह महा जड जीतो, मोष समीप नयो अब मो कहुँ काल अनंत ही विधि वीतो ॥५०॥ दोहाः॥- कहे विचलन में सदा, रह्यो ज्ञान रस राचि, सुझातम अनुनूति सों, खलित न होक दाचि ॥५१॥ पूर्व करम विष तरु नए, उदे लोग फल फूल; में इन्हको नहिं जो गता, सहज होहुँ निरमूल ॥५॥ अर्थः- हुं त्रणे कालमा क्रिया करणीथी न्यारो बु. मारे कर्मथी संग नथी तो कि याथी संगती केम थाय ?मारं पद के स्वरूप, चिदविलास के ज्ञान विलास बे, ते जगत्मां अजवालु बे. अने राग द्वेष मोहन्नाव वर्ते , तेतो माझं स्वरूप नथी. मारो अवलंब थाधार मारा स्वरूपमा डे ॥४ए॥ समकिती जीव पोताना गुण कहेजे. ढुं नित्य प्रत्ये राग केष मोहथी, रीतो के रिक्त एटले रहित बु. हुँ जे कि Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री समयसारनाटक. ए या करुंडं ते राग द्वेष विना वांगरहित करुंटुं. श्रने जे ए विषय रस डे ते, मोहती तो के मने तिक्त लागे एटले कमवो लागेले. पोतानी शुरू चेतनानो अनुभव क रीने में जगत्मां मोहरूप महासुनट जीत्यो. माझं एवं स्वरूप पामीने हुँ मोदने सन्मुख थयो, हवे मने एवी रीतथीज अनंत काल वीतो! एटले अनंत काल लगे ए वोज रहुं ए श्राशंसा डे ॥ ५० ॥ विचक्षण ज्ञानी पुरुष श्राशंसा करीने कहे के हुँ सदा ज्ञान रसमां राची रहुं अने हुं शुरू श्रात्मना अनुलवथी को पण कालमा स्ख खित न थालं! ॥ ५१ ॥ ए पूर्व कृत पुण्य पापरूप जे कर्म बे, ते विष वृक्ष जाणवा थने ते कर्मना उदयनो जे जोग ते विष वृदनां फल फुल . हुं श्रा उदय जोगनो जोक्ता नथी. राग द्वेषथी रहित वं. अनादिकालना साथे लागेला वि षय जोग तेसहज निर्मूल थाय ॥ ५५ ॥ हवे उदासीनताने वैराग्य कहिये तेनो महिमा कहेजेः-अथ वैराग्यमहिमाकथनः ॥दोहराः॥-जो पूरव कृत कर्म फल, रुचिसों मुंजे नांहि; मगन रहे आगे पहर, शुझातम पदमांहि ॥ ५३ ॥ सो बुध कर्मदसा रहित, पावे मोष तुरंत; मुंजे परम स माधि सुख, आगम काल अनंत ॥ ५ ॥ अर्थः- जे पूर्वकालमां कर्म कखं, तेनुं फल उदय थयु, ते फलथी रुचि लगामी जोगवे नही अने थारे प्रहर शुरू श्रात्मपदमा मग्न रहे ॥ ५३ ॥ तेज पंमित कर्म दशा रहित धईने तरत मोक्षपद पामे, ते पडी श्रागामिक कालमां अनंत काल लगी परम समाधिनुं सुख जोगवे ॥ ५४॥ हवे झानि पुरुषनो क्रमे क्रमे महिमा वधे ते कहेजेः- ज्ञानी पुरुष महिमा कथनः ॥बप्पय बंदः॥- जो पूरव कृतकर्म, विरष विष फल नहि मुंजे; जोग जुगतिकारज करंत ममता न प्रजुंजे; राग विरोध निरोध संग विकलप सबि बंडे, शुभातम अनुनौ श्रन्यासि सिव नाटक मंडे; जो ज्ञानवंत श्ह मग चलत, पूरत व्है केवल लहे सो परम अतींजिय सुखविषे, मगन रूप संतत रहे ॥ ५५ ॥ अर्थः- जो ज्ञाता थईने पूर्व कृतकर्म रूप वृदना विष फलने जोगवे नही एटले इष्ट फलथी रति न उपजे, अनिष्ट फलथी अरति न उपजे एवो झाता जे , ते मन वचन कायाना योगे करी युक्त बे, तेथी जोगनी गति के प्रवृत्तिये कार्य करेले, पण कार्यविषे ममता प्रजुंजे नही, एरीते राग द्वेषनो निरोध करीने योगना संगथी जे विकल्प उठेले, ते सर्व बांडे, शुरू श्रात्माना अनुजवनो श्रन्यास करीने शिवनाटक के जे थकी जीवन्मुक्ति होय एवं नाटक मांडे. जो ज्ञानवंत पुरुष एहिज मार्गे चा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो. ले तो पूर्ण स्वजाव पामीने केवल ज्ञान पामे पढी केवल ज्ञान पामीने उत्कृष्ट अ तींद्रिय सुखने विषे निरंतर मग्न रहे. ॥ ५५ ॥ दवे शुद्ध आत्मा द्रव्य बे तेनुं वर्णन करेढेः - श्रथ शुद्ध आत्मदर्ववर्ननः॥ सवैया इकतीसाः॥ - निरनै निराकूल निगम वेद निरभेद, जाके परगासमें जग त माईयतु है; रूप रस गंध फास पुदगलको विलास, तासों उदवंश जाको जरा गा इतु है, विग्रहसों विरत परिग्रह से न्यारो सदा, जामें जोग निग्रहको चिन्ह पाइ यतु है; सो दे ज्ञान परवान चेतन निधान ताहि, अविनाशी ईश मानी सीस नाइ यतु है; ॥ ५६ ॥ जैसो नर नेदरूप निचें तीत हुंतो, तेसो निरनेद अब नेदको न गो; दोसे कर्म रहित सहित सुख समाधान, पायो निज थान फिरि बाहिर नवगो; कबहु कदाचि अपनो सुजाउ त्यागि करि, राग रस राचिके न परवस्तु गगो; अमलान ज्ञान विद्यमान परगट जयो, यादी जांति श्रागम अनंत काल र देगो ॥ ५१ ॥ जबहितें चेतन विजाउसों उलटि श्रापु सम पाइ अपनो सुनाउ ग दि लीनो है; तबहीते जोजो लेन जोग सो से सब लीनो, जो जो त्याग जोग सो सो सब बांड दीनो है; लेवेकौ न रही ठगेर त्यागिवेकों नांदी और बाकी कहा ज यो जु कारज नवीनो है; संग त्यागि अंग त्यागि वचन तरंग त्यागि, मन त्यागि बुद्धि त्यागि थापा सुद्ध कीनौ है ॥ ५८ ॥ H अर्थः- जे निर्जय के हेवाय बे, निराकुल केदेवाय बे, निगम के उत्कृष्ट अर्थ के हे वाय बे, वेद के ज्ञानरूप केदेवाय बे, जेनो नेद नथी एवो प्रकाशवंत पदार्थ बे; जे मां सर्व जगत् शमाय बे; छाने जे ए रूप रस गंध स्पर्श जे विनाशी पदार्थो बे, तेतो पुलनो विलास बे, तेना उदवंस के० तेथी रहित जे बे तेनो जसगाइए बे. वली जे विग्रह के शरीर तेथी विरत के० रहित छाने द्रव्यजावरूप परिग्रह तेथी जुदो बे, जेमां सदाय त्रणे योगथी रहित पणानुं चिन्ह के० लक्षण पामीए बे, एवो पदार्थ तो ज्यां ज्ञान नेत्यां ते पदार्थ बे. तेथी ज्ञान प्रमाण बे. अने चेतनानो निधान बे. तेने अविनाशी ईश्वर मानीने मस्तक नमावीए बे ॥ ५६ ॥ दवे बीजुं पण शुद्धात्म द्रव्य सिद्धनुं वर्णन करे :- तीत कालमां पण शुद्धात्म द्रव्य निश्चय नयथी श्रद रूप हतुं ने व्यहारनये नेदरूप तुं. दवे केवल रूप पामिने निर्जेद के० जेद र हित जाणीए. हवे एवी दशामां कोण मूर्ख नेद ठरावशे ? नैयायिक लोक जे पोता नी प्ररूपणामां समाधियोगश्रात्माने कर्म रहित मानीने फरी संसारमां अवतार मानीने तेने नमस्कार करेबे, पण जे कर्म रहित थयो, सुख समाधान सहित थयो, पोतानुं स्थानक पाम्यो, ते पाढो बाह्य संकटमां केम पमशे? जेम धरतीनो जार उता Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७३१ रवा ईश्वर अवतार लेने दुःख पामेबे एवं मिथ्यादृष्टिनी के देवतमांबे, पण जीव शुद्ध थईने फरी राग रसमां राचिने कोई कालमां प्रापणो स्वभाव त्याग करीने पर वस्तु ने हे नही. केमके अम्लान ज्ञान के० जे फरी करमाय नही एवं ज्ञान वि द्यमान कालविषे प्रगट युं तेतो आगामिक कालमा अनंत काल लगी रहेशे ॥ ५७ ॥ दवे फी वतार लेवाना कारणनो अजाव कहेबे :- अनादिकालथी चेतन मि थ्यात्व जावरूप विनावमां रमि रह्यो हतो ते समयप्रस्ताव पामीने, विजावधी उप रांगे यई पोतानो शुद्ध स्वभाव हतो ते पोतेज लइ लीधो, तेथी ज्ञान दर्शनादिक जाव लेवा योग्य हतो ते लीधो, अने राग द्वेषादिक जाव त्यागवाजोग हतो ते सर्व त्यागी दीघो; ते लेवानुं बीजुं ठेकाणुं रचुं नदी, छाने त्यागवानुं पण बीजुं ठेकाणं रचुं नही. हवे हां बाकी नवुं कार्य करवानुं शुं रचुंबे के जे कार्य करवाने फरी अवतार लेवोपमे ? जे उपाधिसंग हतो तेतो सर्व त्यजीने एटले अंग त्याग के० काय योग त्यागिने, वचन तरंग त्याग के० वचन योग त्यागीने तथा मनोयोग त्यागिने बुद्धि त्याग के विकल्प त्यागीने श्रात्माने शुद्ध करी लीधो ॥ ५८ ॥ दवे बाह्य द्वेष धरवो ते द्रव्यलिंग कहिए ते एकांतपणे मोदनुं कारण नथी ते कहे :- अथ एकांत द्रव्यलिंगी की निंदा: ॥ दोहराः ॥ - शुद्ध ज्ञानके देह नहि, मुद्रा द्वेष न कोश; ताते कारन मोषको, द वलिंग नहि दो || ५० ॥ द्रव्य लिंग न्यारो प्रगट, कला वचन विन्यान; अष्ट महारिधिष्ट सिधि, एक होहि न ज्ञान ॥ ६० ॥ अर्थः- यात्मा तो शुद्ध ज्ञानमय बे. अने शुद्ध ज्ञानने देह नथी, अने ज्यारे देह नयी त्यारे ज्ञान ने मुद्रा नेष पण कोइ नथी. तेथी मोदनुं कारण द्रव्य लिंग होय नही. एटले नेपलीधे मुक्ति नथी ॥ ५७ ॥ ज्ञानथी द्रव्यलिंग तो प्रगट पणे जुडुंज बे. क लाविज्ञान, वचन विज्ञान, ते ज्ञानथी न्यारां बे तथा आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, बुद्धि, उपयोग, संग्रह संलीनता, ए अष्ट महा रिद्धि बे. श्रने अणिमा, म हिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व, वशित्व, ए श्रष्टमदा सिद्धि बे. ते पण ज्ञान नथी ॥ ६० ॥ हवे एटलां महिमावंत स्थानक बे, तो पण ए ज्ञाननां स्थानक नथी ते कहे : अथ ज्ञान अजाव स्थानक कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - नेषमें न ज्ञान नहि ज्ञान गुरु वर्त्तनमें, मंत्र तंत्र तंत्रमें न ज्ञानकी कहानी है; ग्रंथ में न ज्ञान नहिं ज्ञान कवि चातुरी में वातनिमें, ज्ञान नहीं ज्ञान कहा वानी है; तातें नेष गुरुता कवित्त ग्रंथ मंत्र वात, इनतें घतीत ज्ञान चे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. तना निसानी है, ज्ञानहीमें ज्ञाननही ज्ञान उरगेर कहू, जाके घट ज्ञान सोइ ज्ञा नको निदानी है ॥ ६१॥ अर्थः- वेषमा ज्ञान न पामीए श्रने गुरुवाई के गर्वपणुं महोटाश पणुं तेमां पण ज्ञान- स्थानक नथी अने मंत्र, तंत्र, यंत्रमा ज्ञाननी कहेणी नथी तथा ग्रंथ शास्त्र प ढवाथी पण ज्ञान प्राप्त थतुं नथी; कवितामां, चातुर्यतामा ज्ञान नथी. वातनी चतुरा मां ज्ञान नथी; अने जे वाणी ते शुं ज्ञान बे? अर्थात् वाणी पण ज्ञान नथी.माटे नेख,गुरुता, कविता, ग्रंथ, मंत्र, यंत्र, तंत्र, वात ए सर्वथी अतीत के० जुदीज ज्ञान वस्तु , ते चेतननी सहिनाणी बे. ज्ञानतो क्यारे जाणवू, के जे अशुक पणे होय तेतो ज्ञान न कहेवाय, माटे पूर्वे जे स्थानक कह्यां तेथी जूदीज कोश् शान वस्तु , माटे जेना घटमा ज्ञान प्रगटयुं, तेज छानन मूलकारण वे ॥६१॥ .. हवे जेपूर्वे वेष प्रमुखना धारक कह्या तेनी मूढता कहि देखामे बेः अथ नेषादि धारक मूढ यहु कथन:॥सवैया इकतीसाः॥-नेष धरे लोगनिकों वंचे सो धरम उग, गुरु सो कहावे गुरु वाई जाते चहियें; मंत्र तंत्र साधक कहावे गुनी जागर, पंमित कहावे पाक ताई जामें लदिये; कवित्तकी कलामें प्रवीन सो कहावे कवि, वात कही जाने सो प वारगीर कहिये; ए तो सब विषेके निखारी मायाधारी जीव, इन्हकों विलोकिकें द याल रूप रहिये ॥६॥ अर्थः- वेष धरीने लोकोने उगे, जरमावे ते धर्म ठग कहेवाय, एटले तेने गु रुतानी चाहना होय ते गुरु केहेवाय.मंत्र,यंत्र,तंत्रादिक गुणनो जे साधक होय ते जा गर केहेवाय.अने जेमां पंमिताई रही,ते पंडित केहेवाय.कवित चातुरिनी कला मां जे प्रवीण होय तेतो कवि केदेवाय. वातो बनावी बनावीने कही जाणे ते पवारगर केडेवाय एटली अवस्थाना धरनारा बे. ते सर्व इंडियविषयना याचक मायाधारी जीव बे. तेने जोईने मनमां एवं विचारिये के अहो! इति आश्चर्य! ए बापमा केम पोतानो खार्थ खोय, एवी रीते तेना उपर दयालरूप थई रहे ॥६॥ हवे जीवना श्रनुजवनी योग्य दशा कहे बेः- श्रथ अनुनव जोगता कथनः ॥दोहराः॥- जो दयालता नाव सो, प्रगट ज्ञानको अंग; 4 तथापि अनुनो द शा, वरतै विगत तरंग ॥ ३॥ दरशन ज्ञान चरण दशा, करे. एक जो को, थिर व्है साधे मोष मग, सुधी अनुजवी सोश ॥६॥ अर्थः- जे आत्माने शुरू दयालता नाव प्रगटे, तेतो ज्ञान- अंग प्रगट थयु एम जाणीए. पण अनुजव दशा जे ,ते तो विगततरंग के विकल्प रहित वर्ते॥६३॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७३३ वली दर्शन ज्ञान चारित्रनी दशाने विकल्प रहित एकपणे श्रात्माने जुए, एज रीते स्थिररूप थश्ने मोक्ष मार्गने साधे ने तेनेज सुधी केएसुबुद्धिवंत श्रनुजववंत कहिये॥६॥ हवे निःसंदेह शुद्ध स्वरूप पाम, तेनो महिमा कहे बेः-श्रथ अनुनव महिमाकथनः ॥ सवैया इकतीसाः॥- जोर दृग् ज्ञान चरणातममें नवि गेर, नयो निरदोर पर वस्तुकों न परसे; सुद्धता विचारे ध्यावे शुक्षतामें केलि करे, सुकतामें थिर है अमृत धारा वरसै; त्यागी तन कष्ट व्है स्पष्ट श्रष्ट करमको, करे थान नष्ट नष्ट करे थोर करसे; सोई विकलप विजई अलप कालमांहि, त्यागि नो विधान निरवान पद दरसे ॥६५॥ अर्थः- जे कोई दर्शन झान चारित्ररूपी श्रात्माने विषे झानने ठेकाणे वेरावीने वाट बांधे, त्यां निरदोर के संशय रहित थईने परवस्तुनो स्पर्श न करे, त्यां निश्चय नय ग्रहण करीने शुहताज विचारे, शुहताज ध्यावे, अप्रमादि थईने शुद्धतामां केलि करे, शुक्ल ध्यानना प्रथम पायामां प्रवेशकरी शुद्धतामां थिर थईने महा श्रानं दरूप अमृतनी धारा वरषावे. याही अवयवरूप लक्षण बे. तेथी शरीरना कष्टने त्या गेले. लीनताथी शरीर कष्ट न जाणे त्यारे स्पष्ट थईने एटले वीर्य फोरवीने श्रावे क मनां स्थानने नष्ट करे एटले कर्मोने सत्ता थकी चलायमान करे अने नष्ट करे के निर्जरा करे ऐसे औरईकैसे के० ते जीव कर्मोने याकर्षिने निर्जरावे ते जीव विकल्प जालनो विजय करीने अल्प कालमांज जो विधान के जवश्रेणिने त्यागी मोद पद देखे एटले पामे ॥ ६५ ॥ हवे शिष्य पुढे ले के ए अनुनय पामवो महा विषम ते उपर गुरु शिक्षा देनेः अथ अनुभव शिदा कथनः॥ चौपाईः ॥-गुन परजैमे दृष्टि म दीजे; निरविकलप अनुलो रस पीजे; श्राप स माश् श्रापमे लीजे; तनपा मेटि अपनपो कीजे ॥ ६६ ॥ दोहराः ॥-तजि विनाव हु जे मगन, सुझातम पदमां हि; एक मोष मारग यहे, और दूसरो नांहि ॥ ६७ ॥ अर्थः-श्रात्माना गुण पर्याय अनेक डे, पण तेमां दृष्टि न देवी, मात्र निर्विकल्प अव्यनो अनुभव रस पीवो. श्रात्मा श्राधारमा आत्मानो समास करी लेवो एटले लय लगामवी, एटले आपणे शरीर धारी बीए, ते दशानु काय योग पणुं ते मटावी आत्म स्वरूप करीए ॥ ६६ ॥ श्रात्माना मूल खन्नाव विना बीजुं सर्व विनाव पणु बे, तेहने त्यजीने शुरू श्रात्माना चिदानंद स्वनावमांज मग्न थश्ये, एक अद्वितीय मोदनो मार्ग एज . तेथी बीजो को मोदनो मार्ग नथी ॥ ६ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो.. . हवे शुद्ध पारस्वरूपना अनुनवविना महाव्रत्ति पण अव्यलिंगी जाणवा ते कहे: अथ व्यलिंगी व्यवस्था कथन:॥सवैया इकतीसाः ॥-कश् मिथ्या दृष्टि जीव धारे जिन मुजा नेष, क्रियामें म गन रहे कहे हम जती है; अतुल अखं मलरहित सदा उदोत, ऐसे ज्ञान नाव सों विमुख मूढमति है; श्रागम संजाले दोष टाले विवहार नाले, पाले वृत्त यद्यपि तथापि अविरती है; आपुकों कहवे मोष मारगके अधिकारी मोषसों सदीव रुष्ट पुष्ट, पुरगति है. ॥ ६७ ॥ दोहराः॥-जे विवहारी मूढ नर, परजे बुद्धी जीव, तिनको बा डिज क्रीयको, हे अवलंब सदीव. ॥ ६॥ ॥ अर्थः-कैक जीव मिथ्या दृष्टि डे अने आचार्य उपदेश रसथी जिन मुखानेषधारी ने अने साधुनी क्रियामां मग्न रहेडे, अने पोताना मनथी अथवा कोईना पूवाथी अमे जति बश्ये एम कहे एटले महाव्रत्ति बैये. अने जेनी तुलना नथी एवं अखंड के संपूर्ण विनाव मलरहित सदा प्रकाशवंत पोतानुं अनुजवरूप जे ज्ञान नाव डे तेथी विमुख डे माटे मूढमति बे. ते क्रिया करेबे, बागम सिफांत संनारेबे, अने श्रादारादिकना दोष टाली व्यवहारमा दृष्टि राखेडे, एम यद्यपि महावृत्त पाले ने, तोपण निश्चय नयथी ए अविरतीज कहीए. एवा जे जीव ते पोते मोक्ष मार्गना अधिकारी लोकमां कहेवाय. मोक्षथी ए सदा रुग्याज रहे एटले अन्नव्यने पण क्रिया केवल नवमा ग्रैवेयकसुधी गति कही बे; पाबो ए मुख पुर्गतिमां पडेना जे को मूर्ख मनुष्य व्यवहारमांज रहे अने जे जीव पर्याय बुद्धिवंत जे ते शुज गतियो जीव होय तो जली एवी पर्याय बुधि धारे तेने तो बाह्य क्रियानुं श्रव लंबन सदाय कयुंडे ॥ ६॥ वे व्यवहारे महामूढ तेनुं वर्णन करेजेः- श्रथ महामूढ बननः॥चौपाई॥-जेसे मुगध धान पहिचाने; तुष तंडुलको नेद न जाने; तैसे मूढमती व्यवहारी; लखे न बंध मोष विधि न्यारी ॥॥ दोहराः॥-कुमति बाहिज दिष्टिसो, बाहिज क्रिया करत, माने मोष परंपरा, मनमें हरष धरंत ॥ १॥ शुधात्तम श्रनुजो कथा, कहे समकिती को, सो सुनिके तासों कहे, यह सिवपंथ न हो ॥ ७ ॥ अर्थः-जेम को मननो नोलो पुरुष ३ ते धानने तो ओलखे पण तूस अने तंफुल मां जिन्नता ले ते न जाणे तेम, जे व्यवहारी मूढमति ने तेतो बंधविधि अने मोद विधि जदो जूदो लखी शके नहीं; केवल विधि जाणे ॥ ७० ॥ जे कुमति होय ते प र्याय बुकिथी शाता वेदनीय पणे समाधि सुख जाणीने बाह्य अष्टिथी तेनी हेतुरूप बाह्यक्रिया करे अने बाह्यक्रियामां मग्न होय तो तेथी तेने निर्जरा मानीने मोक्ष Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७३५ परंपरा माने अने मनमां श्रानंद पामे ॥ ७१ ॥ ते मूढने कोइ समकिती जीव शुद्ध आत्मानी अनुभव दशाने मोनुं कारण कहे तो तेनुं वचन सांजलीने तेने एवं कहे के ए रीतेतो मोक्षमार्ग थाय नदी ॥ ७२ ॥ हवे मूढ तथा ज्ञानीनुं लक्षण कदेबे :- छाथ मूढ तथा ज्ञानी लक्षण कथनः॥ कवितः। - जिन्दके देह बुद्धि घट अंतर, मुनि मुद्रा धरि क्रिया प्रवानहि; ते दि ध बंध करता, परम तत्वको नेद न जानहि; जिन्दके दिये सुमतिकी क निका, बादिज क्रिया द्वेष परमानदि; ते समकिती मोष मारग मुष, करि प्रस्थान नव स्थिति जानहि ॥ ७३ ॥ अर्थः- जेना हीयामां देह बुद्धि रहेने एटले देहधारी ने पण जिन्नपणे जाणतो नयी ने मुनीश्वरनी मुद्रा धारिने क्रियानेज प्रमाण करेढे, तेतो हीयानो अंध बे छाने बंधन करनार बे ने परम तत्त्वके० मोक्ष तत्त्वना भेद ने जाणतो नयी अने जेना हैयामां सम्यग् दृष्टिने लीधे सुबुद्धिनी करणीका जागी तेतो बाह्य क्रियाने जेष रूप प्रमाण करे. तेनेतो समकिती कही ए; ते जीव मोक्ष मार्ग ने सन्मुख प्रस्था न के० प्रयाण करीने जवस्थितिने निश्चयेनांजे बे ॥७३॥ दवे संपथी निःकेवल उपादेयरूप मोक्ष मार्गनो उपदेश देते:Bar मोक्षको उपदेश संक्षेप मात्र कथन: - ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - श्राचारिज कड़े जिन वचनको विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो !, बहुत बोलवेसों न मकसूद चुप जली, बोलीए सुवचन प्रयोजन है जितनो; नानारूप जलपसों नाना विकल्प उठे, ताते जेतो कारिज कथन जलो तितनो; शुद्ध परमातमको अनुमौ श्रन्यास कीजे, यहे मोष पंथ परमारथ है इतनो ॥ १४ ॥ दोहराः ॥ - सुद्धातम अनुजो क्रिया, सुद्ध ज्ञान दृग दौर, मुकति पंथ साधन वहै, वाग जाल सब और ॥ ७५ ॥ अर्थ :- श्राचार्यजी शिष्यने कहे बे. अहो! शिष्य ! जिनेश्वरनां वचननो विस्तार तो नय प्रमाण करीने अगम छापार बे. छामे केटलोक कहीए, यहीं बहु बोलवु ते अ मारी मकसुद नथी तेथी चुप रहेनुं तेज ठीक बे, घने जेटलुं प्रयोजन बे तेटलुंज बोल पण नाना प्रकारनु जल्प के० बोलवुं कहिये तो नाना प्रकारना विकल्प उवेबे, तेथ जे एक कार्य पुरतुंज बोलकं बस बेशुद्ध परमात्म द्रव्यना छानुनव योगना अन्यास करीए एज मोक्ष मार्ग जाणीए, बधी वातमां एटलोज परमार्थ बे ॥ ७४ ॥ जे क्रियाथी शुद्ध श्रात्मानो अनुभव थाय तेज क्रियाबे अने शुद्ध ज्ञान दृष्टिनी दोर तेज मुक्ति पथनुं कारण बे. बीजु सर्व वचनाम्बरवे ॥ ७५ ॥ - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. हवे शुद्ध जीव व्यनुं वर्णनः- अथ शुद्ध जीव अव्य बननः. ॥ दोदराः-॥ जगत चढु श्रानंदमय, ज्ञान चेतना नास; निर्विकल्प शाश्वत सुथि र, कीजे अनुनौ तास. ॥ ७६ ॥ श्रचल अखंमित ज्ञानमय, पूरन वीतममत्व, ज्ञान गम्य बाधा रहित, सो है श्रातम तत्त्व. ॥ ७ ॥ अर्थः- जे पदार्थ जगतमां चकुजेवो ने अने श्रानंदमय बे,जेनी ज्योति ज्ञान अने चेतना बे, जेमां कोई विकल्प नथी, नेद नथी, अने शाश्वतो वे तथा स्थिर बे, जे पदार्थनो श्रनुजव करीए तो मुक्ति पामीए. ॥ ७६ ॥ जे कोकाले पोताना खनावथी चलायमान थाय नही एवो अखंडित झज्ञानमयजे, संपूर्ण समाधिवंत अने ममत्व र हित, इंघिय ग्राह्य नही तेथी ज्ञान गम्य ने श्रने अवेद्य श्रन्नेद्यपणाथी बाधा रहित बे, तेज श्रात्म तत्त्व कहीए. ॥ ७॥ ॥इति श्री समयसार नाटक ग्रंथनो दशम सर्व विशुद्धिनामा घार बालाबोधरूप संपूर्ण थयो॥ ॥ दोहराः ॥- सरव विसुद्धी धार यह, कयुं प्रगट शिवपंथ; कुंद कुंद मुनिराज कृत, पूरन नयो गरंथ. ॥ ॥ अर्थः- जे छारमा श्रात्मानी सर्व विशुद्धि पामिये तेज धार का, ते प्रगटप णे मोक्षनो मार्ग कह्यो . श्री सीमंधर स्वामीनी वाणी सांजलीने श्री कुंदकुंदाचार्ये आग्रंथ कीधो. एवी संप्रदाय वात, ते ग्रंथ संपूर्ण थयो. ॥७॥ हवे ग्रंथ कर्त्तानुं नाम अने ग्रंथनो महिमा कहेजेः-अथ ग्रंथ व्यवस्था कथनः ॥चोपाई॥-कुंद कुंद मुनिराज प्रवीना; तिन्ह यह ग्रंथ इंहालों कीना; गाथा बछ सु प्राकृत बखानी; गुरु परंपरा रीति बखानी. ॥॥ जयो ग्रंथ जगमें विख्याता, सुनत महा सुख पावहि झाता; जे नवरस जगमांहि बखाने; ते सब रसमें सार स माने. ॥ ॥ दोहराः-॥ प्रगट रूप संसारमें, नवरस नाटक होश; नवरस गर्जित ज्ञानमें, विरला जानै कोश ॥१॥ अर्थः- कुंद कुंद नामे मुनिराज ते अध्यात्ममा प्रवीण थया, ते श्राचार्ये था सर्व विशुद्धिनामा छार लगि था ग्रंथ कीधो. ते ग्रंथ प्राकृत गाथाबजलीवाणी प्रका शी था वाणीने गुरु संप्रदायथी अमृतचं श्राचार्य वखाणी ॥ ए ॥ था ग्रंथनी टीका व्याख्यान करवाथी कुंद कुंदाचार्यनो करेलो ग्रंथ जगत्मां विख्यात थयो, तेने सांजली ज्ञाता होय ते महासुख पामे. जगत्मा जे नवरस वखाण्या बे, ते सर्व रस मां सार रस ते ए समयसार नाटकमां समाई रह्यावे. ॥ ७० ॥ संसारमा ए वात प्र गट डे के जे नाटक होय ते नव रसमय होय, पण शांतरसमा जे ज्ञान , तेमा नवे Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७३७ रस गर्जित . तेने तो कोई विरलाज जाणे.॥७॥ हवे नव रसनुं वर्णन करतां नव रसनां नाम कहेजेः-अथ प्रथम नव रसके नामः-॥ कवित्त बंदः॥-प्रथम श्रृंगार वीर जो रस, करुना तृतिय जगत सुखदायक; दास्य चतुर्थ रुष रस पंचम, बहम सुरस बिनब विनायक; सत्तम जय श्रष्टम रस अदनुत, नवमो शांत रसनिको नायक; ए नवरस एई नव नाटक, जो जहों मगन सो तहों लायक ॥ २ ॥ अर्थः-प्रथम श्रृंगार रस,बीजो वीर रस,अने त्रीजो करुणा रस,ते जगत्मां सुखदा यक .चोथो हास्य रस,पांचमो रौ रस,थने बगे बिनत्स रस, ते विनायक कहेतां चित्तनो नंग करनार बे. सातमो नय रस, श्राठमो अद्लुत रस, अनेनवमो शांत रस ते सर्व रसनो नायक बे. ए नव रस कहिए. ते नव रस नाटक रूप होय. जे प्राणी जे रसमां मन थई रह्यो बे तेने ते रस लायक बे. ॥ २ ॥ हवे नव रसना स्थाई नाव कहे;-श्रथ रस अवस्था कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-सोनामे सिंगार बसै वीर पुरुषारथमे, हियेमे कोमल के रुना रस बखानिये; आनंदमे हास्य रंग मुंममे बिराजे रुख, बीज तहां जहां गि लान मन बानिये; चिंतामे नयानक अथाहतामे श्रदजुत, मायाको अरुचि ता मे शांत रस मानिये; एई नब रस नवरूप एई नावरूप, इन्हको विलेउन सुदृष्टि जग जानिये. ॥ ३ ॥ अर्थः-शोजामां श्रृंगार रसनो निवास बे. अर्थ साधन रूप पुरुषार्थमां वीर रसनो वास बे. हृदयनी कोमलतामा करुणा रसनो वास बे. श्रानंदनी प्राप्तिमां दास्य रसनो वास डे. रण संग्राममा रुंड मूंडपमेला होय, त्यां रोज रसनो वास बे. कोई सुगामणु स्थानक जोई मनमां ग्लानी श्रावे, त्यां बिजत्स रसनो वास बे. चिंतामां जय रसनो वास बे. जे कोई अथाग अघटमान वस्तु जाणिए त्यां श्रनुत रसनो वास बे. ज्यां मायानी अरुचि होय तहां शांत रसनो वास प्रमाण कहिए. ए नव रस ते जवरूप के० संसार रूप पण डे, अने एहिज नव रस नाव के उत्तम नावरूप पण बे; ए नव रसनो विलेन के० विवेक जे जे ते तो जगत्मां सुदृष्टिथी जाणीए ॥३॥ हवे एज नव रस नावरूप ज्ञानमा गनित जे ते एकज ठेकाणे देखाडे : अथ नव रस झान गर्जित एकीनूत कथन:॥ उपय बंदः।- गुन विचार सिंगार, वीर जदिम उदार रुप; करुना सम रसरीत, हास हिरदे उबाह सुख; अष्ट करम दल दलन, रुड वरते तिहि थानक; तन विलेन बीनन, उंद पुखदसा नयानक; अजुत अनंत बल चिंतवत, शांत सहज वैराग धुव; नव रस विलास परगास तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव ॥ ४ ॥ ९३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. __ अर्थः- झानादिक गुणेकरी आत्म विजूषित देखिये त्यांतो शृंगार रस उपज्यो , अने श्रात्माने विष निर्जरा प्रमुखनो उद्यम देखिये त्यांतो उदार प्रधान वीर रस डे २, ज्यारे श्रात्माने उपशम रसनी रीते देखिये त्यारे करुणा रस जाणीए ३, ज्यारे एने अनुनवमां उत्साह अने सुख उपजे ने ते तो हैयामां हास्य रस उपजे ४, महा बलवान आठ कर्मना अनंत प्रदेशी दल ने तेनो दलन करतां देखीए तो त्यां श्रा स्मा रौद्र रसमय थई रह्यो ५, ज्यारे पुजलनुं स्वरूप विचारीये बीए त्यारे बिन त्स रस ले ६, ज्यारे श्रात्मा पोतानुं स्वरूप न जाणे अने कुंद फुःखदशामां पड्यो , त्यारे तो जय रसमा देखीए, अनंत वीर्यनुं ज्यारे चितवन करीए त्यारे तो श्रात्मा श्रद्जुत रस पामे ७, ज्यारे राग द्वेष निवारीने सहज वैराग्यने धुव के निश्चल धारे बे, त्यारे आत्मा शांत रसमय पामीए ए, ए नव प्रकारना नाव रसना विलास नो प्र काशतो ज्यारे घटमां सुबुद्धि प्रगट थाय त्यारेज थाय. ॥ ४ ॥ हवे कुंदकुंदाचार्यकृत या ग्रंथ ले तेनी स्तुति करे:-श्रथ ग्रंथ स्तुतिः॥ चोपाईः॥-जब सुबोध घटमें परगासे, तब रस बिरस विषमता नासे, नव रस लखे एक रसमांदी, ताते विरस नाव मिटि जांही. ॥५॥ दोहरा-॥सब रस गर्जित मूल रस, नाटक नाम गरंथ; जाके सुनत प्रवान जिय, समुके पंथ कुपंथ. ॥ ६॥ ॥चोपायः॥-वरते ग्रंथ जगत हित काजा, प्रगटे अमृतचंद मुनि राजा; तब तिन्ह ग्रंथ जानि अति नीका, रची बनाइ संसकृत टीका ॥ ७॥ दोहराः ॥-सर्व विशुद्धि छारलों, आए करत बखान; तब आचारज नक्तिसों, करे ग्रंथ गुन ज्ञान. ॥ ७ ॥ ॥ चोपाईः॥-अदतुत ग्रंथ अध्यातम बांनी, समुके कोऊ विरला ज्ञानी, यामे स्या दवाद अधिकारा, ताको जो कीजे विसतारा ॥ ए॥ तो गरंय अति शोना पावे वह मंदिर यह कलस कहावे, तब चित अमृत वचन गढखोले,अमृतचंद आचारज बोले गए॥ दोहरा.-॥ कुंदकुंद नाटक विषे, कह्यो दरव अधिकार, स्यादवादने साधि मे, कहों अवस्था हार ॥ १ ॥ कहों मुकति पदकी कथा, कहों मुक्तिको पंथ, जैसे घृत कारज जहां, तहों कारन दधिपंथ ॥ ए२ ॥ अर्थ स्पष्ट ।। ॥चोपाई॥-अमृतचंद बोले मृदु बानी, स्यादवादकी सुनो कहानी, कोऊ कहै जीव जगमांहीं, कोऊ कहै जीव है नाही॥ ए३ ॥ दोहराः॥-एक रूप कोऊ कहै, कोऊ अगनित अंग; बिन नंगुर कोऊ कहै, कोऊ कहै अनंग ॥ ए४ ॥ नय अनंत श्व विधि कही, मिले न काह कोश, जो सब नयसाधन करे, स्यादवाद है सोश ॥ ए५ ॥ स्यादवाद अधिकार अब, कहों जैनको मूल, जाके जाने जगत जन, लहै जगत जलकूल ॥ए६॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ३ए श्रर्थः-हवे संगतनी वात कहेजेः-ज्यारे घटमां सुबोध प्रकाशे बे, त्यारे ए रसस हित जे अने ए विरस बे. एवो विषय ममता नाव बे, ते सर्व नाश पामे. एनो हेतु ए बे के जे नव रस डे तेने एक नाव रसमांज लखे के जुवे, तेथी विरस नाव मटीने एकज रसमां श्रात्मानुं रहे थाय. ॥ ५॥ एम सर्व रसोमा गनित एक र समय थयलो एवो था समयसार नाटक नामे ग्रंथ श्री कुंदकुंदाचार्यजीए कह्यो, जेना अर्थ नावने सांजलता प्रमाणिक जीव डे ते मार्ग कुमार्गनो विचार समजे. ॥ ६ ॥ प्रथम जगतवासी जीवोने हितकारी कार्यनो ग्रंथ प्रवर्त्तमान थयो ते पठी अमृत चंद नामा आचार्य प्रगट्या तेणे था ग्रंथ अति श्रेष्ठ जाणीने श्रा ग्रंथनी टीका ब नावी, गांथानुं रहस्य लश्ने काव्य बंध कह्यो ते कहीएबीए. ॥ ७ ॥ श्री अमृतचं दजी एज ग्रंथनुं व्याख्यान करता सर्व विशुकि छार सुधी श्राव्या. श्रांही ग्रंथ सं पूर्ण थयो जाणी श्री अमृतचंद्र श्राचार्य नक्तिना वशथी ग्रंथy गुण ज्ञान करे बे. ॥ ॥ श्रा ग्रंथ अध्यात्म वाणीमा अनुत थयो, पण या ग्रंथने कोई विरला ज्ञान वंत पुरुष समके. या ग्रंथमां स्याहादनो अधिकार दे, ते अल्प बुकि स्थूलमतिने समजवो मुशकेल . तेथी ते स्याहादनो जो विस्तार करीये तो सारु.॥ नए॥जे थकी या ग्रंथ अति शोजा पामे एम विचारी था ग्रंथरूप मंदिर तेना उपर स्याहा दनो विस्तार करिये तो ते कलशरूप थाय. त्यारे महारा चित्तमां अमृत जेवा वचन गढो के० धारण थश्ने खुले. एम दोष रहितनी परे श्री अमृतचंद आचार्य बोले डे के ॥ए॥ श्री कुंदकुंदाचार्यना करेला नाटक ग्रंथमां जीव अजीव अव्यनो अधिकार कह्यो. हवे हुँ स्याछाद नयनी अवस्थानो छार कहुँबु, श्रने साध्य वस्तुनी अवस्था नो हार कडं. ॥ ए१ ॥ बाणुमां दोहरानो अर्थ सुखन डे ॥ ए५ ॥ अमृतचंद आ चार्य एवी कोमल वाणी बोल्या के अहो ! शिष्य! स्याछादनी कथा हुँ कहुंडं ते सां जलो. कोई अस्तिवादि तो एम कहे डे के जगत्मां जीव वस्तु , अने कोई नास्ति वादी कहे जे के, जगतमा जीव वस्तु नथी. ॥ ३॥ कोई अद्वैत वादी ब्रह्मने एक रूप कहेजे. कोई नैयायिक वैशेषिक जीवने अगणितपणे कहेजे. कोई बौधमतीने सीधे जीवने क्षणभंगुर कहेडे; कोई सांख्यमतीने सीधे जीवने अनंगज कहेले. ॥ ए ॥ अर्थ समजवाना मार्गने नय कहिए, ते समजवाना मार्ग अनंत बे; तेने लीधे नय पण अनंत कहिये; तेमां कोई नय कोई नयने मले नही, विरोधी बे. हवे श्रांही जे सर्व नयनुं साधन करे, एटले सर्व नयने साचा साधिने देखाडे, तेने स्याहादि जाणी ए. ॥ ए५ ॥ ते स्याछादनो अधिकार हवे ढुं सर्व कहुं बु. एज Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. स्याहाद आगमनुं मूल जे. जे स्याछादना जाण प्रवीण जगत्वासी लोक हे ते सं. सार जल धिनो कांगे पामे. ॥ ए६ ॥ हवे नयजालथी शिष्यने संदेह नपज्यो त्यारे प्रश्न करेः-श्रथ शिष्यप्रश्न गुरु उत्तर कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥- शिष्य कहे स्वामी जीव स्वाधीन के पराधीन, जीव एक है किधौ अनेक मानि लीजिये; जीव हे सदीव किधौ नाहि है जगतमांहि ? जीव अविनस्वर के नखर कहीजिये; सतगुरु कहे जीव है सदीव निजाधीन, एक अवि नखर दरव दृष्टि दीजिये, जीव पराधीन बिन नंगुर अनेकरूप, नांहि तहां जहां परजे प्रवान कीजीए. ॥ ए॥ अर्थः-प्रथम शिष्य पुळे, स्वामी जीव स्वाधीन बे के पराधीन ? जीव एक डे के गणतिमां अनेक डे ? ए केम मनमां जाणवू. श्रने जीव कहेवाय ने तो जगत्मा सदाबे के नश्री, ए अस्तिपणानो संदेहजे, अने जीव अस्ति के अविनाशी के विनाशी. हवे श्रावी रीतना प्रश्न उपर सजुरु कहेने, के हे! शिष्य! जीव वस्तु ज गत्मां बे, पण नास्ति न कहीए, थने ते जीव थापणे स्वाधीन डे. अने एक यद्यपि गणतीये अनेक बे, तो पण लक्षणथी एक बे. थविनाशी अव्य अष्टि दीजे तो एम ज, अने जो पर्याय नय प्रमाण करीये तो जीव पराधीन बे, कर्माधीन बे. अने अवचित मरण देखतां दणनंगुर बे. गत्यादिक देखतां अनेकरूप . वली अजीव प दार्थ स्थापनानी अपेक्षाये नथी. अने जहां पर्याय प्रमाण तिहां एजे. ॥ ७॥ हवे अन्य क्षेत्र काल नावे करीने सर्व वस्तुनुं अस्तिनास्तिपणुं कहेजेः अथ दरव देत्र काल नाव अस्तिनास्ति कथनः॥सवैया श्कतीसाः ॥- सर्व क्षेत्र काल जाव चारो नेद वस्तुहीमे, अपने चतुष्क वस्तु थस्तिरूप मानिये; परकेचतुष्क वस्तु नासति नियत अंग, ताको नेद दर्व परजाय मध्य जानिये; दरवतो वस्तु खेत्र सत्ता नूमिकाल चाल, सुजाव सहज मूल सकति बखानिये, याही जांती पर विकलप बुद्धि कलपना, विवहार दृष्टि अंशन्नेद परवानि ये. ॥ एG ॥ दोहराः ॥- हे नाही नाही सु है, है है नाही नाही; यह सरवंगी नय धनी, सबमाने सब मांहि. ॥ एए॥ अर्थः-अव्य, देत्र, काल, नाव ए चारे नेद वस्तुमां विचारीए. श्रांही श्रापणे वस्तु बे, ते अस्तिरूप मानीए. एटले स्वभव्य, स्वदेत्र, स्वकाल, स्वनावथी विचारीए त्या रे तो सर्व वस्तु अस्तिरूपे , अने जो परवस्तुथी ए चारने विचारिये तो वस्तुनुं ना स्तिस्वरूप नीपजे बे. एटले परजव्य, परदेत्र, परकाल, परजावथी सर्व वस्तु नास्तिरू Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ४१ पे . नियत अंग के निश्चयनयथी अस्ति ने तेनो नेद अव्य पर्यायथी जाणवो. ए चार नेदमां अव्यथी वस्तु कहीए; वस्तुनी सत्तानी नूमिने क्षेत्र कहिये; वस्तुनी परि णाम चालथी काल कहीए; सहजनी मूलशक्तिने स्वनाव कहीए. ए रीते बुद्धिनी कल्पना करीने परव्य क्षेत्रादिकना जो विकल्प ग्रहण करिये.जेम के घट वस्तु ग्रह ण करवायी परव्य, परदेत्र, परकाल, परजावनी कल्पनाथी नास्ति . ए व्यवहार दृष्टिथी वस्तुना अंश नेद प्रमाण थायः ॥ ए ॥ अने ए नथी एवं कहेवामां स्वज व्यादिकनुं अस्तिपणुं लश्ने परजव्यादिकथी नास्तिपणुं लईए तथा ते बे नहि एम कहेवामा प्रथम परजव्यादिक, अस्तिपणुं ग्रहीए; अने नथीज एम केहेवामां फ री परऽव्यादिकनुं केवल नास्तिपणुंज ग्रहण करिये बिये; एथी सात नांगा उपजे श्रांही सर्वांग नयना धणी स्याहादी सर्व वस्तुमा सर्व नांगा माने बे. ॥ एए॥ हवे चौद नयना नेदथी एकेक नेदे एकांत पदीनी जेवी केहेणी ने तेवी कहे: अथ चतुर्दश नय नेद एकांत पद कथन नाम स्थापन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-झानको कारन झेय श्रातमा त्रिलोक मेय, शेयसों श्र नेक ज्ञान मेल ज्ञेय ही है; जोलों ज्ञेय तोलों ज्ञान, सर्व दर्वमे विज्ञान, विनाज्ञेय बेत्र ज्ञान जीव वस्तु नांही है, देह नसे जीव नसे देह उपजत लसे, यातमा श्रचेतन है सत्ताअंसमांही है, जीव दिन जंगुर अज्ञायक सरूपी ज्ञान, ऐसी ऐसी एकंत श्र वस्था मूढ पाही है ॥ ५०० ॥ अर्थः-प्रथम चनद नयना नाम स्थापना कहेजेः-जे झेय वस्तुमा ज्ञान उपजेजे, तेथी ज्ञाननुं कारण झेय ए नाम बे, १.त्रण लोक प्रमाणे आत्मा डे, तेथी त्रिलो कमय एवं नाम , २. जेम अनेक ज्ञेय , तेम ज्ञान पण अनेक बे. ते अनेक ज्ञान ए नाम, ३. ज्ञानमां ज्ञेयनी बाया बे ते मेलq बे. तेथी मेलन झेय ए नाम बे, ४. ज्यां सुधी ज्ञेय जे त्यां सुधीझान बे. झेय उपरांत ज्ञान नश्री तेथी ज्यां लगी झेय ए नाम ५. सर्व प्रव्य मयी विज्ञान ने. तेनु तेज नाम. ६. झेय देत्रने प्रमाणेज ज्ञान बे, तेथी झेय क्षेत्रमान ए नाम . . जीव वस्तु जगत्मां नथी. तेथीनास्ति जीव ए नाम बे, ज. देहनो नाश थवाथी जीवनो पण नाश, तेथी जीव नाश ए नाम ए. देह उपजवायी जीव विराजे ने, तेथी देह त्यां जीवोत्पाद ए नामले १० श्रात्मा ते अचेतन पदार्थ डे तेथी अचेतन ज्ञाता ए नाम ले १९. सत्ताना अंश ते जीव कहिए बे, पण आत्मा अंश मात्र ए नाम ले १२. जीव बे, ते दाणनंगुरले तेथी एज नामले १३. ज्ञान ने ते झायक स्वरूपमा नथी तेथी अज्ञायक ज्ञान ए नाम ले १४. एवी एवी एकांत श्रवस्था मूढ लोको पामे वे ए नयना नेद जाणवा ॥ ५०० ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. हवे ज्ञान- कारण शेय. एजे प्रथम नय कह्यो तेनो प्रपंच करी देखाडे: श्रथ ज्ञानको कारन झेय प्रथम नय यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-कोन मूढ कहै जैसे प्रथम समारिनीति, पीले ताके उ पर सुचित्र श्राबो लेखिये; तैसे मूल कारन प्रगट घट पट जैसो, तैसो तहां ज्ञान रूप कारज विशेषिये; ज्ञानी कहे जैसी वस्तु तैसोई सुनाव ताको, ताको ज्ञान ज्ञेय जिन्न निन्न पद पेषिथे; कारन कारज दोउ एकहीमे निहचे पे, तेरो मत साचो विवहार दृष्टि देखीये ॥ ५०१॥ अर्थः-कोई मूढ मीमांसक ते शिष्य लोकने एम समजावे बे के, जेम प्रथम निं तने समारी होय तोपली तेना उपर चित्र सारु थाय, श्रने नरसी उपर नरसु चित्र थाय; तेम ज्ञाननी उत्पत्तिनुं कारण मन , पण जेवो घटपट प्रमुख पदार्थ होय ते बुज तिहांझानरूप कार्य विशेष थाय बे, जो घटपदार्थ जाणवा योग्य होय तो घट झान होय, अने पट पदार्थमा पट ज्ञान होय, तेथी छाननु कारण झेय बे, हवे तेने स्याछाद ज्ञानी एम कहेडे के, अहो नाई! जे जेवी वस्तु के तेनो स्वजाव पण तेवो ज जे जे ज्ञानपदार्थ डे तेनो स्वत्नाव जाणवानोज , अने जे शेयपदार्थ डे ते जा णवा योग्यज बे, श्रा अर्थ नेदश्री ज्ञान अने ज्ञेय ए बने जुदा पद जाणवा. अहीं जे ज्ञेय कारणपणे कडं तेज ज्ञान विकल्पे कह्यु, तेथी घटपटादि जगत २ ते जड पदार्थ धर रह्या, अने ज्ञान ने तेज सामान्य पणे जे तेथी निश्चय नयथी तो ज्ञानमां झेय पामिये, पण व्यवहार दृष्टि श्रापतां तो तारुं मत पण साचुं ने ॥ ५० ॥ हवे बीजा एकांत नय आत्मा त्रिलोकमय तेनो प्रपंच देखाडे बेः अथ पुतिय नय श्रातमा त्रिलोक प्रमानयहु कथनंः॥ सवैया इकतीसा॥-कोउ मिथ्यामति लोकालोक व्यापि ज्ञान मानि, समुफे त्रि लोक पिंम श्रातम दरव है; याहिते सुबंद नयो डोले मुष हु न बोले, कहे या जग तमे हमारोई खरब है; तासों ज्ञाता कहे जीव जगतसों जिन्न पै, जगतको विकास तोहि याहीते गरव है; जो वस्तु सो वस्तु पररूपसों निराली सदा, निहचे प्रमान स्यादवादमे सरव है; ॥ ५० ॥ अर्थः- कोई नैयायिक, वैशेषिक मिथ्याति . ते ज्ञानने लोकालोक व्यापी मा नीने एवं समजे ले के, जीव ते विज्ञाननो पिंक बे. अने विज्ञान ने ते लोकालोक व्यापी . तेथी यात्मव्य त्रण लोक प्रमाण बे. तेथी पोताने सर्व व्यापी ईश्वर मा नीने स्वबंद थको डोले . अनिमानमां चड्यो श्रको बीजाने मूर्ख मानीने कोनी साथे मुखथी न बोले. जो बोले तो एम कहे के श्रा जगत्मां हमारीज खरव के Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ४३ सर्व रचना ने. हवे तेने स्याछाद ज्ञानी कहे डे के, अहो! नाई. जीव जे जे ते जगत्थी जिन्न ने पण तेना झानमां जगतनोविकास ने तेथी ईश्वरपणानो गर्व चढ्योडे पण जे वस्तु डे तेतो पोताना स्वरूपमांज रहे डे अने परस्वरूपथी सदा जुदी रहे बे तेथी . जगत् श्रने श्रात्माने निश्चय नयना प्रमाणश्री स्याहादमां सर्वथा विरोध पामिए.॥५॥ . हवे त्रीजो एकांत नय ते झेयथी ज्ञाननो अनेक प्रपंच कहि देखामे: अथ तृतीय शेयसो अनेक ज्ञान कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-कोउ पशु ज्ञानकी अनंत विचित्राई देखे, शेयको प्रकार नाना रूप विसतर्यो है; ताहीको विचारी कहे ज्ञानकी अनेक सत्ता, गहिके एकंत पद लोकनिसों लयों है; ताको ब्रम नंजवेकों ज्ञानवंत कहे ज्ञान, अगम अगाध निराबाध रस नों है; झायक सुनाव परजाईसों अनेक नयो, जद्यपि तथापि एकतासों नहिं टर्यो है; ॥ ५.०३ ॥ अर्थः-कोई पशु के मूर्ख ज्ञाननी अनंत विचित्रता देखेडे. तेनो हेतु कहे . जगत्मां ज्ञेय वस्तु अनंत बे, तेना थाकार अनंत बे. ते झानमा परिणमे डे तेथी झानपण नानाप्रकारथी विस्तारे , श्रने तेना नाना रूप विस्तारने विचारीने ज्ञा ननी अनंत सत्ता माने जे. एवो एकांत पद लईने प्रतिवादी लोकथी लो . हवे स्याहादी ज्ञानवंत ते एकान्तपदीना भ्रम नांजवाने एम कहेले के, अहो ! नाई! तुं ज्ञानने झेयनो आकार परिणम्यो जाणीने केम जूले बे? ज्ञान डे ते अगम्य वस्तु बे; निराबाध रसथी नर्यु जे. ज्ञाननो ज्ञायक स्वनाव बे, तेथी यद्यपि पर्याय शक्ति झान अनेकरूप थयुं . तथापि ायक स्वजावथी छाननी एकताज . पण ते एक ताथी झान टलतुं नथी. ॥ ५०३॥ हवे चोथा नयमां शानने विषे झेयनी गयानो प्रपंच देखाडे : अथ चतुर्थ झेय गया यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-कोन कुधी कहे ज्ञानमांहि शेयको श्राकार, प्रतिजासि रह्यो हे कलंक ताहि धोइए; जब ध्यान जलसों पखारिके धवल कीजे, सब निरा कार शुरू ज्ञानमई होइए; तासों स्याहादी कहे ज्ञानको सुनाउ यहे, झेयको श्रा कार वस्तु नांहि कहा खोइए; जैसे नाना रूप प्रतिबिंबकी फलक दीसे, जदपि त थापि श्रारसी विमल जोइए. ॥ ५४॥ अर्थः-कोई कुधी के कुबुझि वैशेषिक मतवालो एम कहे जे के, जो जगत्वासी जीवना ज्ञानमांज झेयनो श्राकार प्रतिनासे डे, ते आकार तो निराकार झानतुं क लंक उपजे. तेने धोई नाखवू जोइए, तेथी निराकारनुं ध्यान लगाडq तेतो जल . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. . थयु, ते जलथी प्रदालीने ते ज्ञानने उज्वल करिये तेवारे निराकार शुद्ध ज्ञानमय... थवाय , हवे ही स्याहादी तेने कहे . अरे! नाई ! ज्ञाननो एज स्वन्नाव बे, के झेयनो श्राकार वस्तुमा नासे तो ही श्राकार गमावी नाखवानी शुं मतलब ने ? जेम पारसीमां नाना रूप प्रतिबिंबनो ऊलकाट देखाय , तो पण थारसी नि मल जोशए पण तेने प्रतिबिंबन कलंक कोई न कहे.॥५४॥ हवे पांचमो एकांतनय ते ज्यां लगे झेय त्यां लगे ज्ञान तेनो प्रपंच कही देखाडे बे, अथ पंचम जौलों ज्ञेय तोलों ज्ञान यह कथनः॥ सवैया श्कतीसाः ॥-कोउ अझ कहे ज्ञेयाकार ज्ञान परिनाम जोलों, विद्यमा न तौलों ज्ञान प्रगट है; शेयके विनाश होत ज्ञानको विनास होश, ऐसी वाकै हिरदे मिथ्यातकी अलट है: तासों समकितवंत कहे अनुनी कहान, परजे प्रवान न ज्ञान नानाकार नट है; निरविकलप अविनस्वर दरव रूप, ज्ञानज्ञेय वस्तुसों श्रव्यापक अघट है. ॥ ५५ ॥ अर्थः-कोई अजाण पुरुष एवं कहे के जेवो शेयनो आकार तेवू ज्ञानपरि णाम थायडे, तेथी ज्ञेय विद्यमान ज्यां लगी होय, त्यां लगी ज्ञान प्रगट रहे थने शेयनो विनाश थये शाननो पण विनाश थायडे, एवी वात मिथ्यामतीना हृदयमां मिथ्यानी अलट लागी रहे; हवे तेनाथी सम्यक्त्ववंत स्याहादी अनुजवनी कथा क हेले. अरे! जाई ! जेम कोई नट पुरुष डे ते नाना प्रकारना नेष धारीने नाना प्रकार नां नाम धरावे, तेम ज्ञानरूप नट नाना प्रकार धरीने पर्याय प्रमाणे बहरूपी थायडे पण जेवू नट अव्य एक तेवू ज्ञान वस्तु पण निर्विकल्प एक, व्यपणे अविनस्वर बे. अने ज्ञान वस्तु ते झेय वस्तुथी श्रव्यापक बे एटले ज्ञेयवस्तु ज्ञान वस्तुमा एकमेक न थाय तेथी ज्ञान ज्ञेयनी एकता अघटती ने ॥ ५५॥ हवे हा एकांतनय सर्व अव्यमयी श्रात्मानो प्रपंच कही देखाडे बेः श्रथ षष्टम सर्व दर्वमय श्रातमा यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-कोज मंद कहे धर्म अधर्म श्राकास काल, पुदगल जीव सब मेरोरूप जगमें; जाने न मरम निज माने थापा परवस्तु, बंधे दिढ करम धरम खोवे डगमे; समकिती जीव सुफ अनुनो श्रन्यासे ताते परको ममत्व त्याग करे पग पगमे; अपने सुनावमे मगन रहे आठों जाम, धारा वाही पंथिक करावे मोष मगमे ॥५६॥ अर्थः-कोई मूर्ख ब्रह्माद्वैतवादी एवं कहे डे के जो कोईना मतमां धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल ए नए अव्य कहेवाय ते सर्व ब्रह्म बे. तेथी माझं पण रूप सर्व जगत्मां विस्तरि रह्यं . बीजो पदार्थ कोई नथी. आंही गुरु शिष्यने Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ४५ कड़े बे. अहो ! शिष्य ! एतो ब्रह्माद्वैतवादी मूढ मती बे, ते पोतानो धर्म जाए तो नी; अने पर वस्तु बे तेने आत्मा जाणे बे. एवा मिथ्यात्वथी ए दृढ कर्म बांधे बे. घने जगत्मां पोतानो धर्म खोवे बे. पोतानो स्वजाव गमावे बे. जे सम किती जीव होय तेतो "सोहं" बीजना ध्यानथी शुद्ध अनुजवनो श्रन्यास करे, तेथी आत्मतत्त्व जुडुंज पामे. अने पगले पगले परवस्तुनो त्याग करे, अने पोताना शुद्ध स्वभावमां श्राठे प्रदर मग्न रहे, तेथी ज्ञान धारामां वदेनारो मोह मार्गमां चालनारो कहेवाय बे ॥ ६॥ हवे सातमो एकांत नय जे ज्ञेय क्षेत्र प्रमाण ज्ञान तेनो प्रपंच कहि देखाडेढेःअथ सप्तम ज्ञेय क्षेत्र प्रमाण ज्ञान यह कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - कोउ सब कहे जेतो ज्ञेयरूप परवान, तेतो ज्ञान ताते कहुं अधिक न और है; तिहूं काल पर बेत्र व्यापी परनयो माने, आपा न पि बाने ऐसी मिथ्या हग दौर है; जैन मती कहे जीव सत्ता परवान ज्ञान, यसों श्र व्यापक जगत सिर मोर है; झाकी प्रजामे प्रतिबिंबित विविध ज्ञेय, जदपि तथापि थिति न्यारी न्यारी गैर है ॥ ७ ॥ अर्थ- कोई मूर्ख एम कड़े बे के जेटलुं ज्ञेय वस्तुना श्राकाररूपनुं प्रमाण बे एटले ज्ञेयनुं जेटलुं एक नादानुं मोहोढुं प्रमाण बे, तेटलुं ज्ञाननुं प्रमाण बे; तेथी कंई वधारे बीजुं प्रमाण नथी. एम ज्ञानने त्रणे कालमां परक्षेत्र व्यापी ने पर वस्तुथी परिणम्यो, एटले यथी एक मेक थयो ज्ञानने माने बे. पण ज्ञानने था स्मारूप जाणे नहीं; एवी मिथ्या दृष्टिनी दोर बे. हवे तेने जैनमती स्याद्वादी कहे बे, अहो ! नाई ! जेटला आकाश क्षेत्रमां जीव सत्ता बे तेटलाज प्रमाण ज्ञान डे. अने ज्ञान ते घटपटादिक ज्ञेय पदार्थथी अव्यापक बे एज जगत्ना मस्तके मुगट समान बे. जो पण ए ज्ञाननी प्रजामां नाना प्रकारना ज्ञेय पदार्थ प्रतिबिंबित थई रह्याबे, तोपण ज्ञाननी स्थिति जूदीज बे. छाने ज्ञेयनी स्थिति पण जुदीज बे. ज्ञाननुंठेकाणुं श्रात्मा बे ते पण जुदोज बे, अने ज्ञेयना पृथिवी प्रमुख जे वे काणा बे ते पण जुदांज बे ॥ ७ ॥ वे मो नय नास्तिकवादी एम कहे बे के वस्तु नथी एज एकांत नय बे. तेनो प्रपंच कही देखाडे बे:- श्रथ श्रष्टम नास्तिकवादी वस्तु नास्ति यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥ कोउ शुन्यवादी कड़े ज्ञेयके विनास होत, ज्ञानको विना श दो कहो केसे जीजिये; ताते जीवितव्यताकी थिरता निमित्त अब, याकार प रिनामनिको नास कीजिये; सत्यवादी कहे जैया ढूंजे नांही पेदखिन, यसों विर ९४ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. चि ज्ञान जिन्न मानी लीजीये; ज्ञानकी शकती साधि अनुलो दशा श्रराधि, करमकों--- त्यागिके परम रस पीजिये ॥७॥ अर्थः-कोई बौध मतिनो नेद शुन्यवादी एम कहे जे के, ज्ञेय बते ज्ञान उपजे जे, अने ज्ञेयनो विनाश थए ज्ञाननो पण विनाश थाय बे. अहो! प्रतिवादी! तमेज कहो बो, के ज्ञान ते जीवनुं रूप ले. तो ज्ञाननो विनाश थएथी जीव पण विणसी जाय तो जीव केम होय? तेनो उत्तर के जीवितव्यनी स्थिरताने कारण एटले शाश्वत जीव राखवा निमित्त ज्ञानमा जे झेयाकार परिणाम उपजे , तेनो नाश करिये तो जीवनी स्थिरता थाय, हवे ते जपर सत्यवादी जैनी कहे जे. अहो! नाई! एम खेदमा खिन्न के० श्राकुलव्याकुल न थर्बु. झेयथी विरचिने उदासीन थईने ज्ञान वस्तु निन्नज मानी लश्ये. ए झाननी झायक शक्ति बे, ते शक्तिनुं साधन करीने श्रनुजव दशामां ए झायकने श्राराधिने कर्मने त्यागी परम रस पीजीए ॥७॥ हवे नवमो एकांत नय देहनो नाश थातां जीवनो नाश तेनो प्रपंच कही देखाडे: श्रथ नवम देहके नाश होते जीवको नाश यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-कोउ कर कहे काया जीव दोउ एक पिम, जब देह नसै गी तबही जीव मरेगो; बायाको सो बल किधों मायाकोसो परपंच, कायामें समाई फिरि कायाकों न धरेगो; सुधी कहे देहसों व्यापक सदीव जीव, समोपाइ परको ममत्व परिहरेगो; अपने सुनाउ श्राक्ष धारना धरामे धाइ, आपुमे मगन व्हेके श्रापा शुरू करेगो. ॥ए ॥ दोहराः॥-ज्यों तन कंचुकि त्यागसों, विनसे नांहि नुयंग: त्यों शरीरके नासते, अलख अखंमित अंग. ॥ १० ॥ . अर्थः- कोई चार्वाक मती कर एम कहे बे के, काया अने जीव बने एक पिंक बे, तेथी ज्यारे देह नाश पामशे त्यारे जीव पण नाश पामशे. जेम वृदनो विनाश थये तेनी बाया पण विनाश पामे , तेम काया अने जीवनी बायानो बल बनी रह्यो बे. अथवा इंग्रजालनी मायानो प्रपंच बनी रह्यो , तेथी ते कायामां समाश्ने एटले दीपकनी परे थोलवाश्ने पागे कायाने धरशे नही. हवे तेने सुधी के पंमित स्याछादी कहे, अहो! नाई! जीव डे ते देहथी सदा श्रव्यापक जे. एटले जीव देह पणे परिणम्यो नथी. श्रा जीव पोतानो समय प्रस्ताव पामीने परनो ममत्व बोमशे. त्यारे पोताना शुरू स्वनावमां श्रावीने, धारनाधरामेधाश्के एटले स्थिरता रूप नू मिमा रहीने श्राप स्वरूपमा श्रापज मग्न थईने श्रात्मानी शुद्धता करशे ॥ए ॥ जेम सर्पना शरीर उपर कांचली श्रावे, ते कांचलीना तजवाथी जुजंग विणशे Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ श्री समयसारनाटक. नहीं, तेमज शरीरनो त्याग थतां अलप जीव ने ते अखंमित अंगे रहे पण जी वनो विनाश थतो नथी. ॥१॥ हवे दशमो एकांत नय देह उपजवाथी जीव उपजे तेनो प्रपंच कही देखामे: अथ दशम देह उपजत जीव उपजे यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः ॥-कोउ उरबुद्धि कहे पहिले न हूंतो जीव, देह उपजत उ पज्यो हे अब श्राश्के; जोलों देह तोलों देहधारी फिर देह नसे, रहेगो अलष ज्योति ज्योतिमे समाश्के, सदबुझी कहे जीव अनादिको देह धारी, जब ज्ञान, होगो कबहीं काल पाश्के; तबही सो पर तजि अपनो सरूप नजि, पावेगो परम पद करम नसाश्के ॥ ११ ॥ अर्थः-कोई पुष्ट बुद्धि धरनार एक ममत्व वालो एम कहेडे के, पहेलो जीव ह तो नहीं. अने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, ए चार नूतना मिलापथी देह उपज्यो तेमा ज्ञान शक्तिरूप जीव श्रावी उपज्यो. हवे ज्यांसुधी देह वर्ते त्यांसुधी देहधारी नाम धरावे अने पाबो देहनो नाश थशे त्यारे अलख पुरुष ज्योति रूपी , ते ज्योति मां समाजाशे. हवे सबुकि स्याहादी कहे, अहो! नाई! जीव अनादि कालथी देह धारी मूर्तिक डे एटले नवो जपनो नथी. अने ए जीव कोई काले काललब्धि पामीने हानी थशे, त्यारे देहादिक पर वस्तुने त्यागिने पोताना स्वरूपने नजशे. पली कर्मोनो नाश करीने परम पदने पामशे. ॥ ११॥ हवे अग्यारमो एकांत नय श्रात्मा अचेतन तेनो प्रपंच विस्तारथी कहे : अथ एकादशम श्रातमा अचेतन यह कथन:॥ सवैया श्कतीसाः ॥-कोज पक्षपाती जीव कहे डेयके आकार, परिनयो ज्ञान ताते चेतना असत हे; ज्ञेय के नसत चेतनाको नास ता कारन, श्रातमा थचेतन त्रिकाल मेरे मत है; पंमित कहत ज्ञान सहज अखंमित हे, शेयको श्राकार धरे शेयसों विरत हे; चेतनाके नाश होत सत्ताको विनाश होय, याते ज्ञान चेतना प्रवान जीव तत हे॥१२॥ अर्थः-कोई पक्षपाती हठवादी जीव कहेडे, ज्ञान डे ते झेयनो आकार परिण म्यो होय, अने श्राकार परिणाम असत् , तेथी चेतना पण असत् बे. तेनो हे तु कहे जे; जु इयनो नाश थाय त्यारे चेतनानो नाश थाय बे. जे सत् वस्तु होय तेनो तो विनाश क्यारे पण न थाय. ते कारणथी चेतना असत् थई तेथी त्रणे कालमां श्रात्मा श्रचेतन थयो एवो मारो मत बे. हवे पंडित स्याहादी क हे , अहो! नाई! ज्ञान वस्तु सहज स्वनावे अखंमित बे, अने झेयनो आकार धरेने Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उUG प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. तोपण शेयथी विरक्त जे. जेम पारसीमां श्राकार जासे तोपण ते श्राकाररूप श्रा रसी न थाय, तेम. जो चेतना लक्षणनोपण नाश मानीए तो जीवनी सत्तानो पण नाश थाय, त्यारे जीव वस्तु पण असत् थाय, तेथी जीव तत्त्व जे जे ते ज्ञान चेत नाना प्रमाणथीज मानीए ॥ १५ ॥ हवे बारमो एकांत नय अंशप्रमाण जीव सत्तानो प्रपंच कही बतावे बे: अथ छादश अंस प्रमान यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥- कोउ महा मूरष कहत एक पिंझमाहि, जहांलों श्रचित चित्त अंग लहलहे हे; जोगरूप जोग रूप नानाकार झेय रूप, जेते नेद करम के तेते जीव कहे हे; मतिमान कहे एक पिंडमांहि एक जीव, ताहीके अनंत नाव अंश फेली रहे हे; पुग्गलसों जिन्न कर्म जोगसो अखिन्न सदा, उपजे विन से थिरता सुनाव गहे है. ॥ १३॥ अर्थः-कोई बौधमती महा मूर्ख एम कहेडे के, एक शरीरमां ज्यां लगी श्रचि त चित अंग के घटपटादिक थचेतन विकल्प अथवा नर श्रमर तिर्यंचादि चेतन शं ग ते सचित विकल्प चकचकी रह्याडे, योगपरिणामथी योगरूप, जोगपरिणामथी जो गरूप, एम ज्ञेयनां नानाप्रकार रूप जेटलां कर्म के क्रियाना नेद थायजे, तेटलाने जीव संख्या कहेडे, एटले जीव सत्ता अंश प्रमाण थई. हवे बुकिवंत स्याहादी एम कहे के, अहो! नाई! एक पिंडमां एक जीव के अने ते जीवना ज्ञान परिणामे क रीने अनंत नाव जासनरूप अंश फेली रह्यावे. पण जीव , ते पुद्गलथी जिन्न , अने कर्मयोगथी अनिन्न के निराकुल बे, तेमां नाव अंश अनंत उपजे, थने श्र नंत विणसे वे पण जीवतो स्थिरतारूपज ग्रही रह्यो बे॥१३॥ हवे तेरमो एकांतनय दणजंगुर जीवनो प्रपंच कही देखाडे बेः अथ त्रयोदश बिनजंगुर जीव यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-कोज एक बिनवादी कहे एक पिंगमांहि, एक जीव उपज त एक विनसतु है; जाही समै अंतर नवीन उतपति हुश्, ताही समै प्रथम पुरातन वसतु है; सरवंग वादी कहे जेसे जलवस्तु एक, सोश जल विविध तरंगनि लसतु है, तेसे एक थातम दरव गुनपरजेसों अनेक जयो पे एक रूप दरसतु है ॥ १४ ॥ अर्थः-कोई एक क्षणवादी बौध एम कहे के एक पिंगमां एक जीव उपजे बे, एक जीव विणसे जे. जे समे पिंडमां नवा जीवनी उत्पत्ति न थाय ते समे पे हलो पुराणो जीव ले ते वसे बे, पडी ते विणसे. एम श्रृंखलाब उपजे विणसे , तेने सर्वांगवादी जैनमती एम कहे के, अहो! नाई! जेम तलाव प्रमुख जलाश्रयमां Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. जल वस्तु एक बे तेज जल विविध तरंगे करी लसित के० जिन्न जिन्न देखाय , तेम एक श्रात्मा अव्य ने ते गुण पर्यायथी अनेक रूप थयो ने तोपण अव्यार्थिक नये एक रूपेज देखीए . ॥ १४ ॥ हवे चउदमो एकांतनय ज्ञायक अज्ञायकनो प्रपंच कही बतावे : अथ चतुर्दशम अज्ञायक शायक नय यह कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-कोउ बाल बुद्धि कहे ज्ञायक सकति जोलों, तोलों ज्ञान अशुभ जगत मध्य जानिये; झायक सकति काल पाई मिटि जाई जब, तब श्र विरोध बोध विमल वखांनिये; परम प्रवीन कहे एसी तो न बने वाही, जैसे बिनु परगास सूरज न मानिये; तेसे विनुं ज्ञायक सकति न कहावे ज्ञान, यहतो न पल परत परवानिये. ॥ १५ ॥ अर्थः-जेनी बालकना जेवी तुब बुद्धि , एवो कोई शून्यवादी तथागत कहे के, ज्यां लगी ज्ञानमां ज्ञायक शक्ति , त्यां लगी जगत्मा झान श्रशुद्ध कहेवायडे, तेनो एज परमार्थ डे, के जे झायकपणुं ते विकल्परूप बे. अने विकल्पथी ज्ञान अशुद्ध थाय बे, तेथी निर्विकल्प शान शुफ बे. ज्यारे नवितव्यताने वशथी पोतानो समय प्रस्ताव पामीने शायक शक्ति ले ते मटी जाय, त्यारेज विकल्पना विरोधथी रहित एवं बोध के ज्ञान ते विमल के शुरू वखाणीए. हवे एने परम प्रवीण स्या छादी कहेजेः-अरे! जाई! जे तुं हायक एकतामां विकल्प मानीने शंका पामे, श्रने ज्ञायकपणुं अशुभ माने, ए वात बने नही. जेम प्रकाश विना सूर्य मान्यो न जाय अने प्रकाशश्रीज सूर्य मान्यो जाय, तेम शायक शक्ति विना ज्ञानपण कहेवाय नही, जो तमे अनुमानप्रमाणथी तमारो पद साधन करता नथी, तो प्रत्यक्ष प्रमाणथी पण तमारो पद प्रमाण कीधो न जाय, तेथी तमारो पद ते पदानास बे. ॥१५॥ हवे जेणे चनद एकांत नय हगवी दीधा एवो जे स्याहाद तेनी स्तुतिकरेजेः अथ स्यादवाद प्रशंसा कथनः॥दोहराः ॥-इह विधि श्रातम ज्ञान हित, स्यादवाद परवान, जाके वचन बि चारसों, मूरख होश सुजान ॥ १६ ॥ स्यादवाद बातम सदा, ता कारन बलवान, शिव साधक बाधा रहित, अषे अखंडित थान ॥ १७ ॥ स्यादवाद अधिकार यह, कह्यो थलप विसतार, अमृत चंद मुनिवर कहे, साधक साधि वार ॥ १० ॥ __ अर्थः-श्रावी रीते श्रात्माना ज्ञाननो हितकारी स्याहाद मत , तेज प्रमाण जा णवो. जे स्याछादनी वचन युक्तिमा पूर्वे मूर्ख होय ते सुजाण थाय. ॥ १६ ॥ जे स्याछाद स्वरूप ने तेज श्रात्मानी दशा बे. ते कारणथी स्याहाद डे ते महा बलवान Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. बे, मोदनो साधक डे, श्रने कोई मुक्तिथी नांगे नही, तेथी ते बाधा रहित ने श्रद -- य बे. श्रने सर्व नयमां फेलि रह्यो तेथी अखंमित एनी थाण ॥ १७॥ श्रीश्रा चार्य एम कहे जे के, था कंईक स्याछादनो अधिकार अल्पविस्तारथी कह्यो. हवे श्री अमृतचंद श्राचार्य बारमो साध्य साधक हार कहे . ॥ १७ ॥ इति श्री समयसारना नाटकमां स्याछादनामा इग्यारमा छारनो अधिकार बालबोध सहित समाप्तः ॥ हवे साध्य वस्तु अने साधक वस्तुनु स्वरूप देखामे : अथ श्री साध्य साधक स्वरूप कथनः॥सवैया इकतीसाः॥-जोश्जीव वस्तु अस्ति प्रमेय श्रगुरु लघु, अजोगी अमूरतिक प रदेशवंत हे; उसपतिरूप नाशरूप अविचल रूप, रतनत्रयादि गुण नेदसों अनंत हे; सोई जीव दरब प्रवान सदा एकरूप, ऐसो शुद्ध निदचे सुनाउ विरतंत हे; स्यादवाद मांहि साधि पद अधिकार कह्यो, अब आगे कहिवेकों साधक सिधांत हे ॥१॥ ॥दोहराः॥-साधि शुक केवल दशा, अथवा सिक महंत; साधक अविरत श्रा दिबुध, बीन मोह परजंत. ॥२०॥ अर्थः-जे कोई जीव वस्तु बे ते अव्यथी अस्तिपणे, प्रमेयपणे, अगुरु लघु पणे, थ जोगीपणे, अमूर्तिक पणे, प्रदेशवंत पणे, प्रवर्ते , तेमां जे नास्तिपणुं नही ते थ स्तिपणुं जाणवू, अने प्रमाण ग्रहण करवा योग्य , तेथी प्रमेयपणुं . अपौद्गलिक पणाथी अगुरु लघुपणुं बे, इत्यादि धर्म . उत्पत्तिरूप पर्यायथी, विनाश रूप पर्या यथी, अविचलरूपथी, शान दर्शन चारित्र रत्नत्रय काहिए. इत्यादिक गुणोना नेदयी अनंत पणुं लीधो वर्ते बे. तेज जीवजव्य एकरूपज सदा प्रमाण बे. ते एकरूपने श्र स्तित्व प्रमेयत्वादिक धर्मे करी आगल कह्यो तेज शुछ निश्चयनयथी एनो एवो ख नाव वृत्तांत बे. तेज साध्य पद कडं एटले साधवालायक वस्तु ते स्याहाद अधि कारमा कही. हवे बागल एने साधवानो सिझांत साधक ॥ १५ ॥ शुरू केवलीनी दशाने साध्य वस्तु कहीए. श्रथवा महंत सिकपणुं ते साध्य वस्तु . अने चोथा अविरत गुणगणाथी मामीने बारमा क्षीणमोह गुणगणा पर्यंत नव गुणगणाना धणी जे बुध के पंमित , ते सर्वेने साधक कहीए. ॥२०॥ हवे अविरत्यादि साधकनी व्यवस्था कहेजेः-श्रथ साधक व्यवस्था कथन:• ॥ सवैया इकतीसाः ॥-जाको अधो श्रपूरव श्रनवर्ति करनको, नयो लान नईगु रु वचनकी बोहनी; जाके अनंतानुबंध क्रोध मान माया लोन, अनादि मिथ्यात मि श्र समकित मोहनी; सातों परकिति खपी किंवा उपसमी जाके, जगी उरमांही स Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमयसार नाटक. ७५१ मकित कला सोहनी; सोइ मोद साधक कहायो ताके सरवंग, प्रगटी शगतिगुन थानक श्रारोहनी. ॥ २१॥ सोरठीः ॥-जाकी मुगति समीप, नई नव स्थिति घट गई; ताकी मनसा सीप, सुगुरु मेघ मुकता वचन. ॥ २२॥ अर्थः-जे जीवने अधो के यथाप्रवर्ति करणनो अने अपूर्व करणनो तथा अनि वृत्त करणनो लान थयो, एटले ए सम्यक्त्व प्राप्तिनां त्रण करण ले तेनो लान थयो, श्रने जेने गुरु वचननी बोहनी थई एटले गुरु उपदेशनो लान थयो, तेथी अनंतानु बंधी क्रोध, मान, माया, अने लोन तथा अनादिकालनी मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमो हनीय अने सम्यक्त्व मोहनीय, ए सात प्रकृति जेनी क्षय थई, अथवा उपशमी अथवा सातेमां कंश खपी कंश उपशमी, एवी जेना हैयामां सुहामणी समकितनी कला जागी तेज जीव मोदनो साधनारो कहेवाय. तेना सर्व अंगमां एटले बाह्य अन्यंतर अंगमां गुणस्थानक आरोहणी के० चढवानी शक्ति प्रगटी॥१॥ जेने जवस्थितिना परिपा कथी मुक्ति समीप थई भने संसारनी स्थिति घटी गई, ते पुरुषनी मनसा शीप स मान थई, त्यां सदगुरु ते मेघ समान थयो, ते सद्गुरुनां वचन तेनी मनसारूप सी पमा अमौलिक मोती जेवां थयां थकां रुचे ॥२॥ हवे सद्गुरुने मेघनी उपमा कहीने स्तवे बे:-श्रथ गुरु प्रशंसाः॥ दोहराः ॥-ज्यों बरषे बरषा समे, मेघ अखंडित धार; त्यों सदगुरु बानी खिरे, जगत जीव हितकार ॥२३॥ अर्थः-जेम वरसाद कालमा मेघ अखंडित धाराये वरसे, तेमज सद्गुरु होय ते जगत्वासी जीवने हित कारक अमृत वाणी खेरे ३ ॥ २३ ॥ हवे सद्गुरुना उपदेश श्रादेपणी धर्म कथा कहे :-अथ उपदेश कथनः ॥ सवैया तेश्साः॥-चेतनजी तुमजागि विलोकडं लाग रहे कहों माया कि तां श्राय कहींसुं कही तुम जामगे माया रहेगि जहांकि तहाई, माया तुह्मारि न जाति न पाति न वंसक वेली न अंसकि कोई दासि किए बिनु लातनि मारत, एसि अनीति न कीजे गुसांई ॥२४॥ दोहराः ॥-माया गया एक हे, घटे बढ़े लि नमाहि; इन्द्रकी संगति जे लगे, तिनहिं कहं सुख नांहि ॥ २५॥ सवैया तेईसाः॥लोगनिसों को नांतों न तेरौं न तोसाँ कबू श्ह लोगों नांतो; ए तो रहेरमि खारथकके रस, तू परमारथके रस मातो; ए तनसों तनमे तनसे जम, चेतन तुं त नसों नित हातो; होहि सुखी अपनो बल तोरिके राग विराग विरोधको तातो. ॥ २६ ॥ सोरगः ॥-जे मुरबुद्धीजीव, ते उतंग पदवी चहे; जे समरसी सदीव, ति न्हकों कबू न चाहिए ॥२७॥ सवैया श्कतीसाः॥-हांसीमें विषाद बसे विद्यामे विवाद Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. बसे, कायामें मरन गुरुवर्त्तनमें हीनता; सुचिमें गिलान बसे प्रापतिमें हानि वसे, जैमें हारि सुंदर दशामें बबि बीनता; रोग बसे जोगमें संयोगमें वियोग बसे, गुनमें गरव बसे सावमांहि दीनता; और जगरीति जेती गर्जित असाता सेती, साताकी स हेली है अकेली उदासीनता ॥ २७ ॥ दोहराः ॥-जिहि उतंग चढि फिरि पतन, नहि उतंग बहिकूप; जिहि सुख अंतर जयवसे, सो सुख है उखरूप ॥२॥ ॥ जो विलसे सुष संपदा, गये ताहि उख होश; जो धरती बहु त्रिणवती, जरे श्रगनिसों सोई ॥ ३० ॥ इति गुरुउपदेस समाप्तः ॥ दोहराः ॥-सबदमांहि सतगुरु कहै, प्रगटरूप जिन धर्म; सुनत विचक्षण सद्दहै, मूढन जानै मर्म ॥ ३१॥ __ अर्थः-अहो! जीव! चेतन! तमे मोह निसा तजोने जागो, अने सत्य खरूप देखीने मायारूप संपदाने शुं वलगी रह्याठो; पृथिवी प्रमुख अढार नारादीक जेने तेमां तमें क्यांथी थाव्या बो? श्रने कही दशामा जोशो? श्रने जेनी साथे तमे राची रह्याबो, तेतो मायाजाल संपदा ज्यांनी त्यां रहे. ए मायाजाल तमारी जाती नथी, तथा पाती नयी श्रने माया तमारा वंशनी वेली नथी, श्रने तमारा अंश के एक देशनी पण कांई नथी, तेथी तमारे शने मायाने संबंध तो कोई पण नथी. अने तमे पो तानी करीने जाणोडो. तेथी ए कहेवत साची करो डो, के दासी कर्या वगर लात मारो डो, तेथी उत्पात थाशे. माटे हे ! महंत पुरुषो! एवी अनीति न करवी ॥२४॥ माया अने बाया एक सरखीज बे. क्षणमां वधे अने दणमां घटे . तेथी ए मायानी संगते जे लागी रहे, तेने क्यारे पण सुख थातुं नथी ॥ २५॥ श्रा जे पुत्र कलत्रादिक तुं पोताना जाणे बे, तेतो पारका लोको जेवा बे, ए लोकोनी साथे तारो कांई नातो नथी. अने ए लोकोने पण तादारी साथे कोई प्रकारनो नातो नथी. ए जे पुत्रकलत्रादि लोको डे सेतो पोताना स्वार्थना रसथी ताहारी साथे रमी रह्या बे, अने अरे! चेतन! तुं तो पोताना चेतनारूप परमार्थना रसमां राची रह्यो . वली ए जे लोको २ ते तारा तनथी तन्मय थई रह्या , एटले तारा श रीरथी मोहित बे, अने ए शरीर तो जम अने तुं तो चेतन बे. तेथी ते जमथी तारी सदा जिन्नता बे. माटे राग श्रने क्षेष रूप मोह कर्मनो नातो तोमी पोतानुं बल फोरवीने सुखी था ॥ २६ ॥ जे जीव राग द्वेषथी पुष्ट बुधि थई रह्यो ते तो इंसादिकनी जंची पदवी चाहे बे, श्रने जे जीव सदाई समरसी जावमां रहे , ते ने कोई जंच पदवीनी चाहना थती नथी. ॥ २७ ॥ हांसीने सारी मानीए डे पण तेमां विषवाद वसे बे, विद्याने सारी जाणीए बीए पण तेमां विवाद ऊगडो वसे बे; का याने सारी जाणीए बीए पण तेमां मरणदोष , गुरुताई के बडाईने सारी जाणीए Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. बीए पण तेमां कोईकवारे होणता ; पवित्राई सारी जाणीए बीए, पण एने श्रादिके अंते सुगंधा उपजे ; प्राप्ति सारी जाणीए बीए, पण तेनी साथे हाणीलागी रही; जीतवु नबुंडे पण तेनी साथे हार लाग्युंज बेशानीनी सुंदर दशा जली पण अंते कांति क्षीण थई जाय बे; नोगनुं सुख सारुंडे, पण तेमां रोगनी उत्पत्ति ; इष्ट संयोग नलो डे पण तेनी साथे वियोगपण तैयार थई रहे बे; प्रीति नली ले पण तेनीसाथे अप्रीति पण उपजे ; औदार्यादिक गुणमां गर्व अहंकार वसे बे; राज सेवा सारी बे, पण तेमां दीनपणुं वसे बे; अने बीजी जेटली जगत्वासी जीवोनी रीत सारी जाणीए लिए, तेतो सर्व अंतर्गर्जित अशाता सहित बे. तेथी एकली उदासीनताज शातानी साहेली . माटे समरस नावज श्रेष्ट डे ॥२७॥ जे उंचे तेकाणे चढीने पनी नीचे पडवू थाय, ते उतंग ठेकाणुं न कहेवाय; पण ते ठेका' कुंवा जेवू कहेवाय. तेम जे सुखना अंदर फुःख वसे डे ते सुख पण पुःखरूप कहे वाय डे ॥ ॥ केमके सुख संपदा विलसे वे पण पठी तेना नाशथी पुःख थाय बे. जेम तृणोवाली धरती अग्निथी बसी जायजे, पण तृण विनानी धरती कोई रीते बलती नथी, ए दृष्टांते जाणी लेवु ॥ ३० ॥ एरीते गुरु उपदेश सूचनिकामात्र संपूर्ण थयो; सद्गुरु जैनधर्मने प्रगट रूप शब्दमांज कहे , एटले वचनमां व खाणे . ते जैन धर्मने सांजली विचक्षण पुरुष होय ते सईहे बे, अने मुर्ख होय ते तेनो मर्म जाणे नही:- ॥ ३१ ॥ हवे कोईकने उपदेशनी रुचिडे, श्रने कोईकने नथी तेनुं स्वरूप कहे : श्रथ उपदेश रुचि अरुचि कथनः-- - ॥ सवैया एकतिसाः॥-जेसे काहू नगरके वासी के पुरुष नूबे, तामें एक नर सुष्ट एक पुष्ट उरको; दोउ फिरे पुरके समीप परे कुवटमे, कादर पंथिककों ने पंथ पु रको; सोतो कहे तुह्मारो नगर हे तुमारे ढिग, मारग दिखावे समुजावे खोजपुरको; एते पर सुष्ट पहिचाने में न माने उष्ट, हिरदे प्रवान तेसे उपदेश गुरुको ॥३२॥ ॥ सवैया इकतीसाः ॥-जेसे काहू जंगलमे पावसकी समो पाई, अपने सुनाई महा मेघ बरषतु हे; आमल कषाय कटु तीषन मधूर पार, तेसो रस वाढे जहां जेसो दरषतु है; तेसो ज्ञानवंत नर झानको बखान करे, रसको जमाहो हैं न काह परषतु है; वहे धुनि सुनि कोज गहें कोउ रहै सोई, काहूकों विषाद होई कोउ ह रषतु है ॥ ३३ ॥ दोहराः॥-गुरु उपदेश कहा करे, पुराराधि संसार; वसे सदा जा के उदर, जीव पंच परकार ॥ ३४ ॥ अर्थः-जेम काई नगरना वासी बे पुरुष नगरमाथी निकलीने दिशा नूली गया. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ते बे पुरुषमां एक तो सुष्ट के हैयाना सरल खन्नावनो हतो, श्रने एक हैयानो पुष्ट हतो. पडी ते बने पुरुष नगरनी समीपज फरवा लाग्या. पठी कोई बीजा वाटमार्गुने नगरनो मारग पूबवा लाग्या, त्यारे ते कहेवा लाग्यो जे तमाळं गाम तो तमारी स मीप बे, एम कही ते बनेने मारग देखाडे, अने रुमी रीते पुर के नगरने खोज करी समजावे, पण तेमां जे सरल हैयानो डे, तेतो साचुं माने, पण पुष्ट है यानो डे ते माने नही, तेम गुरुनो उपदेश तेपण पुरुषना हैया प्रमाणे ॥३ ॥ जेम कोई श्ररएयमां वरसाद पोतानो समय पामीने खजावथी महा मेघ वरषे बे. त्यारे थांबली प्रमुख खाटा रसवाला तथा बावल प्रमुख कषाएल रसवाला, श्रने लिंबमा प्रमुख कडवा रसवाला, जाल प्रमुख नींबरसवाला, जेठीमध प्रमुख मधुर रसवाला, अने बुण प्रमुख दाररस वाला काडोमा तेर्जना गुण प्रमाणे रस वृद्धि थाय , तेम ज्ञानी श्राचार्य प्रमुख पोतानी वचन वर्गणा वचन योगे खिरे के प्रकाशे बे, ते ज्ञान- वखाण करतां पोताना अनुजव रसमां जमग थई रह्या बे, पण ते वखते कोई योग्य अयोग्य श्रोतानी परीक्षा करता नथी, परी ते श्रोता पुरुषोमां ते ज्ञाननी ध्वनि सांजलीने कोई तेनी वाणीने ग्रहे , कोई सुई र हेडे, कोई निषा करे , कोई मिथ्याष्टिने विषादपण थाय बे, अने कोई सम्यग् दृष्टि हर्ष पण पामे डे ॥३३॥ माटे गुरुनो उपदेश करे? श्रा संसारी लोक फु राराध्य , समजाववा करण डे, जे संसारना उदरमा पांच प्रकारनी श्रमावाला जीवो बे, ते सदा वसीज रह्या बे. ॥ ३४ ॥ हवे पांच प्रकारना जीवनां नाम कहे बे-अथ पंच प्रकार यथाः॥ दोहराः ॥-डूंघा प्रजु चुंघा चतुर, सूंघा रोचक सुझ, जंघा उरबुद्धी विकल बूंधा घोर अबुझ ॥ ३५ ॥ अर्थः-एक तो डुंघा तेतो प्रनु स्वामी जे; बीजा चुंघा के चतुर बे; त्रीजा सुं घा के रुचिवंत ; चोथो उंघाके इष्ट उर्बुधिबे, अने विकल जे पाचमा धूंधा के घोर कुबुधि ॥ ३५॥ हवे इंघानुं लदण कहे जेः-अथ इंघा यथाः॥ दोहराः ॥-जाकी परम दशाविषे; करम कलंक न हो; इंघा अगम अगाध पद, वचन श्रगोचर सोश ॥ ३६ ॥ अर्थः-जेनी उत्कृष्ट दशा वर्णवेली बे, जेमां कोई कर्मरूप कलंक देखाय नही, एवं जे अगम तथा अगाध पद , एटले सिक पद जे जे वचननो विषय थई शके नही तेने डूंघा कहिये. ॥ ३६ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ३५५ हवे चुंघानुं लक्षण कदे:-अथ चुंघा यथाः॥ दोहराः॥-जे उदास व्है जगतसों, गहे परम रस पेम; सो चूंघा गुरुके बचन, चूंघे बालक जेम. ॥ ३७॥ अर्थः-जे जीव जगत्थी उदासी थई रहे, अने जे परम दशामांरही तेना प्रेम स्वादने ग्रहे बे, एटले उत्कृष्ट दशा नावे , तेतो गुरुनां वचनने बालकनी परे चुंघे जे, अने पुष्ट थाय , ते चुंघा कहेवाय . ॥ ३ ॥ हवे सुंघानुं लक्षण कहेजेः-अथ सुंघा यथाः॥ दोहराः ॥-जो सुवचन रुचिसों सुनै, हिए पुष्टता नांहि; परमारथ समु नही, सो सुंघा जगमांहि. ॥ ३० ॥ अर्थः-जे रुचिये करी आगमना अंग जे सुवचन तेने सांजले , जेना हृदयमां पुष्टता नथी, पण जे सूदम तत्त्वने समके नही तेने जगत्मां सुंघा पुरुष कहीये.॥३०॥ हवे जंघानुं लक्षण कहेजेः-अथ जंघा यथाः॥ दोहराः ॥-जाकों विकथा हित लगे, श्रागम अंग अनिष्ट; सो जंघा विषई वि कल, पुष्ट रिष्ट पापिष्ट. ॥ ३५॥ अर्थः-जेने विकथानां वचन हितकारी लागे , अने बागम अंग अनिष्ट लागे बे, तेतो विकल विषयी जीव जंघा कहेवाय, दोषवंत रोषवंत पापकर्मी थई रहे. हवे चूंघानुं लक्षण कहेले.-अथ चूंघा यथाः॥ दोहाः ॥-जाके श्रवन बचन नही, नहि मन सुरति विराम; जमता सो जड वत नयो, चूंघा ताको नाम, ॥ ४० ॥ चोपाईः॥-डूंघा सिफ कहे सब कोऊ; सुंघा जंघा मूरख दोज; बूंघा घोर विकल संसारी; चुंघा जीव मोष अधिकारी. ॥४१॥ ॥ दोहराः ॥-चूंघा साधक मोषको, करे दोष फुःख नास; लहे पोष संतोष सों, व रनों लगन तास. ॥४२॥ अर्थः-जेने वचन नथी एटले जे एकेंजिय श्रने जेने श्रवण नथी एटले जेबेरिंजिय तेरिजिय, चौरिंजिय बे, अने जेने मननी सुरता नथी एटले जे असंज्ञी, वली जेने विराम के विरति नथी, अज्ञानरूप जमताथी जे जमरूप थई रह्या , तेने धुंघा क हीए. ॥ ४० ॥ सुघा पुरुषने तो सह कोई सिक कहे जे; सुंघा अने ऊंघा ए बने मूर्ख बे; अने बूंघा होय तेतो अघोर अंधारामां विकल संसारी जीव ; अने चुंधा जीव बे तेतो मोदना अधिकारी होय, अने मोदना वांडक होय ॥४१॥ चूंघा डे तेतो मोक्षनो साधक डे, दोष श्रने फुःखनो नाश करे , अने संतोषथी पुष्टता पामे , तेनुं लक्षण वरणवू लु.॥४२॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. हवे मोद साधकनुं उदाहरण कहेजेः-श्रथ साधक लदखः॥ दोहराः ॥-कृपा प्रसम संवेग दम, अस्ति नाव वैराग; ए लबन जाके हिये, सप्त व्यसनको त्याग. ॥ ४३ ॥ अर्थः-कृपा जे दया, तथा जे कषायना उदयनुं दबाव ते प्रशम श्रने संवेग ते मोदना अनिलाषनुं पद के स्थानक, तथा दम ते इंडियदमन, श्रास्ति एटले जिनोक्त वचन उपर श्रद्धा, एहवो वैरागीनाव; एटलां लक्षण जेना हृदयमा रहे बे, श्रने सात व्यसननो जे त्याग करे तेज साधक होय॥३॥ हवे साते व्यसननां नाम कदेः-अथ सप्त व्यसन नामः॥ चोपाई॥-जूवा श्रामिष मदिरा दारी; भाषेटक चोरी परनारी; एई सात व्य सन मुख दाई, कुरित मूल मुर्गतिके नाई. ॥ ४४ ॥ दोहराः ॥-दर्वित ए सातों व्य सन, पुराचार मुख धाम; नावित अंतर कलपना, मृषा मोह परिनाम. ॥ ४५ ॥ अर्थः-जुगार १, मांस जदण २, मदिरापान ३, वेश्या गमन ४, आखेटक के० शिकार खेलवो ५, चोरी करवी ६, परस्त्री गमन , ए सात व्यसन कहेवाय बे, ते संसारमा पुःखदाई . पापनां मूल अने उर्गतिना जाई बे. ॥४४॥ ए जे क्रिया रूप साते व्यसन ते अव्यरूप जे. ए पुष्ट श्राचाररूप उःख धाम के फुःखद् घ रखे. अने जेना अंतरमा वृथा के० फूठा मोह परिणामनी कल्पना के विचारणा ध्यावन थाय, ते नावित व्यसन कहीए. ॥४५ ॥ हवे नावित सात व्यसननी व्यवस्था कदेबेः-अथ नावित व्यसन व्यवस्था कथन: ॥ सवैया इकतीसाः॥-अशुनमें हारि शुन जीति यहे दूत कर्म, देहकी मगन ताई यहे मांस नषिवो; मोदकी गहलसों अजाने यहै सुरापान, कुमतिकी रीति ग निकाको रस चाखिवो; निरदे व्हे प्राण घात करिवो यदे सिकार, परनारी संग प रबुद्धिको परषिवो; प्यारसों पराई सोज गहीवेकी चाद चोरी, एई सातों व्यसन विडारि ब्रह्म लखिवो. ॥ ४६ ॥ अर्थः-अशुल कर्मना उदयश्री हार मानिये अने शुज कर्मना उदयथी जीत मा निये तेतो जुगार खेलवो बे. देह उपर मग्नता रहे तेतो मांस नदण जाणवू. मोह कर्मथी मूर्बित थई रह्याथी अजाण थई रह्यो होय तेज सुरापान व्यसन . कुबुद्धिनी रीते चालवू तेतो वेश्याना रसनुं चाख बे. निर्दय परिणाम राखीने प्रा पघात करवो, तेज शिकार खेलवो बे. पररूप जे पुजलादिक तेनी बुछिने परखवी तेतो परनारी सेवा व्यसन . पारकी सोंज सामग्री उपर प्रीत राखीने प्यार मेल Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७५७ ववानो चाह राखे तेज चोरी . ए नावित सात व्यसननुं विदारण करवाथी ब्रह्म लख्यो जाय बे.॥४६॥ हवे मोदना साधकनी व्यवस्था कहे:-अथ साधक व्यवस्थाः॥ दोहराः ॥-विसन नाव जामे नही, पौरुष अगम अपार; किये प्रगट घट सिं धुमाय, चौदह रतन उदार. ॥४७॥ अर्थः-जेना चित्तमा व्यसननाव पामिए नही, अने अगम अपार पुरुषातन पां मिए, तेणे घटरूप समुनमंथन करीने उदार के मुख्य चौदे रत्न प्रगट कीधां ॥४॥ हवे नावित चौद रत्ननुं वर्णन करेजेः-अथ नावित चौद रतनको बरननः ॥ सवैया इकतीसाः-लकमी सुबुद्धि, अनूभूति कस्तुनमनि, वैराग कलपवृक्ष, संत सुवचन है; ऐरावत उद्यिम प्रतीतिरंजा उदै विष, कामधेनु निर्जरा सुधा प्रमोद घन है; ध्यान चाप प्रेमरीति मदिरा विवेक वैद्य शुरुजाव चंउमा तुरंगरूप मन है; चौदह रतन ए प्रगट हो जहां तहां ज्ञानके उदोत घट सिंधुको मथन है.॥४॥ ॥ दोहाः ॥-किए श्रवस्थामे प्रगट, चौदह रतन रसाल, कबुं त्यागे कर्बु संग्रहै, विधि निषेधकी चाल. ॥ ४ ॥ अर्थः-सुबुकि उपनी तेतो लक्ष्मी उपनी १,थात्मानो अनुजव उपज्यो तेतो कौस्तु जमणि उपज्यो , वैराग उपज्यो तेतो कल्पवृक्ष उग्युं ३, नाषा समिति उपजी तेतो शंख उपज्यो ४, उद्यम उपज्यो तेतो ऐरावत हाथी उपज्यो ५, प्रतीत उपजी तेतो रंजा जपजी ६, कर्मनो उदय तेतो विष उपज्युं ७, कर्म निर्जरा थइ तेतो कामधेनु उपजी , श्रानंद उपज्यो तेतो अमृतघन उपज्यु ए, ध्यान जपज्युं तेतो चाप के सारंग धनुष उपज्यु १०, प्रेमरीत के० प्रेमनी लय उपनी तेतो मदीरा जपज्यो ११ विवेक उपज्यो तेतो धनवंतरि वैद्य उपन्यो १२, शुधनाव उपन्यो तेतो चंडमा उपन्यो. १३, मन शुरू थयुं तेतो सात मुखो अश्व उपन्यो. ९४, ए चऊद रत्नतो ज्यां ज्ञाननो उदय थवाथी पोताना ज्ञानरूप घट समुज्नुं मंथन थाय बे, त्यां उपजे डे एम जाणवू ॥ ४० ॥ साधनी अवस्थामा ए चौदे रत्न रसाल हतां ते प्रगट कीधां, ए चौद रत्नमां विधि निषेधनी चालमां एटले हेय, उपादेयनी चालमां कंश्क त्यागे अने कंश्क संग्रह करे ॥४॥ हवे नावित चन्द रत्न तेमां श्राउ रत्न त्यागवा योग्य अने उ रत्न ग्रहण करवा योग्य डे ते कहेजेः-अथ श्रष्ट रत्न हेय षट् उपादेय कथन:॥ दोहराः ॥- रमा, संष विष धनु सुरा, वेद धेनु हय हेय, नति रंजा गज क Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपन प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. स्पतरु, सुधा सोम श्रादेय ॥ ५० ॥ इह विधिजो परजाव विष, वमे रमे निजरूप, सो साधक शिवपंथको, चिदविवेक चियूप, ॥५१॥ अर्थः-रमाके लमि तेतो सुबुद्धि १, सुवचनशंष ५, उदय विष ३, ध्यान धनुष ४, प्रेम रीत मदिरा ५, विवेक वैद्य ६, निर्जरा काम धेनु , मनशुद्धते घोमो , ए श्राप अथिर ने तेमाटे बांमवा योग्य बे. अने अनुजव मणि १, प्रतीति रंजा २, उद्य म हाथी ३, वैराग्य कल्पवृद , श्रानंद सुधा ५, शुक जाव चंद्रमा ६, ए उ रत्न गृ हण करवा योग्य बे. ॥५॥ आ रीतिथी पररूप जे कर्मादिक नाव , तेज विष थयु. तेनुं जे वमन करे बे, श्रने पोताना स्वरूपमा जे रमे जे तेज पुरुष मोक्ष मार्गनो सा धक जाणीये. जे ज्ञान नावनो जाणनार अने ज्ञान स्वरूपी तेज साधक कहीए॥५१॥ हवे मोक्षपदना साधकनी व्यवस्था कहे बेः-अथ साधक व्यवस्था कथनः कवित्त बंदः॥-शानदृष्टि जिन्हके घट अंतर निरखे दरव सुगुन परजाइ, जिन्हके स हजरूप दिन दिन प्रति, स्यादवाद साधन अधिकार, जे केवल प्रतीत मारग मुषचिते च रन राषे ठहरांई, ते प्रविण करिबिन मोह मल अविचल हो। परमपद पा ॥५॥ अर्थः-जेना घट अंतरा ज्ञाननी दृष्टि जागी तेथी अव्यने जे देखे जाणे, ते अव्य ना गुण जाणे; गुणना पर्याय जाणे; अने जेने सहज रूपेज एटले नवितव्यतानापरि पाकथी दिन दिन प्रत्ये स्याछादनुं साधन अधिक थई रह्युबे, अने जे केवलिना कहे लामारगने सन्मुख थई रहे, एज चित्त राखे अने एज मार्गवीषे चरण ठरावी राखे, ते प्रवीण पुरुष मोहरूप मलने दीण करी परम पद पामी अविचल थायडे ॥५॥ हवे सम्यग् दृष्टिनी व्यवस्था अने मिथ्या दृष्टिनी व्यवस्था कहे:- . अथ सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि व्यस्थाः॥ सवैया इकतीसाः ॥-चाकसो फिरत जाकों संसार निकट आयो, पायो जिनि सम्यग् मिथ्यात नाश करिके; निरकुंद मनसा सुनूमि साधि लिनी जिनि, कीनी मोष कारन अवस्था ध्यान धरिके; सोई शुभ अनुजौ श्रन्यासी अविनाश भयो, गयो ताको करम नरम रोग गरिके; मिथ्यामति आपनो सरूप न पिडाने तामे, डोले जग जालमे अनंत काल नरिके. ॥ ५३॥ अर्थः-जेम रात्रिने विषे चकवो फिरतो फरतो रहे , तेम संसारमा फिरता फि रतां जेनो अंत निकट श्राव्यो, जे सम्यक्त्व पाम्यो, मिथ्यात्वनो नाश करीने रागहेषा दिक रहित एवी मनसारूप जली नूमिका जेणे साधि लीधी, अने ध्यान धरिने पो तानी अवस्था मोक्षपदना कारणरूपी जेणे कीधी, तेज सम्यग् दृष्टि शुभ अनुजवनो श्रज्यासी थयो, एम कर्म रोगने गमावीने अविनाशी थयो, एटले एनांजन्म मर्ण टल्यां. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उल एसिद्धथयो, एवी सम्यग् दृष्टि पाम्याविना मिथ्यात्वी पोतानुं स्वरूप घोलखे नही. ते नंतकाल रिके के० लगी जगत्नी जालमां मोले ॥ ५३ ॥ हवे जे श्रात्मानो अनुभव पाम्यो तेनो विलास कहे बेः :- अनुज विलासः - ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जे जीव दरवरूप तथा परजायरूप, दोन नै प्रवान वस्तु सुद्धता गढ़त है; जे अशुद्धभावनिके त्यागी नए सरवथा विषेसों विमुष व्है वि रागता चहत है; जो ग्राहजजाव त्यागनाव डुहूं नाव निको, अनुजौ अन्यास विषे एकता कहत है; तेई ज्ञान क्रियाके आराधक सहज मोष, मारग के साधक बाधक मदत है. ॥ ५४ ॥ अर्थः- जे कोई जीव द्रव्यार्थिक ने पर्यायार्थिक ए वे नय प्रमाण करीने व स्तुनी शुद्धताने ग्रहेबे, जे जीव रागद्वेष मोही आत्मामां जे अशुद्धजाव बे तेना सर्वथा त्यागी थया बे, तेथी पांच इंद्रियोना विषयथी विमुख थईने वैरागतामां जे वर्त्तवा लागेबे, घने जे जावित चौदे रत्नमां व जाव रत्न ग्रहण करवा योग्य बे, अने आव जाव रत्न त्यागवा योग्य बे, एटले व देयने व उपादेय बे, अनुजवना अभ्यासविषे बने जावनी एकता करेबे, एटले जे द्रव्यमां दृष्टि रहे खने पर्याय मां दृष्टि न रहे, तेने एकता कडे. ते जीव ज्ञान क्रिया जे मोक्ष मार्गनुं कारण कयुं वे तेना आराधक था. छाने सहजरूपमां मोक्ष मार्गना साधक थया; फरी तेने कर्म बाधा न होय, तेथी अबाधक थया महिमावंत थया, पूजनिक थया ॥ ५४ ॥ दवे जे ज्ञान थने क्रियाने निन्ननावे माने बे तेने एनी एकता कही देखाडे बे:sar ज्ञान क्रिया एकता कथनः ॥ दोहराः ॥ - विनसि अनादि अशुद्धता, होइ शुद्धता पोष; ता परन तिकों बुध कड़े, ज्ञान क्रियासों मोष ॥ ५५ ॥ अर्थः-नादि कालनी जे अशुद्धता बे तेनो ज्यां विनाश थायबे त्यां शुद्धतानुं पोषण थायडे, एवी जे श्रात्मानी परिणति थाय तेज ज्ञाननी क्रिया कद्देवाय तेने बुध के० पंडित पुरुष एवं कदेबे के ए ज्ञान क्रियाथी मोक्ष याय, श्रांदी ज्ञान तथा क्रियानी जे दुविधा लखेबे ते शब्दनयथी जाणवी ॥ ५५ ॥ दवे ज्ञाननी व्यवहार नयथी थापना देखाने बे:- अथ ज्ञान द्रव्य स्थापनाः॥ दोहराः ॥ - जगी शुद्ध समकित कला, वगी मोषमग जो; वदे करम चूरन करे, क्रम क्रम पूरन होइ ॥ ५६ ॥ जाके घट एसी दशा, साधक ताको नाम; जेसे दीपक जो धरे, सो उजियारो धाम ॥ ५७ ॥ अर्थः- जेणे शुद्ध सम कितनी कला जाणी ने जे कला मोक्षना मुखमां जावा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. लागी ते पुरुष कर्मने चूरण करीने क्रमे क्रमे पूरण थाय ॥ ५६ ॥ जेना घटमां एवी दशा थई रही , ते पुरुष- साधक नाम कहेवाय. जेस दीवानुं अजवाडं थएथी घरमां पण अजवायूँ थाय, तेम शान किया तो मोद साधक , पण ज्ञानक्रियाने ध रतां पुरुष पण साधक थाय ॥ ५७ ॥ कहे ज्ञाननुं फल कहेजेः-श्रथ ज्ञानफल वर्ननः॥ सवैया श्कतीसाः॥-जाके घट अंतर मिथ्यात अंधकार गयो, जयो परगास सु छ समकीत नानकी; जाकी मोह निउ घटी ममता पलक फीटी,जान्यो जिन मरम अवाची नगवानको; जाको ज्ञान तेज वग्यो उदिम उदार जग्यो, लग्यो सुष पोष समरस सुधा पानको, ताही सुविचदन को संसार निकट श्रायो, पायो तिनि मारग सुगम निरवानको ॥ ५ ॥ जाके हिरदेमे स्यादवाद साधना करत, शुफातमाको अनुनौ प्रगट नयो हे; जाकों संकलप विकलपके विकार मिटि, सदा काल एकी जाव रस परिनयो है; जिनि बंध विधि परिहार मोष अंगीकार, ऐसो सुविचार पल सोउ नि दियो है; जाकी ज्ञानमहिमा उदोत दिनदिन प्रति, सोश नवसागर उलंघि पार गयो है ॥ एए॥ अर्थः-जेना घटमां अनादिकालनो मिथ्यात्व अंधकार हतो ते गयो, श्रने शुरू सम्यक्त्व रूप सूर्यनो प्रकाश थयो, राग द्वेष मोह निशा जेनी घटी गई, ममतारूप पलक लागी हती ते फिटि गई, तेथी जिन अवाची नगवाननो एटले सिक स्वरू पनो मर्म पाम्यो, जेनुं ज्ञानतेज वध्युं एटले प्रकाश थयो, प्रधान उद्यम जाग्यो भने उपशम रस रूप अमृत पानना सुखनो जेने पोष थयो, ते सुविचक्षण पुरुषने संसार निकट व्यो, ते तो सुगम वातमां मुक्तिनो मारग पाम्यो ॥५७ ॥ जेना हृदयमां स्याहाद स्वरूपनी साधनाथी शुभ श्रात्मानो अनुनव प्रगट थयो अने जेने संकल्प विकल्पनो विकार बहु नातनो हतो ते मटीने सदा कालमां एक चेतना रस जे एकी नावपणुं ते पणे परिणम्यो, तेणे करीने बंध विधिनो परिहार जे संवरनुं धरतुं ते जेने थयुंजे, अने निस्पृह दशाथी मोदनो जे अंगीकार तेना विचा रनो पक्ष धार्यों के ते पद बांडी दीधो, जेना ज्ञाननो महिमा दिन दिन प्रते उ द्योत थयोडे. तेज जीव नव समुज उतरीने पार पहोंच्यो एम जाणवू. ॥ ५ ॥ हवे श्रनुनवीनी व्यवस्था तेज उपादेय ते कदे :-श्रथ अनुनी व्यवस्था कथन: ॥ सवैया इकतीसाः॥ -अस्तिरूप नासति अनेक एक थिररूप, अथिर इत्यादि नानारूप जीव कहिये; दीसे एक नैकी प्रतिदनी अपर पूजी नैको नै दिषा वाद विवादमे रहिये; थिरता न हो विकलपकी तरंगनिमे, चंचलता बढे अनु Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७६१ नौ दशा न लहिये; तातें जीव अचल अबाधित अपंड एक, एसो पद साधिके समाधि सुख गहिये ॥ ६० ॥ अर्थः- कोई नयी अस्तिरूप बे, कोई नयथी नास्तिरूप बे. कोई नयथी अनेक, कोई नयी एक, कोई नयथी स्थिररूप, कोई नयी अस्थिररूप, इत्यादि नाना प्र कारना स्वरूपथी जीव कहीए. यहीं एक नय जे स्वरूप साधे बे, त्यां ते नयनो प्रति पक्षी के उलटी रीते बीजो नय देखाय बे, तेतो पेला नयथी विपरीतपणुं साधे बे, तेथी जो एकांतनयपपुंज ग्रहीए अने ते उपर बीजो नय न देखामीये तो वादविवाद थई जाय. तेथी नय भेद करणीथी कुविकल्पना तरंग उठेते तरंगथी चेतन स्थिर न थाय, छाने चंचलतापणुं वधे तेथी अनुभव दशाग्रह । न जाय. माटे नयपक्ष तजीने अनुवन्यास कारणे जीव द्रव्य अचल बे, अबाधित बे, श्रखं बे, एक बे, एवा स्वरूपं स्थानक साधिने सुख ग्रहण करिये ॥ ६० ॥ हवे द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावे करीने श्रात्मानुं श्रखंमितपणुं कहे :अथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव कथन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जेसे एक पाकी बफल ताके चारि त्र्यंस, रसजाली गुठली बालक जब मानिये; यों तो न बने पे एसे बने जेसें दहे फल, रूप, रस, गंध, फास, पंड प्रवानिये; तेसे एक जीवकों दरव, पेत्र, काल, जाव, स जेद करि जिन्न जिन्न न वषानि ये; दर्व रूप, पेतरूप, कालरूप, जावरूप, चारों रूप अलख यखं सत्ता मानिये ॥ ६१ ॥ श्रर्थः- शिष्य कहे. हे ! स्वामी ! द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावरूप वस्तुना चार अंश तमे कहो बो, त्यां एवं दृष्टांत श्राप के, एक थांबफल बे तेना रस, जाली एटले रेसो, गोली ने बाल ए चार अंश बे, तेमज वस्तुना द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव ए अंश होय के न होय? हवे गुरु कहे बे, हे ! शिष्य ! आहीं तुं अंशके खंग समज्यो तेथी ए दृष्टांत दीधुं. तो बने नही पण ही अखंडपणामां चार अंश लाववा तेनुं दृष्टांत एबे, के तेज व फल बे, तेमां रूप, रस, गंध ने स्पर्श ए चारे अखंडपणे प्रमाण करिए, ए चार रस बे, तेम एक जीवनुं द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावरूप अंशनेदे करीने रस जाली गोवलीने बाल ए खंड खंड वखाणीये नहीं. ही जे साध्यरूप श्रात्मा सत्ता बे, ते द्रव्यथी अखंडितपणे, श्रात्मा द्रव्यरूप बे, घने देत्रथी श्रखंमपणे प्रसंख्यात प्रदेशाश्रवगादपणे बे, कालथी अखंड त्रिकाल वर्त्तिले, जावथी श्रखं ज्ञायक जावपणे बे; एम जीवना चार अंश श्रखंरुपणे मानीये ॥ ६१ ॥ ९६ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. हवे साध्यपदमां ज्ञान ज्ञेयतुं विशेष पणुं श्रने अविशेष पणुं कहे; अथ ज्ञान ज्ञेय वीशेष कथनः॥ सवैया इकतीसाः ॥-कोज ज्ञानवान कहे ज्ञान तो हमारो रूप, ज्ञेय षटदर्व सो हमारो रूप नांही हे; एक नै प्रवान एसे जी अब कहों जेसे, सरस्वती अक्षर अरथ एक गंही है; तेसे ज्ञाता मेरो नाम ज्ञान चेतना विराम, झेयरूप सकति श्र नंतमुक पाही है; ताकारण वचनके नेद नेद कहों कोउ, ज्ञाता ज्ञान झेयको वि लास सत्ता मांही हे ॥६॥ चोपाईः ॥ स्वपर प्रकाशक सकति हमारी; ताथे बचन नेद व्रम नारी; झेय दसा द्विविधा परगासी; निज रूपा पररूपा नासी, ॥ ६३ ॥ ॥ दोहराः॥-निजरूपा श्रातम सकति, पररूपा परवस्त, जिनि लखि लीनो पेच यह, तिनि लिख लियो समस्त ॥ ६ ॥ __ अर्थः-कोई ज्ञानवंत प्राणी पोताना अनुनव प्रमाणथी एम कदेबे, के जे ज्ञान ले तेतो अमारु रूप बे. अने जे षट्र अव्य ज्ञेय तेतो अमारुंरूप नथी, तेथी ज्ञान थने झेय विशेषपणामां बे. गुरु कहे बे, एतो एकज नय प्रमाण . हवे बीजा नयथी जेम थविशेषपणुं थाय बे, तेम कहुं बु. जेम सरस्वती के० विद्यारूप अर्थ जे. तेम अदर के० विद्यारूप अर्थ एकठो रहे, तेम झाता ते तो माहारुं नाम थयु. अने जे ज्ञान तेतो चेतनानो विराम के प्रकार बे. अने जे ज्ञान झेय पणे परिणम्युं बे, ते तो शेयरूप शक्ति जे. एवी अनंत शक्ति महारीज पासे .ते कारणथी वचन नेद करीने ज्ञान अने शेयनो नेद कोई जले कहो, पण बीजो नय देखवाथी ज्ञाननो ने शेयनो विलास श्रात्मा सत्तामांज वे. तेथी थविशेष पणुं डे.॥६५॥ जेथी हमारी शक्ति एवी जे पोतानो प्रकाश करे श्रने परनो पण प्रकाश करे तेथी स्वपर प्र काशक बे, तेथी ज्ञान श्रने ज्ञेय ए वचन नेदे जे नेद बे, तेज नारी चम उपजा वेडे; पण वस्तु एक बे. ज्ञेय के जे जाणवा योग्य तेतो दशा बे प्रकारे करीने कही. एक तो निजरूपा बीजी पर रूपा कही ॥६३ ॥ श्रांही जे निजरूप ज्ञेय दशाक हीए तेतो स्वरूप प्रकाशक आत्म शक्ति, अने जे बीजी पर रूप ज्ञेय दशा ते पर वस्तु बे. जेणे एवातनो पेच जाएयो तेणे तो समस्त जाएयुं ॥४॥ हवे एज पेच स्याहादमां जोशए ते स्याहादरूप वस्तुनुं वर्णन करे: अथ स्याहाद रूप वस्तु वर्णनः॥सवैया इकतीसाः ॥-करम अवस्थामे अशुझसो विलोकियत, करम कलंकसों रहित शुद्ध अंग हे; उन्ने नै प्रवान समकाल सुहासुखरूप, एसो परजाधारी जीव नाना रंग हे; एकही समेमें त्रिधारूप पे तथापि याकी, अखंमित चेतना सकति स Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७६३ वंग है; यहे स्याद्वाद याको नेद स्याधादी जानै, मूरष न माने जाकी हियो हग जंग दे. ॥ ६५ ॥ निचे दरव डिष्टि दीजे तब एकरूप, गुन परनति जेद जावसों बहुत हे, असं प्रदेश संयुगत सत्ता परवान, ज्ञानकी प्रजासों लोकालोकमां न जुत दे, प रजे तरंग निके अंग बिनजंगुर हे, चेतना सकति सो अखंगीत अचुत है, सोहे जीव जगति विनायक जगत सार, जाकी मौज महिमा अपार श्रदद्भुत है. ॥ ६६ ॥ वि नाव सकति परिनतिसों विकल दीसे, सुद्ध चेतना विचारते सहज संत है; करम सं योग सो कहा वे गतिको निवासी, निहचे सरूप सदा मुक्त महंत है; ज्ञायक सुनाउ धरे लोकालोक परगासी, सत्ता परवान सत्ता परगास वंत है; सोहे जीव जानत जहां न कौतुकी महान, जाके कीरति कहान अनादि अनंत है. ॥ ६७ ॥ अर्थः- कार्मण शरीर सहित श्रात्मानी कर्म अवस्थामां दृष्टि दईए, तो श्रात्माने शुद्ध देखीए बीए. अने कर्म कलंक रहित केवल श्रात्मामांज दृष्टि दए तो तो शु अंग बे ने ए बेजनय समकालेज प्रमाण करीए तो शुद्धशुद्धरूप कयुं जाय. एमां पर्यायनी धाराये करीने जीवना विचित्र प्रकार बे. शुद्ध शुद्ध बने शुद्धाशुद्ध ए रूप आत्माना एकज समय पामीए, यद्यपि एम बे तथापि त्ररूपमां श्रात्मानी अखंडित चेतना शक्ति सर्व अंगमां जरि रहि बे, तेज स्याद्वाद कहीए, तेनो नेद जे स्याद्वादी होय, तेज जाणे, पण जेनुं हइयुं दृगजंग के० सम्यग् दृष्टि रहित बे, ते मूर्ख नो नेद न जाणे. ॥ ६५ ॥ निश्चयनयथी द्रव्य उपर दृष्टि पिये तो खात्म sor एकरूप ने ए आत्म द्रव्यना गुण परिणतिरूप नेद जावथी जोइये तो आत्मा बहुरूपे बे ने श्रात्मानी सत्ता असंख्यात आकाश प्रदेश संयुक्त बे, अने ते सत्ताने प्रमाण श्रात्मा को जाय. छाने ज्ञाननी प्रजा विचारीएतो लोकालोक प्र माण क्षेत्री संयुक्त आत्मा कह्यो जायबे, तथा क्षणक्षणमां पर्याय रूप तरंगना अंग विचारी एतो जीव क्षणभंगुरज कहेवाय बे, घने तेने चेतना शक्तिथी विचारीए तो सदा सर्वदा खंज कहेवाय, श्रने अच्युत कहेवाय बे. तेज जीव जगत्नो विना यक के धणी ने जगत्मां सारभूत पदार्थ बे. जेना मोज श्रने महिमा अपार बे अने अद्भुत बे ॥ ६६ ॥ हवे वीजुं पण स्यादवाद कहेबे : - राग द्वेषादिक विजाव श तिथी परिणम्यो देखीए तो आत्मा विकल देखाय बे; धने तेनी शुद्ध चेतनाज वि चारीएतो सहज संतरूप दीसे बे; कर्म संयोग सहित श्रात्मा विचारीये तो चारे ग तिनो वासी छाने चोराशी लाख योनिनी दासी कहेवाय बे; छाने निश्चयनयथी एवं स्वरूप जो विचारीए तो सदा सर्वथा मुक्तिरूप महंत बे; अने जो एने ज्ञायक स्व नाव धारी विचारीए तो लोकालोक प्रकाशक अमेय कहेवाय; श्रने जो ए आत्मानी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. प्रकाशवंत सत्ता विचारिये तो पोतानी सत्ता प्रमाण आत्मा होय; ते जीव वस्तु साध्य बे. जे जहांन के० जगतने जाणे, जे महोटो कौतुकी पुरुष बे, जेनी कीर्त्ति कथा अनादि अनंत काल लगी एवीज चालती यावेळे ॥ ६७ ॥ हवे साध्यरूप केवल दशानुं वर्णन करे बे:- छाथ केवल दशा वर्नन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - पंच परकार ज्ञानावरनको नास करि, प्रगटी प्रसिद्ध ज मांहि जगमगी है; ज्ञायक प्रजामे नाना ज्ञेय की व्यवस्था धरि, अनेक नई पे ए कता रसपी हैं; याही जांति रहेगो अनंत काल परजंत, अनंत शकति फोरि नंत सों लगी है; नरदेह देवलमे केवलमे सरूप सुद्ध, ऐसी ज्ञान ज्योतिकी सिषा समाधि जागी है ॥ ६८ ॥ अर्थः- मतिज्ञानावरणीय प्रमुख पांच प्रकारना ज्ञानावरणीय कर्मनो नाश करीने प्रसिद्ध के० प्रत्यक्षपणे प्रगटी एवी जे ज्ञान ज्योतिनी सिषा जगत्मां जगमगी रही बे. ते ज्ञान ज्योतिनि शिषा पोतानी ज्ञायकपणारूप प्रजामां नाना प्रकारना यी अवस्था धरीने अनेक रूप थई बे, तेपण झायक पणानी जे एकता बे तेना रथी मली रही बे. तेज रीते अनंत काल पर्यंत रहेशे. छाने अनंत वीर्य फोर वीने अनंत पदथी लागी रहेशे. ज्यारे मनुष्यना देहरूप देवलमां शुद्ध केवल ज्ञान स्वरूपे एवी ज्ञान ज्योतिनी सिखा जेवी समाधि बे, ते जागृत यई एटले सर्व विषमता जाव मटि गयो ॥ ६० ॥ हवे अमृतचंद श्राचार्य बे ते चंद्रमा बे. अने तेनी कलारूपि ऋण धारा बे, तेनुं जुदा जुदा थी वर्णन करे बेः - श्रथ अमृत चंद्र कलाके तीन अर्थ कथन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - श्रर अरथमे मगन रहे सदा काल, महा सुख देवा जै सी सेवा काम गविकी; श्रमल अबाधित लष गुन गावना है, पावना परम शुद्ध जावना है जविकी, मिथ्यात तिमर अपहार वर्द्धमान धारा, जैसी उने जामलों कि रन दीपे रविकी; ऐसी है अमृत चंदकला त्रिधारूप धरे, अनुजो दशा गरंथ टीका बुद्धि कविकी || ६ || दोहराः ॥ - नाम साधि साधक कह्यो, द्वार द्वादशम ठीक, समय सार नाटक सकल, पूरन जयो सटीक ॥ ७० ॥ अर्थ :- अमृतचंद्रनी अनुजव दशारूप कला बे, तेतो अक्षर अर्थमां के० मोक्ष प दार्थमां सदाकाल मन रहे बे, अने जेवी कामधेनुनी सेवा सुखदायक थाय तेवी सुखदायक बे; अने अमृतचंद्रजी ग्रंथ टीकारूप कला बे तेज पाबला वर्णने करी यु बे, अमृतचंद्र कविनी बुद्धि बे, तेतो अक्षर अर्थ के० शब्दार्थ तेमां मग्न रहे बे. गल वीजुं वर्णन पूर्वली रीते जेम अमृतचंद्रनी अनुभव दशानी कला अने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. ७६५ अने ग्रंथनी टीकानी कला अने कविकला ए त्रणे कला अमल , अबाधित , थ लख पुरुषनागुणनुं गायन करतीज रहे डे तेथी पावन डे, जव्यत्व पणानी परम शुद्ध जावना , अने ए त्रणेकला, मिथ्यात्वरूप अंधकारनी अपहरण करनार , अने च डते परिणामे बे; जेम चढता बे पोहोरो लगी सूर्यना किरण चढता चढता दीपेने, तेम ए कलापण वधती वधती दीपेबे, एवी अमृतचं श्राचार्यनी कला ले ते त्रण प्रकार- रूप धारण करे , एक तो अनुनवदशा, बीजी ग्रंथनी टीका करी ते अने त्रीजी काव्य बंध करतां कविकला कीधी ॥६ए ॥ साध्य साधक सामे वा रमो घार वीक कह्यो; अमृतचं श्राचार्यनो करेलो कलशरूप समयसार नाटक ग्रंथ टीका समेत संपूर्ण थयो ॥ ७० ॥ ॥इतिश्री समयसार नाटकनो साध्य साधकनामा बारमोछार बालावबोधरूप संपूर्ण थयो ॥ ग्रंथाग्रंथ 3000 श्लोक मान बे. ॥ हवे ग्रंथनी अंते अमृतचंड श्राचार्य कवि श्रआलोचनाकरे:-अथ कविशालोचन: ॥दोहराः॥-श्रब कविजन पूरव दशा, कहै श्रापसों श्राप; सहज हरष मनमें धरै, करै न पाताप. ॥ १॥ सवैया श्कतिसाः॥-जो मे आप बोमि दीनो पररूप गही लीनो, कीनी न वसेरो तहां जहां मेरो थल है; जोगनिको जोगी रहि करमको कर्ता जयो, हिरदे हमारे राग दोष मोह मल है; ऐसी विपरीति चाल नई जो श्र तीत काल, सो तो मेरी क्रियाकी ममता ताको फल है; ज्ञान दृष्टि लासी जयो क्रिया सों उदासी वह, मिथ्या मोह निखामे सुपनको सो बल है. ॥७२॥ दोहरा॥:-अमृत चंदमुनिराज कृत, पूरन नयो गरंथ; समयसार नाटक प्रगट, पंचमगतिकोपंथ ॥३॥ अर्थः-हवे कलसनो करनार कविजे, ते पोतानेज पोतानी पूर्वदशा कहेले. पोताना मर्म जाण्याथी सहज हर्ष उपज्यो , ते बालोचनामां धारे , पण पस्तावो करतो नथी. ॥ १ ॥ अतीत काले जे महारो यात्मानो स्वन्नाव हतो ते मे मिदीधो, अने पर जे कर्मादिक पररूप हतो ते में लई लीधो, अने ज्यां समाधिविषे मारो निवा स हतो, त्यां में वास न कीधो. पांच इंजियोना विषय जोगनो जोगी थईने कर्मनो कर्त्ता थयो, अमारा हैयामां राग द्वेषरूप महा मोह मल हतो, एवी उलटी चाले चाल्यो तेतो थतीत कालमा वात वीती; एवं जे कार्य थयुं, तेतो मारी क्रियामां म मता राखी तेनुं फल थयु; हवे तो ज्ञान दृष्टि जासी तेथी क्रियाश्री उदासी थयो, श्रने जे अतीत कालमा अवस्था थई तेतो मोह मिथ्यात्व निनामां स्वपना जेवो खेल थयो. ॥ २ ॥ अमृतचंद आचार्यनो करेलो ग्रंथ संपूर्ण थयो; था समयसार नाटक जे ग्रंथ डे ते प्रगट पणे पंचम गतिके० मुक्तिनो पंथ जे. ॥७३॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७६६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ॥इति श्री समयसार नाटक ग्रंथ अमृतचंद आचार्यकृत संपूर्णम् ॥ . हवे बणारसीदास कहे:॥ दोहराः ॥-जाकी जगति प्रनावसों, कीनो ग्रंथ निवाहि; जिन प्रतिमा जिन सारषी, नमे बनारसी ताहि. ॥ ४ ॥ अर्थः-जेनी नक्तिना प्रनावे करीने गहनार्थ ग्रंथहतो तेनो निर्वाहकीधो, एवी श्राकालमां जिन प्रतिमा जे श्रीजिनेश्वर सरपी ने तेने बणारसीदास नमे. ॥ ४ ॥ हवे जेवा श्री जिनेश्वर देव महात्म्यवंत ने, तेवी जिन प्रतिमा पण महात्म्यवंत बे ते कहेजेः-अथ जिन प्रतिमा महात्म्य कथनः ॥सवैया इकतीसाः ॥-जाके मुख दरससों जगतके नैननिकों, थिरताकी बानी चढी चंचलता विनसी; मुजा देखे केवलीकी मुडा यादि आवे जहां, जाके आगे इंडकी विनूति दिसे तिनसी; जाको जस जपत प्रकास जगे हिरदेमे, सोई सुछ म ती होश हती जो मलिनसी; कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सोहे जि नकी सबी हे विद्यमान जिनसी ॥ ५ ॥ अर्थः-श्री जिन प्रतिमाना मुख दर्शन थवाथी जे तेना नक्तजन ले तेना नयनने कंश आगल सम्यग् दशा के० संवर दशा पामेली होय तेनी स्थिरतानी वाणी वधे अने जे जावपदार्थमां चंचलता होय तेनो नाश थाय. श्रने पद्मासन स्थित मुजा श्राकार ज्यां देखे, त्यां केवलीनी मुना याद आवे जे; ते केवलीनी मुा एम संजार वामां आवे बे के, जेनी श्रागल इंजनी संपदा ते तृण समान देखायजे, एटले चो सठ इंश महिमाकरे, श्रने ते दशा सांजलवामां आवे त्यारे त्यां जे केवलीना जश कदेवाय, तेना गुणनो प्रकाश हैयामा जागेडे, अने त्यां जे पहेली मति सम्यग् द शामां मेली जेवी हती ते शुरू थई, तेथी वणारसीदास कदे के, जिन प्रतिमानो एवो प्रगट महिमा के के ते विद्यमानजिनेश्वर समानज मानवी ॥ ५ ॥ हवे जिनप्रतिमानो जेजक्तिवंत ने तेनुं वर्णन करे:-अथ प्रतिमा माने ताको वर्णनः ॥सवैया इकतीसाः॥-जाके जर अंतर सुदृष्टिकी लहरि लसी, विनसी मिथ्यात मोह निजाकी समारषी; सैली जिन सासनकी फली जाके घट जयो, गरवको त्यागी षट दरवको पारषी; श्रागमके श्रदर परे है जाके श्रवनमे, हिरदे नंमारमे समा नी बानी धारषी; कहत बनारसी अलप नव स्थिति जाकी, सोश जिन प्रतिमा प्रवाने जिन सारषी ॥ ६॥ अर्थः-जेना हैयामां सम्यग् दर्शननी लेहेर बिराजमान थई रही जे. अने मि थ्यात्व मोहनीय रूप निसानी मूर्ग ते विनास पामी , तथा जेना घटमांथी जिन शा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. सननी शैली के तत्त्व समजवामां आने तत्व समऊणमां अहं बुद्धिरूप अनिमाननो त्याग थयो, अने जेब ए अव्यने परखनारो बे, जेना श्रवणमां श्रागमना अक्षर पडे बे, एटले जे सिद्धांत सांजले , वली “झषेरियं पार्ष" आर्षित, झषि संबंधी वाणी ते जिनवाणी कहिये, ते जेना हृदयरूप नंमारमा समाणी बे, एटले नरी, तेमज . वणारसी दास कहे डे के जेनी नवस्थिति अल्प आवी रही , तेज पुरुष जिन प्रतिमाने जिन सरिषी प्रमाण करे ॥ ६ ॥ हवे वणारसी दास पोतानी कथनी कहेठेः-अथ वणारसी कथनः॥ चोपाईः ॥-जिन प्रतिमा जन दोष निकंदे; सीस नमाश् वनारसिवंदे; फिरि म नमांहि विचारे ऐसा; नाटक ग्रंथ परम पद जैसा ॥ ७ ॥ परम तत्व परचे इस मांही; गुन थानककी रचना नांही; यामे गुनथानक रस आवे; तो गरंथ अति शोना पावे ॥ ॥ दोहराः ॥-यह बिचारि संदेपसों, गुनथानक रस योज, वरनन करे बनारसी, कारन सिव पथ खोज ॥ sए ॥ अर्थः-जिन प्रतिमा के तेज मनुष्यना राग द्वेष मिथ्यात्वनुं तिकंदन करनार बे, तेथी वणारसीदास मस्तक नमावीने तेने वंदे बे. पनी वनारसीदास मनमा एम वि चारे ने के, श्रा नाटक ग्रंथमां जेवू परमपद ले तेवू श्राहीं कहे ॥ ७ ॥ श्रा ग्रंथनां उपादेयरूप परम तत्व, श्रात्म तत्वनो परिचय . पण गुणस्थान कनी रचना या ग्रंथमां नथी. हवे जो या ग्रंथमा गुणस्थानकनो रस श्रावे तो श्रा ग्रंय सारी शोजा पामे ॥ ७० ॥ ए प्रमाणे विचारीने संदेप मात्र गुण स्थान कना रसनी चीज, वणारसीदास वर्णन करें बे. ते वर्णन शिवपंथनुं कारण डे अने शिवपंथनी खोजना बे. ॥ ७ ॥ हवे गुणस्थानकनुं खरूप ले तेवू कहेजेः-श्रथ गुनथानक सरूप कथन:॥ दोहराः ॥-नियत एक विवहारसों, जीव चतुर्दश नेद; रंग जोग बहु विधि नयो, ज्युं पट सहज सुपेद. ॥ ७० ॥ अर्थः-निश्चे जीव एकरूप . श्रने व्यवहारनयथी जीव चौद नेदे ३. श्राहीं है ष्टांत आपेले, जेम वस्त्र सहज रंगमां सफेद बे. पण रंगना जोगश्री विचित्र प्रकारना रंगनुं थाय, तेम गुणस्थानकथी जीवनो तेवो नेद बे. ॥ ७ ॥ हवे चौद गुणस्थानकनां नाम कहेजेः-अथ चतुर्दश गुनथानक कथन:॥ सवैया श्कतीसाः-प्रथम मिथ्यात जो सासादन तीजो मिश्र, चतुरथो अव्रत पंचमो व्रतरंच है; बगे परमत्त सातमो अपरमतनाम, श्राठमो अपूरव करन सुख संच है; नौमो अनिवर्त्तनाव दशमो सूबमलोज, एकादशमो सु उपसंत मोह वंच Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. है; छादशमो बीन मोह तेरहों सजोगी जिन, चौदहों अजोगी जाकी थिति अंक पंच है. ॥ १ ॥ दोहराः ॥-वरने सब गुन थानके, नाम चतुर्दश सार; अब बरनों मिथ्यातके नेद पंच परकार. ॥ २ ॥ अर्थः-प्रथम मिथ्यात, बीजो सास्वादन, त्रीजोमिश्र, चोथो अविरत, पांचमो रंच मात्र व्रत एटले देशवती, बठो प्रमत्त, सातमो अप्रमत्त, एवां नाम . आठमो अपूर्वकरण अथवा निवृत्ति बादर, ए बे नाम . ते ही सुखनो संचके० मिलाप बे. नवमो अनिवृत्ति बादर, दशमो सूक्ष्म लोन, अग्यारमो उपशांत मोह, आंही मोहनी वंचना एटले मोहथी बुटवू दे. बारमो वीण मोह कहीए, तेरमो सयोगी जिन, ते केवली थयो, चौदमो अजोगी जिन, जेनी स्थिति अ इ उ शलु ए पांच हख अकर जेटली . ॥ १॥ एम सर्व चउदे गुण स्थानना नामनुं सत्यार्थ वर्णन कीधुं ते शोने जे. हवे अनुक्रमे पहेला मिथ्यात्व गुणगणाना पांच प्रकारथी पांच नेद ते कडंडं. ॥ २ ॥ हवे पांच मिथ्यात्वनां नाम कदे:-श्रथ पंच मिथ्यावत्के नाम कथनः॥ सवैया श्कतीसाः ॥-प्रथम एकंत नाम मिथ्यात श्रनिग्रहीक, जो विपरित श्रनिनिवेसिक गोत है; तीजो विनै मिथ्यात अनानिग्रह नाम जाको, चोथो संसे जहां चित नोरकोसो पोत हे; पंचमो अज्ञान अनाजोगिक गहलरूप, जाके उदे चेतन अचेतनसो होत है; ए पांचो मिथ्यात जमावे जीवकों जगतमें, इन्ह के वि नास समकितको उदोत है.॥ ३॥ अर्थः-पांच मिथ्यात्वमा पेहेलु एकांत पदना ग्राही अनियहिक नामे मिथ्या त्व जे. बीजु मिथ्यात्व पेहेला मिथ्यात्वथी विपरित . तेनुं श्रनिनिवेसिक एवं गोत के नाम , त्रीजु विनय मिथ्यात्व, सर्वने पूजq ते , जेनु नामा अनानिग्रहिक ने, चो, संसयिक मिथ्यात्व ज्यां नमराना बचानी माफक, चित्त ब्रमण करतुं रहे, पांचमुं अज्ञान मिथ्यात्व, ए अनाजोगीक पणाश्री अजाणपणे एकेडियादिकमां ग हलरूपि . निजानी बाकनुं स्वरूपी वे. जेना उदयथी चेतन ते अचेतन थई र ह्युजे. जेना नाम लीधा ते एज पांचे मिथ्यात्व जीवने जगत्मां नमावे. ए पांचे मि थ्यात्वनो विनाश थएथी समकितनो उद्योत थाय ॥ ३॥ हवे एकांतवादी अनिग्रहीक मिथ्यात्वनुं लक्षण कहेजेः-श्रथ एकांत यथाः ॥ दोहराः ॥-जो कंत नय पक्ष गहि, बके करावे ददा, सो कंत वादी पुरुष मृषावंत परतद. ॥ ४ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमयसार नाटक. ७६ए अर्थः-साते नयमां हर कोई एक नयनो पद ग्रहीने पोताना जाणपणामां की जायजे, अने दद के तत्ववेत्ता कदेवाय, ते एकांत मतनो स्थापक मीमांसक नैया यक प्रमुख पुरुषले ते प्रत्यक्षपणे अनिग्रहीक मिथ्यात्वी ॥ ४ ॥ हवे जाणपणामां तो कांईक अनेकांतपणुं बे, पण हग्थकी विपरीत कडेले माटे तेनुं लक्षण कहेजेः-अथ विपरीत यथाः ॥ दोहराः ॥-ग्रंथ उकति पथ उपे, थापे कुमत मुकीय, सुजस देत गुरुता ग्रहे, सो विपरीती जीय ॥ ५ ॥ अर्थः-ग्रंथमां जे कह्यो एवो मार्ग तेने उथापीने निन्दवादिक पोतानी कुमति थापे, पोतानी प्रसिद्धि थवाने माटे गुरुता के प्राचार्यपणुं ग्रहेजे, ते जीव अनेकांतताश्री विपरीत थयो तेने अन्तिनिवेशिक मिथ्यामती कहीए ॥ ५ ॥ हवे जेनुं विनय मिथ्यात्व बे एवा अनजिग्रहिक मिथ्यात्वी, लक्षण कहे: । श्रथ विनय मिथ्यात्व यथाः- ॥ दोहराः ॥-देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गिने समान जु कोश नमें जगतिसों सव निकों, विनय मिथ्याती सोश ॥ ६ ॥ अर्थः-सुदेवने श्रने कुदेवने सुगुरुने अने कुगुरुने जे को समानज गणे , अने तामली तापसनीपरे परिणाम प्रवा लेझ्ने नक्तिश्री सर्वने नमे, पण गुणदो पनी खबर न होय ते विनय मिथ्यात्व कहिये ॥ ६ ॥ हवे जेना जाणपणामां संदेह , ते संशय मिथ्यात्वी कहिये तेनुं लक्षण कहे: श्रथ संशय यथाः॥ दोहराः ॥-जो नाना विकलप गहे, रहे हिए हेरान; थिर व्हे तत्व न सदहे, सो जिय संसयवान ॥ ७ ॥ अर्थः-जे अपार नय जाल देखिने जीवमा संशय राखे, नानाप्रकारना चित्त वि कल्प ग्रहे श्रने हेरान थई रहे. स्थिरता राखीने तत्त्वने सर्दै नही तेज जीव संशय वंत मिथ्यात्वी कहीये ॥ ७ ॥ हवे पांचमा श्रझान मिथ्यात्वीन लक्षण कहेजेः-अथ अज्ञान यथाः॥दोहराः ॥-जाको तन पुष दहलसों, सुरति होति नहिं रंच; गहल रूप वरते सदा, सो अज्ञान तिरयंच ॥ ॥ पंच नेद मिथ्यातके, कहे जिनागम जोश; सादि अनादि सरूप अब, कहों अवस्था दो ॥ नए॥ ___ अर्थः-शरीरमा फुःखना दहेलथी जेने हेय उपादेयनी,रंचमात्र सुरता रेहेती नथी, मूर्चित रूपे जे सदा वर्ने बे, ते एकेंजियादिक तिर्यंच अज्ञान मिथ्यात्वी कहिये। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 990 प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. श्री जिनेश्वरना श्रागम सिद्धांत जोईने मिथ्यात्वना पांच जेद कहे बे: - जेनी श्रादि पा मी तो यदि मिथ्यात्व कहीए, अने जेनी आदि न पामीए तेतो अनादि मि थ्यात्व कहिये, एवी एवी मिथ्यात्वनी अवस्थानुं स्वरूप दवे कहेंबे ॥ ८ ॥ प्रथम सादि मिथ्यात्वनुं लक्षण कहेतेः -ाथ सादि यथा:॥ दोहराः ॥ - जो मिथ्या दल उपसमे, ग्रंथ नेद बुद्धि होइ, फिरि श्रावे मिथ्यातमें, सादि मिथ्याती सोइ ॥ ए० ॥ अर्थः- जे मिथ्यात्व मोहनीयना दलने उपशमावीने मिथ्यात्व ग्रंथी नेदीने ज्ञाता सम किती थईने पाढा मिथ्यात्वमां खावे ते सादि मिथ्यात्व कहीए. एना मिथ्यात्वमां दवे यदि यई तेथी सादि मिथ्यात्वी कहिये ॥ ० ॥ दवे बीजुं अनादि मिथ्यात्वनुं लक्षण कहे बे::- अथ अनादि मिथ्यात्व कथन:॥ दोहराः ॥ - जिनि गरंथि जेदी नहीं, ममता मगन सदीव; सो अनादि मिथ्या मती, विकल बहिर्मुख जीव. ॥ १ ॥ अर्थः- जे जीवे मिथ्यात्व ग्रंथी जेदी नथी ने सदासर्वदा काल लगण, ममता मांज मग्न रहे, ते जीव अनादि मिथ्यात्वी कहीए; अने जे बहिर्मुख रहे, जेने पर मात्मा द्रव्यनी दृष्टि नथी, ते बहिर्मुख जीव कहीए. ॥ ५१ ॥ ॥ इति श्री बणारसीदास कृत समयसार नाटकने विषे प्रथम गुणस्थानकनो श्र धिकार संपूर्ण थयो. ॥ ॥ दोदराः ॥ - को प्रथम गुण थान यह, मिथ्या मत अनिधान; अलप रूप अब वरनवुं, सासादन गुन थानः ॥ २ ॥ अर्थः-जेनुं मिथ्यात्व एवं नाम बे, ते पेहेलुं गुणस्थानक सूचना मात्र कयुं, हवे संक्षेप मात्र सास्वादन गुणस्थाननुं स्वरूप कहुंनुं ॥ २ ॥ ॥ सवैया इकतीसा ; ॥ - जैसे कोउ बुधित पुरुष खाइ खीर खांड, वोन करे पीछे के लगार स्वाद पावे हे; तैसे चढि चोथे पांचमे के बठें गुनथान, काहु उपसमीको कषा उदे यावे हे; ताहि समे तदां गिरे परधान दशा त्यागी, मिथ्यात व स्थाकों अधोमुख व्हें धावे हे; बीच एक समे वा व आवली प्रमान रहे, सोइ सा सादन गुनथानक कहावे हे. ॥ ३ ॥ अर्थः- जेम कोइ दुधावंत पुरुष बे ते खीरखांड खाय, पढी तेने वमन करे. ते वमननी पछी पण खीरखांमना जोजननो लगारेक स्वाद पामेबे. तेम कोइ जीव ज पशम सम्यक्त्व पामीने चोथे अविरत गुणस्थाने रह्यो बे. अथवा उपशम सम्यक्त्व पामताज सरखो समान पांचमा गुणठायें अथवा बठे गुणठाणे चढ्यो त्यां सम कितनी Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. 992 उज्वलता न थई, अने अनंतानुबंधी उपशमि कषाय दतो ते उदय थयो ते सम मां ते त्रणे गुणवाणाथकी ते उपशम सम्यक्त्वनी प्रधान दशा जे श्रेष्ट दशा तेने त्यागी ने फरी मिथ्यात्व दशाने बंधे मुखे उलटो रहेबे, एटले मिथ्यात्व पामतामां सम्यक्त्व बूटतामां वचे एक समयकाल प्रमाणे अथवा उत्कृष्ट व श्रावलिका प्र माणे जे सम्यक्त्व अंश रहेबे तेनेज सास्वादन गुण स्थानक कहिए. ॥ ५३ ॥ ॥ इति द्वितीय गुन थानक समाप्तः ॥ ॥ दोहराः ॥ - सासादन गुन थान यह, जयो समापत बीय; मिश्र नाम गुन थान अब, बरनन करों त्रितीय. ॥ ए४ ॥ श्रर्थः - श्रा बीजुं सास्वादन नामे गुणस्थान संपूर्ण थयुं. दवे त्रीजुं मिश्र गुनथा ननुं वर्णन करूं ॥ ५ ॥ ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - उपसमी समकिती केतो सादि मिथ्यामती, डुहूनिको मिश्रीत मिथ्यात श्राइ गहे हे; अनंतानुबंधी चोकरीको उदे नांही जामे, मिथ्यात समे प्रकृति मिथ्यात न रहेहे; जहां सद्दहन सत्यासत्यरूप समकाल, ज्ञान जाव मिथ्या जाव मिश्र धारा वड़े हैं; जाकी थिति अंतर मुहूरत वा एक समे, एसो मिश्र गुन थान श्राचारज कहे दे ॥ ए५ ॥ अर्थः- उपशम सम्यक्तित्व मिथ्यात्व, मिश्र, छाने सम्यक्त्व रूप त्रण पुंज करीने ज्यारे मिश्र पुंजमां जीव वर्त्ते, अथवा सम्यक्त्वथी पडीने फरी मिथ्यात्वमां घ्यावी सादिमि यावी थईने मिश्र पुंज उदय थयाथी मिश्रमां वर्त्ते, ए बेउने मिश्र गुण स्थानक क हिये, केमके मिथ्यात्व सम्यक्त्व थको वर्त्ते बे. जेथी संसार अनंतो वधे ते अनंतानुबं धीनी चोकडी कहिए, तेनो जेमां उदय नयी अने मिथ्यापथुं शमे तथा उपशमेबे, त्यां मिथ्यात्वनी प्रकृतिनो उदय रहेतो नथी. ज्यां समकाले सत्यासत्यरूप श्रद्धा बे, एटले श्रद्धामां साधुं खोटुं बेज बे, तिदां ज्ञान जाव बे, ते मिश्र धारामां वहे. नेमियात्व जावपण सम्यक्त्व धाराथी मिश्रित धारा थकी वदेबे. जेनी उत्कृष्टि स्थिति अंतर्मुहूर्त्त कालनी बे, अथवा जघन्य एक समयनी बे. एनुं नाम त्रीजुं मिश्र नामे गुणगाणं श्राचार्यजी कडे. ॥ ५ ॥ ॥ इति तृतीय गुनस्थान समाप्तः ॥ ॥ दोहराः ॥ - मिश्र दशा पूरन जई, कही यथा मति जाषि; अब चतुर्थ गुनथान विधि, कहों जिनागम साषि ॥ ए६ ॥ अर्थः- मिश्र गुणवाणानी जेवी दशा बे, ते जेवी पोतानी बुद्धि बे तेवी रीते जा पारूप कही ते संपूर्ण थई, हवे श्री जिनागमनी शाष लईने चोथा सम्यक्त्व गुण गानो विधि कहुं ॥ ८६ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. हवे चोथा सम्यक्त्व गुणगणानुं वर्णन करे:-श्रथ सम्यक्त्व वर्णनः॥ सवैया इकतीसाः॥-केई जीव समकित पाश् अर्ध पुजल, परावर्त्त काल ताई चोखे होई चित्तके; कोई एक अंतर मुहूरतमें ग्रंथि नेदि, मारग उलंघि सुख वेदे मोष वितके; ताते अंतरमुहरतसों अर्ड पुजलसों, जेते समे होही तेते नेद समकितके; जाही समे जाको जब समकित होई सोई, तबहीसों गुन गहे दोष दहे इतके.॥ए॥ ॥ दोहराः ॥-अथ अपूर्व श्रनवर्ति त्रिक, करन करे जो कोश; मिथ्या ग्रंथि वि दार गुन, प्रगटे समकित सोश. ॥ ए७ ॥ अर्थः-सम्यक्त्व पामीने चित्तनो चोखो थईने अर्क पुद्गल परावर्त काल लगण संसारमा रहेडे,अने कोईक जीव तो एकज अंतमुहर्त कालमां मिथ्यात्व ग्रंथी नेदी समक्त्व पामीने चारे गतिनो मार्ग उल्लंघन करी मोक्षरूप वित्तना सुख वेदे, पण सं सारमा रहे नही, तेश्री सम्यक्त्व पामीने जघन्य संसार स्थिति एक अंतर् मुहूर्त्तनी डे अने उत्कृष्ट संसार स्थिति के पुद्गल परावर्तनी थायडे, हवे एटली संसार स्थि तिनी वचमां एक एक समयनी वृद्धि करता जेटला ते स्थितिना नेद थाय तेटला सम्यक्त्वना नेद पामीए. ए रीते सम्यक्त्वना घणानेद पामिये; जे समये जेने सम्य क्त्व उदय होय ते समये ते जीव त्यारथी पोताना गुण ग्रहेजे; अने इतके के ते संसार श्रवस्थाना दोषy दहन करे॥ए॥ अथ के यथाप्रवृत्ति करण, अपूर्व करण, शनिवृत्ति करण ते त्रणे करण जे कोई जव्यजीव करे त्यां कोईक वखते एक, श्रा युकर्मविना साते कर्मनी स्थिति अंत कोडा कोमी सागरोपम प्रमाण रहे, त्यारे य थाप्रवृत्ति करण थाय. पली मिथ्यात्व ग्रंथी नेदवाथी अपर्वकरण थाय, अने सम्यक्त्व प्रगटवाथी अनिवृत्तिकरण थाय, जे कोई एत्रणे करणे करी मिथ्यात्व ग्रंथी विदारीने सम्यक्त्व स्वरूप पामे तेज सम्यक्त्व कहिये ॥ए ॥ हवे अष्ट प्रकारथी सम्यक्त्व विवरण करे बेः-श्रथ श्रष्टरूप कथनः॥ दोहराः॥-समकित उतपति चिन्ह गुन, नूषण दोष विनास; अतीचार जुत अष्ट विधि, बरनों बिबरन तास ॥ एए॥ अर्थः-सम्यक्त्व, सरूप, सम्यक्त्वनी उत्पत्ति, सम्यक्त्वनुं चिन्ह,३सम्यक्त्वनो गुण, ४ सम्यक्त्वनुं नूषण, ५ सम्यक्त्वना दोष, ६ सम्यक्त्वनो विनाश, सम्यक्त्वना अतिचार, ए सर्व आठ प्रकार थया, तेनो विवरो करूंबुं ॥ एए॥ हवे प्रथम सम्यक्त्वनुं सरूप कहे:-अथ सम्यक्त्व यथाः॥ चोपाईः॥-सत्य प्रतीति अवस्था जाकी; दिन दिन रीति गहे समताकी; बिन दिन करे सत्यको साको; समकित नाउ कहावे ताको ॥ ६०० ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक ७७३ अर्थः- सत्यमां जेनी प्रतीत बे, जे साचानेज सर्ददेबे, एवी जेनी व्यवस्था अने दिवसे दिवसे वधती वधती दमा निर्लोजता प्रमुख समतानी रीत जे ग्रहण करेबे. एवं सत्य कार्य पहेला कंदी न कयुं, तेथी दवे क्षण क्षणमां सत्यनी साको के० जे करेबे, ते जावनुं नाम सम्यक्त्व कहीए ॥ ६०० ॥ ० महा कार्य वे सम्यक्त्वनी उत्पत्ति कहे :- अथ उत्पत्ति यथा:॥ दोदराः ॥ - केतो सहज सुनाको, उपदेशे गुरु कोइ; चिहुँ गतिसेती जीवकों, सम्यक दरशन हो, ॥ १ ॥ अर्थः- नदीने किनारे उजा पाणीना कल्लोल यावता जाताना न्यायथी एटले सरिडुपल घोलना न्यायथी कोइने सहज स्वजावमांज समकित उपजे, कोईने गुरुना उपदेश थकी सम्यक्त्व उपजे. जे जीव चारे गतिमां शयन निद्रा करी रह्यो तो तेने जे सम्यक्त्व उपजे बे, ते एवा एवा प्रकारथी उपजेबे ॥ १ ॥ हवे जेथी सम्यक्त्व उपज्युं जाणीए ते सम्यक्त्वनां लक्षण कहे बेः - अथ लखन यथा:|| दोहराः ॥ - श्रापा पर परचेविषे, उपजे नहिं संदेह; सहज प्रपंच रहित दशा, समकित लक्षण एड् ॥ २ ॥ अर्थः- आत्मा ने आत्माथी बीजां जे कर्मादिकना पुल बे, एटले बीजा पांचे द्रव्य तेना परिचय प्रतीतिमां, संदेह उपजे नहीं अने सहज खजावमां श्रात्मदशा ते माया प्रपंच रहितथाय ए सम्यक्त्वनां लक्षण कहिये ॥ २ ॥ हवे सम्यक्त्वना गुण कवेः - श्रथ गुन यथा: ॥ दोहराः ॥ - करुना वबल सुजनता, श्रातमनिंदा पाठ; समता जगति विरागता, धरम राग गुन आठ ॥ ३ ॥ अर्थः:- दया तथा सर्वनुं हित वांढक पणु, सर्व साथे मैत्री नाव राखवो, आत्मनिं दानुं पठन कर, इष्ट अनिष्ट उपर समजावे रहेतुं, देव गुरुनी जक्ति, वैरागरसमांज निज्या थका रहेवुं, धर्मश्री राग राखवो. ए सम्यक्त्वना आठ गुण बे ॥ ३ ॥ हवे सम्यक्त्वनां पांच भूषण कहै बे:-अथ पंच भूषण यथा: ॥ दोहराः ॥ - चित प्रजावना जावजुत, हेय उपादेयवानि; धीरज हरष प्रवीनता भूषन पंच बखानि ॥ ४ ॥ अर्थ :- चित के० ज्ञान एटले जिन शासननो जेवी रीते प्रजाव वधे तेवा जावमां रहेतुं, हेय उपादेयना ज्ञानवंत यई धैर्यमां रहेवुं, सम्यक्त्वपामीने दर्ष राखवो, तत्त्व वि चारमां प्रवीणता राखवी, ए पांच सम्यक्त्वनां भूषण वखाणिए ॥ ५ ॥ * Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. . हवे सम्यक्त्वना पचीस दोष कहेजेः-श्रथ पंचवीस दोष यथाः॥ दोहराः ॥-अष्ट महामद अष्ट मल, षट् थायतन विशेष; तीन मूढता संजुगत, दोष पचीसी एषः ॥ ५॥ अर्थः-श्रष्ट महामद बे, अने श्राप मल बे, आयतन विशेष बे, अने त्रण मू ढता बे; ए सर्व एका करीए तो पचीस दोष थाय. ॥ ५ ॥ हवे श्राप जातना मद कहेजेः-श्रथ अष्ट मद यथाः॥ दोहराः॥-जाति लान कुल रूप तप, बल विद्या अधिकार; इन्हको गरव जु कीजिये, यह मद अष्ट प्रकार. ॥६॥ अर्थः-जातिमद, लानमद, कुलमद, रूपमद, तपमद,बलमद, विद्यामद, तथा अधि कार के ऐश्वर्यमद ए श्राप वस्तुनो जे गर्व करवो तेज या प्रकारना मद कह्यावे. ॥६॥ हवे श्राप प्रकारना मल कहे बेः-अथ अष्ट मल कथनः-- ॥ चोपाईः॥-श्रासंका अस्थिरता वांबा; ममता दृष्टि दशा पुरगंडा; वत्सल रहित दोष परजाषे; चित्त प्रजावना मांहि न राषे. ॥ ७॥ अर्थः-धर्म उपर अने जिनशासन वचन जपर शंका राखे, धर्ममां स्थिरता नहीं. स्वर्गादिकनी वांबाधरे, कुटुंबादिकविषे ममत्व जाव राखे, ए धर्म मलीन एवी छ गंगा करे, स्वामी वत्सल न करे, पारका दोष प्रकाशे, ज्ञान प्रमुख विविध प्रकारनी प्रजावनामा चित्त न राखे. ए श्राप मल जाणवा ॥७॥ हवे श्रायतन दोष कहे ते स्थान मिथ्यात्वनां कहे:-श्रथ षडायतनयथाः ॥ दोहाः ॥ -कुगुरु कुदेव कुधर्म धर, कुगुरु कुदेव कुधर्म; इनकी करे सराहना, यह षडायतन कर्म. ॥ ७॥ अर्थः-कुगुने माननार, कुदेवने सेवनार, कुधर्मने माननार, कुगुरु प्रशंसा, कुदेव प्र शंसा, कुधर्म प्रशंसा, ए बएनी प्रशंसा करे ते श्रायतन कर्म दोष बे. ॥ ॥ हवे त्रण मूढता दोष कहेजेः-अथ मूढत्रय यथा कथनः॥ दोहराः ॥-देव मूढ गुरु मूढता, धर्म मूढता पोष; आठ श्राउ षट तीनि मिलि, ए पचीस सब दोषः ॥ ए॥ अर्थः-सुदेव समके नही ए पेली देव मूढता,सुगुरुने समजे नही ए बीजी गुरु मूढता, सुधर्मने समफे नही ए त्रीजी धर्म मूढता. ए अविद्यानो पोषक . एरीते आठ मद, श्राप मल, ब आयतन, त्रण मूढता, सर्व मली पचीस दोष थया. ॥ ए॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ggu श्री समयसारनाटक. हवे पांच प्रकार सम्यक्त्वनो नाश करे ते कदे:-श्रथ नाश पंचक यथाः॥ दोहराः ॥-ज्ञान गर्व मतिमंदता, नितुर वचन उदगार; रुपनाव बालस दसा, नास पंच परकार. ॥१०॥ अर्थः-शानना गर्वथी, बुधिनी मंदताथी, कठण वचनना उदगार के कदेवावी, रोज नाव धरवाथी, बालसु पणाथी,एवी रीते पांच प्रकारे सम्यक्त्वनो नाश थायजे. हवे दिगंबर संप्रदायथी सम्यक्त्वना पांच अतिचार कहेः-अथ अतिचार पंचकयथाः ॥दोहाः ॥-लोग दास जय लोग रुचि, अग्रसोच थिति चेव; मिथ्या धागमकी जगति, मूषा दरसनी सेवा ॥१९॥ चोपाई॥-थतीचार ए पंच प्रकारा; समल करदि समकितकी धारा; फूषन नूषन गति अनुसरनी; दसा श्राप समकितकी बरनी॥१२॥ अर्थः-सम्यक्त्वनी क्रियाथी मने लोक हसशे एवो मनमां जय राखे,पांच इंडियना विषयजोगनी रुचि राखे,आगल महारुं शुं थाशे एवी पोतानी स्थितिनुं चिंतन करतो रहे, मिथ्यात्व दर्शनना जे आगम सिद्धांत डे तेनी नक्ति करे,पांचमुं मिथ्या दर्शननी सेवा करे ॥११॥ ए पांच प्रकारना अतिचार ते सम्यक्त्वनी उज्वल धाराने मल स हित करेठे, एवी भूषण गतिनी पाउल लागी अने नूषण गतिने पाबल लागी रहे ए समकितनी बाठ दशाने वरणी ॥ ११॥ हवे जे सात प्रकृतिना दय अथवा उपशमथी सम्यक्त्व उपजे ते कहेजेः थथ सप्त प्रकृति यथाः॥ दोहराः ॥-प्रकृति सात अब मोहकी, कहों जिनागम जोश जिन्हको उदै नि वारिके, सम्यक दरशन हो ॥ १३ ॥ सवैया इकतीसाः ॥-चारित मोहकी चारि मि थ्यातकी तीनि तामें,प्रथम प्रकृतिअनंतानुबंधी कोहनी;बीजी महामान रस नीजी माया नई तीजी, चोथी महालोज दसा परिगद पोहनी; पांच मिथ्यात मति ठी मिश्र परनति, सातई समे प्रकृति समकित मोहनी; एई षट बिंगवनितासी एक कुतियासी, सातो मोहप्रकृति कहावे सत्ता रोदनी ॥ १४ ॥ अर्थः-हवे मोहनीयनी सात प्रकृति श्री जिनेश्वरनुं श्रागम जोई कहुंचं. जे सात प्रकृतिनो उदय निवारवाथी सम्यक्त्व दर्शन प्रगट थाय ॥१३॥ मोदनीय कर्मनाबे नेद बेः-एकतो चारित्र मोहनीय,बीजी मिथ्यादर्शन मोहनीय,तेमांचारित्र मोहनीयनी चार प्रकृति, अने मिथ्या दर्शन मोदनीयनी त्रण प्रकृति मली सात प्रकति बे; तेमां प्रथम प्रकृति अनंतानुं बंधी कोहनी के क्रोधनी, बीजी प्रकृति महा अनिमानना रसमां जीनो थको रहे ते अनंतानुबंधी मान, थने त्रीजी प्रकृति महामायामय ते अनंतानुबंधी माया, चोथी प्रकृति महालोन दशामां परिग्रहनी पोषण करनार ए श्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. नंतानुबंधी लोज, पांचमी प्रकृति मिथ्यात्व मोहनीय, बवी प्रकृति मिश्र परिणाम एटले मिश्र मोहनीय, सातमी प्रकृति जे बे ते पहेली बए प्रकृतिनुं सम युं एटले दबाई गई ते सातमी सम्यक्त मोहनीय जाणवी, एमां घुरली व प्रकृतितो विंग वनितासी के० वाघणी जेवी बे. एनी गैल लागी तो कांई बूटती नथी, ने एक सातमी प्रकृति कुतियासी के०कुनार्या जेवी बे. तेनोपण जरोसो नथी. ए साते मोह नीयनी प्रकृति ते जीवनासद्जावनी रोकनार बे ॥ १४ ॥ दवे साते प्रकृतिथी सम्यक्त्वना नेद उपजे ते कहे बे:- अथ सम्यक्त्व नेद कथनः- ॥ बप्पय छंदः ॥ - सात प्रकृति उपसमहि, जासु सो उपसम मंमितः सात प्रकृति ar करन, दार बायकी श्रखंडित; सातमांहि कतु पिहि, कबुक उपसम करि रके; सोय उपसमवंत, मिश्र समकित रस चखे; षट प्रकृति उपशमश्वा पिप, थ वा बय उपशम करे; सातई प्रकृति जाके उदय, सो वेदक समकित धरे ॥ १५ ॥ अर्थ:-जेने ए सात प्रकृति उपसमी जाय तेतो उपसमी, पंक्ति के० ज्ञाता होय तेनुं नाम उपशम सम्यक्त्व कहीए; छाने जे ए साते प्रकृतिनो काय करनार होय तेने काकी कहीए, ते खंमित दायक सम्यक्त्व होय, वली ए साते प्रकृतिमां कई ख पावे, कई उपशमावी राखे,तेतो उपशम लक्षण सहित, तेमां मिश्ररूप सम्यक्त्व रसने चाखे, ए साते प्रकृतिमां व प्रकृति उपशमे श्रने सातमी सम्यक्त्व मोहनीय तो प्र कृति ऊदय यावी वेदे बे. अथवा ब प्रकृति दय थईबे ने सातमी वेदे बे. अथवा ब प्रकृतिमां कोई प्रकृतिनो दय थयो छे, छाने कोनो उपशम थयोबे, घने सातमी प्रकृति वेदे बे ते वेदक सम्यक्त्व धारी कहीए ॥ १५ ॥ वे सर्वे सम्यक्त्वना नव नेद कहे बे:- छाथ नवविधि सम्यक्त्व वर्ननं:॥ दोहराः ॥ -बय उपसम बरते त्रिविध, वेदक चार प्रकार; बायक उपशम जुग लयुत, नौधा समकित धार ॥ १६ ॥ अर्थः-दयोपशमसमकित त्रण प्रकारनुं वर्त्ते बे. वेदक सम्यक्त्वना चार प्रकारे बे, दायक सम्यक्त्वनो एक प्रकार बे ने उपशम सम्यक्त्वनो एक प्रकार, ए कायकने उपशम बेहुना मलवाथी सर्व मली नव प्रकारनो सम्यक्त्वधारी थाय ॥१६॥ हवे योपशम सम्यक्त्वना ऋण प्रकार कहे :- छाथ क्षयोपशम त्रयि यथा:-- ॥ दोहराः ॥ चारि षिप हि त्रय उपसमहि, पण पय उपसम दोश; षै षट उपसम क्षै एक यों, पय उपसम त्रिक होइ ॥ १७ ॥ अर्थः- साते प्रकृतिमां अनंतानुबंधीनी चोककी खपी गश्बे, अने ऋण दर्शन मोहनी उपसमी बे, तेने क्षयोपशम सम्यक्त्व कहिए. अथवा चार अनंतानुबंधी अने मि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. थ्यात्व मोहनीय ए पांच प्रकृति दय गई, अने बे उपशमी , तेने पण दयोपशम सम्यक्त्व कहीए; अथवा मिश्र मोहनीय लगण उ प्रकृति दय गई, अनेसातमी उपश मावी , तोपण क्षयोपशम सम्यक्त्व कहीए; एत्रण प्रकारे क्षयोपशम सम्यक्त्व थाय. हवे दयोपशम सहित सम्यत्क्व मोहनीय वेदवाथी जे दयोपशम वेदक नीपजे डे, तेना बे प्रकार बेः-श्रथ क्षयोपशम वेदक हिक यथा कथनः॥ दोहराः ॥-जहां चारि प्रकारती विपहिं, के उपसम श्क वेद; षय उपसम वेद क दशा, तासु प्रथम यह नेद. ॥ १७ ॥ पंच पिपे इक उपसमै, श्क वेदे जिहि गैर, सो षयजपसम वेदकी, दशा पुतिय यह र ॥ १॥ अर्थः-ज्यां अनंतानुबंधी चार प्रकृति दय थाय बे; अने मिथ्यात्व श्रने मिश्र ए बेन प्रकृति उपशमेने, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदेडे, श्रावी दशामा जे दयो पशम सहित वेदक समकित थयुंजे, तेनो श्रा प्रथम नेद बे.॥ १७ ॥ वली ज्यां चार अनंतानुबंधी अने मिथ्यात्व मोहनीय ए पांच प्रकृति खपीने, अने एक मिश्र मोहनीय उपशमी बे, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदे बे, त्यारे दयोपशम सहित वेदक समकितनी था बीजी दशा थई. ॥ १॥ हवे जे दायिक सहित वेदकडे, श्रने उपशमसहित वेदक डे, तेनो प्रकार कहे : अथ दायक वेदक उपशम वेदक यथा कथनः॥ दोहरा ॥-षय षट वेदे एक- जो, व्यायक वेदक सोश, षट उपसम श्क प्रक ति विद, उपसम वेदक हो. ॥ २० ॥ खायक उपसमकी दशा, पूव षट पदमांहि, कही प्रगट अब पुनरुकति, कारन बरनी नाहि.॥१॥ अर्थः-ज्यांचारे अनंतानुवंधि भने मिथ्यात मोहनीय श्रने मिश्रमोहनीय ए प्रकृति खपी ने, थने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदेबे, त्यारे दायिक वेदक सम्यक्त्व कहिये; अने ए जे पूर्वे न प्रकृति कही ते जेणे उपशमावी बे, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदे , त्यारे उपशम वेदक सम्यक्त्व कहिये. ॥ २० ॥ क्षयोपशम नामे जे सम्यक्त्व कहीए, तेनी दशा तो पाबला षट्पद के उपय बंदमा कही , तेमां ए सातमां के ईक उपशम करी राखे, एवं प्रगट कहेलुं . तेथी श्रांहि फरी कहेवायाथी पुनरुक्ति दोष लागे ते कारणथी फरी वरणवी नथी. ॥१॥ हवे सम्यत्वना मूल नेद चार थने उत्तर नेद नव डे ते कहेजेः-अथ नेद विवरनः ॥ दोहराः ॥-षय उपसम वेदक विपक, उपसम समकित च्यारि; तीन च्यारि श्क इक मिलत, सब नव नेद विसारि. ॥ ॥ अर्थ:-क्षयोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, दायक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JJG प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. एवा मूल चार भेद समकितना थया. वली क्षयोपशमना त्रण नेद, वेदकना चार द छाने कायकनो एक जेद, उपशमनो एक नेद, ए सर्व मली उत्तर भेद थाय. ॥ २२ ॥ सम कितना नव वे निश्चयादिक सम्यक्त्वनी व्यवस्था कहेतेः - श्रथ निश्चे : व्यवहार सामान्य विशेष: || सोरठा || अब हिचे विवहार, अरु सामान्य विशेष विधि; कहीं च्यारि परका रि, रचना समकित भूमिकी ॥ २३ ॥ सवैया इकतीसाः ॥ मिथ्या मति गंवि नेद जगी निरमल ज्योति, जोगसों अतीत सोहे हिचे प्रवानिये; वहे हुँद दसासों क हावे जोग मुद्रा धरे, मति श्रुति ज्ञान नेद विवहार मानिये; चेतना चिह्न पहि चान पर वेदे, पौरुष अलप ताते समान बखानिये, करे जेदाने की विचार विस ताररूप देय गेय उपादेयसों विशेष जानिये ॥ २४ ॥ सोरठाः ॥ - थिति सागर तेती स, अंतर मुहुरत एक वा अविरति समकिति रीस, यह चतुर्थ गुन थान इति ॥ २५॥ अर्थ:-- हवे निश्चयथी अने व्यवहारथी सामान्य विशेषपणो कहेबे सम्यक्त्वनी नू मिनी चार प्रकारनी रचना बे ते कहेबे ॥ २३ ॥ प्रथम मिथ्यात्व ग्रंथी नेदिने जे श्रा त्मानी निर्मल ज्योति जागी बे ने जे ज्योति मन, वचन, कायाना जोगथी अ तीत बे तो सम्यक्त्व निश्चयनयथी प्रमाण करीए. वीजुं ते सम्यक्त्व द्वंद्व दशाथी व र्तमान थाय बे, एटले बहु विकल्पथी धामधुम दशाथी वर्त्ते बे. त्यारे तो एवं कहे वाय बे के ए जोग मुद्रा धारी के, या मतिज्ञानी बे, आ श्रुत ज्ञानी बे. एवा नेद व्यवहारनयथी मानिये बे. त्रीजुं ए आत्माना चेतनारूप चिन्ह के० लक्षण जाणीने आत्म द्रव्य अने परद्रव्यने वेदे बे. परंतु अंतरायना उदयश्री पुरुष पराक्रमप बे, एटले अविरति . तेथी ए सामान्यपणे सम्यक्त्व कहीए. चोथुं गुण अने गुणिनो दाभेद विचार विस्ताररूप करे० जेम आत्मा गुणिबे; ज्ञानादिक गुण बे. तेना भेदानेदनो विचार करवो, एवा देय, ज्ञेय, उपादेयनो विचार राखवो. विशेषपणे सम्यक्त्व जाणि ॥ २४ ॥ विरति सम्यक्त्वनी उत्कृष्टि तेत्रीस सागरोपम स्थिति अथवा ज धन्यथी एक तर मुहूत्र्त्तनी स्थिति होय. अविरति सम्यक्त्वनी रहस्य मर्यादा ए वे प्रकारे होय, ए चोथुं गुणस्थानक समाप्त थयुं ॥ २५ ॥ वे पांचमां गुणस्थानकना विवरणनो आरंभ करे:--अथ पंचमगुनथानक श्रारंज. ॥ दोहा ॥ -- बरनो इकवीस गुन, अरु बावीस अजय; जिन्हके संग्रह त्या गसों, सोहे श्रावक पप्य ॥ २६ ॥ अर्थः- तेमां प्रथम पांचमा गुणस्थानक लायक श्रावकना एकवीस गुण कहुंडं. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. पए अने बावीस अनद डे ते कलुबु. जे गुणने संग्रह करवाश्री अने जे अन्नदने त्याग वाथी श्रावकनो पद गुणसंग्रहीत शोजायमान थाय ते कडंबु. ॥ २६ ॥ हवे भावकना एकवीस गुणनां नाम कहेजेः-अथ श्रावक इकवीसगुन कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥-लजावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोषकों ढकैया पर उपकारी है; सोम दृष्टि गुन ग्राही गरिष्ट सबकों श्ष्ट, सीष्ट पदी मिष्टवादी दीरग विचारी है; विशेषज्ञ रसज्ञ कृतज्ञ तज्ञ धरमज्ञ, नदीन न अनिमानी मध्य विवहारी हैस हजै विनीत पाप क्रियासों अतीत एसो, श्रावक पुनीत कवीस गुन धारी है ॥२७॥ अर्थः-लजावंत १, दयावंत २, शांतमूर्ति ३, प्रतीतवंत ४, परदोषनो ढांकनार ५, परउपकारी ६, सोमदृष्टि ७, गुणग्राहक ज, गुरुवाई ए, सर्वनो ववन १०, शिष्टाचारनो पदी ११, मिष्टवचन बोलनार १२, जंडो विचार विचारे १३, विशेष ज्ञाननो जाणनार १५, शास्त्ररस जाणनार १५, करेला उपकारने जाणे १६, ते उपकारने जाणे १७, ध मैने जाणनार १७, श्रदीनपणुं ग्रहे अनिमानी रहे नही रए, एवा मध्यम व्यवहारमा रहे, के जेथी सहज स्वनावे विनयवंत होय २०, अने पापक्रियाथी रहित होय २१, एवा पवित्र श्रावक एकवीश गुणना धारनार थाय. ॥ २७॥ हवे जघन्य श्रावकने बावीस वस्तु अजद बेः-श्रथ बावीसअनद वर्ननः ॥ कवित्त बंदः-उरा घोरवरा निसनोजन, बहु बीजा वेगन संधान; पीपर वर जंबरि कलूंबरी, पाकर जोफल हो जान; कंद मूल माटी विष आमिष, मधु माषन अरु मदिरापान; फल अति तुछ तुसार चलित रस, जिनमत ए बावीस अषान. ॥२॥ अर्थः-गमोरा हेमा करहा १, काचा धोलनां वमा २, रात्री नोजन ३, बहु बीज फल ते दामम प्रमुख ४, वेगण ५, श्रथाणुं पाणीमांहेलु ६, पीपलनी पीपी ७, वम वृदनां फल , घोलरनां फल ए, कवंबरनां फल १०, पाकरीनां फल १९, अजाएयां फल १२, कंदमूलनी जाति सर्व १३, माटीनीजाति १४, अफीमप्रमुख १५, मांस १६, मधु १७, मांखण १७, मदिरापान १ए, बहु तुब फल काचुं फल २०, हीम २१, जेनो वर्ण, रस, गंध, स्पर्श फरी गयो होय ते चलित रस , ए बावीस वस्तु श्री जिने श्वरना मत धारीने अनद बे. ते खावी नही ॥२७॥ ॥ दोहराः ॥-अब पंचम गुन थानकी, रचना बरनो अल्प; जामे एकादश दशा, प्रतिमा नाम विकल्प. ॥ए॥ अर्थः-हवे देशविरतीनामे पांचमा गुनथाननी रचना अल्पमात्र वर्णदुं बु. संदेपमात्र करीने ते गुणथानमा अग्यार प्रतिमाधारी प्रतिमाएवं नाम चारित्र विकल्पमुंबे॥रण॥ हवे अगीधार प्रतिमानां यथार्थनाम कहे:-अथ एकादश प्रतिमा नामकथनः Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IGO प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो.. __॥ सवैया इकतीसाः ॥-दंसन विशुधकारी बारह विरतधारी, सामायक चारी पर्व पोसह विधि वहे; सचित्तको परिहारी दिवा अफरस नारी, थागे जाम ब्रह्मचारी निरारंजी ठहै रहे पाप परिग्रह बंडे पापकी न शिक्षा मंमे, कोउ थाके निमित्त करे सो वस्त न गहे; एते देस व्रतके धरैया समकिती जीव, ग्यारह प्रतिमा तिन्हे नगवंतजी कहे ॥ ३० ॥ अर्थः-दर्शन विशुछिनी करनारी दर्शन प्रतिमा १, बारे व्रतनी धारनारी वि रति प्रतिमा २, ज्यां सामायिकनो उच्चार ते सामायिक प्रतिमा. ३, ज्यां पर्व श्राव्याथी पोसह करवो ते पोसहप्रतिमा ४, ज्यां सचित्त वस्तुनो परिहार करिये ते सचित्त परिहार प्रतिमा ५, ज्यां दिवसे स्त्री स्पर्श न करवो ते दिवस अस्पर्श प्रतिमा ६, थारे प्रहर ब्रह्मचर्यमा रहेQ ते ब्रह्मचर्य प्रतिमा ७, सर्व आरंजनो ज्यां त्याग करवो ते निरारंजी प्रतिमा ७, परिग्रहने त्यागवो ते परिग्रह त्याग प्रतिमा ए, ज्यां पापोपदेश न देवो ते पापोपदेश त्याग प्रतिमा १०, कोई आपणा निमित्त आहारादिक वस्तु करे ते ले नही ते उद्देशिक त्याग प्रतिमा ११, ए श्रगीयार प्रकारे करीने देश विरत धारी सम्यक्त्ति जीव कह्यावे. तेनी था ग्यार प्रतिमारूप प्रतिज्ञा नगवंतजी कहे जे ॥ ३० ॥ हवे ए प्रतिमानो अर्थ कदे:-अथ प्रतिमा कथनः ॥ दोहरा ॥ संयम अंस जग्यो जहां, नोग अरुचि परिनाम; उदे प्रतिज्ञाको जयो प्रतिमा ताको नामः ॥३१॥ अर्थः--जहां संयम चारित्रनो अंस जाग्यो अने जोग अरूचिना परिणाम थया, त्यां कोई प्रतिझानो उदय थयो तेनुं नाम प्रतिमा कहीए. ॥३१॥ हवे प्रथम दर्शन प्रतिमानुं विवरण करे:--अथ प्रथम प्रतिमा यथाः॥ दोहाः ॥- श्राप मूलगुण संग्रहे, कुवसन क्रिया न कोश्; दर्शन गुन निर्मल करे; दर्शन प्रतिमा सो ॥ ३ ॥ अर्थः-याही पेहेला कह्या बे करुणा वत्सल, सुजनता इत्यादिक सम्यक्त्वना आठ मूल गुण तेनो संग्रह करे, ज्यां साते व्यसननी क्रिया नथी एवासम्यक्त्व दर्शननागुण निर्मल करे, तेज दर्शन प्रतिमा कही. शहां व्रत नथी एनो काल एक मासनो ॥३२॥ हवे बीजी प्रतिमानो विवरो कहेजेः-अथ द्वितीय प्रतिमा यथाः॥दोहराः ॥-पंच अनुव्रत श्रादरे, तीन गुण व्रत पाल; सिदा व्रत च्यारों धरे, यह व्रत प्रतिमा चाल. ॥ ३३ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उन्? अर्थः-पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने सामायिक धारे १, पोसह धारे २, देशा वकासिक करे ३, अतिथि संविनाग करे ए चार शिदाव्रत धारे, ते व्रत प्रतिमा, जाणवी. तेनो काल वे महीनानो . ॥ ३३ ॥ हवे त्रीजी सामायिक प्रतिमानो विवरो कहेजेः-अथ तृतीय प्रतिमा यथाः ॥ दोहराः ॥-दर्वजाव विधि संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक; तजि ममता समता गहे, अंतर मुहरत एक, ॥ ३४ ॥ चोपाई॥-जो अरिमित्र समान विचारे, भारत रूज कु ध्यान निवारैः संजमसहित नावना नावे; सो सामायकवंत कहावे. ॥ ३५ ॥ अर्थः-दश दोष वचनना टालवा, बार दोष कायाना टालवा, ए अव्यविधि अने दश दोष मनना टालवा ते नाव विधि जाणवो. तेणे करीने संयुक्त; अने हैयामां एक शो श्राप पंचपरमेष्टी मंत्रनुं स्मरण लागी रहे, एम बीजी पण कोई प्रतिज्ञानी टेक राखीने, ममता तजीने, समता ग्रहण करवी, एम एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत सामा यिक चारित्र थाय ॥ ३४॥ जे कोई शत्रु मित्रने समान विचारे, श्रात्तध्यान रौअध्या ननु निवारण करे, पंच संवर सहित थाय, बार नावना नावे, तेज सामायिकधारी श्रावक कहिए; ए त्रीजी प्रतिमा त्रण मासनी होय ॥ ३५॥ . हवे चोथी पोसह प्रतिमानो विवरो कहेजेः-श्रथ चतुर्थ प्रतिमा यथाः ॥ दोहराः ॥-सामायक कीसी दसा, चार पहर लो हो; अथवा श्राउ पहर रहे, पोसह प्रतिमा सो. ॥३६॥ अर्थः-जे पूर्वे सामायिकनी दशा कही तेवी दशा चार प्रहर लगी होय, श्र थवा तेवी दशा श्राउ प्रहर लगी रहे, तेज पोसह प्रतिमा धारी श्रावक कहीए. ए चार मासनी प्रतिमा जाणवी श्हां आठम, चउदश, अमास, पूनमने दहाडे तथा प दिन श्रावेथी पोसह करे ॥ ३६॥ हवे पांचमी सचित्त परिहार प्रतिमानो विवरो कहेजेः-श्रथ पंचमी प्रतिमायथाः ॥ दोहराः॥-जो सचित्त नोजन तजे, पीवे प्रासुक नीर; सो सचित्त त्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञागीर ॥ ३७॥ अर्थः-जे सचित्त जोजननो त्याग करे श्रने फासु जल पीए, ए रीते जे पुरुष स चित्त वस्तुनो त्याग करे, ए पेहेलीप्रतिमाथी एटली वधती, क्रिया करे तेतो पांचमी प्रतिमानो धरनार जाणवो. ए प्रतिमा पांच मास सुधी रहे. ॥ ३७॥ ___ हवे गी ब्रह्मचर्यप्रतिमानो विवरो कहेजेः-श्रथ षष्टि प्रतिमा यथाः॥ चोपाईः ॥--जो दिन ब्रह्मचर्यव्रत पाले; तिथि श्राए निसि द्यौस संजाले; गहि नौवामी करै व्रत रदा; सो षट प्रतिमा साधक श्रदा ॥ ३० ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्श प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. श्रर्थः-सचित्तनो परिहारि तो प्रथमनीज रीते बे. अने दिवसे ब्रह्मचर्य वधारे पाले. अने पंचमी श्रादिपर्व आवे दिवसरात्रिमा एटले आठ प्रहर ब्रह्मचर्य पाले त्यां नववाडे करीने ब्रह्मचर्यवृत्तनी रक्षा करे, ते पुरुष बठी प्रतिमानो साधनहार होय ते बमास लगणनी जाणवी ॥ ३० ॥ हवे सातमी ब्रह्मचर्य प्रतिमानो विवरो कहे जेः-श्रथ सप्तमी प्रतिमा यथाः ॥ चोपाई ॥-जो नववामि सहित विधि साधे; निशिदिन ब्रह्मचर्य श्राराधे; सो स तम प्रतिमाधर ज्ञाता; शील शिरोमनि जगत विख्याता ॥ ३५ ॥ अर्थः-जे श्रावक नववाड सहित जे ब्रह्मचर्यवृत्तनो विधि , ते विधिये रात दिवस ब्रह्मचर्यने आराधतो रहे, अने जे पागल प्रतिमानी क्रिया कही ले तेने तो लीधो रह्या बे. एवो जे श्रावक , तेतो सातमी ब्रह्मचर्य प्रतिमानो धरनार ज्ञानी पुरुषशील शिरोमणि जगतमा प्रख्याति पामेलो जाणवो ॥३॥ हवे बांही प्रसंगथी नव वाडनो विवरो कहे जेः-अथनौवाडि यथाः॥ कवित्तबंदः॥-तियथलवास प्रेमरुचि निरषन, देपरीब जावन मधुवेन; पूरवनो गकेलि रसचिंतन, गुरु श्रादार खेत चितचेन; करि सुचि तन सिंगर बनावत, तियप रजंक मध्यसुखसेन;मनमथ कथा उदरि नरि नरि नोजन,ए नववाडि जान मतजेन॥४॥ श्रर्थः-ज्या स्त्री वसे त्यां वास न करवो, प्रेमरुचि राखीने स्त्रीना अंगोपांग देख वां नहीं, दृष्टिदोषर्नु निवारण करीने, श्राडो पमदो थापीने स्त्रीना मधुर वचन सां नले नहीं, पूर्व कालमा जे जोग क्रीडा करी होय तेनो रस चिंतवे नहीं, चित्तना चेनने अर्थे घृतादिक सहित गरिष्ट आहार लेही, स्नान मझानथी शरीरने पवित्र करीने श्रृंगार शोना सजे नहीं, स्त्रीने सुवाना पलंगमा सुखसेन करे नहीं, मन्मथ जे कंदर्प तेनी कथा कहे नहीं, पेट जरीने नोजन न करे, ए नव वामो जैन मतमा जाणवी. ए बहुज आनंद का। ॥ ४० ॥ हवे श्रावमी निरारंज प्रतिमानो विवरो कहे ः-श्रथ अष्टमी प्रतिमा यथाः ॥ दोहराः ॥-जो विवेक विधि आदरे, करे न पापारंज; सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजे रन थंन ॥४१॥ अर्थः-जे कोई श्रावक पाबली सर्व क्रिया करतो थको विवेक सहित विधि वि. शेष श्रादरे, अने पापनो श्रारंज पोताना हाये न करे तेतो आग्मी निरारंज प्रति मानो धरनार श्रावक कुगतिना विजयनो रणथंज रूप थई रह्यो वे ४१॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक हवे नवमी परिग्रह प्रतिमानो विवरो कहे :- छाथ नवमी प्रतिमा यथाः॥ चोपाईः ॥ - जो दसधा परिग्रहको त्यागी; सुख संतोष सहज वैरागी ; समरस चिंतित किंचित ग्राही ; सो श्रावक नौ प्रतिमा वाही ॥ ४२ ॥ र्थः - नवविध परिग्रहनो त्यागी होय, सुख संतोष सहित वैरागी होय, उपशम रसथी जींज्यो रतो होय, किंचित् ग्राही कहेतां कंईएक प्रशन वशननुं ग्रहण कर ना होने बीजी क्रिया सर्वे आठमी प्रतिमानी परे होय, ते श्रावक नवमी प्रतिमानो धरनार होय. ए प्रतिमा नवमास लगी रहे ॥ ४२ ॥ ७८३ हवे दसमी पापोपदेश त्याग प्रतिमा कहेतेः - छाथ दसमी प्रतिमा यथा:॥ दोहराः ॥ - परकों पापारंजको, जो न देश उपदेश; सो दशमी प्रतिमासहित, श्रावक विगत कलेश. ॥ ४३ ॥ अर्थः- नवमी प्रतिमा लगए गृह कुटुंब परिवारने कदाच् पापनो उपदेशापे, पण थाही पापा रंजनो उपदेश त्यागे ते श्रावकने दशमी प्रतिमासहित जागिये. तेज श्रा वक क्लेश रहित थयो एम जावं. ॥ ४३ ॥ हवे ग्यारमी उचित्तग्राही प्रतिमानो विवरो कहे बे: - ग्यारमी प्रतिमा यथा:॥ चोपाईः ॥ - जो सुबंद वरते तजि मेरा, मठमंरुपमहिं करे वसेरा; उचित आहार ain विहारी; सो एकादश प्रतिमा धारी ॥ ४४ ॥ अर्थः- जे आपणां घर बार मेरा बांडीने खवंदे वर्त्ते, यने मठ मंरुपमां वास करे, श्राधाकर्मि आहार त्यागे, योग्य आहार ले अने उडुंग व्यवहारी थइ साधु जेवो थाय, ते अगीश्रारमी प्रतिमानो धरनार थाय. ए श्रावकनी करणी बे. ॥ ४४ ॥ वे ग्रमी प्रतिमानी व्यवस्था कदेबे ::-थ एकादश प्रतिमा यथा:॥ दोदराः ॥ - एकादश प्रतिमा दशा, कही देशव्रत मांहि; वही अनुक्रममूलसों, ही बूटी नहि ॥ ४५ ॥ अर्थ:- अगर प्रतिमानी दशा पांचमा देशविरति गुणस्थानक मां कही. हवे प्रथमथी जे आगलनी प्रतिमा ग्रहण करेली बे तेतो अनुक्रमे ग्रहीज रह्यो बे, पण तेथी बुटो नथी ने चढति चढति क्रिया करतो रहेबे ॥ ४५ ॥ हवे ग्यार प्रतिमाधारीमां जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, दशा कहे : अथ जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट दशा कथन: ॥ दोहराः ॥ षट प्रतिमा ताई जघन, मध्यम नव परजंत; उत्तम दशमी ग्यारमी, इति प्रतिमा विरतंत ॥ ४६ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो. अर्थः दिवस ब्रह्मचर्य प्रतिमा लगण जघन्य श्रावक होय, अने नवमी परि ग्रह त्याग प्रतिमा लगण मध्यम श्रावक थाय, दशमी अगीयारमी प्रतिमानो धणी उत्तम श्रावक होय. एटले प्रतिमानुं वृत्तांत कयुं ॥ ४५ ॥ इतिप्रतिमा अधिकार समाप्त ॥ दवे पांचमा गुणस्थाननी स्थिति कहेबे :- :- पंचम गुनस्थानक स्थितिः॥ चोपाईः ॥ - एक कोटि पूरव गनिलीजे; तामें आठ वरष घट कीजै; यह उत्कृष्ट काल थिति जाकी, अंतर मुहुर्त्त जघन्य दसाकी ॥ ४७ ॥ अर्थः- एक कोटि पूर्ववर्षनी संख्या कीजे, तेमां आठ वर्ष घटाडीए. पी जे वर्ष रहे ते देशप्रति गुणस्थानकनी उत्कृष्टि काल स्थिति जाणवी, अने आदेशत्रत्ति गुण स्थाननी जघन्यदशानी स्थिति एक अंतर्मुहूर्त्त कालमान होय ॥ ४७ ॥ दवे एक पूर्वकालनी वर्ष संख्या कहे बेः पूर्वसंख्या कथनः १८४ ॥ दोहराः ॥ - सत्तर लाख करोम मिति, बप्पन सहस करोडि; एते वरष मिलाइ करि, पूरव संख्या जोम ॥ ४८ ॥ अर्थः- सिंतेरलाख कोटि वर्ष एटली मिती के० प्रमाणता उपर उपन हजार कोटि वर्ष मेलवीये त्यारे पूर्वकालनी जोमिनी वर्ष संख्या थाय, तेना ७०५६०००००००००० एटला अंक थाय. लोक व्यवहारमां सात पद्म पांच खर्व साठ श्रब्ज कहिए. ॥ ४८ ॥ हवे अंतर्मुहूर्त्त कानुं जघन्य उत्कृष्ट प्रमाण कहुंनुं :- अथ अंतमुहुरतप्रमान ॥ दोहराः ॥ - अंतर मुहुरत है घमी, कबुक घाटि उतकृष्ट; एक समे कलाजली, यंत कनिष्ट ॥ ४७ ॥ यह पंचम गुनथानकी रचना कही विचित्र अब हम गुन यानकी, दसा कहुं सुनु मित्र ॥ ५० ॥ अर्थः- बेघमीमां एक समय Jो थाय, त्यारेतो जत्टक अंतमुहूर्त्त याय ने एक श्राव लिने एक समय ते कनिष्ट के० जघन्य अंतमुहूर्त्त काल होय. ए दिगंबर संप्रदा यथी बे ॥ ४५ ॥ एम देशत्रति पांचमा गुणस्थाननी विचित्र रचना कही. हवे हे ! मित्र ! वा गुणस्थाननी दशा कहुंनुं ते सांजलो ॥ ५० ॥ हवे प्रमत्तनामे वा गुणठाणानी अवस्था कहुंलुं - छाथ प्रमत्तगुनस्थानकः ॥ दोहराः ॥ - पंच प्रमाद दशा धरे, अवाइस गुनवान; थविर कल्प जिन कल्प जुत, हे प्रमत्त गुनथान ॥ ५१ ॥ अर्थः- धर्मरागादी पांच प्रमादनी दशा धारेवे. अने साधुना श्रठ्यावीस गुणो धारे .यावीस गुण कह्या ते दिगंबर संप्रदाय थी. थिवर कल्पथी थिवरनो श्राचार जिनकल्पथी जिननो आचार तेणेकरी युक्त बे. एम प्रमत्त गुण स्थान होय Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उज्य हवे पांच प्रमादनां नामनी गणत्री करे:-अथ पंच प्रमाद यथाः॥ दोहराः ॥-धरमराग विकथा वचन, निजाविषय कषा; पंच प्रमाद दसासहि त, परमादी मुनि राश. ॥५॥ अर्थः-धर्मउपर राग राखे, विकथा वचन बोले, निजासेवे, रस ते इंजियप्रमुखना वि षय सेवे, कषाय सेवे, ए दशासहितजे मुनिराज होय ते प्रमादी कहीए. ॥ ५ ॥ हवे श्री मुनिराजना अगवीस मूल गुण कहेजेः-अथ श्राइस मूलगुन कथन: ॥सवैया इकतीसाः ॥-पंच महाव्रत पाले पंच समिती संन्नाले, पंच इंतिजीति जयो जोगी चित चेनको; षट श्रावशक क्रिया दर्वित नावित साधे, प्रासुक धरा मे एक श्रासन है सेनको; मंजन न करे केस ढुंचे तन वस्त्र सुंचे, त्यागे दंतधावन में सुगंध खास चेनको; गढो करणे थाहार, लघु जुंजी एकवार, अठाइस मूल गुन धारो जती जैनको ॥ ५३॥ अर्थः-"सबाज पाणा वायाउवेरमणं” इत्यादिक पंच महाव्रत पाले; यासमिति प्र मुख पांच समिति संजालीने करे अने पांच इडियनो जीतनार एटले जेने इंजियोना विषय सेवतां चित्तमां चेन न उपजे, तेथी विषयोनो त्यागी थाय. सामायिक प्रमुख बावश्यक क्रिया , ते अव्यथी पण साधे श्रने नावधी पण साधे, ए २१ गुण थया. फासू पृथ्वी प्रमुख शय्यामां प्रमाणोपेत एक शयन आसन राखे, ए २५ गुन थया. स्नान न करे, केश लोच करे, शरीर विषे वस्त्रनो त्याग करे, दांतण नकरे, श्वासवदननो सुगंध मूखलुण प्रमुख नले, उन्नो उनो थाहारकरे लघुता के अंतप्रांत आहार मुंजे, तेपण एक टंक खाय. ए अगवीस मूल गुणनो धरनार जैन दर्शनी जती होय ॥ ५३ ॥ ___ ए दिगंबर संप्रदायथी गुण कह्या जे. हवे पांच महावत कहेजेः-अथ पंचवत यथाः॥ दोहराः॥ -हिंसा मृषा श्रदत्त धन, मैथुन परिग्रह साज; किंचित त्यागी अनुवती, सवि त्यागी मुनिराज. ॥ ५४॥ अर्थः-जीवघात, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रहसामग्री ए पांचे श्राश्रवने किंचित् त्यागे, ते अणुव्रती श्रावक कहिए अने सर्वथा त्यागे ते मुनिराज कहिए ॥५४॥ हवे पांच प्रकारनी समिति एटले सावधानपणुं कहे:-अथ पंच समिति यथाः ॥ दोहराः ॥-चले निरपि जाषे नचित, नषे अदोष थाहार; खेश निरखि डारे निरखि, समिति पंच परकार ॥ ५५ ॥ अर्थः-जोईने चाले ते इा समिति; योग्य वचन बोले ते जाषा समिति; दूषणर . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. हित बहार लीए ते एषणा समिति; वस्त्र पात्र निरषीने ले ते श्रादान समिति; मलमू त्रादिक जोने परठवे ते पारीठावणीया समिति. ए पांच प्रकारे समिति ॥ ५५ ॥ वे जे अवश्य करीए ते श्रावश्यक कहीए तेनां नाम कहेबे, - अथ षडावश्यकयथाः॥ दोहराः ॥ - समता वंदन श्रुति करन, पडिकमणुं सजाउ, काजसग्ग मुद्राधरन ए मासिक जाउ ॥ ५६ ॥ अर्थः- सामायिक धर १, गुरुवंदना करवी २, चोवीश जिनेश्वरनी स्तुति करवी ३, प्रतिचारथी निवर्त्तनुं ते पक्किम ४, स्वाध्याय करवो ए, काउसग्गमुद्रा धरवी. हे ! नाइ ! ए आवश्यक कहीए. ॥ ५६ ॥ हवे विरकल्प ने जिनकल्पनो नेद कहे :- अथ स्थिविर कल्पी जिनकल्पी : ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - थविर कलपी जिनकलपी डुविध मुनि, दोन वनवासी दोन नगन रहत है; दोन ठाईस मूल गुन के धरैया दोन सरव तियागी व्है विरागता गह त है; विर कल पिते जिन्द के सिष्य साषा होई, बेठके सजामे धर्म देसना कहत है; ए काकी सहज जिन कलपी तपस्वी घोर, उदेकी मरोरसुं परिसह सहत है. ॥ ५७ ॥ अर्थः- थिवर कल्पी ने जिन कल्पी ए वे प्रकारना मुनीश्वर होय. ए वे वनवा समां रहे. अने बेदु नागार हे; ए बे अठावीस मूल गुणना धारनार ए वे सर्वस्त्र के० सर्व परिग्रहना त्यागी थईने वैरागजाव धरे. एवा कह्या पण ते बेमां स्थिवरकपी ते कहीए जेने शिष्य शाषा होय, छाने सजामां बेसिने धर्म देशना करे ने जे जिन कल्पी होय ते एकाकी होय, घोरतपस्वी होय. छाने कर्म उदयनी मरोरथी जे परि यह उपजे बे ते सहन करे, ए दिगंबर संप्रदायिक वचनो बे ॥ ५७ ॥ हवे प्रसंगी बावीस परिषद साधुने सवदा योग्य तेनां नाम कहेबे :बावीस परीषद यथा कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - ग्रीषममे धुप थिति सीतमे अंक पचीत, जूषेधरेधीर प्यासे नी र न चहतु है; मंस मसका दिसों न मरे भूमि सैन करे, वध बंध विश्रामे अडोल व्हैर तु है; चर्या दुख नरे तिन फाससों न थरहरे, मल डुरगंधकी गिलान न गहतु है; रोगको न करे इलाज एसो मुनिराज, वेदनीके उदे ए परिसद सहतु है. ॥ ५८ ॥ श्रर्थः - उष्ण कालमां तमकामां श्रताप सहे, शीत कालमां शीत सदेवाथी चि मां कंपे नही, मुख्यो बतां धीरज राखे, अनेषणी ग्रहे नही, प्यासवंत थको सदोष पाणीनी चाहना करे नही, नागा शरीरने मांस मसकादि करडे तोपण मरे नदी, धर तिये शय्या करे, मरणांत कष्ट यावे जातजातना वध बंधनादिक कष्ट तेथी श्रमोल रहे, पण चलायमान न थाय, चर्या के० विहारनुं दुःख जरे, तदरीते विहांरमां तथा सय For-Private & Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्त श्रीसमयसार नाटक. नासनमां कठोर त्रण स्पर्शथी थरहरे नही, मेलनी पुगंध बे, तेनी उगंछा न करे, रोगनी वेदना सहे पण तेनो इलाज न करे, एवा मुनिराज होय ते वेदनीय कर्मना उदयथी ए ग्यार परिषद उपजे ने तेने सहे . ॥ ५ ॥ ॥ कुंमलीयाः ॥ एते संकट मुनि सहे, चारित मोह उदोत; लजा संकुच उषध रे, नगन दिगंबर होत; नगन दिगंबर होत, श्रोत रति स्वाद न सेवे; त्रियसनमुख दृग रोकि, मान अपमान न बेवे; थिर है निर्नय रहे सहे कुवचन जग चेते; नितुक पद संग्रहे, लहे मुनि संकट एते. ॥ए ॥ दोहराः ॥-थल्प ज्ञान लघुता लखे, मति उतकरष विलोश, ज्ञानाबरन उदोत मुनि; सहे परीसह दोश् ॥ ६० ॥ सहे अदरसन पुरदसा, दरसन मोह उदोत: रोकेजमंग अलाजकी, अंतरायके होत. ॥६१॥ अर्थः-हवे चारित्र मोहनीयना उदय थवाथी मुनिराज संकट सहे. ते संकटनी गणतरी कहे. नगन दिगंबर थई जे लजाथी संकोच पुःख उपजे जे तेने धरे. एटले संकटथी न जागे १, वली नगन दिगंबर थक्ष श्रोत के० इंडीयना रति स्वादने न सेवे,२, स्त्रीना हाव नावथी चुके नही ३, कोश सत्कार करे कोश् सत्कार न करे तेउपर विषम नाव लावे नही ४, कोइ जयश्री नागे नही स्थिर रहे निर्नय रहे ५, जगत्मा जे कंश कुवचन , थाक्रोशनां वचन देते सर्व सहन करे ६,निदा ग्रहणथी निकुक पद संग्रहे पण ते संकटथी नाजे नही, ए सात संकट चारित्र मोहनीयना उदयथी मुनि लहे ते सहन करे ॥५ए॥ हवे नएयाविना अल्पज्ञानथी सर्वमा पोतानी लघुता थाय ते सहन करे; पोतानी मतिना उत्कर्षथी उत्कृष्टपणुं जोश्ने गुरुता सहे २, एम ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय थातां श्रज्ञान परिषह श्रने प्रज्ञापरिषह एबे परिषह उपजे बे ते सहन करे ॥ ६० ॥ दर्शन मोहनीयना उदय थवाथी स म्यग् दर्शननी मलिनता उपजे, तेनी पुष्ट दशा सम्यग् दर्शनधी न जागे, अंतराय क मनो उदय थवाथी जे लाजनो उमंग रोकी रहे तेथी अलाजने सहन करे. ए बा वीस परिसह कह्या ॥१॥ हवे जे कर्मथी जे परिसह उपजे ते कहे . अथ बावीस परिषद विबरननः ॥ सवैया इकतीसाः।-एकादश वेदनीकी चारित मोहकी सात, ज्ञानाबरनीकी दोश एक अंतरायकी; दंसन मोदकी एक छाविंसति बाधा सब, केई मनसाकी केश बाकी केई कायकी; काहुकों अलप काढूसों बहोत उनी साता, एकहीं समेमें उदे श्रावे असहायकी; चर्याथित सजामांहि एक सीत उनमाहि, एक दोहोहि तीनि नांही समुदायकी ॥ ६ ॥ ॥दोहराः॥-नानाविधसंकटदशा, सहिसाधे शिवपंथ, थिविरकल्प जिन कल्पधर, दोऊ सम निगरंथ ॥ ३ ॥ . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. . अर्थः- श्रग्यार संकट तो वेदनीय कर्मना उदययी उपजे . चारित्र मोहनीय कर्मथी सात बाधा नपजे . ज्ञानावरणनी करेली बे बाधा उपजे बे.अंतरायनी की धी एक बाधा उपजे. दर्शन मोहनीयनी करेली एक बाधा उपजे . सर्व मली बा वीस बाधा थइ. ते बावीसने परिषह कहीए. बाधामां कोई मननी बे, को वचननी बे,को कायानी बे; था बावीस बाधामांदेली कोश्ने अल्प एक बे उपजे; कोश्ने बहु उपजे, तो एकज समे ओगणीस बाधानो उदय थाय.तेमां असहायनी के जे बाधा बाधासाथेज बोलेले पण साथे बने नही त्यारे तेमा एकज बाधा एक समे थई ते थसहायनी कहीए. जेम चर्यापरिषद चालवाथी उपजे बे; निषेद्या परिषद रहेवाथी उपजेजे शय्या परिषह रहेवाथी उपजे . अने शितबाधा तथा ऊष्ण बाधामां एक समयमा एकज बाधा उपजे तेथी था पांच परिषहमा एक अथवा बे अथवा त्रण एक समयमां थाय, पण समुदायरूप पांचे न थाय ॥ ६ ॥ इति परिसह अधिकार समाप्त थयो॥ _ अर्थः-एवां नाना प्रकारना संकट तेनी दशा सहन करीने मुक्तिमार्ग साधे, तेथी थिविर कल्पना धरनार श्रने जिन कल्पना धरनार ए बेदु निग्रंथ समान ॥३॥ हवे थिवर कल्पमा अने जिनकल्पमा कं तफावत ते कहेजेः-- थथ स्थिविरकल्प जिनकल्प तारतम्य कथनः॥ दोहराः ॥-- जो मुनि संगतिमें रहे, थविरकल्प सो जानि; एकाकी जाकी दसा सो जिनकल्प बषानि ॥ ६४ ॥॥ चोपाईः ॥- थविर कलप मुनि कबुक सरागी;जिन कलपी महांत विरागी; इति प्रमत्त गुनथानक धरनी; पूरन नई जथारथ वरनी ॥६५॥ अर्थः- जे मुनीश्वर गछना गणनी संगतमां रहे, तेतो थिवर कल्पी जाणीए. जेने गणनी निश्रा नथी, जेनी एकाकी दशा ले तेतो जिनकल्पी कहिए ॥ ६४ ॥ ए बेउ निग्रंथमा थिवरकल्पनो धरनार कश्क सराग दशामां , अने जे जिनकल्पी डे ते महावैरागी . एटले प्रमत्त गुणगणानी जे नूमिका बांधी अने यथार्थ साचपणे वरणी ते पूर्ण थई ॥६५॥ हवे सातमा गुणस्थाननु वर्णन करे:-अथ सप्तम गुणथानक वर्ननं:॥ चोपाई:-॥ श्रव बरनो सत्तम विसरामा; अप्रमत्त गुनथानक नामा; जहां प्रमाद क्रिया विधि नासे; धर्मध्यान थिरता परगाषे ॥ ६६ ॥ दोहराः-प्रथम करनचारित्रको जासु अंत पद हो, जहाँ थाहार विहार नहि, श्रप्रमत्त हे सोई॥६७ ॥ अर्थः- मुक्तिरूप मंदिरमा चढतां ते सातमो विसामो , अने अप्रमत्त गुण स्था नक जेनुं नाम ते हवे वखाणे जे जे गुणस्थानमां धर्मरागादिकेकरी प्रमादनो Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उन्ए विधि नासे, जे पूर्वला गुणस्थानकमां धर्मध्यान चंचल हतुं, ते बांही स्थिरपणे प्र काश करे ॥ ६६ ॥ प्रथम गुणस्थानना अंतपदमां एटले लेखा समयमां चारित्रमोद नीय कर्मने नेदवानो यथा प्रवृत्तिनामे प्रथम करण थयु. श्रांही धर्मध्याननी स्थि रता एवी डे के ज्यां श्राहार विहार क्रिया नथी. ते अप्रमत्त गुणस्थानक होय. ए व चन दिगंबर संप्रदाय ॥६॥ हवे आठमा गुणस्थानकनुं वर्णन कहे:-श्रथ अष्टम गुणस्थानक वर्ननं:॥ चोपाईः।- अब बरनो अष्टम गुनथाना, नाम अपूरव करन बखाना, कबुक मोह उपसम करि राखे, श्रथवा किंचित दयकरि नाखे ॥६॥ जो परिनाम न ये नहि कबहीं, तिन्हको उदो देखिये जबहीं, तब अष्टम गुनथानक होई, चारित करन इसरो सोई॥६॥ अर्थः-- जेनुं नाम अपूर्व करण वखाणीए बीए, हवे ही श्रेणि चढवामा जे उ पशमीक थको चढे तेतो श्रांही कंश्क मोहने उपशमावी राखेडे, अथवा जे आपक थको चढे ले तेतो ही चारित्र मोहनो कंश्क क्षय करि नांखेडे ॥६ए ॥ एवं जे परिणाम पेहेलां को कालमां थयुं नथी ते परिणाममुं ज्यारे प्रगट पणुं देखियेडीए, त्यारेतो श्रामुं गुणस्थानक होय. तेने से समये चारित्र मोहनीय कर्म नेदवाने अपूर्व करण नामे बीजं करण होय तेनुं नाम निवृत्ति पण ॥६ए ॥ हवे नवमा गुणस्थाननुं वर्णन करे:- श्रथ नवम गुणस्थानक वर्णनं:॥चोपाई- अब अनवर्ति करन सुनुं जाई, जहां जाव थिरता अधिकाई पुरव नाव चलाचल जेते, सहज अमोल नए सब तेते ॥ ७० ॥ जहां न नाव उलटि अध श्रावे; सो नवमो गुनथान कहावे; चारित मोह जहां बहु बीजा; सो हे चरण करण पद तीजा ॥१॥ अर्थः-प्रथम अनिवृत्ति करण गुणस्थाननो व्यवहार कहुं बुं ते सांजलो. जे गुण स्थानने विषे स्थिरता नावनी अधिकाई . अने पूर्वनाव कषायना उदयथा जेटला चलाचल नाव होय तेवा सर्व बांही सहज अमोल थया ॥ ७० ॥ ज्यां नावथी चढीने फरी तिहांथी पड़ी नीचेना गुणस्थानकें न आवे. एवो शनिवृत्ति कहेवाय, ज्यां चारित्र मोहनीय कर्म घणुंज बुटी गयुं ने तेज ए चारित्र मोहनीय कर्म नेद वानुं त्रीजु अनिवृत्ति करण थयुं ॥३१॥ हवे दशमु गुन स्थानक कहु बुं:- अथ दशम गुनथानक वर्ननं:॥चोपाई॥-कहों दशम गुन थान उसाखा; जहां सूबम शिवकी अनिलाषा; सूबम लोज दसा जहां लहिए; सूबम संपराय सो कहिए ॥ ७ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- ज्यां जपशमिक श्रने क्षपक एवी बे शाखा वर्ते ले, जे गुण स्थानमा सूक्ष्म शिव पदवीनी अनिलाषा दे एवी ज्यां सूदम लोन दशा पामियें, ते सूक्ष्म संपराय कहीए. संपराय एवं कषायनुं नाम ॥ ॥ हवे अग्यारमुं उपशांत मोह नामे गुणथान कडंबुंः- अने तेनी प्रजुतानुं प्रमाण कढुंबु. अथ एकादशम गुनथान वर्ननःचोपाई:- श्रब उपसंतमोह गुनथाना; कहों तासु प्रजुता परवाना; जहां मोह उ पसमे न जासे; जथाख्यात चारित परगासे ॥ ३ ॥ दोहराः-जाहि फरसके जीव गि रि, परै करै गुन रद्द; सो एकादसमी दसा, उपसमकी सरहद्द ॥ ४ ॥ अर्थः- जे गुणस्थानमां मोहनीय कर्म सर्वे उपशमी जाय, पण उदयमा नासे नही अने यथाख्यात चारित्रनो प्रकाश थईने जे निसंग आत्मानु सहज रूप ते प्रगटे ॥ ३३ ॥ जे उपशम श्रेणि चढिने जे गुणस्थानने फरसीने अवश्य जीव तिहाथी पडे अने जे गुण प्रगटे ते सर्व रद करे, ए अगीयारमी दशा थई, एटले उपशांत मोह गुणस्थानक थयु. एटले उपशमनी मर्यादा थई॥४॥ हवे बारमा क्षीणमोह गुनस्थाननुं वर्णन करूंढुं:-श्रथ छादश गुनथानक वननं:-- ॥चोपाई॥-झान निकट जहां श्रावे; तहां जीव सब मोह षिपावे; प्रगटे यथा ख्यात परधाना; सोछादशम बीन गुन थाना ॥ ५ ॥ अर्थः-जे गुणस्थानने केवल ज्ञान निकट श्रावे , श्रने त्यां जीव सर्व मोहनीय कर्म खपावीने बीजा पण घाती कर्म सर्व खपावे, अने ज्यां प्रधान उत्कृष्ट यथा ख्यात चारित्र प्रगटे एवाप्रकारथी जे जे ते बारमुं दीण मोह गुणस्थानक कहीए ॥१६॥ हवे यांही लगण पाबला गथी मामी सात गुणस्थानमा उपशम श्रेणिनी श्रपेदाये जेकाल स्थिति देते कहेजेः-अथ षष्ट गुनथानक स्थितिकथन उपशम श्रेणिक अपेक्षाये ॥दोहराः ॥-षट सत्तम श्रम नवम; दश एकादश बार, अंतर मुहरत एक वा, एक समे थिति धार. ॥ १६ ॥ बीन मोह पूरन नयो, करि चूरन चित चाल; अब सजोग गुण थानकी, बरनों दसा रसाल. ॥ ७॥ अर्थः-ब्लु, सातमुं, आपमुं, नवमुं, दशमुं, अग्यारमुं, बारमुं, ए सात जे गुणस्थान बे, तेनी स्थिति एक अंतर मुहर्तनी . अथवा सात गुनस्थाननी जघन्य एक समयनी स्थिति धारो. ॥७६॥ मोहमय जे चित्तनी चाल हती तेनुं चूर्ण करीने दीण मोह गुण स्थानक पूरण थयु. हवे सजोगी गुन थानकनी रसाल दशानुं वर्णन करुंडं ॥ ७ ॥ हवे तेरमा गुणथाननुं वर्णन करुgः-अथ त्रयोदश गुन स्थानक वर्ननः॥ सवैया इकतीसाः॥-जाकी.फुःख दाता घाती चोकरी विनसगई, चोकरी श्रघा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उए? ती जरी जेवरी समान है; प्रगट जयो अनंत दंसन अनंत ज्ञान, वीरज अनंत सुख सत्ता समाधान है; जामे आज नाम गोत वेदनी प्रकृति ऐसी एक्यासी चोरासी वा पंचासी परवान है सो हे जिन केवली जगत वासी नगवान, ताकी जो अवस्था सो सजोग। गुन थान है. ॥ ७ ॥ अर्थः-श्रात्माना गुणना घातना करनार एवा दानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोह नीय, अंतराय, ए घाती कर्मनी चोकडी पुःख दाता हती ते जेनी विनाश थई गई, अने जे आत्माना गुणनो घात न करे एवा वेदनीय, श्रायु, नाम,अने गोत्र, ए चार अ घाति कर्मनी चोकमी रही ते बलेली दोरी समान रही . दर्शनावरणीय कर्मदय थयाथी ज्यां अनंत केवल दर्शन प्रगट थयु, अने ज्ञानावरणीय क्ष्य थयाथी ज्या केवल ज्ञान प्रगट्यु, अंतराय कर्म क्षय थयाथी अनंत वीर्य प्रगट्युं, मोहनीय कर्म क्षय थयात्री अनंत सुखसत्ता अने समाधि प्रगट्या अने जेमां श्रायु कर्म, ना मकर्म, गोत्रकर्म, वेदनीयकर्म, एचारनी सर्व (७५) प्रकृति रही बे. तेमां कोईने श्रा हारिक शरीर, श्राहारक अंगोपांग, थाहारक संघातन, श्राहारक बंधन, तथा जि ननामविना, (10) प्रकृती रही जे श्रने कोईने जिननाम सहित बे. तेथी (१) रही बे तथा काईने थाहारक चतुष्कडे अने जिननामनथी माटे (४) तथा को ईने जिननाम सहित (५) प्रकृतिनुं प्रमाण दे. एवी दशानो धरनार जे जे ते जिन होय केवली होय, जगत्नो नगवान् होय, तेनी जे अवस्था ने तेनेज सयोगी गुणस्थानक कहीए. ॥ ७ ॥ हवे सजोगी गुणस्थानकवालानी मुजा देखामे:॥ सवैया श्कतीसाः॥-जो अमोल परजंक मुखा धारी सरवथा अथवा सुकाउसग्ग मुजा थिरपाल हे खेत सपरस कर्मप्रकृतिके उदेश्राए, बिना डग जरे अंतरिक्ष जाकी चाल हे जाकी थिति पूरव करोडि श्रापवर्ष घाट, अंतरमुहुरति जघन्य जग जाल हे; सो हे देव अगरह पूषन रहित ताको बनारसी कहे मेरी वंदना त्रिकाल हे॥ए॥ अर्थः-जे अडोलपणे सर्वथा प्रकारे पर्यंक मुजा धारी होय एटले पद्मासनवालीने सदा सर्वदा बेसेडे, अथवा काउसग्गमुमा स्थिरपणे पाले ए वचन दिगंबर संप्रदायर्नु बे, अने क्षेत्र स्पर्श रूप जे कर्म प्रकृति ने तेनो उदय थयाथी केवली विहार करे पण बीजापुरुषनीपेठे चाले नहिं पण केवली डगबुं नस्याविनाज श्राकाशमां अधर चाले चाले. ए परूपणा दिगंबर संप्रदायनी जे. जे सयोगी गुण स्थाननी स्थिति आठ वर्षे न्यून पूर्वकोटी वर्षनी थाय केमके जन्मश्री आठ वर्षलगी केवलज्ञान उपजतुं नश्री, श्रने था गुनथानानी जघन्य स्थिति एक अंतरमुहूर्त्तनी थाय. जगत्जालमा ए Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. टझुंज रहेएं होय. आंही जे एवी श्रवस्थानो धरनार होय तेतो श्रढार दूषण रहित देवाधिदेव थाय. वनारसीदास कहेडे के तेने मारी त्रिकाल वंदना ॥ ए॥ हवे अढार झूषणनां नाम कहे:-अथ श्रगरस दोष कथनः॥ कुंमलीयाः॥-पूषन श्रहारह रहित, सो केवलि संजोग; जनम मरण जाके नहीं, नहिं निसा जय रोग; नहिं निजा जय रोग, सोग विस्मय न मोहमति; जरा खेद परखेद, नाहिं मद वैर विषे रति; चिंता नांही सनेह, नाहिं जह प्यास न नू षन; थिर समाधि सुख सहित बहारह दूषन-॥ ज०॥-वानी जहां निरक्षरी, सप्तधातु मल नांहि केस रोम नख नहि बढे, परम उदारिक मांहि परम उदारिक माहि, जांहि इंजिय विकार नसि, जथाख्यात चारित प्रधान थिर सुकल ध्यान ससि; लोकालोक प्रकास, करन केवल रजधानी; सो तेरम गुनथान; जहां श्र तिशयमय वानी. ॥ १॥ दोहराः ॥-यह सजोग गुनथानकी, रचना कही थनूप; अब श्रयोग केवल कथा, कहों यथारथ रूप ॥ २ ॥ अर्थः-जे अढार खूषणथी रहित ते सजोगी केवली कहिए १,जेने जन्म नथी, म रण नबीर,निझा नयी३,जय नथी,रोग नथीए, शोक नथी ६, विस्मय नथी,मोहमति नथी. जरानो खेद नथीए, परसेवो नथी १०, मद नथी११,वैर नथी १२, विषय उपररति नथी १३, चिंता नथी १२, स्नेह नथी १५, जेने तरस लागे नही १६, नूष लागे नही १७, अस्थिरपणुं नथी १७, तेथी समाधिसुख सहित स्थिररूप थायडे, एवा अढार ५ षण रहित बे. ए अढार दोष दिगंबर संप्रदायथी बे. सिझांत संप्रदायमा १० फूषण जुदा कह्यां . ॥ ७ ॥ श्रा गुणस्थाननी अवस्थामा निरक्षरी बाणी होय ने मस्त कमां ॐकार ध्वनिरूप होयजे; श्रने शरीरमा सात धातु अने सात धातुना मल थता नथी. ए दिगंबर संप्रदायथी कहेलु बे. अने जेना शरीरमा केश, रोम, नखनी वृद्धि थती नथी, एतो उदारीक शरीरमा पण एटला दोष नथी, तेथी देवाधिदेव प रम उदारीक शरीरमांज कहिए; ज्यां इंजियविकार नासी गयाडे, ने ज्यां प्रधा न उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र प्रगट थयुं , ज्यां शुक्ल ध्यानरूप चंद्रमा स्थिररूप थ योजे, थने ज्या लोकालोकना प्रकाशनी करनारी केवल ज्ञानरूप राजधानी विराजी रही बे; ते तेरमुं सजोगी गुणस्थानक कहिए, ज्यां पांतरीश अतिशयमय वाणी ॥१॥ ए सयोगी गुणथाननी सर्वथी अधिक अनुप रचना कहीजे. हवे अयोगी के वलीनी दशा यथार्थरूप के जेवीरीते बनी तेवी रीतनी कडंबु. ॥ ७ ॥ . हवे चौदमा अयोगी गुणस्थाननुं कर्णन कहुंदु:-श्रथ चतुर्दश गुनस्थानक वर्ननं.॥ सवैया इकतीसाः॥-जहां काह जीवकों असाता उदे साता नांहि, काहकों Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक. उए३ साता नांहि साता उदे पाश्ये; मन वच कायसों अतीत जयो जहां जीव जाको जस गीत जग जीत रूप गाश्ये; जामे कर्म प्रकृतिकी सत्ता जागी जिनकीसी, अंतकाल देसममें सकल खिपाइये; जाकी थिति पंच लघु अदर प्रवान सोश, चौदहो अयोगी गुन थाना ठहराश्ये. ॥ ३ ॥ अर्थः-जे गुणस्थानमां कोई जीवने अशाता वेदनीयनो उदय अने शाता वेद नीयनो उदय नथी, एटले शाता वेदनीय सत्तारूप ,अने कोश्ने शातावेदनीयनो उ दय बे, अने अशाता पुःखरूप उदयमां नथी, एटले सत्तामा बे. अने ज्यां शैलेसी करण करीने मनोयोग, वचनयोग, काया योगथी जीव अतीत एटले रहित थयो. जेना जशनु वर्णन जगत्ने जीतवा रूप गाइए बीए एटलुं ने श्रने जेमां जोगी जन केसी के० सजोगी केवलीनी रीते कर्म प्रकृतिनी सत्ता रहिजे. ते अंतकालमां अनंत वे समयमां समस्त खपावे. अने जे गुणस्थानकनी स्थिति पंच लघु अक्षर अ, इ, ज, क ल ए श्रदर कहेतां जेटलो काल प्रमाण होय एटलो काल प्रमाण स्थिति तेज चौद, अयोगी ठेरावीए. ॥ ३॥ ॥ इति श्री चतुर्दश गुणस्थानक अधिकार बालाबोधरूप समाप्तः ॥ ॥ दोहरा ॥-चौदहगुनयानक दशा, जगवासी जियनूल; आश्रव संवर नाव के, बंध मोदके मूल. ॥४॥ अर्थः-जगत्वासी जीव अशुद्ध थको नूलमां पड्यो बेतेनी ए चौद गुणस्थानकथी चौद दशा थाय . श्रांही तत्त्व दृष्टिमा जोतां जे आश्रव संवर नाव तेज बंध मो दना मूल बे; एटले आश्रव बंधनुं मूल अने संवर मोदनुं मूल जे. हवे आश्रव सं वरनी जुदी जूदी अवस्था कहे. अथ थाश्रव संवर व्यवस्था कथन. ॥ ४ ॥ ॥ चोपाईः ॥-श्राश्रव संवर परनति जोलों; जगत निवासि चेतना तोलों; श्राव संबर विधि विवहारा; दोऊ नवपथ शिवपथ धारा. ॥५॥ आश्रव रूप बंध उतपाता, संवर ज्ञान मोषपद दाता;जा संवरसों श्राश्रव बीजे, ताको नमस्कार अब कीजे.॥६॥ अर्थः-ज्यां सुधी श्राश्रव संवरनुं परिणाम परिणमे बे, त्यांसुधी चेतन रूप ईश्वर जगत् निवासी थई रह्यो. श्रांही श्राश्रवनो विधि ले ते व्यवहारमा बे. अने संवरनो विधिले ते पण व्यहारमा . ए उन्नौ के0 बे व्यवहार पंथ ते संसार मार्गनी धारा थने मोद मार्गनी धारा पण बे. ॥ ५ ॥ संसारमा जे बंधरूप उत्पात , ते तो था श्रवरूप जे. अने जे मोदपदनो दाता ज्ञान लेते संवर रूप बे. जे संवरथी श्राश्रव दय थयो होय तेने हवे नमस्कार करीए बीए. ॥ ६ ॥ १०० Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उए प्रकरणरत्नाकर नाग पेहलो. हवे ग्रंथनी अंते मंगलाचरण रूप संवर रूपी ज्ञानने नमस्कार करे:॥सवैयाश्कतीसाः॥-जगतके प्रानी जीवव्हैरह्यो गुमानी एसो, श्राश्रव असुर पुःख दानी महा नीम हे ताको परताप खंमिवेको परगट नयो, धर्मको धरैया कर्म रोगको हकीम हे; जाके परजाव आगे नागे परनाव सब, नागर नवल सुख सागरकी सीमहे; संवरको रूप धरे साधे शिवराह एसो, ज्ञानी पातसाह ताकों मेरी तसमील हे.॥७॥ अर्थः-जगत्ना वासी जेटला प्राणी, ते सर्वेने जीतीने जे गुमानी थई रह्यो, एवो श्राश्रवरूप जे असुर बे, ते महा कुःखदायक बे. तेनो प्रताप खंगवाने जे ज्ञान रूप बादशाह प्रगट थयो जे ते केवो के के धर्मनो धारण करनारो बे. अने कर्मरूप रोग गमाववानो हकीम .जे ज्ञान बादशाहना अनाव श्रागल काम क्रोधादिक राग वेषरूप पुजलना जाव ले ते सर्व नासी जाय ; श्रने नागर के चतुर , जे पेहेलां को वारे न पामेलो एवो जे नवो सुख समुद्र ते लगण जेनी सीम वे. संवररूपनो धरनार श्रने मुक्तिमार्गनो साधनार एवो जे ज्ञानरूपी बादशाह , तेने महारी स लाम बे. एटले नाटक करीने ज्ञान बादशाहने मुजरो कीधो बे. ॥७॥ ॥ इति श्री समयसार नाटक बालावबोधरूप अर्थ सहीत समाप्त थयो.॥ ॥चोपईः ॥-नयो ग्रंथ संपूरन जाषा, बरनी गुनथानककी साषा; बरनन थोर कहांलौं कहिये, जथा सकति कही चुप हे रबीये ॥ ॥ लिहए पार न ग्रंथ ज दधिका; ज्यों ज्यों कहिये त्यों त्यों अधिका; ताते नाटक अगम अपारा; श्रलप कवीसुरकी मतिधारा ॥ नए ॥ ॥ दोहराः ॥-समयसार नाटक थकथ, कविकी मति लघु होश; ताते कहत ब नारसी, पूरन कथे न को. ॥ ए॥ ॥सवैया इकतीसाः॥-जेसे कोज एकाकी सुनट पराक्रम करि, जीते केही नां तिचक्री कटक सों लरनो; जेसे कोउ परविन दारू जुज जारु नर, तरे केसे स्वयंनू रमन सिंधु तरनो; जेसें काज नदिमी उगह मनमांहि धरे, करे केसे कारज वि धाताको सो करनो; तेसे तुब मती मोरी तामें कविकला थोरी, नाटक अपारमे क हांलों याहि बरनो ? ॥ १॥ अथ जीव महीमा कथनः॥सवैया इकतीसाक्षः॥-जेसे वटवृक्ष एक तामें फल हे अनेक, फल फल बहू बीज बीज बीज वट है, वट मांहि फल फलमांहि बीज तामे बट, कीजे जो विचार तो श्र नंतता श्रघट है; तेसे एक सत्तामें अनंत गुण परजाय प्रजामें अनंत नृत्य नृत्यमें अनंत उट है; उटमे धनंत कला कलामें श्रनत रूप, रूपमें अनंत सत्ता एसो जीव नट है।ए॥ . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक ეს ॥ दोहराः ॥ - ब्रह्म ज्ञान प्राकाशमें, उके समति षग होइ; जथा सकति उद्दिम धरे, पार न पावे कोइ ॥ ९३ ॥ ॥ चोपाई ॥ बह्म ज्ञान नज अंत न पावे; सुमति परोठ कहालों धावै; जिहि विधि समयसार जिनी कीनो; तिन्हके नाम धरे अब तीनो ॥ ९४ ॥ sar कवि यी कथन नाम: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - कुंदकुंदाचारज प्रथम गाथा बद्ध करे, सामेसार नाटक विचारी नाम दयो है; ताही के परंपरा अमृतचंद जये तिन्ह, संसकृत कलस समारि सुख लयो है; प्रगट्यो बनारसी गृहस्थ सिरीमाल बकिये हे कवित्त दिए बोध वीज क्यो है; शब्द अनादि तामें रथ अनादि जीव, नाटक अनादियों श्रनादि हिको जयो है. ॥ ५ ॥ अथ कविव्यवस्था कथन: ॥ चोपाई ॥ थ क कहुं यथारथ वानी; सुकवि कुकविकी कथा कहानी; प्रथम कवी कहावै सोई; परमारथ रस बरने जोई. ॥ ए६ ॥ कलपित बात हीए नहिं खाने; गुरु परंपरा रीति बखाने; सत्यारथ सैली नहि बंडे; मृषा वादसों प्रीति न मं ॥ ए ॥ ॥ दोहराः ॥ - छंद सबद अक्षर रथ, कहे सिद्धांत प्रवान; जो इहि विधि रचना र सो हे सुकवि सुजान ॥ ए८ ॥ ॥ चोपाईः ॥ - अब सुनु कुकवि कहुं है जेसा; अपराधी हिय अंध अनेसा; मृषा जा रस बरने हितसों; नई उकति नहि उपजे चितसों ॥ एए ॥ ध्याति लाज पूजा मन याने; परमारथ पथ जेद न जाने; वानी जीव एक करि बूजे जाको चित जड ग्रंथि न सुके. ॥ ७०० ॥ वानी लीन जयो जग मोले, वानी ममता त्यागि न बोले; हे अनादि वानी जगमांही; कुकवि वात यह समुळे नांही ॥ १०१ ॥ अथ वानी व्यवस्था कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जेसे काहू देसमें सलिलधार कारंजकी, नदीसों निकसि - फिरि नदी में समानी है; नगरमें गैर गैर फेली रही चहू नेर, जाके ढिग वहे सोई कहे मेरो पानी हे; त्योंही घट सदन सदनमे अनादि ब्रह्म, वदन वदनमें नादिकी बानी है; करम कलोलसों उसासकी वयारि वाजे, तासों कहे मेरी धुनि एसो मूढ प्रानी है. ॥ १०२ ॥ ॥ दोहराः ॥ - एसे मूढ कुकवि कुधी, गहे मृषा पथ दोर; रहे मगन अजिमा नमें, कहे उरकी र. ॥ १०३ ॥ वस्तु सरूप लखे नहीं, बाहिज दृष्टि प्रमान; मृषा विलास विलोकके, करे मृषा, गुन गान ॥ ९०४ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जए प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. । श्रथ मृषा गुन गान यथाः॥ सवैया इकतीसाः॥-मांसको गरंथि कुच कंचन कलस कहे, कहे मुख चंद जो सलेखमाको घरु हे; हाडके दशन थाहि हीरा मोती कहे ताहि, मांसके थ धर उठ कहे बिंब फरु है; हाड दंड नुजा कहै कौलनाल काम जुधा, हाडहीके थंना जंघा कहे रंजा तरु हे; योंही फूली जुगति बनावै श्री कहावै कवि, एते पर कहे हम सारदाको वरु हे. ॥ ५ ॥ ॥ चोपाईः ॥-मिथ्यावंत कुकवि जे प्रानी, मिथ्या तिनकी जाषित बानी, मिथ्या वंत सुकवि जो होई, वचन प्रवान करे सब कोई. ॥ ६ ॥ ॥ दोहराः॥ वचन प्रवान करे सुकवि, पुरुष इवे परवान, दोऊ अंग प्रवान जो, सोहे सहज सुजान. ॥ ७० ॥ ॥अथ समयसार नाटकव्यवस्था कथन:-॥ - ॥ चोयाईः ॥-अब यह वात कहों हे जैसे; नाटक नाषा नयो सु एसे, कुंद कुंद मुनि मूल उधरता, अमृतचंद टीकाके करता. ॥ ॥ समेसार नाटक सुख दानी, टीका सहित संसकृतवानी, पंडित पढे दृढमती बुके, अलपमतीकों श्ररथ न सुके. ॥ ॥ पांडे राजमन जिनधर्मी, समयसार नाटकके कर्मी, तिन्ह ग रंथकी टीका कीनी, बालाबोध सुगम करि दीनी. ॥१०॥ इहि विधि बोधवचनिका फैली, समोपाइ श्रध्यातमशैली; प्रकटी जगतमांहि जिनबानी, घर घर नाटक कथा बषानी. ॥ ११॥ नगर थागरामांहि विख्याता, कारन पार नए बहुज्ञाता, पंच पुरुष श्रति निपुन प्रवीने, निसि दिन ज्ञानकथा रस नीने. ॥ १५ ॥ ॥ दोहराः॥-रूपचंद पंडित प्रथम, उतिय चतुर्जुज नाम, तृतिय जगौती दास नर, कौरपाल गुनधाम. ७१३ ॥ धर्मदास ए पंच जव, मिति वेसे श्क गेर; परमा रथ चरचा करे,श्न्ह के कथा न और. ॥ १४ ॥ नाटक रस सुने, कबहूं उर सिझांत, कबहुं विंग बनाश्के, कहे वोध विरतंत. ॥ १५ ॥ । अथ विंगयथाः॥ दोहराः ॥-चित चकोर वरु धरम धरु, सुमति जगौती दास, चतुर नाव थि रता लए, रूपचंद परगास. ॥ १६ ॥ इहि विधि ज्ञान प्रगट जयो, नगर श्रागरे मांहि, देसदेस महि विस्तार्यो, मृषा देशमहि नाहि. ॥ १७ ॥ ॥ चोपाईः ॥-जहां तहां जिनवानी फेली, लषे न सो जाकी मति मेली, जाके सहज बोध उतपाता, सो ततकाल लखे यह बाता. ॥ ७ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसारनाटक დე ॥ दोहराः ॥ - घटघट अंतर जिन वसे, घटघट अंतर जैन, मत मदिराके पान सां मतवाला समुजे न. ॥ ७१ ॥ ॥ चोपाईः ॥ - बहुत बढाउ कहालो कीजे, कारजरूप वात कहि लीजे, नगर था गरा माहे विष्याता, वनारसी नामे लघु ज्ञाता. ॥ ७२० ॥ तामे कवित कला चतु राई, क्रपा करे ए पंचो जाई, ए परपंच रहित हिय खोले, ते बनारसी सों हसि बोले. ॥ २१ ॥ नाटक समैसार हित जीका, सुगमरूप राजमली टीका, कवित बद्ध रचना जो होई, जाषा ग्रंथ पढे सब कोई. ॥ २२ ॥ तब बनारसी मनमहि श्रानी, कीजे तो प्रगटे जिनवानी, पंच पुरुषकी श्राज्ञा लीनी, कवित बंधकी रचना कीनी ॥ १२३॥ सोरह से तिरानवे (१६०३) विते, श्रासुमास सित पक्ष वित्तीते, तिथि तेरसि रविवार प्रवीना ता दीन ग्रंथ समापत कीना. ॥ ७२४ ॥ दोहा ॥ सुख निधान सकबंध नर, साहिब साहि किरान, सहस साहि सिर मुकुटमनि, साह जहां सुलतान ॥ १२५ ॥ जाके राज सुचेनसों, कीनों श्रागमसार, इति जीती व्यापी नहीं, यह उनको उपकार. ॥ ७२६ ॥ ॥ अब सबका ठीक कथनः - ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ - तीनसे दसोत्तर सोरठा दोहा बंद दोन, जुगल से तेतालीस इकतीसा खाने हैं; बासी सु चोपईये सेंतीस तेइ सेसवैये, वीस उप्पै अठारह क वित्त बषाने हैं; सात फुनिही मिल्ले चारि कुंडलिये मिले, सकल सातसें सत्ताई स ठीकठाने हैं; बत्तीस अक्षर के सलोक कीने ताके ग्रंथ संख्या सत्रह से सात श्रधि का है. ॥ २७ ॥ दोहराः ||समयसार खतम दरख, नाटक जाव अनंत; सोहे श्र गम नाममें, परमारथ विरतंत ॥ २८ ॥ DEEDEET ॥ इति परमागम समयसारनाटक नाम सिद्धांत संपूर्णम् ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादेरखबर. - 4-0 5- 0-0 अमारा तरफथी हालमां नीचेनां पुस्तको उपायां; तथा उपाय . किम्मत. रू.श्रा.पा. प्रकरण रत्नाकर लाग. 1 (बीजी श्रावृत्ति) 6-7-0 (जेमां सामात्रणसोगाथार्नु स्तवन, श्रागमसार, आनंदघनचोविशी, नयचक्रसार, व्यगुणपर्यायनोरास, योगदृष्टि समुच्चय, श्रध्यात्मसार, समाधिशतक, समताशतक, दिक्पटचोराशीबोल, चिं तामणिस्तोत्र, तथा समयसार ए अद्भुत ग्रंथोनो समावशे कोडे) प्रकरणरत्नाकर नाग 1 लानो प्रथम कटको. (जेमां सामात्रणसोगानुं स्तवन तथा श्रागमसारले ). 2- 0-0 , बीजो , (जेमां नयचक्रसार, तथा श्रानंदघन चोविशीने) , त्रीजो , (जेमां योगदृष्टि सद्याय, अध्यात्मसार वगरेठे ) , चोथो , (जेमा समयसार ) 3- -7 श्री वैराग्य कल्पलता (श्री यशोविजयजी कृत) 3- 0-0 श्री जज्बाहु संहिता (अपूर्वज्योतिषग्रंय-श्री जवाहु स्वामी कृत) श्री प्रतिमाशतक (श्री यशोविजयजी कृत) 0-12-0 श्री मागधीलाषा-व्याकरण-टुंढिकानांनाषांतरसाथे उत्तरार्ध 3- 7-0 श्री उपदेशप्रासाद (प्रास्ताविक श्लोक साथे ) प्रथम खंम. 2-0-0 श्री उपदेश तरंगिणी-अनेक कथा साथे (श्रीरत्नमंदिरगणिकृत) 1-4-0 श्री अहन्नीति-(जैनन्यायलोकव्यवहार श्री हेमचंदाचार्य कृत) 1-4-0 श्री वैराग्यशतक-(अनेक कथा साथे) नाषांतर 1-4-0 श्री योगशास्त्र (मूल-टीका बालावबोधसाथे श्री हेमचंद्राचार्य कृत ) 3-4-a श्री धर्मसर्वस्वाधिकार (अद्जुतग्रंथ श्रीजयशेखर सूरिकृत) - एश्री चंदराजानो रास. अर्थसाथे. (150) रंगीन चित्रोसाथे. (उपाय 2) 4- o . मुंबश्-मांझवी-शाकगली शा० नीमसिंह माणक.