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________________ श्री समयसारनाटक ६३७ ॥चोपाई बंदः॥-जो दरबाश्रवरूप न होई, जद जावाश्रव नाव न कोई जाकी दशा ज्ञानमय लहिये, सो शातार निराश्रव कहिये ॥ ५५॥ अर्थः- जे अव्याश्रवना स्वरूपमा होय नही, अने ज्यां जावाश्रवनो पण नाव कोई नथी, अने जेनी दशा ज्ञानमय होय, तेज जीव ज्ञानी अने आश्रवरहित कहिये. हवे ज्ञातानी समर्थाथी निराश्रवपणुं देखामे :-अथज्ञाताकोसमर्थपणोवर्णनं: ॥सवैया इकतीसाः।-जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि परवक, तिन परिनामनकीम मता हरतु है; मनसा श्रगोचर अबुद्धि पूरवक नाव, तिन्हिके विनासवेको उद्यम ध रतु है; याहि नांति परपरिनतिको पतन करे, मोखको जतन करै नौजल तरतु है; ए सै ज्ञानवंत ते निराश्रव कहावै सदा, जिन्हको सुजस सुविचक्षण करतु है ॥५६॥ अर्थः- जेटला परिणाम प्रगट मनगोचर , एटला जिन परिणामने मनमां संजा रेने, जाणे, अने बुझिपर्वक के पोतानी अहं बुद्धिवडे जे अशुद्ध परिणाम उपजे, ते परिणामनी ममता बांडे जे; अने जे नाव मनथी अगोचर के जेनुं स्वरूप मनवडे देखाय नही, अने बुद्धि पूर्वक के जेने बुझिनो प्रचार लागे नही, एवा अनागत कालना जे अशुभ परिणाम, तेनो विनाश करवाने उद्यम करे , ए रीते परपरिनति के पर वस्तुनो जे परिणाम जे अतीत कालमां थयो , वर्तमान कालमां बे, अनाग त कालमां थशे, तेनुं पतन करे. अने मोद के तेथी बुटवू तेनुं जतन करे, ते नव सागरथी तरे, एवा जे ज्ञानवान् प्राणी के तेतो सदा निराश्रव कहेनांवाय, जे सुजश ने स्तुति ते पंडित पुरुषो गाय ॥ ५६ ॥ झानीने निराश्रव कह्या तेउपर शिष्य प्रश्न करेजेः- श्रथ शिष्य प्रश्न कथनः ॥ सवैया इकतीसा॥-ज्यों जगमें विचरै मतिमंद सुबंद सदा वरतै बुध तैसे; चं चल चित्त संजत बैन, सरीर सनेह जथावत जैसे; जोग सजोग परिग्रह संग्रह मोह विलास करै जाहँ ऐसे, पूबत शिष्य आचारजसों यह, सम्यकवंत निराश्रव कैसे?॥५॥ अर्थः- जेम मतिमंद के अज्ञानी जन जगत्मा स्वबंद के मरजी मुजब वर्ते, तेम पंमित पण सदा तेवी रीते वर्ते, ते आवीरीते चंचल चित्तवाला रहे, असंजत बेन के० विचारविना वचन बोले, अने शरीर स्नेहने प्रवर्त्तावे, अने अझानीनी माफ क नोगसंयोग राखे, परिग्रहनो संग्रह करे, अने ज्ञान अवस्थामां मोहविलास एवो ज करे, ए रीते अज्ञानीनी अने ज्ञानीनी एक सरखी रीति जोईने शिष्य श्राचार्यने पूडे के, एने सम्यक्त्ववंत निराश्रव केम कहिये ? ॥ ५७ ॥ हवे ए प्रश्ननुं उत्तर गुरु आपेजेः- श्रथ गुरु उत्तर कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-पूरव अवस्था जे करमबंध कीने अब, तेई उदै आई नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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