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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. जांति रस देत हैं; केई शुज शाता के अशुल अशातारूप, उडुसों न राग न विरोध सम चेत हैं; यथा योग क्रिया करै फलकी न श्वाधरै, जीवन मुगतिको बिरुद गहिलेत हैं; यातें ज्ञानवंतकों न आश्रव कहत कोज, मुखतासोन्यारे नये सुद्धता समेत हैं. ॥५॥ ____ अर्थः-पूर्वकालमां श्रझान अवस्थाने विषे जे जे कर्मबंध कीधेला होय, तेज कमों वर्तमान कालमा उदय श्रावीने नाना प्रकारनो रस आपेले. तेमां केटलांएक शुन कर्म ते शातारूप , अने केटलांएक अशुन कर्म अशातारूप बे; एवां बेज जात नां कर्मनेविषे झानीने राग अने विरोध नथी, एथी ज्ञानी समचित्त बे. श्रने यथायो ग्य के उदयमाफक क्रिया करे, पण फलनी वा राखे नही; ने जीवताज मुक्त थया बे, तेथी जीवन्मुक्तिनुं बिरुद धारे , ए रीते ज्ञानवंत मनुष्यने कोई श्राश्रव कहेतुं नथी. ते मूढताथी न्यारो थयो अने शुद्धता समेत दे ॥ ५ ॥ हवे राग, द्वेष, मोह थने ज्ञाननां लक्षण कहेः-श्रथ राग, द्वेष, मोह, शान लक्षणः
॥ दोहराः॥- जो हितनाव सु राग है, अनहि तनाव विरोध; ब्रामकनाव विमोह है, निर्मल नाव सुबोध ॥५ए॥
अर्थः-जे हितनाव ले ते राग ने श्रने अनहितनाव ते विरोध बे; अने जामकला व तेने विमोह कहिये, अने निर्मलजाव ते बोध एटले ज्ञान कहिये ॥५॥
हवे राग द्वेषनुं स्वरूप कहेजेः- अथ राग द्वेष कथन:॥दोहाः।- राग विरोध विमोह मल, ए श्राश्रव मूल; ए कर्म बढाश्के, करै धरमकी नूल ॥ ६ ॥
अर्थः- राग, द्वेष ने विमोह जे ते श्रात्माने मल बे, अने एज दोष श्राश्रवनां मूख . अने एज राग द्वेष अने मोह . ते कर्मने वधारीने धर्मने जुलावी दिए॥६॥
हवे ज्ञाताने निराश्रव कहेजेः- श्रथ हातानिराश्रव कथनः॥दोहा॥- जहां न रागादिक दसा, सो सम्यक् परिनाम; यातें सम्यकवंतको, कह्यो निराश्रव नाम ॥६१॥
अर्थः-ज्यां राग, द्वेष, मोहनी दशा न मले तेने सम्यक् परिणाम कहिये, ए परथी सम्यक्त्ववंत पुरुषने निराश्रवी नाम आप्यु ॥६॥
हवे ज्ञाता जे जे ते निराश्रवणपणामां विलास करेजेः- श्रथ ज्ञाता कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥- जे कोई निकट जव्य रासी जगवासी जीव, मिथ्या मदनेद झान जाव परिनये हैं; जिन्दकी सुदिष्टिमें न राग दोष मोह कहूं, विमल विलोकनि में तीनो जीति लये हैं; तजि परमाद घट सोधि जे निरोधि जोग, शुरू उपयोगकी
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