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श्री समयसारनाटक.
૩૨૫ बे त्यां शुद्ध चारित्रनी चाल पामिये तेथी शान अने वैराग्य मलीने समकाले शिवमार्ग साधे जे ॥ ३२ ॥
हवे ज्ञान क्रिया उपर अंध पंगुनु दृष्टांत देजेः- श्रथ ज्ञान क्रियाको दृष्टांतः॥दोहाः ॥-यथा अंधके कंध परि, चढे पंगु नर कोश; वाके दृग् वाके चरण, होहि पथिक मिलि दोश, ॥३३॥ जहां ज्ञान किरिया मिले, तहां मोद मग सोझ, वह जानै पदको मरम, वह पथमें थिर हो. ॥ ३४ ॥
अर्थः-कोई पांगलो नर जेम कोई आंधलाना खन्ना उपर चढवाथी, पांगलानी श्रांख अने ते अांधलाना पगथी चाले, त्यारे पंथ मार्ग होय तो बनेना मलवाथी गमन थाय, हाल चालवू बने, तेम ज्ञान वैराग्य मलेथी मोक्षमार्गे चलाय ॥३३॥ ज्यां ज्ञा श्रने क्रिया ए बे एका थई रहे त्यां मोदनो मार्ग थाय. एटले ज्ञानयी वस्तुनो मर्म जाणे श्रने क्रियाथी पोताना वस्तुवन्नावमा स्थिर थाय ॥ ३४॥ हवे ज्ञान अने क्रियानुं जेतुं स्वरूप ले तेवू कहे जेः- अथ ज्ञान क्रियाको स्वरूपः
॥दोहराः॥-झान जीवकी सजगता, करम जीवकी नूल; ज्ञान मोद अंकूर है, करम जगतको मूल. ॥ ३५ ॥ ज्ञान चेतनाके जगे, प्रगटे केवल राम; कर्म चेतनामें वसे, कर्म बंध परिनाम. ॥ ३६॥
अर्थः-शान ले ते जीवनी सजगता ने एटले जीवने जगावे बे: कर्म के क्रिया कार्य करवो ते जीवनी नूल डे, त्यां ज्ञान ने ते मोदनो अंकूर , एटले मोदनो हेतु बे, क्रिया कार्य करवो तेतो जवज्रमण- मूल डे ॥३५॥ चेतना बे प्रकारनी पूर्वे कही बे. तेमां ज्ञानचेतनाना जागवाथी केवल राम प्रगटे ते शुद्ध परमात्मा प्रगटे बे, अने बीजी कर्मचेतना कहिए तेमां थात्मानो बंधपरिणाम उपजे . ॥ ३६ ॥ हवे शाननो प्रजाव अने क्रियानो प्रनाव जिन्न जिन्न कही देखाडे :
श्रथ ज्ञानक्रियाको प्रनाव निन्न कथनः॥चोपाई॥-जबलग ज्ञान चेतना जारी; तब लगु जीव विकल संसारी, जब घट झान चेतना जागी, तब समकिती सहज वैरागी. ॥३७॥ सिफ समान रूप नि ज जाने पर संजोग नव परमाने; शुझातम अनुनो श्रन्यासे, त्रिविध करमकी ममता नासे. ॥३०॥
अर्थः-ज्यांलगी क्रिया परिणामे करीने झान चेतना नारी थई एटले चेतना कर्मरूप थई, त्यांलगी तो संसारी जीव विकलरूप थई रह्यो डे अने ज्यारे घटमां झानचेतना जागृतरूप थई, त्यारे ते समकिती कहेवाय बे; तेने सहज वैरागी कहिए. ॥ ३७॥ श्रने ज्ञान चेतनाना जाणवाथी पोताना रूपने निश्चय सिझसमान
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