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________________ उपन प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. स्पतरु, सुधा सोम श्रादेय ॥ ५० ॥ इह विधिजो परजाव विष, वमे रमे निजरूप, सो साधक शिवपंथको, चिदविवेक चियूप, ॥५१॥ अर्थः-रमाके लमि तेतो सुबुद्धि १, सुवचनशंष ५, उदय विष ३, ध्यान धनुष ४, प्रेम रीत मदिरा ५, विवेक वैद्य ६, निर्जरा काम धेनु , मनशुद्धते घोमो , ए श्राप अथिर ने तेमाटे बांमवा योग्य बे. अने अनुजव मणि १, प्रतीति रंजा २, उद्य म हाथी ३, वैराग्य कल्पवृद , श्रानंद सुधा ५, शुक जाव चंद्रमा ६, ए उ रत्न गृ हण करवा योग्य बे. ॥५॥ आ रीतिथी पररूप जे कर्मादिक नाव , तेज विष थयु. तेनुं जे वमन करे बे, श्रने पोताना स्वरूपमा जे रमे जे तेज पुरुष मोक्ष मार्गनो सा धक जाणीये. जे ज्ञान नावनो जाणनार अने ज्ञान स्वरूपी तेज साधक कहीए॥५१॥ हवे मोक्षपदना साधकनी व्यवस्था कहे बेः-अथ साधक व्यवस्था कथनः कवित्त बंदः॥-शानदृष्टि जिन्हके घट अंतर निरखे दरव सुगुन परजाइ, जिन्हके स हजरूप दिन दिन प्रति, स्यादवाद साधन अधिकार, जे केवल प्रतीत मारग मुषचिते च रन राषे ठहरांई, ते प्रविण करिबिन मोह मल अविचल हो। परमपद पा ॥५॥ अर्थः-जेना घट अंतरा ज्ञाननी दृष्टि जागी तेथी अव्यने जे देखे जाणे, ते अव्य ना गुण जाणे; गुणना पर्याय जाणे; अने जेने सहज रूपेज एटले नवितव्यतानापरि पाकथी दिन दिन प्रत्ये स्याछादनुं साधन अधिक थई रह्युबे, अने जे केवलिना कहे लामारगने सन्मुख थई रहे, एज चित्त राखे अने एज मार्गवीषे चरण ठरावी राखे, ते प्रवीण पुरुष मोहरूप मलने दीण करी परम पद पामी अविचल थायडे ॥५॥ हवे सम्यग् दृष्टिनी व्यवस्था अने मिथ्या दृष्टिनी व्यवस्था कहे:- . अथ सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि व्यस्थाः॥ सवैया इकतीसाः ॥-चाकसो फिरत जाकों संसार निकट आयो, पायो जिनि सम्यग् मिथ्यात नाश करिके; निरकुंद मनसा सुनूमि साधि लिनी जिनि, कीनी मोष कारन अवस्था ध्यान धरिके; सोई शुभ अनुजौ श्रन्यासी अविनाश भयो, गयो ताको करम नरम रोग गरिके; मिथ्यामति आपनो सरूप न पिडाने तामे, डोले जग जालमे अनंत काल नरिके. ॥ ५३॥ अर्थः-जेम रात्रिने विषे चकवो फिरतो फरतो रहे , तेम संसारमा फिरता फि रतां जेनो अंत निकट श्राव्यो, जे सम्यक्त्व पाम्यो, मिथ्यात्वनो नाश करीने रागहेषा दिक रहित एवी मनसारूप जली नूमिका जेणे साधि लीधी, अने ध्यान धरिने पो तानी अवस्था मोक्षपदना कारणरूपी जेणे कीधी, तेज सम्यग् दृष्टि शुभ अनुजवनो श्रज्यासी थयो, एम कर्म रोगने गमावीने अविनाशी थयो, एटले एनांजन्म मर्ण टल्यां. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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