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प्रकरणरत्नाकर नाग पेहलो. हवे ग्रंथनी अंते मंगलाचरण रूप संवर रूपी ज्ञानने नमस्कार करे:॥सवैयाश्कतीसाः॥-जगतके प्रानी जीवव्हैरह्यो गुमानी एसो, श्राश्रव असुर पुःख दानी महा नीम हे ताको परताप खंमिवेको परगट नयो, धर्मको धरैया कर्म रोगको हकीम हे; जाके परजाव आगे नागे परनाव सब, नागर नवल सुख सागरकी सीमहे; संवरको रूप धरे साधे शिवराह एसो, ज्ञानी पातसाह ताकों मेरी तसमील हे.॥७॥
अर्थः-जगत्ना वासी जेटला प्राणी, ते सर्वेने जीतीने जे गुमानी थई रह्यो, एवो श्राश्रवरूप जे असुर बे, ते महा कुःखदायक बे. तेनो प्रताप खंगवाने जे ज्ञान रूप बादशाह प्रगट थयो जे ते केवो के के धर्मनो धारण करनारो बे. अने कर्मरूप रोग गमाववानो हकीम .जे ज्ञान बादशाहना अनाव श्रागल काम क्रोधादिक राग वेषरूप पुजलना जाव ले ते सर्व नासी जाय ; श्रने नागर के चतुर , जे पेहेलां को वारे न पामेलो एवो जे नवो सुख समुद्र ते लगण जेनी सीम वे. संवररूपनो धरनार श्रने मुक्तिमार्गनो साधनार एवो जे ज्ञानरूपी बादशाह , तेने महारी स लाम बे. एटले नाटक करीने ज्ञान बादशाहने मुजरो कीधो बे. ॥७॥
॥ इति श्री समयसार नाटक बालावबोधरूप अर्थ सहीत समाप्त थयो.॥ ॥चोपईः ॥-नयो ग्रंथ संपूरन जाषा, बरनी गुनथानककी साषा; बरनन थोर कहांलौं कहिये, जथा सकति कही चुप हे रबीये ॥ ॥ लिहए पार न ग्रंथ ज दधिका; ज्यों ज्यों कहिये त्यों त्यों अधिका; ताते नाटक अगम अपारा; श्रलप कवीसुरकी मतिधारा ॥ नए ॥
॥ दोहराः ॥-समयसार नाटक थकथ, कविकी मति लघु होश; ताते कहत ब नारसी, पूरन कथे न को. ॥ ए॥
॥सवैया इकतीसाः॥-जेसे कोज एकाकी सुनट पराक्रम करि, जीते केही नां तिचक्री कटक सों लरनो; जेसे कोउ परविन दारू जुज जारु नर, तरे केसे स्वयंनू रमन सिंधु तरनो; जेसें काज नदिमी उगह मनमांहि धरे, करे केसे कारज वि धाताको सो करनो; तेसे तुब मती मोरी तामें कविकला थोरी, नाटक अपारमे क हांलों याहि बरनो ? ॥ १॥
अथ जीव महीमा कथनः॥सवैया इकतीसाक्षः॥-जेसे वटवृक्ष एक तामें फल हे अनेक, फल फल बहू बीज बीज बीज वट है, वट मांहि फल फलमांहि बीज तामे बट, कीजे जो विचार तो श्र नंतता श्रघट है; तेसे एक सत्तामें अनंत गुण परजाय प्रजामें अनंत नृत्य नृत्यमें अनंत उट है; उटमे धनंत कला कलामें श्रनत रूप, रूपमें अनंत सत्ता एसो जीव नट है।ए॥
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