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श्री समयसारनाटक
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॥ दोहराः ॥ - ब्रह्म ज्ञान प्राकाशमें, उके समति षग होइ; जथा सकति उद्दिम धरे, पार न पावे कोइ ॥ ९३ ॥ ॥ चोपाई ॥ बह्म ज्ञान नज अंत न पावे; सुमति परोठ कहालों धावै; जिहि विधि समयसार जिनी कीनो; तिन्हके नाम धरे अब तीनो ॥ ९४ ॥ sar कवि यी कथन नाम:
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - कुंदकुंदाचारज प्रथम गाथा बद्ध करे, सामेसार नाटक विचारी नाम दयो है; ताही के परंपरा अमृतचंद जये तिन्ह, संसकृत कलस समारि सुख लयो है; प्रगट्यो बनारसी गृहस्थ सिरीमाल बकिये हे कवित्त दिए बोध वीज क्यो है; शब्द अनादि तामें रथ अनादि जीव, नाटक अनादियों श्रनादि हिको जयो है. ॥ ५ ॥
अथ कविव्यवस्था कथन:
॥ चोपाई ॥ थ क कहुं यथारथ वानी; सुकवि कुकविकी कथा कहानी; प्रथम कवी कहावै सोई; परमारथ रस बरने जोई. ॥ ए६ ॥ कलपित बात हीए नहिं खाने; गुरु परंपरा रीति बखाने; सत्यारथ सैली नहि बंडे; मृषा वादसों प्रीति न मं ॥ ए ॥
॥ दोहराः ॥ - छंद सबद अक्षर रथ, कहे सिद्धांत प्रवान; जो इहि विधि रचना र सो हे सुकवि सुजान ॥ ए८ ॥
॥ चोपाईः ॥ - अब सुनु कुकवि कहुं है जेसा; अपराधी हिय अंध अनेसा; मृषा जा रस बरने हितसों; नई उकति नहि उपजे चितसों ॥ एए ॥ ध्याति लाज पूजा मन याने; परमारथ पथ जेद न जाने; वानी जीव एक करि बूजे जाको चित जड ग्रंथि न सुके. ॥ ७०० ॥ वानी लीन जयो जग मोले, वानी ममता त्यागि न बोले; हे अनादि वानी जगमांही; कुकवि वात यह समुळे नांही ॥ १०१ ॥
अथ वानी व्यवस्था कथनः
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जेसे काहू देसमें सलिलधार कारंजकी, नदीसों निकसि - फिरि नदी में समानी है; नगरमें गैर गैर फेली रही चहू नेर, जाके ढिग वहे सोई कहे मेरो पानी हे; त्योंही घट सदन सदनमे अनादि ब्रह्म, वदन वदनमें नादिकी बानी है; करम कलोलसों उसासकी वयारि वाजे, तासों कहे मेरी धुनि एसो मूढ प्रानी है. ॥ १०२ ॥
॥ दोहराः ॥ - एसे मूढ कुकवि कुधी, गहे मृषा पथ दोर; रहे मगन अजिमा नमें, कहे उरकी र. ॥ १०३ ॥ वस्तु सरूप लखे नहीं, बाहिज दृष्टि प्रमान; मृषा विलास विलोकके, करे मृषा, गुन गान ॥ ९०४ ॥
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