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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो.
। श्रथ मृषा गुन गान यथाः॥ सवैया इकतीसाः॥-मांसको गरंथि कुच कंचन कलस कहे, कहे मुख चंद जो सलेखमाको घरु हे; हाडके दशन थाहि हीरा मोती कहे ताहि, मांसके थ धर उठ कहे बिंब फरु है; हाड दंड नुजा कहै कौलनाल काम जुधा, हाडहीके थंना जंघा कहे रंजा तरु हे; योंही फूली जुगति बनावै श्री कहावै कवि, एते पर कहे हम सारदाको वरु हे. ॥ ५ ॥
॥ चोपाईः ॥-मिथ्यावंत कुकवि जे प्रानी, मिथ्या तिनकी जाषित बानी, मिथ्या वंत सुकवि जो होई, वचन प्रवान करे सब कोई. ॥ ६ ॥
॥ दोहराः॥ वचन प्रवान करे सुकवि, पुरुष इवे परवान, दोऊ अंग प्रवान जो, सोहे सहज सुजान. ॥ ७० ॥
॥अथ समयसार नाटकव्यवस्था कथन:-॥ - ॥ चोयाईः ॥-अब यह वात कहों हे जैसे; नाटक नाषा नयो सु एसे, कुंद कुंद मुनि मूल उधरता, अमृतचंद टीकाके करता. ॥ ॥ समेसार नाटक सुख दानी, टीका सहित संसकृतवानी, पंडित पढे दृढमती बुके, अलपमतीकों श्ररथ न सुके. ॥ ॥ पांडे राजमन जिनधर्मी, समयसार नाटकके कर्मी, तिन्ह ग रंथकी टीका कीनी, बालाबोध सुगम करि दीनी. ॥१०॥ इहि विधि बोधवचनिका फैली, समोपाइ श्रध्यातमशैली; प्रकटी जगतमांहि जिनबानी, घर घर नाटक कथा बषानी. ॥ ११॥ नगर थागरामांहि विख्याता, कारन पार नए बहुज्ञाता, पंच पुरुष श्रति निपुन प्रवीने, निसि दिन ज्ञानकथा रस नीने. ॥ १५ ॥
॥ दोहराः॥-रूपचंद पंडित प्रथम, उतिय चतुर्जुज नाम, तृतिय जगौती दास नर, कौरपाल गुनधाम. ७१३ ॥ धर्मदास ए पंच जव, मिति वेसे श्क गेर; परमा रथ चरचा करे,श्न्ह के कथा न और. ॥ १४ ॥ नाटक रस सुने, कबहूं उर सिझांत, कबहुं विंग बनाश्के, कहे वोध विरतंत. ॥ १५ ॥
। अथ विंगयथाः॥ दोहराः ॥-चित चकोर वरु धरम धरु, सुमति जगौती दास, चतुर नाव थि रता लए, रूपचंद परगास. ॥ १६ ॥ इहि विधि ज्ञान प्रगट जयो, नगर श्रागरे मांहि, देसदेस महि विस्तार्यो, मृषा देशमहि नाहि. ॥ १७ ॥
॥ चोपाईः ॥-जहां तहां जिनवानी फेली, लषे न सो जाकी मति मेली, जाके सहज बोध उतपाता, सो ततकाल लखे यह बाता. ॥ ७ ॥
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