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श्री समयसारनाटक
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॥ दोहराः ॥ - घटघट अंतर जिन वसे, घटघट अंतर जैन, मत मदिराके पान सां मतवाला समुजे न. ॥ ७१ ॥
॥ चोपाईः ॥ - बहुत बढाउ कहालो कीजे, कारजरूप वात कहि लीजे, नगर था गरा माहे विष्याता, वनारसी नामे लघु ज्ञाता. ॥ ७२० ॥ तामे कवित कला चतु राई, क्रपा करे ए पंचो जाई, ए परपंच रहित हिय खोले, ते बनारसी सों हसि बोले. ॥ २१ ॥ नाटक समैसार हित जीका, सुगमरूप राजमली टीका, कवित बद्ध रचना जो होई, जाषा ग्रंथ पढे सब कोई. ॥ २२ ॥ तब बनारसी मनमहि श्रानी, कीजे तो प्रगटे जिनवानी, पंच पुरुषकी श्राज्ञा लीनी, कवित बंधकी रचना कीनी ॥ १२३॥ सोरह से तिरानवे (१६०३) विते, श्रासुमास सित पक्ष वित्तीते, तिथि तेरसि रविवार प्रवीना ता दीन ग्रंथ समापत कीना. ॥ ७२४ ॥ दोहा ॥ सुख निधान सकबंध नर, साहिब साहि किरान, सहस साहि सिर मुकुटमनि, साह जहां सुलतान ॥ १२५ ॥ जाके राज सुचेनसों, कीनों श्रागमसार, इति जीती व्यापी नहीं, यह उनको उपकार. ॥ ७२६ ॥ ॥ अब सबका ठीक कथनः - ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ - तीनसे दसोत्तर सोरठा दोहा बंद दोन, जुगल से तेतालीस इकतीसा खाने हैं; बासी सु चोपईये सेंतीस तेइ सेसवैये, वीस उप्पै अठारह क वित्त बषाने हैं; सात फुनिही मिल्ले चारि कुंडलिये मिले, सकल सातसें सत्ताई स ठीकठाने हैं; बत्तीस अक्षर के सलोक कीने ताके ग्रंथ संख्या सत्रह से सात श्रधि का है. ॥ २७ ॥ दोहराः ||समयसार खतम दरख, नाटक जाव अनंत; सोहे श्र गम नाममें, परमारथ विरतंत ॥ २८ ॥
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॥ इति परमागम समयसारनाटक नाम सिद्धांत संपूर्णम् ॥ श्रीरस्तु ॥
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