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प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो.
उस मदतु है; सो है समकित सूर श्रानंद अंकूर ताही, निरखी बनारसी नमो नमो कतु है. ॥ ४० ॥
अर्थः- जे बंधरूप सुजट बे ते मोहरूप मदिरा पाईने सर्व संसारी जीवने विकल करेबे, एथी ए बंधरूप वीर बे ते अजानुबाहुनुं बीरुद कहावेबे के० सार्वजौम थई र हेला बे, एवो विकराल ए बंधरूप वीर सुजट डे, वली ए महाजाल समान े. अने एज ज्ञान प्रकाशने मंद करेबे, कोनी पेठे ? जेम राहु चंद्रने मंद करेबे, तेनी पठे जाणी लेबुं. दवे एवा बंधरूप वीरनो प्रतिपक्षी जे बे, ते एनुं बल तोमवाने घटनेविषेज प्रगट थयो बे, जेनो उद्यम उद्धत बे, एटले कोईथी रोक्यो रहे एवो नथी, अने उ दार बे के श्रेष्ठ बे. तथा महत के० मोटो बे, तेतो समकितरूप शूरवीर जाणवो. ते आनंद अंकूर लईने उदय थयो बे, ते सम्यक्त्व शूरवीरने जोईने पोताना अंग उल सितको बनारसीदास नमो नमो कहेते. ॥ ४० ॥
हवे चेतनाविना कर्म बंध नथी यतां, माटे ज्ञानचेतना तथा कर्म चेतना ए बे उनी समज पाडेबे:-: :- श्रथ कर्मचेतना ज्ञानचेतना वर्णनं :
॥ सवैया इकतीसा : - जहां परमातम कलाको परगास तहां, धरम धरामें सत्य सूरजको धूप है; जहां शुभ अशुभ करमको गढाश तहां; मोह के विलासमें महा धेर कूप है; फैली फिरै बटासी घटासी घट घन बीच, चेतनाकी चेतना होंधा गुपचूप है; बुद्धिसों न गही जाय बेनसोंन कही जाय, पानी की तरंग जैसे पानीते गुरुप है - ॥ ४१ ॥ अर्थः- जे चेतनामां परमात्मानी कलानो प्रकाश थाय बे, ते धर्म धरती बे. ते धर तीमां सत्यरूप सूर्यनो तमको बे, एटले उजली जगा ठे. बली जे चेतनाने विषे शुन अशुभ कर्मना रसनी गढाश बे, एटले शुभाशुभ कर्मना रस वडे जे चेतना घोलाइ रही बे, त्यां मोहराजा विलास करे बे, तेतो घोर अंधकार बे, ए रीते चेतन पुरु पनी जे चेतना के संज्ञा बे, तेतो घटाघन बीच के० शरीररूप मेघवचे बटानी माफक फैली रही बे, घने घटानी माफक फेलीथकी फरे बे, अने ए चेतना ते पर मात्मानी कलाना प्रकाशमां तथा मोहविलासमां ए बेड तरफ गुपचुप बे, एटले चुप थई रही बे; एवीए चेतना वे तरफ प्रवेश करे बे, ए वात बुद्धिश्री ग्रहण याय बे; पण वचनथी कही जाय एवी नथी, जेम पाणीना तरंग पाणीमां गुरुप्प बे तेम चेतना बेज तरफ गुरुप्प बे ॥ ४१ ॥
वे बंध द्वारविषे बंधनो हेतु कहे :- अथ बंध निदान कथनंः
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - कर्मजाल वर्गनासों जगमें न बंधे जीव, बंधे न कदापि मन वच काय जोगसों; चेतन अचेतनकी हिंसासों न बंधे जीव, बंधे न अलख पंचविषै
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