________________
७४४
प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. . थयु, ते जलथी प्रदालीने ते ज्ञानने उज्वल करिये तेवारे निराकार शुद्ध ज्ञानमय... थवाय , हवे ही स्याहादी तेने कहे . अरे! नाई ! ज्ञाननो एज स्वन्नाव बे, के झेयनो श्राकार वस्तुमा नासे तो ही श्राकार गमावी नाखवानी शुं मतलब ने ? जेम पारसीमां नाना रूप प्रतिबिंबनो ऊलकाट देखाय , तो पण थारसी नि मल जोशए पण तेने प्रतिबिंबन कलंक कोई न कहे.॥५४॥ हवे पांचमो एकांतनय ते ज्यां लगे झेय त्यां लगे ज्ञान तेनो प्रपंच कही देखाडे बे,
अथ पंचम जौलों ज्ञेय तोलों ज्ञान यह कथनः॥ सवैया श्कतीसाः ॥-कोउ अझ कहे ज्ञेयाकार ज्ञान परिनाम जोलों, विद्यमा न तौलों ज्ञान प्रगट है; शेयके विनाश होत ज्ञानको विनास होश, ऐसी वाकै हिरदे मिथ्यातकी अलट है: तासों समकितवंत कहे अनुनी कहान, परजे प्रवान न ज्ञान नानाकार नट है; निरविकलप अविनस्वर दरव रूप, ज्ञानज्ञेय वस्तुसों श्रव्यापक अघट है. ॥ ५५ ॥
अर्थः-कोई अजाण पुरुष एवं कहे के जेवो शेयनो आकार तेवू ज्ञानपरि णाम थायडे, तेथी ज्ञेय विद्यमान ज्यां लगी होय, त्यां लगी ज्ञान प्रगट रहे थने शेयनो विनाश थये शाननो पण विनाश थायडे, एवी वात मिथ्यामतीना हृदयमां मिथ्यानी अलट लागी रहे; हवे तेनाथी सम्यक्त्ववंत स्याहादी अनुजवनी कथा क हेले. अरे! जाई ! जेम कोई नट पुरुष डे ते नाना प्रकारना नेष धारीने नाना प्रकार नां नाम धरावे, तेम ज्ञानरूप नट नाना प्रकार धरीने पर्याय प्रमाणे बहरूपी थायडे पण जेवू नट अव्य एक तेवू ज्ञान वस्तु पण निर्विकल्प एक, व्यपणे अविनस्वर बे. अने ज्ञान वस्तु ते झेय वस्तुथी श्रव्यापक बे एटले ज्ञेयवस्तु ज्ञान वस्तुमा एकमेक न थाय तेथी ज्ञान ज्ञेयनी एकता अघटती ने ॥ ५५॥ हवे हा एकांतनय सर्व अव्यमयी श्रात्मानो प्रपंच कही देखाडे बेः
श्रथ षष्टम सर्व दर्वमय श्रातमा यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-कोज मंद कहे धर्म अधर्म श्राकास काल, पुदगल जीव सब मेरोरूप जगमें; जाने न मरम निज माने थापा परवस्तु, बंधे दिढ करम धरम खोवे डगमे; समकिती जीव सुफ अनुनो श्रन्यासे ताते परको ममत्व त्याग करे पग पगमे; अपने सुनावमे मगन रहे आठों जाम, धारा वाही पंथिक करावे मोष मगमे ॥५६॥
अर्थः-कोई मूर्ख ब्रह्माद्वैतवादी एवं कहे डे के जो कोईना मतमां धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल ए नए अव्य कहेवाय ते सर्व ब्रह्म बे. तेथी माझं पण रूप सर्व जगत्मां विस्तरि रह्यं . बीजो पदार्थ कोई नथी. आंही गुरु शिष्यने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org