SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उ०२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. रूपके रीजैया सबनैके समुया सबहीके लघुलैया सबके कुबोल सहे हैं; वामके व मैया मुखदामके रमैया ऐसे रामके समैया नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥४॥ अर्थः-धीरजने धरनार, संसार सागरने तरनार, नवनीडने हरनार, मोटा शूर वीरनी परे पोताने साह्य श्रापवाने उमंगी रह्याने, कंदर्पने मारनार, जला विचारना करनार, सुख समाधिना ढालामां ढलनार,थात्माना गुणनो लव एटले अंश तेमां ल हलहि रह्या बे, श्रात्मरूपना रीजवनार, सर्व नयना सारनो रस समऊनार, निरहं कारी पणे सर्वना नाना नाई जे थई रह्याने; दमावंतपणे सर्वनां पुष्ट वचन जे सहेजे; वाम के स्त्रीने वमैया के बोडनार, फुःखनी परंपराना दमनार, एवा आत्मारामने विषे रमनारा मनुष्यने ज्ञानी जीव कहीये ॥४॥ हवे शुझात्मना अनुजवनी प्रशंसा करेः-अथ शुझात्म अनुभव प्रशंसाः ॥चौपाई॥-जे समकिती जीव समचेती; तिन्हि की कथा कहों तुमसेती; जहां प्रमाद क्रिया नहि कोई निर्विकल्प अनुनौ पद सोई. ॥ ४३ ॥ परग्रिह त्याग जोग थिर तीनो; करम बंध नहि हो नवीनो; जहां न राग दोष रस मोहे; प्रगट मोषमारग मुख सोहे. ॥ ४४ ॥ पूव बंध उदे नहि व्यापे, जहां न नेद पुन्न अरु पापे; दरब नाव गुन निर्मल धारा, बोधविधान विविध विस्तारा. ॥ ४५ ॥ जिन्हि के सहज श्र वस्था ऐसी; तिन्हि के हिरदे पुविधा केसी; जे मुनिषिपक श्रेणिचढी धाये; ते केवति जगवान कहाये. ॥ ४६॥ दोहराः-शहि विधि जे पूरन नये, अष्ट करम वनदाहिति न्हिकी महिमा जो लखे, नमे बनारसि ताहि.॥४७॥ अर्थः-जे समकिती जीव ते समचेती के वीतरागपणे समतावंत अहो! जव्य प्राणी ! तेनी कथा हुँ तमने कहवं. ज्यां कोई प्रमादनी क्रिया नथी, तेने नि विकार निर्विकल्प अनुनव पद कहीये, एटले अनुनवमां विकल्प नथी.॥४३॥ ज्यां परिग्रहनो त्याग बे, अने त्रणे जोग स्थिर , त्यां नवीन कर्मनो बंध नथी थतो; वली ज्यां जीवने राग द्वेष रस मोह नथी, तेज प्रगटपणे मोद मार्ग- मुख के० प्रारंन बे. ॥४४ ॥ वली ज्यां पूर्वे जे कर्मबंध , तेनो उदय नथी, अने ज्यां पुण्य पापना नेदनो विचार नथी, श्रने ज्यां साधुना सतावीस गुण अव्यपणे नाव पणे निर्मल धाराये वही रह्या , वली ज्यां बोधविधान के ज्ञानना प्रकार नात नातना विस्तारमा बे. ॥ ४५ ॥ जेनी एवी सहज अवस्था थई होय तेना हृदयमा श्रात्म उलखवानी सुविधा केम रहे? श्रने एज अवस्थामां जे मुनिराज दपक श्रेणि चढी ऊर्ध्व मुख धाये तेतो केवली जगवंत जाणवा. ॥ ४६॥ ए रीते करी श्रष्ट कर्म रूप वनने बालीने पूर्ण वात्मारूपमा जे थायडे अने जेना महिमाने जे सत् पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy