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श्री समयसारनाटक. उककों; दंपतिको जोग ताहि पुरबुद्धि काम कहै, सुधीकामकदेशनिलाष चित श्राउको; इंडलोक थानकों अजान लोक कहै मोक्ष,मतिमान मोक्ष कहै बंधके अनाउकों ॥५॥
अर्थ:- जे मूर्ख जन होय ते पोताना कुलना श्राचारने धर्म कहै , अने पंमित जन तो वस्तुना स्वजावने धर्म कहे , अज्ञानी जन होय ते खेहना खजाना जे सोनुं रुपुं जवाहिर वगेरे बेतेने अर्थ के अव्य कहि बतावे बे, अने ज्ञानी जन होय ते अव्यना दरशावने अर्थ कहे बे; एटले षट्रव्यने अर्थ कहे . पुबुकि जन स्त्री जर तारना नोग संयोगने काम कहे , पण सुधी के पंमित जन तो चित्तनी श्वा श्र निलाषने काम कहे , श्रने जे इंजन स्थानक बे, तेने अजाण लोक मोद कहे , अने जे मतिमान एटले पंमित लोक तेतो जेथकी बंधनो अनाव थाय बे, तेने ए टले बंधना नाशने मोद कहे जे ॥ ५॥ हवे चारे पुरुषार्थने अध्यात्मरूप कहे बे-श्रथ पुरुषार्थ चतुष्क अध्यात्मरूपकथनं:
॥सवैया इकतीसाः॥-धरमको साधन जु वस्तुको सुजाउ साधै, अरथको साधन विलब दर्व षटमें; यहै काम साधना जु संगहै निरास पद, सहज स्वरूप मोष सुरू ता प्रगटमें; अंतर सुदृष्टिसों निरंतर विलोकै बुध, धरम थरथ काम सोड निजघटमें; साधन थाराधनकी सोंज रहै जाके संग, नूलो फिरे मूरख मिथ्यातकी अलटमें ॥५३॥
अर्थः- धर्मनुं साधन तो तेने कहीये के जे वस्तुना वनावने साधवो एटले वस्तु ना स्वजावने यथार्थ जाणवो; अर्थनुं साधन तेने कहीये के जे षट्र अव्यने विलक्षण के जुदां जुदां जाणवां; काम साधन तेनुं नाम के, जे निरास पदनो संग्रह करवो, एटले निस्पृह दशामा रहेवू; मोदनुं साधन ते डे, के जेवके पोतानी सहज स्वरूप शु कता प्रगट नावमा करवी; ए रीते अंतर्दृष्टि वडे एटले ज्ञान दृष्टि थकी बुकिमान पुरुष धर्म, अर्थ, काम ने मोद ए चार पुरुषार्थने निरंतर पोताना घटमां देखे; एम चारे पुरुषार्थ साधवानी जेना संघाते सोंज के सामग्री रहे , तोपण मूर्ख जे जे ते मिथ्यातनी अटलमां नूस्या फिरे जे ॥ ५३॥ हवे शुद्ध व्यवहार नये करी वस्तुनुं सत्य स्वरूप कहेजेः
अथ शुरू नय वस्तु स्वरूप कथन:॥ सवैया एकतीसाः॥-तिहुँ लोकमांहि तिहूं काल सब जीवनिको, पूरव करम उदै श्राश् रस देतु है; कोउ दीरघाउ धरे कोउ अलपाउ मरै, कोउ मुखी को सुखी कोउ समचेतु है; यादीमें जीवायो याहि माख्यो याहि सुखी कस्यो, कुखी कस्यो एसी मूढ श्रापु मानी बेतु है; याही अहं बुद्धिसों न विलसै नरम मूल, यहै मिथ्या धरम करम बंध हेतु है. ॥ ५४॥
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