SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मिथ्याती व्है रह्यो; करै विकल्प अनंत, अहंमति धारिके; सो मुनि जो थिर होश ममत्त निवारि के ॥ ६ ॥ अर्थः- निश्चयनय वडे सहजरूपे चेतन बे, ते सदा कर्मथी जिन्न कयु , पण व्यवहारमा पडीने मोहनुं विकलपणुं मानीने मिथ्यामती थई रह्यो , तेथी मनमां अनंत विकल्प धरीने अहंबुकि धारी रह्यो बे, अने जेणे ममत्व निवारण की, ने स्थिरता पाम्यो तेज साधु थयो. ॥६॥ हवे मिथ्यात्व नावथकी व्यवहारर्नु असंख्यातपणुं कहे बेः अथ मिथ्यात्वनाव व्यवहार एकत्व कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥-असंख्यात लोक परवान जो मिथ्यात नाव, तेई व्यवहार नाव केवली उकत है; जिन्दके मिथ्यात गयो सम्यक दरस नयो, ते नियत लीन वि वहारसों मुकत है; निरविकलप निरुपाधि श्रातम समाधि, साधि जे सगुन मोब पंथ को ढुकत है, तेई जीव परम दशामें थिररूप है के, धरममें दुके न करमसों रुकत है. अर्थः- एक लोकाकाश, तेनी असंख्यातपणे कल्पना करीयें; तेना प्रदेश असं ख्यात , ते प्रमाणेज मिथ्यात्व नाव ले. जीवना अध्यवसाय स्थान , ए व्यवहार जावे केवलीनु कहेवू डे,अने जेनु मिथ्यात्व गयु, जेने सम्यक् दर्शन थयु,जे निश्चय-लीन थयो, ते व्यवहारथी मुक्त थाय. जेमां विकल्प नथी ते निर्विकल्प, अने जेमां उपाधि नही ते निरुपाधि, एवी समाधिथी जे सगुण थईने एटले ज्ञानादिकगुणमय थईने मोद मार्गने जुए बे, ते जीव परम दशामा स्थिर रूप थईने यात्मिक धर्ममां दुके पण कर्मथी रोकाय नही. ॥ ७० ॥ हवे गुरुने शिष्य प्रश्न पूछे जेः-अथ शिष्य प्रश्न कथनं:कवित्त बंदः॥- जे जे मोह करमकी परिनति, बंध निदान कही तुम सबसंतत जिन्न शुद्ध चेतनसों, तिन्हिको मूल हेतु कहु अब्ब; कै यह सहज जीवको कौतुक, कै निमित्त है पुमल दव; शिश नवा शिष्य श्म पूबत, कहै सुगुरु उत्तर शुनु जब॥७॥ अर्थः- मोह कर्मनी जे जे परिणति बे, एटले राग केषादिक डे, ते तो तमे सर्व बंधन निदान कह्यु, अने एतो निरंतर शुक चेतन थकी जिन्न डे, ते माटे ए बंधनो हवे मूल हेतु कहो; ए बंध थाय ने ते शुं जीवने सहज कौतुक , के एने पुजल अव्य निमित्त २ ते कहो एम, शिष्य माथु नमावीने गुरुने पूछे . हवे गुरु उत्तर थापे डे के जव्य प्राणी एनो उत्तर शांजलो॥१॥ अथ गुरु वचनं:॥ सवैया इकतीसाः ॥- जैसे नाना वरन पुरी बनाइ दीजै देछि, उहाल विमल मनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy