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________________ श्री समयसारनाटक. ६७७ मिरगांक जैसे घनमें,लोचनकी ढांकसों न मानै सदगुरु हांक,मोलै पराधीन मूढरांक तिहूं पनमें; टांक श्क मांसकी डलीसी तामें तीन फांक, तीनि कोसो अंक लिखिराख्यो काहु तनमें; तासों कहै नांक ताके राखिवेको करे कांक,लांकसो खरग बांधिवांक धरै मनमें. अर्थः- श्रात्मानुं रूप हश्यामां नथी दी, तेथी कर्मनो डांक पीधो, एटले कर्मनो रस व्यापी गयो, तेणे करी आत्मानुं स्वरूप जे शुभ ज्ञान ते दबाई रद्यु. कोनी पेठे ? जेम धन कहेतां मेघरुप वादलाउने विषे चंड ढंका रहेने तेम ज्ञानरुप लोचनउपर मिथ्यात्वनी ढांक पडी तेथी सद्गुरुनी हांक के श्राज्ञा तेने मानतो नथी, अने मूर्ख पराधीन थको रांक वचन बोले, अनेत्रणे कालनेविषे निःशंक रहे. हवे मूढता प्र गट करी बतावेजे जे नाक ते टांक के एक मांसनी सीमरी तेनेविषे फांक ने ते प्रत्यक्ष प्रमाणे देखिये बैयें, ते त्रण फांक केवा देखाय ते कहे, ते जाणे त्रणनो श्रांक त्रण फांकवालो कोए शरीरमांज लखी राख्यो, ते औदारिक अवयवने नाक कहे, अने ते नाकने राखवाने कांक के लडाई करे ने विचारे जे मरी जश तोप ण नाक तो रदेशे एवा विचारथी लडाई करेने खग धरे अने मनमां वांक धरीज राखेडे. हवे मूढना विषय रागीपणानी दशा कहे बेः- अथ मूढ विषय वर्णनं: ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जैसे कोउ कूकर कुधित सूके हाड चावे, हामनिकी कोर चिहू उर चुन्ने मुखमें; गाल तानु रस मांस मूढ निको मांस फाटे, चाटै निज रुधिर मगन स्वादमुखमें; तैसे मूढ विषयी पुरुष रति रीत गने, तामें चित साने हित माने खेद उखमें, देखै परत बल हानी मल मूत खानी गहे न गिलानि पगी रहे रागरु खमें अथः- जेम कोई कुतरो जुख्यो थको हामकाने चावे , ते हाडकु सूकु होय बे, तो पण तेने चारे तरफ फेरवीने ते चाटे बे, ने तेम चाटतां तेना गाल जीन ने ता लवानी चाममी फाटे , अने तेथी लोही नीकले डे ने तेज पोताना लोहीना खाद थी मगन थई जाय बे, तेमज जे मूढ विषयी पुरुष बे, ते रति के० स्त्री पुरुष संयोग नी रीति जे श्रृंगार रस तेने विषे मग्न रहे , अने तेथी खेद पुःख उपजे बे, तोप ण तेमां सुख माने , अने ते कार्यथी प्रत्यक्ष पणे बलनी हानि थती जाणे , तथा तेने मल मूत्रनी खाण जुए ले. तेम बतां तेमां ग्लानि ग्रहण करतो नथी, उगंबा पामतो नथी, अने रागरूप रुख के वृक्षमा मली रहे, तेनो शोक आणतो नथी, उलटो तेमा चित्त लगावी थानंद माने. ॥ ६ ॥ हवे संसारीनी विकलता कहीने साधु जननी व्यवस्था कहे बेः । श्रथ संसारी तथा मुनि व्यवस्था कथनः॥श्रडिन बंदः॥- सदा करमसों जिन्न सहज चेतन कह्यो; मोह विकलता मानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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