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श्री समयसारनाटक.
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बे. हवे ते युक्तिथी करी यागल केदेशे . ते युक्तिये करी निरंतर तेनुं ध्यान करवाने मारी होंस मनमां उमंगी रही बे. जेना ध्यानथी पोतानी ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रुद्धि अविचल थायबे, एज रीते सिद्धि बे, पण बीजे कोई प्रकारे सिद्धि नथी. एमां कई धोखो नथी, एटले जूनुं नथी, एज वात साची बे. ॥ ७२ ॥
ताकी व्यवस्था वर्णनं.
॥ सवैया तेईसाः ॥ - के अपनो पद श्रापु सँजारत, के गुरुके मुखकी सुनि बानी;जेद विज्ञान जग्यो जिनके प्रगटे, सु विवेक कला रज धानी; जाव अनंत जये प्रतिबिंबित, जीवन मोष दशा उदरानी; ते नर दर्पनज्यो श्रविकार र थिर रूप सदा सुखदानी ॥ ७३ ॥
अर्थः- वेद विज्ञानवडे एनो अनुभव थाय बे तेथी मुक्ति मले तेज परमार्थ कदेबे :- कोई तो पोतानुं पद जे पोतानु निरालंब स्वरूप, ते पोतेज संजारीने पोताव डे ग्रंथी नेद करी पोताने नलखेडे. कोई तो गुरुना मुखनी वाणी शांजलीने पोताने लखेडे; अने जेना घटमां जन-चेतननुं जेद विज्ञान जाग्युं तेणे करी पोताना चेतन रूपनी जे न्यारी कला बे, तेनी राजधानी जे तेनुं ईश्वरपणुं जेना घटमां प्रगटयुं; छाने एज राजधानीमां अनंत जाव पदार्थ प्रतिबिंबित थया, तेना झायक थया एटले जी वता थकाज मोक्ष दशा वरी, मुक्त स्वरूपी थया. अने एमां अनंतनाव प्रतिबिंबित यया तोपण समलरूप न यया, तेथी ते मनुष्य दर्पण एटले श्ररीसानीपरें विकार र हित थया, स्थिररूप थया, अने सुखदायक थयाबे ॥ ७३ ॥
अथ नेद ज्ञान प्रशंसा कथनं.
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - याही वर्त्तमान समै जव्यनिको मिढ्यो मोह, लग्यो है अना दिको पग्यो हे कर्म मलसो; उदो करै नेदज्ञान मद्दारुचिको निधान, उरको उजारो जारो न्यारो हुँद दलसों; याते थिर र अनुजौ विलास गर्दै फिरि कबदों, अपनपो न कहै पुदगलसों; यह करतुति यों जुदाइ करै जगतसों, पावकज्यों जिन्न करे कं चन उपलसों ॥ ७४ ॥
अर्थः- दवे नेदविज्ञाननी उत्पत्ति ने महीमा कदे :- था वर्त्तमानकाल विषे toलोकनो मोह भ्रम टली जाय; जे मोह कर्म, आत्माने अनादिकालथी लाग्यो बे;
कर्ममलमांव्यापी रह्योबे; ते मोह जम मटवाथी नेद विज्ञाननो उदय थाय, ते नेद विज्ञान के कुंबे ? मद्दारुचिनुं निधान डे. ए जेद विज्ञानमां महोटी रुचि पामीये ये एटले महारुचिनुं कारण बे. जेद विज्ञानथी गरिष्ट उरनुं श्रजवालुं प्रगट थाय बे, ते जवालुं कुंबे ?
एटले महा धाम घुमथी न्यारोबे; द्वंद्व दशाथी नीकली स्थिरतामां रहे, छाने पो
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