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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ताना अनुनवनो विलास ग्रहण करे, पोताने सत्यार्थपणे जाणे, पनी ए नेद विज्ञान पाम्या थकी शरीर कर्मादि पुजल रूपी जाणीने पोतानुं न कहे. आत्मा रूप न कहे करतुति के ए जे नेदविज्ञाननी क्रिया तेज जगत्थी जुदाईने करे, पांच अव्यथी जुदाई करे, श्रहीं दृष्टांत बतावेजेः- जेम अग्नि, माटी पाषाणने कंचनथी जुदां करे ने तेम जाणी लेवू ॥ १ ॥
श्रथ परमार्थ शिक्षा कथन. ॥सवैया इकतीसा॥- बनारसी कहै जैया जव्य सुनो मेरी शीख, केडं जांति कसे हुके एसो काज कीजिए; एकहु मुहुरत मिथ्यातको विध्वंस होइ ज्ञानको जगा अंस हंस खोजि लीजिये; वाहीको विचार वाको ध्यान यहै कोतुहल, योंही नरि ज नम परम रस पीजिए; तजी नववासकी विलास सविकाररूप, अंतकरि मोहको श्र नंत काल जीजिए. ॥ ५ ॥
अर्थः-हवे शुरू जीवाव्यमां रहे तेज परमार्थ तेनी शिक्षा कहे:- बणार सीदास केहेजेः- अहो नाई नव्य जीवो, मारी शीक्षा सांजलो. कोइ पण रीतेथी कोई जव्य क्षेत्र काल नाव पामीने एवं काम करवं के जेणे करीने एक मुहर्त्तमात्र मां मिथ्यात्व मोहनो विध्वंस थाय श्रने झाननो अंश जगावी लेवो, अने “सोहं हंसो" एवी ध्वनि करतो हंस जे आत्मा तेने खोजी लश्ये. पडी तेनुं लक्षण विचारवं, पड़ी तेने लखीने तेनुं ध्यान करवं. एवी एनी कला खोजीने कुतूहल जे खेल ते कस्या करिये; श्रने तेज जन्म पर्यंत परम रस पीवो. एरीते सविकार रूपथी फेली रह्यो एवो नववासनो विलास तेने तजीने तथा मोहनो अंत श्राणीने अनंत कालसुधी जीजिए. जयवंता वर्तिये! एटला प्रकारे सिक थवाय बे.॥ ५॥
अथ तीर्थंकरकी स्तुति, बाह्यरूप कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-जाकी देहऽतिसों दसो दिशा पवित्र जई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं; जाको रूप निरखी थकित महारूपवंत, जाकी वपुवाससों सुवास
और बुके हैं; जाको दिव्य धुनीसुनिश्रवनकों सुख होत, जाके तन लबन अनेक आश् टूके हैं;तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहचै निरखि सुरु चेतनसों चुके हैं ॥ १६ ॥
अर्थः- हवे चेतन महीमावान थयाथी पुजलपण महिमावान थाय माटे कवि राज तीर्थकरना बाह्य शरीररूपपुजलनो महीमा कहेः-जेनी देहनी युति एवी पसरी रहीने के जेथी दशे दिशा पवित्र थई जायजे; एटले शोजायमान थायडे अने जेना तेज श्रागल सर्व तेजवाला बुपी जाय एटले सर्व देवता मंद तेजवंत थायजे. अने जेनुं रूप जोईने महारूपवंत पंच अनुत्तरवासी देवता पण चकित थर रहे थने
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