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________________ श्री समयसारनाटक. ६०५ जेना शरीरनी सुवासथी अन्य सुवासी वस्तु सर्व लुकी जायबे ने जेनी दिव्य ध्वनि सांजलीने श्रवणने सुख थाय बे, एटले जव्य अजव्य सर्वने ते वाणी मीठी लागेबे ने जेना शरीरमां अनेक शुभ लक्षण श्रावी दुकी रह्याबे एवा श्री जिनराज देव बे, तेमना एटला गुण कह्या ते अशुद्ध व्यवहार नयनो श्राश्रय लइने कला पण, निश्चयनयथी ए कला गुण सर्व शुद्ध चेतननी ० जिन्नता दर्शावेळे ॥ १६ ॥ ाथ जिन स्तुति व्यवहाररूप पुनः ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जामें बालपनो तरुनपनो वृद्धपनो नांहि, श्रयु परजंत महारूप महा बल है; बिनाहि जनत जाके तनमें अनेक गुन, श्रतिसै विराजमान काया निर मल है; जैसे विनुपवन समुद्र अविचलरूप, तैसे जाको मन रु वासन अचल है, ऐसो जिनराज जयवंत दोन जगतमें, जाकी शुभगति महा सुकृतिको फल है ॥७॥ अर्थः- हवे फरी व्यवहारनय वडे जिन स्तुति करे :- जेमां जन्मथी मांडीने मरण पर्यंत महारूप अने महाबल समान रहे; पण बालपणु, तरुणपणु, वृद्धपण, ए त्रण जे व्यवस्थाना नेद तेमां रूपमां ने बलमां नेद न पामे, जेना सहज स्वावे जतन विना शरीरमां अनेक गुण यावी रहे; अने जेने विषे चोत्रीस अतिशय गुण विराजमान थई रह्या बे; अने जेनी काया प्रस्वेदरहित निर्मल रहेबे; जेम पवननी बहेर विना समुद्र अचलरूप थई रहेबे, तेम जेनुं मन अचल बे; ने श्रासनपणाच बे, हीं गतिनी अपेक्षाविना शासन अचल कर्तुं बे, पण निरंतर अचल श्रास न संजवे नही, एवा जिनराजदेव जगत्मां जयवंत थाड. जेनी रूडी नक्ति करवायी महामुक्ति फलनी प्राप्ति थाय बे. ॥ 99 ॥ यथार्थ कथनः ॥ दोहराः ॥ - -जिन पद नाहिं शरीरकों, जिन पद चेतन मांहि; जिन बर्नन करूं और है, यह जिन बर्नन नांदि ॥ ७८ ॥ अर्थ :- एटली व्यवहार स्तुति करीने दवे सत्यार्थ वात कड़े बे:- ए जे जिन नाम बे ते जीव विपाकी बे पण पुल विपाकी नथी, तेथी जिनपद ते शरीरनुं नथी, जिनपद तो चेतननुं बे; तेथी जिनेश्वरनी स्तुति कोई नरज बे पण पूर्वे जे जिनेश्वर नी स्तुति करी ते जिन स्तुति नथी. इहां शरीर जम बे ने श्रात्मा चेतन बे ए बने जाव जिन्न स्वभावमां बे तेनुं दृष्टांत श्रपेढे ॥ ७८ ॥ अथ जन चेतन जिन्नाव दृष्टांत कथनः ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - उंचे उंचे गढके कंगुरे यों विराजत हैं, मानो नज लोक लील ant दांत दियो है; सोहे चिह्नोंतर उपबनकी सघनताई, घेरा कर मानो भूमि लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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