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________________ ६०६ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. घेर लियो है; गहरी गंजीर खाई ताकी उपमा बनाई, नीचो करि श्रानन पाताल जल पियो है; ऐसो है नगर यामें नृपको न अंगकोज, योंही चिदानंदसो शरीर जिन्न कियो है ॥ ७ ॥ अर्थः- जेम कोई गढना उंचा उंचा कांगरा बिराजे वे ( श्रहिं कवि उत्प्रेक्षण करे बे.) पण ते कांगरा नथी पण मानुं हुं जे या नगरमां स्वर्गलोकने गली जवाने दांत यां बे; एटले जाणे स्वर्ग लोकने गली जशे अने एनी चारे तरफ उपवन एटले बाग वाडीनी सघनता एवी शोजी रही बे के जाणे भूमिलोक एटले मनुष्य लोक तेणे घेरी लीधो बे. अने ए नगरनी चारे बाजुए की खाड़ीबनी ते जाणे नीचुं श्रा नन एटले मुख करीने पातालज पाणी पातो होयनी ए रीते जेणे त्रणे लोक जीत्या बे एवं नगरनुं वर्णन कीधुं पण ए नगरमां कोइराजाना अंगनुं कांइ वर्णन की धुं नथी मतलब के चिदानंद की शरीरने जिन्न करी बताव्यं ॥ ७ ॥ अथ तीर्थंकरकी निचै स्तुति सरूप कथन वस्तु वर्णनं. ॥ सवैया इकतीसाः॥ - जामें लोकालोकके सुनाउ प्रतिमासे सब, जगी ज्ञान सगति बिमल जैसी श्रारसी; दर्शन उदोत लियो अंतराय अंतकी, गयो महामोह जयो परम महारसी; संन्यासी सहज जोगी जोगसों उदासी जामें, प्रकृति पंचाशी लगि रहि जरि बारसी; सोहै घटमंदिरमें चेतन प्रगटरूप, ऐसो जिन राजतांहि बं दत बनारशी ॥ ८० ॥ अर्थः- दवे तीर्थंकरपदने लेइ रहेली जे वस्तु बे तेमा स्वरूपनुं वर्णन करे :जेमां लोक ने लोकनो स्वभाव एटले खट् द्रव्य जाव प्रतिजासी रहे, एवी ज्ञान शक्ति निर्मल प्रगटी बे. जेम खारीसामां पदार्थना जाव जासेबे, एवी रीते जेना ज्ञा नमां सर्व जाव जासेबे, एटले ज्ञानावरण गयुं, अने दर्शनावरणना नाश थवाथी के वल दर्शन, उद्योत थयो. अने अंतराय नाश कस्यो, तेथी अनंतवीर्य धैर्यवंत थयो; अने महा मोह कर्म जे बे ते नाश पाम्युं; तेथी परम उत्कृष्ट महर्षि थयो; तेणे करी यथाख्यात चारित्रनो संन्यास एटले तेनो धारण करनार ज्ञान दर्शनचारित्र या दि जे सहजयोग बे तेनो धरनार, मन वचन कायना योगथी उदास थइने श्रघातिक चार कर्मनी पंच्यासी प्रकृति सत्ताये रहि बे, ते पण बलीने खाख जेवी यर रही बे; जेना घटमंदिरमां चेतन देव बे ते प्रगटपणे साक्षी रह्यो बे. एवा श्री जिन राज देवतेने वणारसीदास वंदन करेबे. ए निश्चय स्तुति कही ॥ ८० ॥ हवे एवा शुद्ध चेतननी स्तुतिनुं दृष्टांत देखाडीने निश्चय व्यवहारनो निर्णय करे d. or श्री निश्चय व्यवहार तीर्थंकर स्तुति कथनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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