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श्री समयसारनाटक.
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॥ कवित्त छंदः ॥ - तनु चेतन विवहार एकसें, निचे जिन्न जिन्न है दो; तनु स्तु ती विवहार जीव श्रुति, नियत दृष्टि मिथ्या श्रुति सो; जिन सो जीव जीव सो जिनवर, तनु जिन एक न माने कोइ; ता कारन तनकी स्तुतिसों, जिनवर की स्तुति नहि होइ ॥ ८१ ॥
अर्थ :- शरीर ने आत्मा ए बने व्यवहारमां एक सरखा बे; छाने निश्चयथी जोये तो बनें जुदा जुदा बे. एमाटे तननी स्तुति करतां जीवनी स्तुति करिये ए व्यवहार बे ने निश्चय दृष्टिथी जोतां ते मिथ्या स्तुतिबे. जिनपद कर्म जे बे ते जीव विपाकी छे, पण पुल विपाकी नथी, तेथी जिन ते जीव बे, श्रने जीव ते जिन बे; पण शरीर ने जिन एक करी न मानीए; ते कारणे तननी स्तुति करी ते जिनव रनी स्तुति थई नही. ॥ ८१ ॥
वस्तु स्वरूप कथन दृष्टांत करी डिढाश्यतु है:
॥ सवैया तेईसाः ॥ - ज्यों चिरकाल गडी वसुधा महि, जूरि महानिधि अंतर गूजी; को उखारि धेरै महि ऊपरि, जो हगवंत तिन्है सब सूजी ; त्यों यह आतमकी अनुभूति पगी जम जाव अनादि रूकी; नैजुगतागम साधि कही गुरु, लछन वेदि विचछन बूजी ॥ ८२ ॥
अर्थः- शिष्य पुढे के एवो अनुपम महीमानो धारक जीव था शरीरमां केम पा मिये? त्यारे गुरु दृष्टांत श्रापी न्यारी श्रद्भुत स्वरूप वस्तु या शरीरमां दृढावे बेः- जेम कोई महानिधि घणा काल सूधी धरतीनी अंदर दटाई रही होय, ते अंतर गुप्त थई रहेली लक्ष्मी ने कोई खोदी काढी जमीन उपर मूके त्यारे जे नेत्रवंत पुरुष बेतेने बधी देखाई श्रावे. तेम श्रा श्रात्मानो अनुभव अनादि कालथी जड एटले पुल sarai दटाई रह्यो बे, तेने नयसहित श्रागम जे सिद्धांत तेणेकरी गुरुए साध्य एटले साधने करी सिद्ध करी दीधाथी विचक्षण पुरुष तेने सारी पठे जाणी लियेते. ॥ ८२ ॥
हवे तेनो नेद ज्ञान पाम्याथी उपादेय वस्तुनुं उपादान करवायी यावे ते उपर धोबनुं दृष्टांत बतावे :- छाथ जेदज्ञान स्वरूप कथन धोबीको दृष्टांतः
॥ सवैया इकतीसाः॥ - जैसे कोउ जन गयो धोबी के सदन तिन्द, पहियो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है; धनी देखि कह्यो नैया यह तो हमारो वस्त्र, चीन्ह्यो पहिचा नहीं त्याग जाव लह्यो है; तैसैदी अनादि पुदगलसों संयोगी जीव, संगके ममत्वसों बिजावता में बह्यो है; जेद ज्ञान जयो जब थापो पर जान्यो तब, न्यारो परजावसों स्वाव निज गह्यो है. ॥ ८३ ॥
अर्थः- जेम कोई मनुष्य धोबीने घेर गयो अने पारकुं वस्त्र पोतानुं मानी जूलमां
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