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श्री समयसारनाटक.
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माने, पण ए मानवामां बेदुनयनो नेद जे जाणे तेज ज्ञानी कहेवाय, अने तेज जीव तत्त्वनुं स्वरूप लख्युंबे ॥ २५ ॥
हवे बेड नयने समान राखीने समकित राखेथी समरस जावमां रहे तेनी प्रशंसा करे:- अथ समरसी जाव प्रशंसा कथनः
॥सवैया इकतीसाः ॥ - प्रथम नियत नय डूजो विवहार नय, डुडुकों फलावत नंत द फलै है; ज्यों ज्यों नय फलै त्यों त्यों मनके कलोल फलै, चंचल सुनाय लोका लोकल उबलै है; ऐसी नय कक्ष ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव, समरसी जये एकतासों नही टलै है; महा मोह नासै शुद्ध अनुजौ अन्यासै निज, बल परगासै सुख रास माहिं र है ॥ २६ ॥
अर्थः- पहेलोतो निश्चय नय बे, अने बीजो व्यवहार नय बे; ए बेल नयने एक एक द्रव्य साथै फलाविये त्यारे अनंत द्रव्यनी अपेक्षाने लीधे नयना अनंत नेद फले बे. दवे ए नयना अनंत भेद मननाज विचारथी फले बे, तेथी जेम जेम नयनुं फलाव थाय तेम तेम मनना तरंग पण अनंत भेदे फलेबे, अने मनना कल्लोल जे टला होय तेटला चंचल खजावमनना थई जाय, एनुं प्रमाण षट्गुणी हानि वृद्धि लेखे लोकालोक प्रदेश परिमाण होय एवी जे नय कक्षा के० नयने अंगीकार करी तेनो पक्षपात त्यजीने जे ज्ञानी जीव समरसी जावमां रह्या श्रने सघला नयना वि स्तारमा चेतनानी एकता होय तेथी टले नदी ते तो समरसी जाव वाला महा मोह के० मनो नाश करीने छाने शुद्ध चिदानंदना अनुजवनो अन्यास करीने, एटले. पश्रेणि श्रारोहण करीने परमात्मानुं जे बल बे तेनो प्रकाश करीने सुख राशि जे मोक्ष पद बे तेनेविषे मली जायते ॥ २६ ॥
हवे निश्चय व्यवहार बतावीने पोतपोतानुं जे सत्य स्वरूप लक्षण वे तेहिज क
देवे:
:- अथ सम्यक् स्वरूप लबन कथनः
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - • जैसे काहु बाजीगर चौहटे बजाई ढोल, नाना रूप धरी के जगल विद्यावानी है; तैसे में श्रनादिको मिथ्यातके तरंग निसों जरममें धाइ बहु काय निज मानी है; अब ज्ञान कला जागी जरमकी दृष्टि जागी, अपनी पराई सब सोंजु पहिचानी है; जाके उदे होत परवान एसी जांति नई, निहचे हमारी ज्योति सोई हम जानी है. ॥ २७ ॥
अर्थः- जेम कोई बाजीगर चौटामां ढोल वगामीने जात जातना रूप धरीने पो तानी जगल विद्या प्रसारे बे, ने तेने लोको साची मानेबे, ते रीते हुं अनादि का लथी मिथ्यात्व तरंग के० व्हेरोमां मगन बनी रह्यो तेथी जगलविद्या जोनाराने न्याये
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