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प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो.
रूपी अज्ञान ग्रहीने यहीं कारण बन्यो; त्यारे जगत्मां श्रहंकारबुद्धिनी संगति ते हिज पुलखंध कर्मरूप बनीने परिणम्यो बे. ॥ २३ ॥
दवे निश्चये जीवनुं श्रकर्त्तापणुं मानीने एना अनुभवमां रेहेतुं तेनुं महात्म्य कदेवे :श्रथ शुद्धानुभव महात्म्य कथनः
॥ सवैया तेईसाः ॥ - जे न करै नयपद विवाद धेरै न विषाद अलीक न जाखै; जे उदवेग तजै घट अंतर, शीतलजाव निरंतर राखै; जे न गुनी गुन नेद बिचारत, श्राकुलता मनकी सब नाखै; ते जगमें धरि श्रातमध्यान अखंडित ज्ञानसुधारस चाखै ॥२५॥
अर्थ:-जेम मिथ्यात्वी लोक पोतपोताना नयनो पक्ष धरीने पोतपोतामां विवाद क रेबे तेम न करतां जे सहज श्रानंदमां रहेबे ने विवाद धरता नथी, ने फूटुं बोल ता नथी, अने दुष्ट ध्यान धरता नथी एटले उद्वेगनो त्याग करेबे; अने हमेश पो ताना हृदयनेविषे शीतल जाव राखेडे, ने एवा शुद्ध श्रात्माना अनुभवमां मले. जेथी आत्मा गुणी बे ने ज्ञानगुण बे, एवो जेने नेद विचार रह्योज नथी, अने वि कल्प के० व्याकुलतानें मनमांथी काढी नाखे, एवा जे शुद्ध अनुभवी थाय, तेज था त्मध्यान धरीने जगत्ने विषे संपूर्ण केवल ज्ञानरूप अमृत रस तेने चाखे ॥ २४ ॥
हवे निश्चय नय की अकर्त्तापणानी स्थापना अने व्यवहार नयवडे कर्त्तापणानी स्थापना प्रमाण करी बतावे बे:- छाथ निश्चय व्यवहारनय प्रमाण स्थापनाः
॥ सवैया इकतीसा ः॥ - विवहार दृष्टिसों विलोकत बंध्योसो दीसे, निहचे निहारत न बांध्यो यह किनही; एक पत्र बंध्यो एक पसों अबंध सदा, दोन पत्र अपने नादि धरे इनही; को कहै समल विमल रूप कोन कहै, चिदानंद तैसोई बखान्यो जैसो जिनही; बंध्यो माने खुल्यो मानै डुहुनको जेद जाने, सोई ज्ञानवंत जीव तत्त्व पायो तिनही. ॥ २५ ॥
अर्थः- चतुर्गतिरूप संसारमां भ्रमण करवानो आत्मानो व्यवहार जोइए तो श्रात्मा कर्त्ताज देखाय ने बंधमां पण जणाय, अने निश्चयनयवडे ज्ञाननोज कर्त्ता ने ज्ञानस्वरूपी जोइये तो एज श्रात्मा कशामां बंधायलो नहीं जणाय; तेथी ए कलो व्यवहार पक्ष ग्रहीये तो श्रात्मा बंधमां बे, ने एकलो निश्चयपद ग्रहीये तो आत्मा सदा अबंध जणाय, एवा बने पक्ष अनादिकालना ग्रहण कीधा बे. कोई व्य वहारनयवालो होय ते जीवने समल कहेबे, ने कोई निश्चयनयवालो होय ते एने विमल कडे. पण जेणे जेवो पोतानी बुद्धिथी चिदानंदने वखाण्यो तेवोज चिदानं बे. हवे जे सम्यग्दृष्टि होय तेतो आत्माने बंधायलो पण माने, अने अबंधपण
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