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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. किरियाको प्रतिपखी है; अंतर सुमति जासी जोगसों जयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुकि नाखी है; निरजै सुजाउ लीनो अनुनौके रस नीनो, कीनो व्यवहार दृष्टि निदचैमें राखी है; नरमकी दोरी तोरी धरमको नयो धोरी, परमसों प्रीति जोरी करमको साखी है॥४॥
अर्थः- संसारने विषे जीव अनादिकालथी श्रझानीज , ते कडेने के शुन अने अशुज कर्मनो कर्त्ता हूंज व क्रियानो प्रतिपदी के कर्मनी क्रियानो पदराखनारो बुं, पढी ज्यारे अंतरमा सुमतिनो नास थयो, अने मन वचन तथा कायाना यो गथी उदास थयो, एटले ए योगने पररूप समज्यो, तथा ए योगनी ममता मटी गई, अने परजाय बुद्धि के मन वचन श्रने कायाना योगनी जे बुद्धि तेनाखी दीधी%B अने अव्यबुद्धि राखीने श्रात्मानो जे निर्जय खजाव , तेनुं ग्रहण की, अने ए स्व जावनो जे अनुभव रस तेमां जीनो के मग्न थई रह्यो, अने सर्व व्यवहारमा प्रवृत्ति करी रह्यो , पण दृष्टिमां का तो निश्चयमां राखी बे, एम करतां नरमनी दोरी तोमी नाखी, एवं बद्मस्थपणुं मूकी दीg, अने श्रामिक धर्म जे पोतानो स्वताव तेनो धोरी के० धरनारो थयो; परम साथे प्रीति जोडी, एटले सिकपदमां प्रीति राखीने मर्मनो साखी थयो; एटले पुजलकर्मने करे तेनो सादी थयो . ॥४॥
शिष्य प्रने के, चेतन तथा अचेतन एकदेत्रमा रहेने, श्रने कर्म करेले, त्यांचे तनने कर्मनो श्रकर्त्ता केम मनाय ? गुरु कहे के, ज्ञानशक्तिवमे अकर्ता मनाय. ते कहेले.-श्रथ नेदज्ञानको सामर्थपनो कथन:
॥सवैया इकतीसाः॥-जैसो जो दरव ताके तैसै गुन परजाय, ताहुसों मिलत में मिले न काहु थानसों; जीव वस्तु चेतन करम जड जाति नेद, अमिल मिलाप ज्यों नितंब जुरे कानसों; एसो सुविवेक जाके हिरदे प्रगट नयो, ताको जम गयो ज्यों तिमिर लग्यो जानसों; सोइ जीव करमको करतासौ दीसे में करता कह्योहै शु कताके परवानसों. ॥५॥
अर्थः-जे जेवं अव्य होय तेना तेवा गुणपर्याय होय , ते तेज अव्यसाथे म ले, पण बीजा व्यसाथे मलता नथी; जेम कोई स्निग्धगुणवडे घृतादिक अव्य पो ताना पर्यायथी स्निग्ध गुणवाला अव्यसाथे मले, पण रुक्ष गुणवालासाथे मले नही; तेम ए जीव वस्तु चेतनजाति डे, श्रने कर्म जे जे ते जमजाति , एवो जातिनेद जे. तेथी चेतन तथा जडने अमिलनता बे, पण काई युक्ति मिलाप नथी. जेम केमना नागनी नीचे पश्चिम प्रदेश नितंब डे, ते उपर रहेला कानसाथे केम मले ? एवो गु णपर्यायनो विवेक जेना हैयामां प्रगट थयो, तेना हैयामां पूर्वनो उपजेलो ब्रम
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