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________________ । श्री समयसारनाटक. ६१५ ॥ सवैया इकतीसा॥-प्रथम अज्ञानी जीव कहै में सदीव एक, इसरो न और मेंही करता करमको; अंतर विवेक श्रायो पापर नेद पायो, नयो बोध गयो मिटी जारत जरमको; जासै बहों दरबके गुण परजाय सब, नासै फुःख लख्यो मुख पूरन प रमको; करमको करतार मान्यो पुजंगल पिंग, थापुं करतार 'नयो श्रातम धरमको. ॥२॥ जाहि समै जीव देहबुद्धिको विकार तजै, वेदत सरूप निज जेदत नरमको; महा परचंड मति मंमन अखंग रस, अनुनौ अन्यास परकासत परमको; ताही समै घटमें न रहै विपरीत नाव, जैसै तम नासे नानु प्रगट धरमको, ऐसी दशा आवै जब साधक कहावै तब, करता व्है कैसै पुजल करमको. ॥३॥ अर्थः- प्रथमथी अज्ञानी जीव जे बे, ते पोताना रूपनी नूलवडे एमज कदे के निरंतर कर्मनो कर्त्ता हूंज बु, बीजो कोई नथी. एरीते जीवनी अपेदा लईने कर्मनो कर्ता बने. पठी ज्यारे घटमां विवेक प्राप्त थाय, त्यारे निजरूपनो नेद समज्यो ए टले बोध थयो, अने भ्रम के मिथ्यात्वनो खेल मटी गयो; ने भ्रम नाश थता बए अव्यना गुण पर्याय श्रात्मानेविषे नासवा लाग्या, कण कण अवस्था नेद ते पर्याय कहीए. अने पूर्ण पुरुष जे जे तेनुं मुख दी, तेणे करीने कर्मनो कर्त्ता पुजलपिक मान्यो. अने पोते अकर्ता थयो भने थात्मिक धर्म जे ज्ञायकता, वेदकता, तथा चे तनता इत्यादिक स्वनावनो हुँ पोते कर्त्ता ९ एम मान्यु, एटखे मर्मनो अकर्ता अने पोताना स्वनावनो कर्ता एम केहेवा लाग्यो. ॥२॥ जे प्रस्तावे जीव , ते श्रेणिनुं थारोहण करे, अप्रमत्तता पामे, देहबुझिनो विकार तजे, एटले बाह्यात्माने पोतापणे जाणवो ए विकार बांडे, ने पोतानुं स्वरूप जुदुंज वेदे, श्रने भ्रमनो नेद करे, घणी तीक्ष्णबुछिनी शोजानो करनार, अने जेनो रस श्र खंम , पूर्ण रसस्वाद , एवो जे शुझात्मानो अनुभव बे तेनो श्रन्यास करी अंते परमात्मानो प्रकाश करे तेज प्रस्तावे घटपिंडमां विपरीत नाव रहे नही, एटले अ हंबुद्धि व जे अकर्त्ताने कर्मनो कर्त्ता करी मान्यो; ए विपरीत नाव हतो ते रहे नही. ते उपर दृष्टांत कहे:-जेम नानुधर्म के सूर्यना तीक्ष्ण तेजना प्रकाशवाथी तम जे अंधकार ते सर्व नाश पामे; तेम एवं। अप्रमत्त दशा ज्यारे प्राप्त थाय, त्यारे ते आत्मस्वनावनो साधक थयो; ते वखत कर्मनो कर्त्ता केम थाय! अने पुद्गलरूपी कर्मने केवी रीते करे! एनो यहीं उपयोग नथी. ॥३॥ हवे यहीं प्रथम श्रात्माने कर्मनो कर्त्ता मानीने पड़ी तेने कर्त्ता मानवो ते झा नना सामर्थ्य वडे बने ते कदेबेः-अथ शानसामर्थ्यवर्णनं: ॥सवैया इकतीसाः॥- जगमें अनादिको अज्ञानी कहै मेरो कर्म, कर्त्ता में याको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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