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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. दिम गने; वस्तु सुनाउ मिटे नहि क्योंही; ताते षेद करे सग्योही ॥४॥ दोहराः॥ मूढ मरम जाने नही, गहे एकांत कुपद; स्याद्वाद सरबंगमें, माने दद प्रत्यद॥५॥ - अर्थः-ब्रह्मतो निराकारज , ते साकार नाम केम धारण करे, जो ब्रह्मने आकार मानीये तो साकार केदूं जोये,ते केम बने, ज्यांसुंधी झेयनो थाकार ज्ञानमा प्रति जासे बे, त्यांसुधी पूर्ण ब्रह्म न केहेवाय ॥३॥ झेय वस्तुनो जे श्राकार के प्रति जासले ते ब्रह्मने मलरूप माने , ते मलनो नाश करवाने उद्यम करे, जे वस्तुनो जेवो व नाव होय तेवोज रहे पण कदी मटे नही, तेथी मूर्खजे शठ लोकजे ते श्रमथो जूगे वेष करे बे ॥४॥ जे मूर्ख बे ते मर्मनी वातने न उलखे ने एकांत पद जे जे कुपदा बे तेनेग्रहे अने जे डाह्यो पुरुष बे, ते स्याहाद मतना श्राश्रयश्री सर्वांगमय प्रत्यक्ष पणे माने, एटले निराकार साकार सर्व नय माने ॥५॥ हवे स्याछादने ग्रहण करनार जेसम्यक्त्वी जे तेनी स्तुति करे :-अथसम्यक्त्व स्तुतिः
॥ दोहराः॥-शुरू दरब अनुजौ करे, शुद्ध दृष्टि घटमांहि; ताते सम्यग्बंत नर, सहज उदक नांहि ॥६॥
अर्थः-सम्यक्त्वीना हृदयमा जे अनुभव , तेज शुद्ध अव्यने शुद्ध करे जे. केमके, हृदयमा वस्तु स्वन्नाव जाणवाथी शुभ दृष्टि बे, तेथी जे सम्यक्त्ववंत पुरुष बे, ते स हज वनावनो उदक थतो नथी, एटले सहज नावनो उद' मानतो नथी॥६॥ दवे परवस्तुमा परमव्यनुं श्रव्यापक पणुं दृष्टांतवडे दृढ करे:
अथ श्रव्यापक अव्य कथन:॥ सवैया इकतीसाः ॥- जैसे चंदकीरन प्रगटि नूमि सेत करे, नूमिसीत होति सदा जोतिसी रहती है; तैसे ज्ञान सकति प्रकासे हेय उपादेय, झेयाकार दीसे पे न ज्ञेयकों गहती है; शुऊ वस्तु शुक परजायरूप परिनमै, सत्ता परवान मांहि ढाहे न ढहती है; सोतो औररूप कबहो न होई सरब था, निहचे अनादि जिनवा नी यों कहती है ॥७॥
अर्थः-जेम शरद्पुनमनी रात्री समे चंजना किरण प्रकाश वमे पृथिने श्वेत रूप करेले, पण ते चंडमानी ज्योति कई पृथ्वी बनती नथी, सदा ज्योतिरूप रहे, तेम ज्ञान शक्ति एवी के जे हेय उपादेय वस्तुने प्रकाशे त्यारे ज्ञान, ज्ञेय वस्तुने आकारे देखाय पण ज्ञेय वस्तुनुं स्वरूप ग्रहण करें नही. केमके, जे शुरू वस्तु ते शुद्ध पर्यायरूप पणेज परिणमे अने जेनी पोतानी सत्ताडे ते जेटलामां वस्तुनु साप पणुं बे, तेटला प्रमाण मांहे शुद्ध पर्यायनेज परिणमे बे, पण ए वस्तुनुं
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