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श्री समयसारनाटक.
७१ए स्वरूप ढांक्युं रहे नही, तेतो शुद्ध वस्तु कोईनी संगतीथी सर्व प्रकारे बीजे रूपे न थाय ए वात निश्चयमांबे, एवी अनादि कालनी जिनवाणी कहे ॥७॥
हवे वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप कहे जेः-अथ यथा स्वरूप कथनः॥ सवैया तेईसाः ॥- राग विरोध उदे तबलों जबलों यह जीव मृषा मग धावे; ज्ञान जग्यो जब चेतनको तब कर्म दशा पररूप कहावे; कर्म विलेन करे धनु जो तब मोह मिथ्यात प्रवेश न पावे; मोह गये उपजे सुख केवल सिझ जयो जगमांहि न आवे ॥७॥ • अर्थः-ज्यांसुधी श्राजीव मिथ्यात्व मार्गमा दोडे , त्यां सुधी राग शेषनो उदय बे, अने तेथी सत्य मार्गने पामतो नथी. ज्यारे शुभ चेतन वस्तुनुं ज्ञान जाग्युं त्यारे तो कर्म दशा जे जे ते पररूप जणाय, श्रने श्रात्मा तेथी जुदो जोवामां आवे. ज्यां चेतननो अनुभव डे त्यां सत्यार्थ पणे जाणवु होय ते कर्मनुं विलक्षण पणुं करे. एटले नेद विज्ञानवमे जिन्न लक्षण पणे जाणे, अने त्यां मोदरूप मिथ्यात्व प्रवेश करी शके नही. मोह गयाथी सुख समाधिमां केवल ज्ञान प्रगटे अने त्यारे जीव सिक थाय अने फरीथी जगत्ने विष श्रावे नही ॥७॥ हवे जेम अनुक्रमे वस्तु स्वरूपने प्रगट पणे स्वजावने वधारे ते कहे:
अथ अनुक्रम वस्तु स्वरूप वर्षमानता कथनं:॥ अपय बंदः॥-जीव करम संयोग, सहज मिथ्यात रूप धर; राग दोष परिनत, प्रजाव जाने न श्रापापर; तम मिथ्यात्व मिटिगयो,नयो समकित उदोन ससि; राग दोष क वस्तु, नाहि लिनु माहि गये नसि; अनुनी अन्यासि सुखराशी रमि, जयो नि पुन तारन तरन, पूरन प्रकाश निहचलि निरखी, बनारसी बंदत चरन ॥ ए॥
अर्थः-श्रनादि कालनो जीवने कर्म साथे संयोग बे. तेथी सहज संबंधे मिथ्यात्व स्थिति रूप धारी जीव बे, श्रने क्यारेक जीव रागमा परिणम्यो रहे, अने क्यारेक केषनी परिणतिना प्रत्नावथी पोताने तथा परने जोणतो नथी. एवामां क्यारेक मिथ्या त्वरूप अंधकार मटी गयो ने समकितरूप चंडमानो प्रकाश थयो तेथी खबर पडीके रागडेष कई वस्तु नथी, एटले जली वस्तु नश्री; एम जाणी एना अनादरथी राग वेष क्षणमां नाश पाम्या अने ते पली पोताना अनुजवनो श्रन्यास कीधो, तेवारे तो सहज समाधिरूप सुखराशिमां रमी रह्यो. एरीते निपुण सर्व ज्ञानी, तरण तारण स मर्थ प्रनु थयो. हवे ए पूर्ण प्रकाश अनंत काल लगी निश्चय थयो तेना ध्यानने नि रखी बनारसीदास ते प्रजुना चरणने नित्य प्रते वंदेडे. ॥ ए॥
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