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श्री समयसारनाटक.
६५१ सर्व तेज धर्म कहे, श्रने नावश्रुत शानने प्रमाण करी वस्तुनो विचार अनुनव करे अने ज्यां वाणीनो स्पर्श नही, एटले जे वचन गोचर नथी, अनदररूपनो अनुभव पोते करे, ए संयोगी गुणस्थानकनी दशा बे. जेनी तुलना नथी एटले अतुल; वली जेनी खंडना नथी माटे अखंड, एवं अचल ने अविनाशी धाम के तेजोमय तेज चिदानंद स्वरूप ; एवं इश्वररूप सम्यग् दर्शननुं स्वरूप कहिये ॥६६॥..
॥इति श्री नाटक समयसारविषे बालाबोधरूप आश्रवहार पंचम संपूर्णः ॥ ॥ दोहा॥- अधिकार श्राश्रवको यह, कह्यो यथावत् जेम; अब संवर वरनन करों, सुनौ नविक धरि प्रेम. ॥ ६॥
अर्थः- ए रीते श्राश्रवनो अधिकार कह्यो; हवे संवरतत्त्व- वर्णन करूं; अहो ! जविक के जव्य प्राणी ! प्रेम धरीने ते सांजलो. ॥ ६ ॥
हवे संवरनु आदि ज्ञानवस्तु तेने नमस्कार करेः- अथ शान वर्णनं:॥ सवैया इकतीसाः॥-श्रातमको अहित अध्यातमरहित ऐसो, श्राश्रव महातम अखंग अंडवत है; ताको विसतार गिविबेकों परगट नयो, ब्रहमंगको विकासी ब्रह मंगवत है; जामें सवरूप जो सबमें सवरूपसो में सबनि सों अलिप्त अकाशखंमवत है; सौ है शान नानु शुक संबरको नेष धरे, ताकी रुचि रेखको श्रमारे दंडवत है।दना
अर्थः- श्रात्मानुं श्रहित करता थने अध्यात्मखरूपथी रहित एवं श्राश्रवरूप म हातम के महा अंधकार अखंगपणे अंडवत के सर्व लोकने ढांकी रह्यो , तेनो विस्तार गलवाने जे ज्ञानसूर्य प्रगट थयो ते ब्रह्मांड जेवो सर्व लोकालोकने विकाश नो करनारो थयो, श्रने ब्रह्मांडनुं मंडन जेथकी थाय बे,अने जेने विषे सर्वरूप नासे ने अने जे सर्वरूपे सर्वमां पामिये बियें अने जे सर्व मूर्तिक वस्तुथी श्राकाशखंडनी परे अलिप्त बे; ते ज्ञानरूपी सूर्य तथा जे शुरू संवरनो नेष धरी रह्या बे; तेनी रुचि रेखाने एटले तेना जदयने श्रमारो दमवत् के० नमस्कार बे. ॥६॥
हवे जम चेतनना नेद शान थकीज संवररूपी परमात्माने जेलखाय बे, ते सम जावे बे:- अथ नेदज्ञान महिमा कथन:
॥ सवैया तेश्साः॥-शुफ सुबेद अनेद अबाधित, नेद विज्ञान सु तीन बारा; अं तर नेद सुनाउ विनाव, करे जम चेतनरूप उफारा; सो जिन्के उरमें उपज्यो न रुचै तिन्हको परसंग सहारा; श्रातमको अनुन्नौ करि ते हरखे परखे परमातम धारा॥६॥
अर्थः-शुकपणे स्वछेद के० पोतपोताना न्यारा स्वरूपने बतावनार,अनेद के एक स्वरूप अबाधित एटले कोई प्रमाणांतरे अखंमित एवं नेदज्ञान ते तीक्ष्ण सुलाख बे, ते सुलाखथी अंतरात्मामां नेदन करीने स्वनाव थने विनावने जुदा जुदा करे, ने ज
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