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________________ ६४० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. ॥दोहा॥-यह निचोर या ग्रंथको, कहै परम रस पोष; तजै शुधनय बंध है, गहै शुद्धनय मोष ॥ ६४ ॥ ___ अर्थः-श्रा समयसारग्रंथर्नु रहस्य एज ने अने एज उत्कृष्ट रसनो पोषकडे के जे शुद्धतानी नय रीति गंडी तो बंध ने अने शुहतानी नयरीति ग्रही तो मोद ॥६॥ हवे बे नयनेविषे जीवनो विलास कही बतावे बेः-अथ जीव विलास वर्ननं: ॥ सवैया इकतीसाः॥-करमके चक्रमें फिरत जगवासी जीव, व्है रह्यो बहिर में ख व्यापत विषमता; अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुजलसों प्रीति टूटी बूटी माया ममता; सुद्ध नै निवास कीन्हो अनुनौ अन्यास लीन्हो, ब्रमनाव बां मिदीनो जिनो चित्त समता, अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलंबी अवलोके राम रमता ॥६५॥ अर्थः-चौदराजलोकमां कर्मनुं चक्र के कटक फरी रह्यं बे, तेमां जगतवासी जीव पण फरी रह्यो , श्रने ए फरवामां जीव विषमताए युक्त थयो थको क्यारे श्ष्ट संयोगी ने क्यारे थनिष्ट संयोगी थई ने तेमा बहिर्मुख थई रह्यो, एटले बाह्य विषय जोगनोज ग्राहक थयो, श्रने अंतरदृष्ठिथकी थात्मा न जाएयो, एटलामां अंतर्ने विषे सुमति उपजी, तेणे करीने पोतानी निर्मल प्रजुताने पाम्यो, त्यारे परव स्तु जे पुजल तेनी प्रीति तटी. एटला कालसुधी पुजलनी माया ममता जे नहीं बुटी हती ते बुटी. जेम शुद्धनयवडे श्रात्मानुं स्वरूप कडं, तेवा शुधनयमा पोते नि वास कीधो, श्रने यात्मस्वरूपमा उपयोग राखीने अनुजवनो अन्यास लीधो, एथी ब्रमन्नावनो त्याग थयो, अने मन जे जे ते समाधिने विषे लीन थयु, त्यारथी अनादि अनंत कालसुधी जे स्वरूपमा कं वीजा विकल्प न पामिये एवं पोतानुं अचल पद श्रवलंबीने पोतानुं जे रमतारामपणु तेने अवलोके ॥६५॥ हवे आत्मानुं शुद्धपणु सम्यग् दर्शन , तेनी प्रशंसा करे बेः-अथसम्यक्त्वप्रशंसाः ॥ सवैया श्कतीसाः॥- जाके परगासमें न दीसे राग दोष मोह, आश्रव मिटत न हि बंधको तरस है; तिहुँ काल जामें प्रतिबिंबित अनंतरूप, थापु हु अनंत सत्ता नं ततें सरस है; नावश्रुत शान परवान जो विचारि वस्तु, अनुलो करे जहां न बानीको परस है; अतुल अखंम अविचल विनासी धाम, चिदानंद नाम ए सो सम्यक दरस है अर्थः-जे शुकथात्माना प्रकाशमां राग, वेष, मोह न देखाय, थने आश्रव न होय तेमां बंधनो तरस के लागवं ते पण न होय, अने जे शुरु आत्माना प्रकाशमांत्रणे काले अनंतरूप प्रतिबिंबित थाय बे; अने निजस्वरूप पण अनंत बे, अने सत्तानंत मां सरस बे, ते सत्तास्वरूपी अनंत पदार्थ बे, तेथी सरस , एटले जेना अनंतपर्याय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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