SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४२ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. डरूप तथा चेतनरूपने डुफार के० न्यारा करी बतावे, एवं नेदज्ञान जेना रुदयने विषे उपज्युं बे, तेज जीवने परवस्तुनो संग ते सहारा के० रुचे नही. अने तेज जीव पो ताना स्वरूपनो अनुज करी यथार्थपणे अंतरात्माने विषे जे परमात्मानी धारावे तेनेपारखे. हवे दविज्ञान जे बे, ते सम्यग् ज्ञान बे, तेनी समर्थाइ थकी स्वरूपनी प्राप्ति थाय बे; ते कवेः - छाथ सम्यक्त्व सामर्थ्य कथनः ॥ सवैया तेइसाः॥ - जो कबहु यह जीव पदारथ, औसर पाइ मिथ्यात मिटावै; स म्यक धार प्रवाह व गुन, ज्ञान उदे मुख ऊरध धावै; तो अनिांतर दर्वित जावित कर्म किलेश प्रवेश न पावै; प्रतम साधि अध्यातमको पथ पूरण व्है परब्रह्मकावै ॥ ७० ॥ अर्थः- जो कोई या जीव पदार्थ बे ते यथाप्रवृत्ति करणरूप अवसर पामीने मि ध्यात्वग्रंथि नेदीने मिथ्यात्वने मिटावे; शुद्ध सम्यक् श्रने स्वरूप जलधारानो प्रवाद a ने ज्ञानगुणना उदय वडे ऊर्ध्व मुख थईने मुक्ति सन्मुख दोने, त्यारे अन्यंतर जे प्रति कर्म ने जावित कर्म तेना क्लेशनो प्रवेश ते न थाय. जे प्रकृति प्रदेशरूप कर्मति कर्म अने राग द्वेषादिक ते जावित कर्म ए बने प्रवेश नही करी शके अने अध्यात्मना पंथ सेलीमां श्रावीने श्रात्माने साधीने पोताना रूपमा पूर्ण थईने परब्रह्म कवाय. ॥ ७० ॥ दवे संवरनुं कारण सम्यग्दृष्टिबे, तेनो महिमा कहे बेः :- सम्यग् दृष्टि महिमा:॥ सवैया तेइसाः ॥ - नेद मिथ्यात सु वेद महारस, नेद विज्ञान कला जिन पाई; जो अपनी महिमा अवधारत, त्याग करे उरसों ज पराई; उद्धतरीति वसे जिनके घट, हो तु निरंतर ज्योति सवाई; ते मतिमान सुवर्ण समान लगे तिनकों न शुभाशुभ काई ॥ ७१ ॥ अर्थः- मिथ्यात्वग्रंथि नेदीने तथा उपशमरूप महारस वेदीने जे बुद्धिवं नेद वि ज्ञाननी कला पामी बे, अने जे ए नेदविज्ञान व पोताना स्वरूपनी प्राप्ति करीने पोताना ज्ञान, दर्शन चारित्ररूप महिमाने अवधारे, जर के० हैया थकी पराई सोज के० सामग्री तेनो त्याग करे ने जेना घटमां उद्धतरीति के० देशविरति तथा सर्व विरतिनी रीत फुरी अने निरंतर तप थकी जेनी सवाई ज्योति थाय बे, तेने बुद्धिमा नू कहिये, ते सुवर्णसमान बे. तेमने शुभाशुभ कर्मरूप काट लागी शकतो नथी ॥ १ ॥ हवे संवरनुं मूल नेद विज्ञान बे; ते मोदनुं कारण कही समजावे :श्रथ नेदज्ञान महिमा कथन: ॥ मिल बंदः ॥ - नेदज्ञान संवर निदान निरदोष है; संवरसो निरजरा श्रनुक्रम मोष नेदज्ञान शिवमूल जगतमहि मानिये, यदपि देय है तदपि उपादेय जानिये ॥ ७२ ॥ अर्थः- नेदज्ञान जे बे ते निर्दोष संवरनुं निदान के० मूलकारण वे श्रने निर्जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy