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प्रकरणरत्नाकर जाग पड़ेलो.
कति के तत्त्वदृष्टि उपजे नही, ने पोते अनाथ थईने पोताना नाथना पदने जजे, ते पोतानुं निश्चयरूप जाण्याविना मुक्ति क्यांथी याय ? ॥ ए ॥
॥ दोहा ॥ - प्रभु समरो पूजो पढो, करो विविध विवहार; मोक्ष सरूपी श्रातमा; ज्ञानगम्य निरधार ॥ २०० ॥
अर्थः- प्रजुने समरो, जावे पूजो, ने जावसहित पढो इत्यादि व्यवहार करो प मोक्ष स्वरूपी श्रात्मा तेतो निरधार के० निश्चय ज्ञान गम्य ते ॥ २०० ॥
हवे निश्चय स्वरूपने विषे ज्ञान पर्याय रूपी अर्थनुं निरूपण करे:err पर्यायार्थ निरूपणंः
शिवपंथ न सूजै ॥ १॥
॥ सवैया तेइसाः ॥ - काज विना न करे जिय उद्यम, लाज विना रनमांहि न जुं जै; डील विना न सधै परमारथ, सील विना सतसो न अरूकै; नेम विना न लहे नि हुचे पद, प्रेमविना रस रीति न बूफै; ध्यान विना न थने मनकी गति, ज्ञान विना अर्थः- हीं अतर बतावे वे के. जेम जीव पोताना काम विना उद्यम करतो नथी; जेम लाज विना रणसंग्रामने विषे कुऊतो नथी; वली जेम देह धस्याविना पर मार्थ यतो नथी; ने शील धारण कीधाविना सत्व साथे मलातुं नथी; वली नियम या शिवाय निश्चय पद मलतुं नथी, ने जेम प्रेमनी प्रीत विना रसरीत जाती नथी, तथा ध्यान विना मननी गति योजाती नथी, तेम ज्ञानविना शिवपथ के० मु क्तिमार्ग ते सूजतो नथी. ॥ १ ॥
हवे ज्ञानवंतनो महिमा देखामी ने तेनी व्यवस्था कहेबे :ज्ञानमहिमा धारक व्यवस्था कथनं:--
॥ सवैया तेईसाः॥ ज्ञान उदै जिनके घट अंतर, ज्योति जगी मति होति न मै ली; वा हिज दृष्टि मिटी जिन्हके हिय, यातम ध्यान कला विधि फैली; जे जड चेत न जिन्न लखै सु विवेक लिये परखे गुन थैली; ते जगमें परमारथ जानि गहै रुचि मानि अध्यातम सैली ॥ २ ॥
अर्थः- जेना हृदयने विषे ज्ञाननो उदय थवाथी पोतानी ज्योति जागृत थईने तेथ मति जे बुद्धि ते उज्वल थई पण मेली नथी; अने पोताना बाह्य शरीरने आत्मा करी माने व बाह्य दृष्टि ते मटी गई, छाने हृदयनेविषे श्रात्मध्याननी कला तेनी विधि जे यमनियमादिक ते विधि फेली एटले पसरी, ते वखतथी जड चेतनने जिन्न जिन्न लखे, ने पोतानो विवेक के० नेदविज्ञान तेणे करी पोताना गुणनी थेली पार
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