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श्री समयसारनाटक.
६५३ खी लीधी. एवा जे जीव तेज जगत्मा परमार्थने जाणी तेने रुचिये करी ग्रहण करे. ए रीते अध्यात्मशैली मान्य करीने परमार्थने जाणे, ॥२॥
हवे मोदनी समग्र प्राप्ति देखामेजेः- श्रथ मोक्षप्राप्ति कथन:॥ दोहाः ॥- बहु विधि क्रिया कलेससों, शिवपद लहै न कोश, ज्ञान कला परका शसों, सहज मोद पद हो. ॥३॥ ज्ञान कला घट घट वसे, योग युगतिके पार; निज निज कला उदोत करि, मुक्त हो संसार. ॥४॥
अर्थः-नात नातनी क्रियाने निमित्ते क्लेश करवो, तेथी मोक्षपद मले नही. पण झानकलानो प्रकाश थवाथी सेहेज मोदपद थाय. ॥ ३॥ ज्ञानकला तो घट घटने विषे वसी रहेली बे, पण मन वचन अने कायाना योगनी युक्तिश्री पार रहेली बे, माटे पोत पोतानी कलाने प्रकाश करवाथी संसारथ। मुक्त थवाय , एवो सर्वेने सक रुनो श्राशीर्वाद . ॥४॥ हवे मुक्तपणुं अनुन्नव थकी थायडे माटे अनुजवनी प्रशंसा करे:
श्रथ अनुनव प्रशंसाः॥ कुंमलिया बंदः।- अनुभव चिंतामनिरतन, जाके हिय परगास; सो पुनीत शि वपद लहै, दहै चतुर्गतिवास; दहै चतुर्गतिवास श्रास धरि क्रिया नमंडै, नुतन बंध निरोध, पूर्वकृत कर्म विहंडे; ताके न गनु विकार, नगनु बहु नार न गनु जौ, जाके हिर देमांहि रतनचिंतामनि अनुनौ ॥५॥ __ अर्थः- अनुनवरूपीचिंतामणिरत्न जेना हृदयनेविषे प्रकाशमान थई रह्यु, ते जीव पुनीत के पवित्र थईने शिवपदने पामे, ने चतुर्गतिनो जे वास तेने दहन करेने; एटले देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंच्गति ने नरकगति ए चारे गतिना वासने बाली नाखेने अनुनवी जननी रीत ए के ते आशा धरीने क्रिया मांडे नही. नुतन बंध के नवा कर्मना बंधने निरोधीने संवर धारण करे, तथा पूर्वकृत कर्मने विहंमी ना खीने तेनी निर्जरा करे, तेना विकारने अहो! नव्य जीव ! तुं गणोश नहीं; अने तेना अतिजारने तुं गणीश नही, अने तेना जयने पण गणोश नही, जेना हृदयमां अनुन्न वरूपी चिंतामणिरत्न प्रकाशी रडं ॥५॥ हवे अनुनवीनी ज्ञानदृष्टिनुं सामर्थ्य वखाणे:-अथ शानदृष्टि सामर्थ्य कथन:
॥ सवैया श्कतीसाः॥- जिनके हियेमें सत्य सूरज उदोत जयो, फेलिमति किरन मिथ्यात तम नष्ट है; जिनकी सुदृष्टिमें न परचै विषमतासों, समतासों प्रीति ममतासों लष्ट पुष्ट है; जिन्हके कटाबमें सहज मोक्ष पथ सधै, साधन निरोध जाके तनको न कष्ट है: तिन्हिकों करमकी किलोल यह है समाधि, मोले यह जोगासन बोले यह मष्ट है॥६॥
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