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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो.
एवा मूल चार भेद समकितना थया. वली क्षयोपशमना त्रण नेद, वेदकना चार द छाने कायकनो एक जेद, उपशमनो एक नेद, ए सर्व मली उत्तर भेद थाय. ॥ २२ ॥
सम कितना नव
वे निश्चयादिक सम्यक्त्वनी व्यवस्था कहेतेः - श्रथ निश्चे
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व्यवहार सामान्य विशेष:
|| सोरठा || अब हिचे विवहार, अरु सामान्य विशेष विधि; कहीं च्यारि परका रि, रचना समकित भूमिकी ॥ २३ ॥ सवैया इकतीसाः ॥ मिथ्या मति गंवि नेद जगी निरमल ज्योति, जोगसों अतीत सोहे हिचे प्रवानिये; वहे हुँद दसासों क हावे जोग मुद्रा धरे, मति श्रुति ज्ञान नेद विवहार मानिये; चेतना चिह्न पहि चान पर वेदे, पौरुष अलप ताते समान बखानिये, करे जेदाने की विचार विस ताररूप देय गेय उपादेयसों विशेष जानिये ॥ २४ ॥ सोरठाः ॥ - थिति सागर तेती स, अंतर मुहुरत एक वा अविरति समकिति रीस, यह चतुर्थ गुन थान इति ॥ २५॥ अर्थ:-- हवे निश्चयथी अने व्यवहारथी सामान्य विशेषपणो कहेबे सम्यक्त्वनी नू मिनी चार प्रकारनी रचना बे ते कहेबे ॥ २३ ॥ प्रथम मिथ्यात्व ग्रंथी नेदिने जे श्रा त्मानी निर्मल ज्योति जागी बे ने जे ज्योति मन, वचन, कायाना जोगथी अ तीत बे तो सम्यक्त्व निश्चयनयथी प्रमाण करीए. वीजुं ते सम्यक्त्व द्वंद्व दशाथी व र्तमान थाय बे, एटले बहु विकल्पथी धामधुम दशाथी वर्त्ते बे. त्यारे तो एवं कहे वाय बे के ए जोग मुद्रा धारी के, या मतिज्ञानी बे, आ श्रुत ज्ञानी बे. एवा नेद व्यवहारनयथी मानिये बे. त्रीजुं ए आत्माना चेतनारूप चिन्ह के० लक्षण जाणीने आत्म द्रव्य अने परद्रव्यने वेदे बे. परंतु अंतरायना उदयश्री पुरुष पराक्रमप बे, एटले अविरति . तेथी ए सामान्यपणे सम्यक्त्व कहीए. चोथुं गुण अने गुणिनो
दाभेद विचार विस्ताररूप करे० जेम आत्मा गुणिबे; ज्ञानादिक गुण बे. तेना भेदानेदनो विचार करवो, एवा देय, ज्ञेय, उपादेयनो विचार राखवो. विशेषपणे सम्यक्त्व जाणि ॥ २४ ॥ विरति सम्यक्त्वनी उत्कृष्टि तेत्रीस सागरोपम स्थिति अथवा ज धन्यथी एक तर मुहूत्र्त्तनी स्थिति होय. अविरति सम्यक्त्वनी रहस्य मर्यादा ए वे प्रकारे होय, ए चोथुं गुणस्थानक समाप्त थयुं ॥ २५ ॥
वे पांचमां गुणस्थानकना विवरणनो आरंभ करे:--अथ पंचमगुनथानक श्रारंज. ॥ दोहा ॥ -- बरनो इकवीस गुन, अरु बावीस अजय; जिन्हके संग्रह त्या गसों, सोहे श्रावक पप्य ॥ २६ ॥
अर्थः- तेमां प्रथम पांचमा गुणस्थानक लायक श्रावकना एकवीस गुण कहुंडं.
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