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श्री समयसारनाटक. थ्यात्व मोहनीय ए पांच प्रकृति दय गई, अने बे उपशमी , तेने पण दयोपशम सम्यक्त्व कहीए; अथवा मिश्र मोहनीय लगण उ प्रकृति दय गई, अनेसातमी उपश मावी , तोपण क्षयोपशम सम्यक्त्व कहीए; एत्रण प्रकारे क्षयोपशम सम्यक्त्व थाय. हवे दयोपशम सहित सम्यत्क्व मोहनीय वेदवाथी जे दयोपशम वेदक नीपजे डे, तेना
बे प्रकार बेः-श्रथ क्षयोपशम वेदक हिक यथा कथनः॥ दोहराः ॥-जहां चारि प्रकारती विपहिं, के उपसम श्क वेद; षय उपसम वेद क दशा, तासु प्रथम यह नेद. ॥ १७ ॥ पंच पिपे इक उपसमै, श्क वेदे जिहि गैर, सो षयजपसम वेदकी, दशा पुतिय यह र ॥ १॥
अर्थः-ज्यां अनंतानुबंधी चार प्रकृति दय थाय बे; अने मिथ्यात्व श्रने मिश्र ए बेन प्रकृति उपशमेने, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदेडे, श्रावी दशामा जे दयो पशम सहित वेदक समकित थयुंजे, तेनो श्रा प्रथम नेद बे.॥ १७ ॥ वली ज्यां चार अनंतानुबंधी अने मिथ्यात्व मोहनीय ए पांच प्रकृति खपीने, अने एक मिश्र मोहनीय उपशमी बे, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदे बे, त्यारे दयोपशम सहित वेदक समकितनी था बीजी दशा थई. ॥ १॥ हवे जे दायिक सहित वेदकडे, श्रने उपशमसहित वेदक डे, तेनो प्रकार कहे :
अथ दायक वेदक उपशम वेदक यथा कथनः॥ दोहरा ॥-षय षट वेदे एक- जो, व्यायक वेदक सोश, षट उपसम श्क प्रक ति विद, उपसम वेदक हो. ॥ २० ॥ खायक उपसमकी दशा, पूव षट पदमांहि, कही प्रगट अब पुनरुकति, कारन बरनी नाहि.॥१॥
अर्थः-ज्यांचारे अनंतानुवंधि भने मिथ्यात मोहनीय श्रने मिश्रमोहनीय ए प्रकृति खपी ने, थने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदेबे, त्यारे दायिक वेदक सम्यक्त्व कहिये; अने ए जे पूर्वे न प्रकृति कही ते जेणे उपशमावी बे, अने एक सम्यक्त्व मोहनीय वेदे , त्यारे उपशम वेदक सम्यक्त्व कहिये. ॥ २० ॥ क्षयोपशम नामे जे सम्यक्त्व कहीए, तेनी दशा तो पाबला षट्पद के उपय बंदमा कही , तेमां ए सातमां के ईक उपशम करी राखे, एवं प्रगट कहेलुं . तेथी श्रांहि फरी कहेवायाथी पुनरुक्ति दोष लागे ते कारणथी फरी वरणवी नथी. ॥१॥ हवे सम्यत्वना मूल नेद चार थने उत्तर नेद नव डे ते कहेजेः-अथ नेद विवरनः
॥ दोहराः ॥-षय उपसम वेदक विपक, उपसम समकित च्यारि; तीन च्यारि श्क इक मिलत, सब नव नेद विसारि. ॥ ॥
अर्थ:-क्षयोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, दायक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व,
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