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________________ श्री समयसारनाटक. एन् तिांतर जगति है; कबहों दया व्दै चित्त करत दयालरूप, कबहों सुलालसा व्है लोच न लगति है; कबड़ों कि धारती व्है प्रभु सन्मुख खावै, कबहों सु जारती व्है बाहरि बगति है; धरै दसा जैसी तब करै रीतितैसी एसी, हिरदे हमारे जगवंतकी जगति है ॥ १४॥ अर्थः- :- श्रमारा हृदयमां जगवंतनी जक्ति रहीबे, ते क्यारेकतो सुमतिरूप थईने कुमतिनो नाश करेबे, क्यारेक अंतर विषे ते जक्ति विमल ज्योतिरूप थईने जागृत थायडे, अर्थात् सम्यक्त्व-चेतना तेज जगवंतनी नक्ति बे; क्यारेक तेज जति दयारू पथईने चित्तने दयारूप करेबे, अने क्यारेक ते जक्ति पोताना श्रात्मईश्वरने जो वानी लालसा के० लगन थकी, एटले लयलागवामां, लोचनोने स्थिर करे. अने क्यारेक तो ते नक्ति चारति के प्रति रंगेकरी प्रभु सन्मुख थई रेहेबे ( बीजे रथे प्रभु सन्मुख रति करेबे ते ) अने क्यारेक तो ते जक्ति सुजारती के० नली वाणीरूप यईने बाहार बगति के० शब्द करी रहेबे. जेवी जेवी दशा धारेवे ते वारे तेवी तेवी रीतनी करनारी बे, ते एवी जगवंतनी नक्ति श्रमारा हृदयमां वसी रही थी या नाटकग्रंथ रचनारूप कार्यमां पण एक जगवंतनी नक्तिज कारण a. तात्पर्यार्थ बे ॥ १४ ॥ वे या ग्रंथनो महीमा वर्णवेडे. अथ नाटक वर्णन: ॥ सवैया इकतीसा ः॥ - मोख चलबेकों सोन करमको करै बोन, जाको रस जौन बुध लौन ज्यों घुलति है; गुनको गरंथ निरगुनको सुगम पंथ, जाको जस कहत सुरेश अ कुलित है; याही के जु पढी सो उडत ज्ञान गगनमें, याही के विपछी जन जालमें रुलत है; दाटकसो विमल विराटकसो बिसतार, नाटक सुनत दीय फाटक खुलत है || १५|| अर्थः- जेम जला सुकनवमे कार्य सिद्धि थायडे, तेम या ग्रंथपण मोक्षमार्गे चाल नारने कार्यसिद्धि करनार बे; तथा या ग्रंथ कर्मरूप केफनी जाल काढवाने वमन करवानुं षध बे; अने जैन ग्रंथनो रस बे ते रस जौन के० पामिने तेमां पंमित लोक लौनी परे गर्क यईरह्या बे. वली जेमां गुणजे ज्ञान दर्शन चारित्र तेनी ग्रंथ के० रचनावे; परमतिनी अपेक्षाये निर्गुण जे मोक्षपद तेनो सुगम पंथ बे. ते निर्गुण कवो बे, जेनो यश अक्षय सुख बे; जेने कद्देवाने इंड पण कलायबे छाने या ग्रं नो जेणे पक्ष लीधो बे, ते तो या ग्रंथरूप पांखना प्रजावथी ज्ञानरूप आकाशमां पक्षीनी परे उडी रह्याबे ने जे श्र ग्रंथना विपदि बे ते पांखरहित पक्षीनी परे जगत्रूप पाराधिनी जालमां रुली रह्यावे; तेमाटे या नाटकनाम ग्रंथ ते हाटक ए टले सुवर्णसमान बे; अने जेम गीता ग्रंथमां श्रीकृष्णे वैराटरूप महोटा विस्तारे करी ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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