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पन्त
श्रीसमयसार नाटक. नासनमां कठोर त्रण स्पर्शथी थरहरे नही, मेलनी पुगंध बे, तेनी उगंछा न करे, रोगनी वेदना सहे पण तेनो इलाज न करे, एवा मुनिराज होय ते वेदनीय कर्मना उदयथी ए ग्यार परिषद उपजे ने तेने सहे . ॥ ५ ॥
॥ कुंमलीयाः ॥ एते संकट मुनि सहे, चारित मोह उदोत; लजा संकुच उषध रे, नगन दिगंबर होत; नगन दिगंबर होत, श्रोत रति स्वाद न सेवे; त्रियसनमुख दृग रोकि, मान अपमान न बेवे; थिर है निर्नय रहे सहे कुवचन जग चेते; नितुक पद संग्रहे, लहे मुनि संकट एते. ॥ए ॥ दोहराः ॥-थल्प ज्ञान लघुता लखे, मति उतकरष विलोश, ज्ञानाबरन उदोत मुनि; सहे परीसह दोश् ॥ ६० ॥ सहे अदरसन पुरदसा, दरसन मोह उदोत: रोकेजमंग अलाजकी, अंतरायके होत. ॥६१॥
अर्थः-हवे चारित्र मोहनीयना उदय थवाथी मुनिराज संकट सहे. ते संकटनी गणतरी कहे. नगन दिगंबर थई जे लजाथी संकोच पुःख उपजे जे तेने धरे. एटले संकटथी न जागे १, वली नगन दिगंबर थक्ष श्रोत के० इंडीयना रति स्वादने न सेवे,२, स्त्रीना हाव नावथी चुके नही ३, कोश सत्कार करे कोश् सत्कार न करे तेउपर विषम नाव लावे नही ४, कोइ जयश्री नागे नही स्थिर रहे निर्नय रहे ५, जगत्मा जे कंश कुवचन , थाक्रोशनां वचन देते सर्व सहन करे ६,निदा ग्रहणथी निकुक पद संग्रहे पण ते संकटथी नाजे नही, ए सात संकट चारित्र मोहनीयना उदयथी मुनि लहे ते सहन करे ॥५ए॥ हवे नएयाविना अल्पज्ञानथी सर्वमा पोतानी लघुता थाय ते सहन करे; पोतानी मतिना उत्कर्षथी उत्कृष्टपणुं जोश्ने गुरुता सहे २, एम ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय थातां श्रज्ञान परिषह श्रने प्रज्ञापरिषह एबे परिषह उपजे बे ते सहन करे ॥ ६० ॥ दर्शन मोहनीयना उदय थवाथी स म्यग् दर्शननी मलिनता उपजे, तेनी पुष्ट दशा सम्यग् दर्शनधी न जागे, अंतराय क मनो उदय थवाथी जे लाजनो उमंग रोकी रहे तेथी अलाजने सहन करे. ए बा वीस परिसह कह्या ॥१॥
हवे जे कर्मथी जे परिसह उपजे ते कहे . अथ बावीस परिषद विबरननः
॥ सवैया इकतीसाः।-एकादश वेदनीकी चारित मोहकी सात, ज्ञानाबरनीकी दोश एक अंतरायकी; दंसन मोदकी एक छाविंसति बाधा सब, केई मनसाकी केश बाकी केई कायकी; काहुकों अलप काढूसों बहोत उनी साता, एकहीं समेमें उदे श्रावे असहायकी; चर्याथित सजामांहि एक सीत उनमाहि, एक दोहोहि तीनि नांही समुदायकी ॥ ६ ॥ ॥दोहराः॥-नानाविधसंकटदशा, सहिसाधे शिवपंथ, थिविरकल्प जिन कल्पधर, दोऊ सम निगरंथ ॥ ३ ॥
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