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प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो.
प्रकाशवंत सत्ता विचारिये तो पोतानी सत्ता प्रमाण आत्मा होय; ते जीव वस्तु साध्य बे. जे जहांन के० जगतने जाणे, जे महोटो कौतुकी पुरुष बे, जेनी कीर्त्ति कथा अनादि अनंत काल लगी एवीज चालती यावेळे ॥ ६७ ॥
हवे साध्यरूप केवल दशानुं वर्णन करे बे:- छाथ केवल दशा वर्नन:
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - पंच परकार ज्ञानावरनको नास करि, प्रगटी प्रसिद्ध ज मांहि जगमगी है; ज्ञायक प्रजामे नाना ज्ञेय की व्यवस्था धरि, अनेक नई पे ए कता रसपी हैं; याही जांति रहेगो अनंत काल परजंत, अनंत शकति फोरि नंत सों लगी है; नरदेह देवलमे केवलमे सरूप सुद्ध, ऐसी ज्ञान ज्योतिकी सिषा समाधि जागी है ॥ ६८ ॥
अर्थः- मतिज्ञानावरणीय प्रमुख पांच प्रकारना ज्ञानावरणीय कर्मनो नाश करीने प्रसिद्ध के० प्रत्यक्षपणे प्रगटी एवी जे ज्ञान ज्योतिनी सिषा जगत्मां जगमगी रही बे. ते ज्ञान ज्योतिनि शिषा पोतानी ज्ञायकपणारूप प्रजामां नाना प्रकारना यी अवस्था धरीने अनेक रूप थई बे, तेपण झायक पणानी जे एकता बे तेना रथी मली रही बे. तेज रीते अनंत काल पर्यंत रहेशे. छाने अनंत वीर्य फोर वीने अनंत पदथी लागी रहेशे. ज्यारे मनुष्यना देहरूप देवलमां शुद्ध केवल ज्ञान स्वरूपे एवी ज्ञान ज्योतिनी सिखा जेवी समाधि बे, ते जागृत यई एटले सर्व विषमता जाव मटि गयो ॥ ६० ॥
हवे अमृतचंद श्राचार्य बे ते चंद्रमा बे. अने तेनी कलारूपि ऋण धारा बे, तेनुं जुदा जुदा थी वर्णन करे बेः - श्रथ अमृत चंद्र कलाके तीन अर्थ कथन:
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - श्रर अरथमे मगन रहे सदा काल, महा सुख देवा जै सी सेवा काम गविकी; श्रमल अबाधित लष गुन गावना है, पावना परम शुद्ध जावना है जविकी, मिथ्यात तिमर अपहार वर्द्धमान धारा, जैसी उने जामलों कि रन दीपे रविकी; ऐसी है अमृत चंदकला त्रिधारूप धरे, अनुजो दशा गरंथ टीका बुद्धि कविकी || ६ || दोहराः ॥ - नाम साधि साधक कह्यो, द्वार द्वादशम ठीक, समय सार नाटक सकल, पूरन जयो सटीक ॥ ७० ॥
अर्थ :- अमृतचंद्रनी अनुजव दशारूप कला बे, तेतो अक्षर अर्थमां के० मोक्ष प दार्थमां सदाकाल मन रहे बे, अने जेवी कामधेनुनी सेवा सुखदायक थाय तेवी सुखदायक बे; अने अमृतचंद्रजी ग्रंथ टीकारूप कला बे तेज पाबला वर्णने करी यु बे, अमृतचंद्र कविनी बुद्धि बे, तेतो अक्षर अर्थ के० शब्दार्थ तेमां मग्न रहे बे. गल वीजुं वर्णन पूर्वली रीते जेम अमृतचंद्रनी अनुभव दशानी कला अने
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